सोमवार, नवंबर 29, 2010
सरोकारों की पत्रकारिता की गुंजाइश
वर्तमान पत्रकारिता जगत की स्थितियां चाहे जैसी भी हो। सरोकारों की पत्रकारिता करने की पूरी गुंजाइश है। प्रबंधन भले ही बाजार के दवाब में कुछ क्षेत्रों में अंकुश लगा दे। पर दूसरे क्षेत्र में अवसर का खुला मैदान भी होता है। बस, सरोकारों की पत्रकारिता करने का बेचैनी बना रहे। यह बेचैनी कही न कहीं आग जरूर लगा देगी।
शुक्रवार, नवंबर 26, 2010
नया अखबार
ऐसा हमेशा होता है जब कोई नया अखबार आता है तो किसी बड़े पत्रकार को बुला लिया जाता है। कोई भी नया अखबार तुरंत नहीं जमता। बाद में निवेश करने वाले और मालिक तुरंत उसका प्रभाव और लाभ चाहते हैं। तब उन्हें लगता है कि जो लोग उनके यहां कार्य कर रहे हैं, वे अच्छे नहीं हैं। जबकि नये अखबार से साथ जुड़े पत्रकार सबसे ज्यादा मेहनत करते हैं। मालिकों की उनकी मेहनत नजर नहीं आती है। जब मेहनत की फसल आती है तो काटने वाले कोई और चले आते हैं। नये पत्रकारों को सिखने के लिए अखबार के लॉचिंग के समय जरूर जुड़ना चाहिए। लेकिन पुराने पत्रकारों ऐसे मौके को मजबूरी में ही भुनाना चाहिए। भड़ास की खबर है। मधुकर उपाध्याय आज समाज के साथ नहीं रहे। श्री मधुकर उपाध्याय जैसे वरिष्ठ और बेहतरीन पत्रकार को आज समाज के साथ अपनी पारी की शुरूआत करनी ही नहीं चाहिए थी।
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मन की बात
बुधवार, नवंबर 24, 2010
कितने ऐसे देशद्रोही अधिकारी
गृहमंत्रालय के एक और अधिकारी का पाक जासूस होने का खुलासा है। 1994 बैच के आईएएस अधिकारी रवि इंदर सिंह आंतरिक सुरक्षा विभाग में निदेशक था। इससे पहले भारतीय दूतावास में माधुरी गुप्ता को पाकिस्तान के लिए जासूसी के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।
पता नहीं देश में और कितने ऐसे देशद्रोही अधिकारी हैं, जो उच्च व जिम्मेदार पदों पर आसीन हैं। मोटी तनख्वाह और अनेक सुविधाएं लेकर अपने ही देश की जड़े खोद रहे हैं।
पता नहीं देश में और कितने ऐसे देशद्रोही अधिकारी हैं, जो उच्च व जिम्मेदार पदों पर आसीन हैं। मोटी तनख्वाह और अनेक सुविधाएं लेकर अपने ही देश की जड़े खोद रहे हैं।
मंगलवार, नवंबर 23, 2010
आवेश जरूरी पर यह बुरी चीज है
कभी-कभी आवेश जरूरी है। पर यह बुरी चीज है। आवेश में आकर लोग क्या नहीं कर देते? पर सूझबूझ के साथ आवेश जैसा जोश व्यक्ति को सफलता की राह आसान कर सकता है। आवेश में आकर ही लोग चांद पर थूकने की कोशिश करते हैं। पर तब उनके दिमाग में यह बात नहीं होती है कि बाद में वह थूक उनके ही चेहरे पर गिरेगा।
रविवार, नवंबर 21, 2010
अपरिपक्वों की संगत
सीखाई गई बुद्धि ढ़ाई घड़ी ही काम आती है। अनुभव से जो कुछ प्राप्त होता है, वह कालजयी होती है। नया अनुभय मिला। अपरिपक्वों को अपनी संगत में रखने से कोई लाभ नहीं। इनकी संगत वैसे ही जैसे नीम हकीम खतरा ए जान।
रविवार, नवंबर 07, 2010
मन में कोने में बचपन को जिंदा रखना जरूरी
यदि किसी व्यक्ति के अंदर से साहस खत्म हो जाए तो उसे क्या कहेंगे? गंभीरता से विचार करें। कई बार बच्चे कभी-कभी ऐसे गंभीर सवाल इतनी सहजा से पूछ लेते हैं, कि उसे पूछने का साहब किसी बड़े या उम्रदराज अनुभवी लोगों में नहीं होता है। इस दृष्टिकोण से मुझे लगता है कि हर किसी को अपने अंदर के बचपन को मरने नहीं देना चाहिए। जिसके अंदर बचपन की जिंदादिली है, वह साहसी है। नहीं तो उम्र के साथ अनुभव के बोझ के साथ जीवन में निरसता आ जाती है। बड़ी खुशियों में बड़े लोग मजह मुस्कान से काम चला लेते हैं। लेकिन बच्चे जी भर कर हंसते हुए खुशियों में गोता लगाते है। लिहाजा, बड़ी उम्र और अनुभव में साथ अपने अंदर के बचपने को मरने नहीं देना चाहिए। भले ही समाज किसी बात को लेकर यह क्यों न कहे कि अमुख व्यक्ति बचकना बाते करता हैं। कम से कम समाज के इस ताने से जीवन निरसता के बोझ से तो नहीं दबा रहेगा और खुशियों को निश्चछल भाव से जी भर मनाने में कोई कंजूसी भी नहीं होगी।
मंगलवार, नवंबर 02, 2010
निश्चल बचपना की निर्भयता
बचपन में जिस निर्भयता से पटाखे फोड़ते थे, इस उम्र में वह निर्भयता नहीं रही। तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए उम्र बढ़ने के साथ निर्भयता खत्म हो जाती है। मुझे लगता है निर्भयता खत्म नहीं होती है। निश्चल बचपन जा चुका होता है। जो लोग अपने अंदर निश्चल बचपन को बचाये रखते हैं वे ऐसे मौके पर ढेरों खुशियां बढ़ोर लेते हैं।
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