शनिवार, दिसंबर 21, 2013

फाइलों के झुरमुटों में अटकी दलहन क्रांति

पीली क्रांति पर ग्रहण संदर्भ : दलहन और तिहलन का घटता उत्पादन बढ़ता आयात //////////////////////////////////////////////////// खास बात : देश में हर साल 30 हजार करोड़ के खाद्य तेल का आयात किया जा रहा है। 90 के दशक में तिलहन के मामले में देश आत्म निर्भरता के करीब था। देश में घरेलू जरूरत का 97 प्रतिशत तक उत्पादन हो रहा था। 2007-2008 से लेकर अब तक कृषि कैलेंडर का अवलोकन करे तो स्वष्ट होता है कि जहां धान, गेहूं, कपास सहित अन्य खाद्यान्नों के उत्पादन का ग्राफ बढ़ा है, वही दलहन तिलहन का उत्पादन घटा है। ////////////////////////////////////////////////////////////////////////////// संजय स्वदेश विकास की रफ्तार में खेती के दरकिनार होने का मुद्दा गाहे-बगाहे सतह पर आता है। मुद्दे में इतनी गर्मी नहीं होती है कि उस पर सरकार कुछ ठोस निर्णय ले। लिहाजा, अन्नादाता पर हमदर्दी के बादल तो खुब गरजते हैं। पर हकीकत में जो होता है, वह उनके लिए संतोषजनक नहीं होता है। इस तरह के ढेरों झंझावातों के बावजूद किसानों ने अपने पसीने से देश का पेट भरने लायक अनाज उगाया है। धान और गेहूं के बाद दलहन और तिलहन जरूरी अनाजों में है। लेकिन करीब एक दशक से दहलन और तिलहन का उत्पादन पर भारी नकारात्मक असर पड़ा है। दशक भर पहले देश में दलहन और तिलहन उत्पादन को लेकर हम दंभ भरते थे। इसे पीली क्रांति की संज्ञा दिया था। लेकिन कब इस क्रांति पर ग्रहण लग गया किसी ने सुध ही नहीं ली। हालात तो यह हैं कि देश में दलहन और तिलहन का आयात बढ़ता जा रहा है। कृषि उत्पादों के आयात शुल्क में कमी देश के किसानों के साथ के साथ मजाक से कम नहीं है। पटरी से उतरी दलहन तिलहन के उत्पादन में वृद्धि के लिए सुझाए गए उपायों पर अमल तो दूर उन्हें फाइलों के झुरमुटों में ही अटका दिया गया है। लिहाजा, हकीकत के उपाय खेतों तक पहुंच नहीं पा रहे हैं। संसद के शीत सत्र में ही एक संसदीय समिति ने इसको लेकर सरकार की आलोचना की है। समिति ने अपनी 46 की रिपोर्ट में दलहन तिलहन के उत्पादन में वृद्धि के लिए दिए सुझाव पर पहल करने की सिफारिश भी की है। कृषि विभाग ने तिलहन और पाम तेल पर राष्ट्रीय मिशन एनएमओ ओपी के संबंध में भी निर्णय नहीं लिया है, जो चिंता का विषय है। सोयाबीन, मुंगफली, मुंग, उड़द और अरहर की खेती के बढ़ावा देकर दलहन और तिलहन के को आकर्षित करने समर्थन मूल्य में वृद्धि कर उन्नत बीज के साथ आधुनिक कृषि तकनीक उपलब्ध करने की जरूरत है। किंतु अफसोस समिति की सिफारिशों पर गौर नहीं किया जा रहा है। दलहन और तिलहन पर यदि समय रहते कारगर कदम नहीं उठाए गए तो आयात में और वृद्धि स्वाभाविक है। फिलहाल देश में हर साल 30 हजार करोड़ के खाद्य तेल का आयात किया जा रहा है। 90 के दशक में तिलहन के मामले में देश आत्म निर्भरता के करीब था। देश में घरेलू जरूरत का 97 प्रतिशत तक उत्पादन हो रहा था। किसानों को तकनीक और बीज के मामले में प्रोत्साहन नहीं मिलने से उत्पादन में गिरावट चली आई। दूसरी और आयात शुल्क में 75 प्रतिशत तक छूट दी जाने लगी, जिससे किसान पिछड़े उत्पादन गिरा और हमारी आत्म निर्भरता धराशायी हो गई है। इसके बाद भी दलहन और तिलहन के मामले अनुदार रवैया अपनाया जा रहा है। यह खतरे की घंटी है। आयात शुल्क घटाने से विदेशी विनिमय का लाभ इंडोनेशिया, मलेशिया, अमरीका और ब्राजील के किसानों को मिल रहा है। यदि दलहन-तिलहन के समर्थन मूल्य पर इजाफा किया जाता है तो आयात घटेगा और देश के किसान लाभान्वित होंगे। राजीव गांधी के शासन काल 1985 में कमोबेश यही स्थिति बनी थी। तब संसद में बहस हुई। बहस का सार था हम पेट्रोल डीजल क्यों खरीदते हैं? तर्क आया दोनों वस्तुओं का उत्पादन देश में नहीं होता है। पर दहलन तिलहन हमारे श्रम का नतीजा है। फौरन कृषि नीति पर बदलाव किया गया। यात्र एक दो वर्ष के अंतराल में हमारी आयात निर्भरता घटने लगी। किंतु डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में इस अनिवार्य मामले में उपेक्षा मिली। 2007-2008 से लेकर अब तक कृषि कैलेंडर का अवलोकन करे तो स्वष्ट होता है धान, गेहूं, कपास सहित अन्य खाद्यान्नों के इस उत्पादन में उतरोत्तर तरक्की कर रहे हैं। बस दलहल तिलहन पिछड़ रहा है। इस सूरत में दलहन और तिलहन के उत्पादन में वृद्धि करने के लिए ठोस पहल किया जाना चाहिए। आयल सीड्स टेक्नालाजी मिशन को हासिल करना आज के दौर में बेहद सरल कार्य है। इस मामले में एक और विसंगति सामने आई है। सोयाबीन के उत्पादन के लिए जेनेटिकल मोडिफाइड कृत्रिम रूप से संवर्धित यानी जीएम सोसाबीन के उत्पादन बढ़ावा दिया जा रहा है। इस प्रजाति के बीज का उत्पादन सामान्य सोयाबीन से 4 से 20 प्रतिशत कम होता है। इस बीज को बढ़ावा देने देश को क्या लाभ होगा इसका खुलासा नहीं किया गया है। आश्चर्य की बा है कि कृत्रिम रूप से संवर्धित बीजों के अन्य उत्पादों का कम विरोध कर चुके है। उसके बाद सोयाबीन को बढ़ावा देना जांच का विषय हो सकता है। सिफारिशी रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि दलहन तिलहन के उत्पादन में आवश्यकता अनुसार उत्पादन के लिए देश में 30 प्रतिशत कृषि रकबे की आवश्यकता पड़ेगी। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र और आंध्र की परंपरागत खेती के साथ अलसी, सोयाबीन, सरसो और तिल की फसल आसानी से उगाई जा सकता है। दलहन और तिलहन के उत्पादन रकबे में वृद्धि से धान और गेहूं की उत्पादन क्षमता प्रभावित होगी। किंतु इससे हमारी आर्थिक व्यवस्था पर बल आने की संभावना नहीं के बराबर होगी। पाम यानी ताड़ बुनियादी तौर से मुरस्थली उपज है। इसके लिए भारत की भूमि को ज्यादा उपयुक्त नहीं माना जाता है। पाम से 10 प्रतिशत अतिरिक्त कार्बन डिस्चार्ज होता है। जो बेहद हानिकारक है। इसलिए खाद तेल के विकल्प के रूप में पाम की जगह सोयाबीन आदि को बढ़ावा देना चाहिए। रिक्त भूमि का उपयोग दलहन और लिए परंपरागत रूप में किया जाता रहा है। इस प्रचलन में लाने के लिए कठिन प्रयास के आवश्यकता ही नहीं है। --------------------------

शनिवार, दिसंबर 14, 2013

अशिक्षा, अपराध के अंधी गलियारे में मुस्लिम

------------------------------ देश और राज्यों में सरकारें बदलती रही, मुसलमानों की बेहतरी के लिए समितियां और आयोग बनते रहे। उनकी सिफारिशों पर बहस मुनासिब होती है मगर देश में मुसलमानों की हालत नहीं बदली। ------------------------------
संजय स्वदेश पेड़ काट कर डाल को सींचने से वृक्ष के जीवन की आशा व्यर्थ है। देश में मुस्लिम आबादी के साथ कुछ ऐसी ही कहानी है। सियासी दांव पर लगे मुस्लिम समाज की बहुसंख्यक लोग शिक्षा और रोजगार में पिछड़ गए हैं। नाकारात्मक माहौल में पल बढ़ कर आपराधिक मामलों में भी पिस रहे हैं। इसलिए कहा जा रहा है कि मुसलमानों की आबादी का जो प्रतिशत देश में है, उससे ज्यादा प्रतिशत जेल में है। कई बार शक के आधार पर पुलिस कार्रवाई और अन्याय के प्रणाली के शिकार मुसलमानों की बड़ी संख्या नाक जेल जाती है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने इस बात को लेकर एक सार्वजनिक बयान दिया कि इस तरह शक के आधार पर मुस्लिम समाज के बेगुनाह लोगों की गिरफ्तारी नहंी की जाए। ऐसे पीड़ितों की अन्याय के खिलाफ इंसाफ की लड़ाई बुलंदी से नहीं उठती है। सिस्टम और परिस्थितियों के कारण उनके मन में द्वेष के बीज अंकुरित हो जाते हैं। सियासी गलियारों में मुसलमानों के हित की वकालत बड़ी चालाकी और लुभावनी तरिके से की जाती है। लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ कार्य हुए होते तो आज हालात यह नहीं होते। जबानी जमा खर्च का लाभ बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी तक नहीं पहुंच पाया है। सियासी लाभ के लिए इन पक्ष में दिये जाने वाले बयान सर्व धर्म समभाव की भावना का पोषण भी नहीं करते हैं। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, मुस्लिम समाज में शिक्षा, न्याय व अन्य आंकड़े हकीकत बताते हैं। यह आंकड़े ही कहते हैं कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ही मुस्लिमों की उपस्थिति का प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियों से कमतर है। आजादी के साथ ही मुसलमानों की बेहतरी के लिए चिंता जाहिर की गई और यह चिंता आज भी जाहिर की जा रही है, पर कौम की बड़ी आबादी हमारी सामाजिक और न्याय प्रणाली से आहत है। इसकी मूल वजह मुसलमानों के शिक्षा के प्रतिशत में कमी को कहना गलत नहीं होगा। देश में मुसलमानों के अलावा अन्य कई जातियां अल्प संख्य वर्ग शामिल हैं, जिनकी साक्षरता दर पर संतोष नहीं जताया जा सकता है किंतु उनकी माली हालत मुस्लिमों की तुलना में ज्यादा तेज गति से सुधर रही है। सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार के बाद भी उन्हें थोड़ा बहुत लाभ मिल जा रहा है। मुस्लिम जमात के बच्चों की बुनियादी तालिम मदरसों से शुरू होती है। राष्टÑीय अल्पसंख्यक शिक्षा निगरानी समिति की स्थायी समिति ने मदरसों की बदहाली पर चिंता जाहिर कर चुका है। मदरसों के आधुनिकीकरण के तैयार मॉडल में शिक्षकों को बेहतर वेतन और कंप्यूटरीकरण के लिए वित्तीय वर्ष 2012-2013 में 9905 मदरसों के लिए 182.49 करोड़ की मंजूरी दी गई है। जिसे अमलीजामा पहनाना शेष है। इसलिए फिलहाल इस राहत को दूर के ढोल सुहावने से ज्यादा और कुछ नहीं कहा जा सकता है। बिहार, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, असम, पश्चिम बंगाल और पंजाब में मुसलमानों की आबादी करीब 45 प्रतिशत है। इन राज्यों के साक्षरता प्रतिशत में पश्चिम बंगाल और दिल्ली को छोड़कर अन्य राज्यों में मुसलमानों की साक्षरता प्रतिशत असंतोष कारक है। देश के 374 जिलों में से 67 जिले अल्पसंख्यक बहुल है। सन् 2006 में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के उल्लेखनीय पक्ष में मुसलमानों को कई योजना में लाभ नहीं मिलने की बात बताई थीं। स्वामीनाथन एस अंकलेसरीया की अध्यक्ष रिपोर्ट में भी मुसलमनों की तरक्की को लेकर चर्चा की गई। मुसलमानों की आर्थिक और सामाजिक समृद्धि को लेकर हुई बहस में मुसलमानों का मूल्यांकन कमतर किया जा रहा था किंतु सच्चर कमेटी और स्वामीनाथन रिपोर्ट के दूसरे पक्ष ने मुसलमान के विकास की गति को असंगत बताया। शिक्षा के इतर अपराधिक मामलों के आंकड़ों पर भी गौर करे तो पाएंगे कि हिंसा में मुसलमानों का दखल ज्यादा है। अपराध का वास्ता न्यायालय और पुलिस से पड़ता ही है। पुलिस कार्रवाई की ज्यादती से न्यायालयों के तथ्य में झोल-झाल स्वाभाविक है और इससे अन्याय संभव है। केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन संस्था राष्टÑीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एमसीआरबी) और देश की एक प्रतिष्ठित पत्रिका की रिपोर्ट के अनुसार सेकुलर और कम्युनल सरकारों का रवैया मुसलमानों के प्रति एक समान रहा है। पश्चिम बंगाल में लंबे समय तक वामपंथी शासन रहा है। पश्चिम बंगाल के जेलों में बंद कैदी आधे मुसलमान है। महाराष्टÑ और उत्तर प्रदेश में थोड़ी राहत मिली है। वहां हर तीसरा और चौथा कैदी मुसलमान है। जम्मू-कश्मीर, पांडुचेरी, सिक्किम के अलावा देश के अन्य जेलों में मुसलमानों की आबादी का प्रतिशत ज्यादा है। जनगणना रिपोर्ट 2001 के अनुसार मुसलमानों आबादी देश में 13.4 फीसदी थी और दिसम्बर 11 के एनसीआरबी के आंकड़े के अनुसार जेल में 21 फीसदी मुसलमान 21 फीसदी है। जेल यात्रा के चलते कई मुसलमान परिवार तबाह हो गए। आर्थिक, मानसिक और सामाजिक यातनाओं को झेलने वाले परिवारों की कहानी बड़ी मार्मिक है। किसी भी वारदात के बाद संदेह में बड़ी संख्या में मुसलमानों की गिरफ्तारी हुई। ढेरों मामले हैं जिसमें बेगुनाह मुस्लमान वर्षांे जेल में पिसते रहे। मामला झूठ साबित होने पर रिहा हुए। ऐसे हालात की स्थिति वैसे ही हैं जैसे गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है देश की अधिकतर आतंकी वारदातों में जो आरोपी पकड़े जाते हैं, वे ज्यादातर मामलो में मुस्लिम निकले हैं। फिर भी व्यक्ति आतंकी की सजा पूरे कौम को नहीं दी जा सकती है। ऐसे पीड़ितों पर सियासत के दिग्गजों ने अधिकतर सहानुभूति के बोल के ही मरहम लगाया है। परिवार को राहत दिलाए जाने की वकालत अनेक राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने की है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा कि मुसलमान यदि आज पुलिसिया जुल्म के सामने बेबस नजर आता है तो यह कांग्रेस की भी कमजोरी है। वहीं यह भी सच है कि इस मामले में भाजपा की छवि को भी पाक साफ नहीं कहा जा सकता है। पश्चिम बंगाल में माकपा नेता ज्योति बसु का मुख्य मंत्रित्व काल के 30 साल के लिए विख्यात है। मुसलमान अन्याय के मामले में पश्चिम बंगल का ग्राम देश में सर्वाधिक ऊंचा है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुखतार अब्बास नकवी ने कहा कि राज्यों इस समस्या को मानवीय आधार पर सुलझाना चाहिए। वहीं मुसलमानों पर पक्षपात पूर्ण कार्रवाई पर पीयूसीएल का आरोप है। सरकारें बदली दल बदला पर मुसलमानों की इस समस्याओं का निराकरण नहीं हुआ। क्योंकि सियात में मुसलमान कौम को मोहरे के रूप इस्तमाल किया जा रह है। गुजरात कांड के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्य सरकार हिदायत देनी पड़ी थी। राज्य में पोटा और टाडा के तहत 280 लोगों को गिरफ्तार किया, जिसमें 279 मुसलमान थे। इसमें से मात्र डेढ़ प्रतिशत को सजा हुआ पोटा के तहत 1031 लोगों को गिरफ्तारी हुई। जिसमें मात्र 13 को सजा हुई। लेने समय तक जारी पुलिसिया कार्रवाई पर अकुंश नहीं लगाया गया है। देश के अमूमन राज्यों में मुसलमानों की यही दशा है। जाहिर से इस समाज में शिक्षा की लौ जैसे ही तेज होगी, समाज की सोच प्रगतिशील होगी। आने वाली पीढ़ी में हिंसा और अपराध की राह को छोड़ अपने घर परिवार और भविष्य को सुखमय बनाने में व्यस्त होगी। इसी से समाज भी मजबूत होगा। देश भी मजबूत होगा। 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शुक्रवार, दिसंबर 06, 2013

घसिया की घड़वा में इतिहास की धड़कन

कथा छत्तीसी : बस्तर की घड़वा कला छत्तीसगढ़ में बस्तर की घडवा कला अथवा ढोकरा कला विश्व प्रसिद्ध है। मिट्टी, मोम और धातु की सम्मिलित है इस कलासाधना से जो सृजित होता है, उसके प्रति मन सहज ही आकर्षित होता है। इसमें कलाकृति धातु की बनती है लेकिन कलाकार उसे मोम में साधता है। बस्तर में मुख्य रूप से से घसिया जनजाति ने घड़वा कला को साधा और शिखर तक पहुँचाया। घसिया के रूप में इस जनजाति को पहचान रियासतकाल में उनके कार्य को ले कर हुई। जानकार कहते हैं कि ये जनजाति दिनो घोड़ों के लिए घास काटने का कार्य किया करती थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि घड़वा कला को किसी काल विशेष से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। मोहनजोदाडो में ईसा से तीन हजार साल पहले प्राप्त एक नृत्य करती लड़की की प्रतिमा लगभग उसी तकनीक पर आधारित है जिसपर बस्तर का घड़वा शिल्प आज कार्य कर रहा है। प्रसिद्ध घड़वा शिल्पकलाकार जयदेव बघेल ने लिखा है कि बस्तर में इस कला के प्रारंभ के लिए जो मिथक कथा है उसका संबंध आदिमानव और उसकी जिज्ञासाओं से है। जब आदिमानव जंगल में विचरण करता था और शिकार पर आश्रित अपना जीवन निर्वहन किया करता था। इन्ही में से एक आदिमानव की यह कहानी है जो अपने माता-पिता से बिछड़ कर किसी गुफा में रह रहा था। एक दिन उसने पहाड़ पर आग लगी देखी। आग से निकलने वाले रंग तथा चिंगारिया उसे भिन्न प्रतीत हुईं और वह जिज्ञासा वश उस दावानल के निकट चला गया। अब तक आग स्थिर होने लगी थी। वहीं निकट ही उसे एक ठोस आकृति दिखाई पड़ी जो किसी धातु के पिघल कर प्रकृति प्रदत्त किसी सांचे में प्रवेश कर जम जाने के बाद सृजित हुई होगी। यह आकृति उसे अलग और आकर्षित करने वाली लगी। उसे उठा कर वह आदिमानव अपने घर ले आया। उसने इस प्रतिमा के लिए घर का एक हिस्सा साफ किया और इसे सजा कर रखा। इस प्रतिमा के लिए उसका आकर्षण इतना अधिक था कि हमेशा ही वह इसे साफ करता। धीरे धीरे इससे प्रतिमा में चमक आने लगी। कहते हैं इसी चमक से प्रभावित हो कर वह स्वयं को भी चमकाने लगा। मतलब रोज स्नानादि कर सज संवर कर रहने लगा। यह धातु और वह आदिमानव जैसे एक दूसरे के पूरक हो गए थे। समय के साथ दोनो में ही वैशिष्ठता की दमक उभरने लगी थी जिसे ग्रामीणों ने महसूस किया। जब कारण पूछा गया तो इस आदिमानव ने ग्रामीणों को वह जगह दिखाई जहाँ से उसे धातु का यह प्रकृति द्वारा गढा गया टुकड़ा प्राप्त हुआ था। इस स्थान पर सभी ने पाया कि वह दीमक का टीला था, जिसमें आग से पिघला द्रव धातु-द्रव्य प्रवेश कर गया था और उसने वही आकार ले लिया था। उसी स्थल पर मधुमक्खी का छत्ता भी पाया गया जिससे मोम, सांचा और धातु को कलात्मकता देने का आरंभिक ज्ञान उन ग्रामीणों को हुआ होगा। कहते है कि उस आदि कलाकार ने धातु के इस टुकड़े को अपनी मां माना। उसके प्रति श्रद्धा और प्रेम दिखाया। यह भी कहा जाता है कि उस आदिकलाकार ने सबसे पहले अपनी माँ की आकृति बनाने का यत्न किया। धीरे-धीरे वह अपने आसपास की वस्तुओं और पशु-पक्षियों को भी इस कला के माध्यम से मूर्त रूप देने लगा। लिहाजा, कालांतर में इस कला में बाघ, भालू, हिरण, कुत्ता, खरगोश, नाग कछुवा, मछली, पक्षी, गाय, बकरा, बंदर आदि की कृतियां मिलती हैं। इसी तरह विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियाँ घडवा कला के रूप में परिवर्तित होती रहीं। कर्मकोलातादो, मूलकोलातादो, भैरमदेव, भीमादेव, राजारावदेव, दंतेश्वरीदेवी, माता देवी, परदेसीन माता, हिंग्लाजिन देवी, कंकालिन माता आदि की मूर्तियाँ इस कला के विकास के विभिन्न चरणों में सृजित की गई। लाला जगदलपुरी भी अपनी पुस्तक बस्तर इतिहास एवं संस्कृति में उल्लेखित करते हैं कि बस्तर के घड़वा कला कर्मी पहले कुँडरी, कसाँडी, समई, चिमनी और पैंदिया तैयार करते थे। अब लोग देवी देवता, स्त्री पुरुष, हरिण, हाथी, अकुम आदि बनाते आ रहे हैं। बस्तर की यह कला असाधारण है। इसकी गहराई में उतरने पर किसी न किसी रूप में इतिहास सामने आने लगता है। सिंधु घाटी की सभ्यता अगर धातु की ऐसी प्रतिमाओं की निमार्ती थी तो निश्चित ही इस सभ्यता के नष्ट होने के साथ जो पलायन हुए उनके साथ ही यह कला भी स्थानांतरित हुई होगी। बस्तर में नाग शासकों ने लगभग सात सौ वर्ष तक शासन किया है और इतिहास उनके आगमन का स्थल मध्य एशिया के पश्चात सिंधुघाटी का क्षेत्र ही मानता रहा है। लिहाजा, यह भी अनुमान लगाया जाता है कि इसी प्रक्रिया में यह कला बस्तर की जनजातियों के पास भी पहुंची हो। इन प्रतिमाओं का महापाषाणकालीन सभ्यता से भी संबंध जोड़ कर देखा गया है तो क्या यह माना जा सकता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में ही समानांतर बसे मानव समूहो को भी धातु को गला कर आकृतियाँ देने की यह कला ज्ञात थी जिसमे गोदावरी के तट पस बसे आदिम समूह भी सम्मिलित थे? फिलहाल यह अभी शोध का विषय है। *************************** संपर्क- संजय स्वदेश

