संजय स्वदेश
होली की शुभकामनाओं के लिए जैसे ही मोबाइल में उठाकर शुभकामनाओं का एसएमएस टाइप शुरू किया था, कि एक वह मनहूस एसएमएस आया। एसएमएस दिल्ली के मित्र सुभाषचंद जी का था। उसकी एमएमएस को पढ़ कर होली की सारी खुशियां उड़ गई। काफी देर तक सोचता रहा। आखिर ऐसा क्यों होता है। जो लोग साहस के साथ सच को जोरदार आवाज में उठाते हैं, उन्हें ईश्वर प्रेम क्यों नहीं करता है। दुराचारी, भ्रष्टÑों की आयु हमेशा लंबी रही है।
बिना जाने-पहचाने पहली बार तोमर जी के नाम पर एक मित्र से चर्चा तब हुई थी, जब सीनियर इंडिया में दानिश कार्टून को प्रकाशित मामले में तिहाड़ गए थे। तब सीनियर इंडिया में काम करने वाले मनोज कृष्णा से पूछा था कि आखिर यह सब हुआ कैसे? उन्होंने बताया कि सीनियर इंडिया का मालिक उनसे बार-बार सहसिक स्टोरी छापने के लिए कहता था जिससे सीनियर इंडिया सुर्खियों में आए। उन्होंने सच का छापा। मुसीबत आई। मालिक ने हाथ खड़े कर लिये। खैर मामला, चर्चा आई गई रह गई।
उसके बाद विभिन्न पोर्टलों पर एक के बाद महत्वपूर्ण मुद्दों पर साहसिक लेखन ने मुझे इनका फैन बना दिया था। नागपुर से प्रकाशित दैनिक 1857 में इनका नियमित कॉलम प्रतिदिन प्रकाशित होता था। जब भी पढ़ता। मन में में यह विचार जरुर आता था कि आखिर विविध मुद्दों की गहराई तक की बात इन्हें कैसे मालूम। कितना अध्ययन है। किताबी और दुनियादारी की। मन में यही ख्याल आता कि काश, मैं भी इसी तरह दमादार शैली में लिखू पाता। लेकिन अल्प अनुभव में ऐसा बेवाक लेखन कहां संभव है। लेकिन पढ़ कर लिखने की हिम्मत जरुर बढ़ती रही। इनकी बीमारी के समाचार सुन कर कई बार सोचा दिल्ली जाऊंगा तो जरुर मिलूंगा। ऐसे पत्रकार कहां, जो ठाठ से फीचर एजेंसी चलाए और बिना किसी दबाव में सच को साहस के साथ उठाये। दिल्ली दूर रही और दर्शन की आस अधूरी।
आज एक वेबसाइट पर दिल्ली में उनकी अंत्येष्ठी के दौरान उनके पिताजी का फोटो देख कर मन की व्यथा और बढ़ गई। एक पिता के लिए सबसे दु:खद इससे बड़ा और क्या हो सकता है कि वह अपने ही दुलारे लाल की अंतिम यात्रा में शामिल हो। हे, प्रभु, दबंग पत्रकार के पिता और उनके परिवार को सहनशक्ति दें। सच लिखने की जो कीड़ा तोमरजी में थी, वैसा ही कीड़ा अन्य पत्रकारों में भी कुलबुलाये। जिससे कि साहस के साथ सच को लिखने की परंपरा कायम रहे।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें