संजय स्वदेश
भारतीय मामले में विकीलीस एक के बाद एक दावे कर भारतीय राजनीति में सुनामी की लहर छोड़ रहा है। पर इस पत्राकरिय सुनामी से कुछ नष्ट नहीं होने वाला है। ताला खुलासे से मन में एक दुविधा है। विकीलीस की मिशन पत्रकारिता की चर्चा अरसे से हो रही है। पर सवाल यह है कि आखिर ऐसे खुलासों का पुख्ता आधार क्या है। विकीलीस की मिशन पत्रकारिता ऐसे सनसनीखेज राजनीतिक खुलासे अब क्यों कर रही है? 2008 के प्रकरण का खुलासा इन दिनों होने से इनकी मिशन पत्रकारिता पर से विश्वास डगमगाने लगा है।
यूं ना करे इनकार
ताजा खुलाशा है कि मनमोहन सिंह सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 22 जुलाई, 2008 को भारत-अमेरिका न्यूलियर डील पर संसद में विश्वासमत जीतने के लिए घूस दी। विश्वास मत प्रस्ताव के पांच दिन पहले कांग्रेस नेता सतीश शर्मा के सहयोगी नचिकेता कपूर ने एक अमेरिकी अधिकारी को रुपयों भरे दो बैग दिखाए और कहा- एटमी डील पर सांसदों का समर्थन हासिल करने के लिए 50-60 करोड़ रुपये जुटाए हैं। नचिकेता ने कहा कि अजीत सिंह की रालोद के चार सांसदों को 10- 10 करोड़ रु. दिए गए हैं। अमेरिकी दूतावास द्वारा 17 जुलाई, 08 को यह गुह्रश्वत संदेश अमेरिका भेजा गया। यह खबर एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित हुई। फिर संसद में मामला गूंजा। उसके बाद हिंदी अखबरों ने शोर शुरू किया है। दुविधा वाली बात यह है कि आखिर वर्ष 2008 में जुलाई माह की घटना का खुलासा अब क्यों हो रहा है। इस सवाल को केवल यह तर्क देकर नहीं इनकार किया जा सकता है कि जब जागा तब सवेरा।
विदेसी मीडिया को देशहीत से मतलब नहीं
भारतीय जनमानस में दूर की विदेसी मीडिया पर भारतीय मीडिया से कुछ ज्यादा ही भरोसा है। विदेशी मीडिया पर विश्वास का सबसे बड़ा उदाहरण बीबीसी हिंदी समाचार सेवा है। हमारे दूर के एक ग्रामीण रिश्तेदार ने बचपन में हमें बताया था कि बीबीसी ने सबसे पहले इंदिरा गांधी की मौत की खबर सुनाई थी। आॅल इंडिया रेड़ियों के पास यह खबर ही नहीं पहुंची। इसके अलावा अन्य कई ऐसी खबरे हैं जिसे स्पष्ट रूप से बीबीसी ने ही प्रसारित किया। देसी मीडिया पर वह खबर बाद में आई। मीडिया शिक्षण काल के दौरान यही सवाल प्राध्यापक से पूछा - इंदिरा गांधी की मौत की खबर सुनाने में आॅल इंडिया रेडियो क्यों पिछड़ गया? उन्होंने अच्छे से समझाया। संतुष्ट किया। उनका कहना था कि देसी मीडिया पर देशहीत की जिम्मेदारी है। उसकी सनसनी वाली खबरों से राष्टÑ पर आपत्ति आ सकती है। इसलिए इंदिरा गांधी की मौत की खबर में देरी हुई। इसके साथ ही उन्होंने दो-चार उदाहरण दिये। एक उदाहरण याद आ रहा है।
बीबीसी ने सुनाई पुरानी खबर
बीबीसी के पत्रकार असम के सुरुर इलाके में नहीं हैं। मुख्य शहरों में संवाददाता है। एक सपताह भर पुरानी स्थानीय घटना की खबर बीबीसी पर प्रसारित हुई। देश ने सुना और जाना कि सुरुर इलाके में क्या हो रहा है। जबकि वहीं खबर करीब सप्ताह भर पहले स्थानीय सप्ताहिक समाचार पत्र में प्रकाशित हो चुकी थी। बीबीसी के संवाददाता ने उस खबर को वहीं से उठाया था। दरअसल देश के कोने-कोने में अनेक सनसनीखेज घटनाएं होती है। राष्टÑीय मीडिया उठाये तो सनसनी, नहीं तो स्थानीय समाचार पत्र में ही उस खबर की मौत हो जाती है। एक और उदाहरण लें।
टाइम का हीरो भ्रष्ट निकला
अमेरिका के जिस टाइम पत्रिका ने बिहार के एक आईएएस अधिकारी को हिरो बनाया, बाद में वही सबसे बड़ा भ्रष्ट निकला। विदेशी मीडिया खासकर अमेरिकी मीडिया के संदर्भ इस उदहारण के बाद और किसी तरह के तर्क की जरुरत नहीं पड़ती है।
कहीं दाल में काला तो नहीं
सरकार बचाने के लिए संसद की खरीद फरोख्त को लेकर विकीलीस का दावे पर एक दुविधा क्यों न हो। यदि यही दावा वर्ष 2008 में ही आता तो विश्वास होता। लेकिन इतने दिन बाद इसका खुलासा ऐसा लता है कि जैसे दाल में काला नहीं बल्कि दाल ही काली है। इस विषय दिल्ली के अपने मित्र सुभाष चंद से पूछा कि विकीलीस के दावे पर क्या कहना है- उनका यह कहना था- हो सकता है कि इस मामले को लेकर कोई बड़ा डील हो रहा हो। मामला पटा नहीं, तो खुलासा हो गया हो। यदि मिशन पत्रकारिता की दृढ़ता होती तो खुलासा पहले ही होता। फिलहाल मुझे भी ऐसा ही लगता है।
शुक्रवार, मार्च 18, 2011
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