सोमवार, दिसंबर 02, 2013

मीठी चीनी की कड़वी घूंट

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शक्कर उत्पादन को लेकर सरकार को अपने रैवए पर विचार करना चाहिए। गन्ने की पेराई पर मिलर्स का प्रतिबंध निश्चित रूप से दादागिरी है। इसमें सरकार का दखल जरूरी है। कृषकों के हितों का पोषण सरकार की जवाबदारी है। चीनी विवाद मात्र से थोक बाजार में उठान के संकेत मिल चुके हैं। इस असर खुदरा बाजार पर भी पड़ेगा। आलू, प्याज, टमाटर की महंगाई की मार से पस्त जनता को कड़वी शक्कर को मुश्किल से पचाना पड़ेगा।
----------------------------------- संजय स्वदेश महंगाई से जूझ रही जनता को आगामी दिनों में महंगी शक्कर का भी बोझ ढोना पड़ सकता है। इस मामले में केंद्र सरकार और खाद्य मंत्रालय की पहल की सराहना नहीं की जा सकती है। उत्तर प्रदेश में शक्कर मिलर्स ने गन्ने की पेराई बंद कर दी है। गन्ना किसान सरकारी राहत के लिए सड़क पर उतर आए। महाराष्ट्र के सांगली और कोल्हापुर में भी किसानों ने अपने तेवर दिखाए। कर्नाटक के बेलगाम में भी गन्ना किसानों की उग्रता दिखी। हालात देख कर यह सहज अनुमान लगाए जा सकते हैं कि गन्ना किसानों के हाल क्या है। चीनी मिलों की लचर व्यवस्था पर सरकार का अंकुश असफल है। हालत इस बात के भी संकेत दे हैं कि आने वाले दिनों में गन्ने की खेती प्रभावित होगी। लिहाजा, चीनी का उत्पादन घटना तय है। फिलहाल सरकार ने वर्तमान हालत को देखते हुए चीनी उत्पादन में तीन प्रतिशत की कमी होने का संकेत दे दिया है। सरकार, चीनी मिलर्स और गन्ना किसानों का यह संघर्ष आज के नहीं हैं। केंद्र सरकार ने बीमार शक्कर मिलों को जीवन प्रदान करने के लिए ऋण मुक्त ब्याज देने पर विचार किया। लेकिन जिस तरह बीमार मिलो (उद्योगपतियों) की चिंता की गई यदि उस चिंता में किसानों को भी शामिल कर लिया जाता तो, किसानों के आक्रोश पर तत्काल सहानुभूति के छिंटे जरूर पड़ जाते। सरकार का यह कह कर खुश होना उत्पादन की कमी से देश में शक्कर आपूर्ति की समस्या नहीं आएगी, कुशल व्यापार नीति पर बट्टा लगाना जान पड़ता है। यदि हम शक्कर पर आत्मनिर्भर हैं तो निर्यात का पुख्ता इंतजाम किया जाना चाहिए। किसानों को अधिक प्रोत्साहन देना चाहिए। शक्कर का कच्चा माल गन्ना किसानों की सौगात है। कच्चे माल की बुनियाद पर ही उद्योग की स्थापना की जाती है। ऐसे में गन्ना किसानों की मांग को दरकिनार करके बीमार शक्कर मिलों की चिंता उद्योगपतियों पर मेहरबानी से गन्ना किसानों का उग्र होना स्वाभाविक है। भारत शक्कर के उत्पादन और खपत करने दोनों में उस्ताद माना जाता है। दुनिया में ब्राजील के बाद भारत में शक्कर का उत्पादन सबसे ज्यादा है। ऐसे में देश के गन्ना किसान को खुशहाल होना चाहिए, मगर अफसोस गन्ना किसानों को अपनी बदहाली को लेकर सड़कों पर उतरना पड़ता है। लगातार आंदोलन के बाद भी उनकी सुध नहीं ली जाती है। शक्कर उत्पादन को लेकर सरकार को अपने रैवए पर विचार करना चाहिए। गन्ने की पेराई पर मिलर्स का प्रतिबंध निश्चित रूप से दादागिरी है। इसमें सरकार का दखल जरूरी है। कृषकों के हितों का पोषण सरकार की जवाबदारी है। गन्ने की पेराई बंद करने, मिलर्स पर किसानों का करोड़ों रुपए का बकाया, निर्धारित मूल्य पर गन्ने का भुगतान और अन्य कारणों से सरकार द्वारा मिलर्स पर दर्ज कराई गई एफआईआर गतिरोध का मुख्य मुद्दा है। रिपोर्ट पर अपेक्षित कार्रवाई नहीं होने से किसान नाराज हैं और मिलर्स की दबंगई जारी है। इन परिस्थितियों में गन्ना गतिरोध समाप्त होते नहीं दिखता है। पेराई के बंद होने से किसानों की परेशानी बढ़Þ जाएगी। उत्पादन विलंब से शुरू होगा इससे लागत में वृद्धि स्वाभाविक है। जिसका बोझ अंतत: जनता के कंधे पर ही आएगा। पिछले दिनों उत्पादन में कमी की चर्चा मात्र से हाजिर स्टाक में शक्कर की कीमत में एक प्रतिशत के इजाफे से थोक में शक्कर की कीमत 3200 से 3275 रुपए प्रति क्विंटल हो गई। इधर आशंका जाहिर की जा रही है कि आगामी दिनों में शक्कर की दर में तीन प्रतिशत की बढ़Þोतरी हो सकती है। दूसरी तरफ केंद्र सरकार से पहले ही शक्कर के उत्पादन शुल्क पर वृद्धि करने की अपनी मंशा जाहिर कर चुकी है। साथ ही चीनी मिलों को नियंत्रण मुक्त की योजना को प्रस्तुत किया जा चुका है और इसे अमलीजामा पहने की कवायद जारी है। हालांकि इस योजना को अंजाम देने के पीछे उतार-चढ़ाव, आयात-निर्यात में व्याप्त असंतुलन, प्रर्याप्त भंडारण की कमी आदि को महत्वपूर्ण कारण माने जा सकते हैं। प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) के अध्यक्ष सी रंगराजन की अगुआई वाली समिति ने पिछले साल ही शक्कर से जुड़े हुए दो तरह के नियंत्रण, मसलन-निर्गम प्रणाली और लेवी शक्कर को अविलंब समाप्त करने की सिफारिश की थी। इतना ही नहीं, इस समिति ने शक्कर उधोग पर आरोपित अन्यान्य नियंत्रणों को भी क्रमश: समाप्त करने की बात कही थी। इस मामले पर अभी भी कार्रवाई लंबित है। यदि इस योजना को अमलीजामा पहनाया जाता है तो उसके सुख परिणाम समाने आएंगे इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती है। विनियंत्रण के मामले में देश के सर्वाधिक उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अलावा अन्य 10 राज्यों ने अपनी मंशा से केंद्र को अवगत करा दिया है। इससे विनियंत्रण का रास्ता साफ हो गया है। इस लिहाज से कहा जा सकता है अब गेंद केंद्र के पाले में है। विनियंत्रण को किसानों के पक्ष में माना जा रहा है। वे अपने गन्ने की बिक्री अधिक कीमत देने वाले मिलर्स को बेच सकेंगे। किंतु हरहाल में गन्ने की न्यूनतम मूल्य के निर्धारण में सरकार का दखल होगा। लेकिन सरकार की इस दखल को चीनी मिलर्स की लॉबी अपने पक्ष में प्रभावित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। विनियंत्रण के लिए हाईलेबल पर लाबिंग की जा रही है। चीनी उद्योग एक प्रकार से विनियंत्रण के पक्ष में है। इससे गन्ने के उत्पादन में स्थिर आने की बात कही जा रही है। इस नीति में एक दूसरा व्यवहारिक पहलू को नजरअंदाज किया जा रहा है। देश के गन्ना किसान मानसून पर आश्रित हैं। गन्ने की उगाई में हुए नुकासन के बाद किसानों द्वारा की गई आत्महत्या के प्ररकणों को भूला नहीं जा सकता है। लिहाजा, विनियंत्रण की संकल्पना को पूर्णरूपेण सही नहीं ठहराया जा सकता है। शक्कर उद्योग पर सरकार का नियंत्रण दो तरीके से किया जाता है। सरकार शक्कर का कोटा तय करती है जिसे खुले बाजार में बेचा जाता है। मिलर्स से उत्पादन का 10 प्रतिशत शक्कर लेवी में ली जाती है। जिसे राशन दुकानों में उपलब्ध कराया जाता है। फिलहाल लेवी की 20 रुपए की शक्कर 13.50 रुपए में बेची जा रही है। किंतु इससे किसानों को राहत मिलने की गुंजाइश कम है। बताया जा रहा है 98 लाख टन शक्कर हमारे मौजूदा स्टाक में है। आगामी वित्तीय वर्ष में हमार उत्पादन 2.44 करोड़ टन के रहने की संभावना है। इससे हमारे कुल उत्पादन में हमको दो से ढाई लाख टन का नुकसान उठाना पड़ सकता है। उत्पादन आंकड़ों के लिहाज से इस परिस्थिति की गणना सामान्य उतार-चढ़ाव के रूप से देखा जाएगा। किंतु देश की आर्थिक समृद्धि और प्रतियोगी नजरिए से नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। भारतीय चीनी मिल संघ (इस्मा) ने सरकार के दावा को खोखला बताया है। संघ के अनुसार उत्तर प्रदेश के साथ तमिलनाडुु में भी शक्कर उत्पादन में गिरावट की आशंका है। इधर महाराष्ट्र में भी किसानों को असंतोष उजागर हो रहा उत्पादन में गिरावट से चीन के मूल्य में अप्रत्यशित वृद्धि हो सकती है। जिस पर नियंत्रण आसान नहीं होगा। गन्ना किसान और मिलर्स के बीच में सरकार द्वारा निर्धारित 280 रुपए प्रति क्विंटल गन्ने की कीमत विवाद का प्रमुख मुद्दा है। चीनी विवाद मात्र से थोक बाजार में उठान के संकेत मिल चुके हैं। इस असर खुदरा बाजार पर भी पड़ेगा। आलू, प्याज, टमाटर की महंगाई की मार से पस्त जनता को कड़वी शक्कर को मुश्किल से पचाना पड़ेगा। -------------------------------------------------

मंगलवार, नवंबर 19, 2013

गरीब की देह पर मौत का ट्रायल

संदर्भ : दवा परीक्षण पर केंद्र को सुप्रीम कोर्ट का नोटिस ------------------------------------------------ भारत में दवा परीक्षण का कारोबार करीब एक अरब डालर का है। दवा परीक्षण के दुष्प्रभााव के कारण करीब 12 हजार लोग पीड़ित है। कुछ इतने दर्द में हैं कि वे मौत की दुआएं मांग रहे हैं। सरकारें बगले झांक रही है। मरे हुए लोगों को कोई ढंग के मुआवजे के लिए कहीं कोई बुलंद आवाज नहीं है। शायद सरकार ठीकठाक मुआवजा दिला दे तो मरने वाले के गरीब परिवार के दर्द पर मरहम लग सके। ------------------------------------------------ संजय स्वदेश आंध्र और गुजरात में 2009-10 के दौरान अनैतिक रूप से दवा परीक्षण के मामले में हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और परीक्षण करने वाली संस्था को नोटिस दिया है। जिस दिन कोर्ट ने यह नोटिस जारी किया उसके अगले दिन विदेशी मीडिया ने यह समाचार जारी किया कि विदेशी दवा कंपनियों के लिए भारत में क्लिनीकल ट्रायल सबसे महंगा पड़ रहा है। जबकि अभी तक अधिकतर रपटें यही कह रही थीं कि चीन के बाद भारत में दवा परीक्षण का बेहतरीन माहौल है। इस उपलब्धि में दवा परीक्षण का इतिहास बहुत काला रहा है। सरकारी आंकड़े कहते हैं कि वर्ष 2005 से 2012 के बीच 475 दवाओं के परीक्षण की वजह से 2,644 मरीजों की मौत हुई। सन् 2008 में 288, 2009 में 637 और 2010 में 668 लोगों की मौत हुई है। इस तरह से एक जान की औसत कीमत महज ढाई लाख रुपए आंकी गई। मुआवजा देने वाली कंपनियों में मर्क, क्विनटाइल्स, बेयर, एमजेन, ब्रिस्टल मेयर्स, सानोफी और फाइजर भी शामिल हैं। निश्चय ही मुआवजे के लिए महज ढाई लाख की रकम दूसरे देशों की तुलना में बहुत कम है। मध्यप्रदेश आंध्र प्रदेश में ऐसे गुपचुप दवा परीक्षण से होने वाली मौतों पर काफी हो हल्ला मच चुका है। फिर सुप्रीम कोर्ट के नोटिस के बाद अचानक किसी विदेशी मीडिया के माध्यम से यह प्रचार करना कि भारत में ऐसे परीक्षण महंगा सौदा है, कुछ और संकेत कर रहे हैं। कुछ ही दिन पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने क्लीनिकल परीक्षणों के खिलाफ दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा था कि ये परीक्षण देश की जनता के हित में होने चाहिए और सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिये इसकी इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। जीवन बचाने जैसे सकारात्मक उद्देश्य के साथ दवाओं का परीक्षण तो ठीक है। लेकिन मरीज के परीजनों को अंधेरे में रख कर मरीज के साथ जानलेवा परीक्षण निश्चित रूप से न्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता हैं। अमूमन यह देखा गया है कि दवाओं का परीक्षण मानसीक रूप से कमजोर लोगों पर किया गया। कई बार मानसिक रूप से ठीक लोगों पर भी परीक्षण हुआ, लेकिन उनके परीजनों को इसकी जानकारी नहीं दी गई। इस क्रम ढेरों प्रयोग असफल हुए और ढेरों मौतें भी हुई। ताजी रिपोर्ट तो कहती है कि दवा परीक्षण के दुष्प्रभााव के कारण करीब 12 हजार लोग पीड़ित है। कुछ इतने दर्द में हैं कि वे मौत की दुआएं मांग रहे हैं। सरकारें बगले झांक रही है। मरे हुए लोगों को कोई ढंग के मुआवजे के लिए कहीं कोई बुलंद आवाज नहीं है। शायद सरकार ठीकठाक मुआवजा दिला दे तो मरने वाले के गरीब परिवार के दर्द पर मरहम लग सके। ऐसे पीड़ित परिवारों की इतनी हैसियत नहीं होती है कि वे दवा कंपनियों को कोर्ट में घसीट सकें। विश्व स्वास्थ्य संगठन (ंडब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2010 में भारत में क्लिनिकल ट्रायल का कारोबार करीब एक अरब डालर का हो गया है। किंतु मरीजों मरीजों को मौत के मुआवजे के नाम पर केवल खानपूर्ति की जाती रही है। ऐसे मौत में पोस्टमार्टम भी होता है तो उसकी रिपोर्ट ऐसे बनाई जाती है, जिससे दवाओं के प्रयोग की काली हकीकत नहीं होती है। अमूमन दवाओं का प्रयोग गरीब मरीजों पर होते हैं। प्रयोग सफल हो जाए तो मौत उन्हें ताड़पाकर गले लगाती है। यदि दवा का प्रयोग सफल हो जाए तो वही दवा गरीबों को सुलभ नहीं होती है। आंध्र प्रदेश और गुजरात में सन् 2009-10 के दौरान दवा परीक्षणके मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 162 नई दवाओं के परीक्षण पर प्रतिबंध लगाया दिया है। लेकिन केवल प्रतिबंध लगा देने भर से किसी पीड़ित गरीब को कोई न्याय नहीं मिल जाता है। मौत देने वाले ऐसे परीक्षणों में जिम्मेदारी किसकी सुनिश्चित की गई। किसी को कोर्ट ने दंड दिया तो ऐसी खबर नहीं आती। कोई विदेशी मीडिया भले ही भारत में दवा परीक्षण के महंगे होने का यह दवा करें, लेकिन अब तक के परीक्षण के आंकड़े तो यही बता रहे हैं कि भारत बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के लिए पिछले कुछ बरसों से दवाओं के परीक्षण का हब बन चुका है। गरीब मरीज इनके प्रयोग के सबसे सस्ते शिकार हैं। परीक्षण के बारे में उनको कोई जानकारी भी नहीं दी जाती, न ही कोई नियम-कायदे अपनाए जाते हैं। दवा के परीक्षण के खिलाफ सक्रिय संगठनों का दावा है कि देश में ऐसे मौतों का सही अांकड़ा नहीं है। सन् 2010-2012 के मध्य ड्रग कंट्रोलर जनरल ने 1,065 लोगों पर दवा परीक्षण की अनुमति दी। लिहाजा, अनुमति लेकर दवाओं के परीक्षण के दौरान जो मौतें हुई उसके ही अांकड़े सामने आते हैं। जबकि एक दवा के प्रयोग की अनुमति लेकर कंपनियां कई दवाओं का प्रयोग करती हैं। इनमें से कई कंपनियां भारतीय कंपनियों को अपना एजेंसी बनाती है वे खुद चीन, मेलेशिया, सिंगापुर आदि देशों से उनके माध्यम से अपना प्रयोग करवाती हैं, जिससे कि विपरीक्ष स्थिति में वह भारत के कानूनी पचड़े से दूर रहे।

शनिवार, नवंबर 16, 2013

छत्तीसगढ़ की सियासत में वोट कटवा गैंग

संजय स्वदेश छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव घोषणा से पूर्व प्रदेश में तीसरे मोर्चे की जोरशोर से कुलबुलाहट थी। कहा जा रहा था कि तीसरा मोर्चा प्रमुख राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस का गणित बिगाड़ेगी। लेकिन मजेदार बात यह है कि दो दिन बाद दूसरे चरण का मतदान होना है और तीसरा मोर्चा का कही कोई बजूद ही नजर नहीं आ रहा है। एक दो विधानसभा क्षेत्र छोड़ दे तो न कही पोस्टर दिखा और कहीं कोई रैली। हालात देख कर तो ऐसे ही लग रहा है जैसे हर क्षेत्र में यह कत्थित तीसरे मोर्चे से जुड़े लोग वोट काटवा बन गए हैं। उनके मैदान में होने से दूसरे किसी एक उम्मीदवार को जीत का गणित सुलझता दिख रहा है। अभिभाजित मध्यप्रदेश के विधानसभा में कभी छत्तीसगढ़ क्षेत्र से 15 विधायक भेजने वाले विधायक में अजीत तरक ही शून्यता दिख रही है। चुनाव आयोग के आंकड़े देखें तो छत्तीसगढ़ में दर्जनभर से ज्यादा क्षेत्रीय दल हैं। इसके बाद भी यहां की राजनीतिक में कोई तीसरा दल मजबूती से नहीं उभरा। चुनाव घोषणा से पहले प्रमुख क्षेत्रीय दलों में छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच से तीसरे विकल्प की जोरशोर से चर्चा थी। आज जब सबको सामने आना चाहिए था तो वे अंधेरे में, परदे के पीछे हैं। आपातकाल के दौरान छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा का गठन श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी ने किया था। नियोगी खुद कभी चुनाव नहीं लड़े लेकिन प्रत्याशी खड़े करते रहे। मोर्चे ने पहली जीत 1985 में दर्ज की जब उसके टिकट पर जनकलाल ठाकुर विधायक निर्वाचित हुए। ठाकुर 1993 में भी जीते। नियोगी की हत्या के बाद मोर्चे की कमान उनकी पत्नी आशा नियोगी ने थामी। लेकिन छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के बाद मोर्चा अपनी मौजूदगी नहीं दिखा सका। फिलहाल नियोगी की बेटी मुक्तिगुहा नियोगी नगर पंचायत की अध्यक्ष है। लेकिन वह भी कांग्रेस की राजनीतिक करती है। नियोगी के राजनीतिक संघर्ष की विरासत की लौ बुझती दिख रही है। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी भाजपा के एक बागी हीरासिंह मरकाम ने बनाई थी। मरकाम ने 1993 में चुनाव लड़ा और हार गए। वह 1998 में चुनाव जीत गए। लेकिन पृथक छत्तीसगढ़ बनने के बाद वर्ष 2003 और 2008 के विधानसभा चुनाव में वह हार गए। पार्टी का मत प्रतिशत भी घटता गया। दोनों ही चुनावों में पार्टी ने प्रत्याशी उतारे लेकिन उसका खाता नहीं खुला। इस बार गोंडवाना गणतंत्र पार्टी इसलिए चर्चा में आई क्योंकि उसके टिकट पर सक्ती सीट से सक्ती राजघराने के सुरें्रद बहादुर सिंह चुनाव लड़ रहे हैं। कांग्रेस ने उनका टिकट का दावा खारिज कर दिया जिससे नाराज हो कर सिंह गोंडवाना गणतंत्र पार्टी में शामिल हो गए और उसके टिकट पर सक्ती सीट से खड़े हो गए। छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच बिल्कुल नया क्षेत्रीय दल है जिसका गठन भी भाजपा के ही एक बागी ने किया। भाजपा से दो बार विधायक और 4 बार सांसद रहे ताराचंद साहू ने 2008 में छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच का गठन किया। वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनावों में साहू ने अपने प्रभाव वाले क्षेत्र में भाजपा और कांग्रेस दोनों को कड़ी टक्कर दी थी। इस बार भी उन्होंने करीब 45 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए हैं। लेकिन एक दो विधानसभा क्षेत्रों को छोड़ दे तो कहीं भी यह दल मैदान जंग में कड़ी टक्कर देता नहीं दिख रहा है।

मंगलवार, नवंबर 12, 2013

चेहरा विहीन कांग्रेस,दल विहिन बीजेपी

संजय स्वदेश प्रसिद्ध यूरोपिय लेखक रूडयार्ड किपलिंग की एक कहावत है- भेड़िये को ताकत मिलती है भेड़िया से और भेड़िया को ताकत मिलती है भेड़िये से। भेडिया नेता है भेडिये समूह। जब एक भेडिया भेडियों के आगे नेतृत्व करता हुआ आगे आगे चलता है तो उसका मन इस आत्मविश्वास से लबरेज रहता है कि उसके पीछे उसका पूरा समूह खड़ा है। वहीं समूह में चल रहे भेड़ियों को इस बात का गुमान रहता है कि उसका नेता आगे-आगे चल रहा है। लिहाजा, भेड़ ओर भेड़िये दोनों एक दूसरे के ताकत बने रहते हैं। छत्तीसगढ़ के सियासी समर में इस बार रूडयार्ड की कहावत याद आ गई। छत्तीसगढ़ की फिजाओं में इस बार सियासी नजारा विहंगम है। विधानसभा चुनाव परिणाम का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो बाद की बात है लेकिन आरोप प्रत्यारोप की सियासत में कांग्रेस को छलिया बताने वाली भाजपा भी सहमी है, तो प्रदेश सरकार को धोखेबाज कह कर भाजपा को घेरने वाली कांग्रेस प्रदेश स्तर पर मजबूत नेतृत्व के अभाव में अंदर ही अंदर डरी हुई है। कहने के लिए तो कांग्रेस की ओर से प्रदेश अध्यक्ष और केंद्रीय कृषि मंत्री डा. चरणदास महंत कांग्रेस का चेहरा हैं। पर सच तो यही है कि खुद को एक शातिर राजनीतिज्ञ समझने वाले महंत प्रदेश स्तर की जनता को पूरी तरह स्वीकार्य नहीं है। कांग्रेस की इस स्थिति से उलट भाजपा की हालत है। रमन सिंह का चेहरा सर्व स्वीकार है। जनता में लोकप्रिय है। जनता फिर से इन्हें सीएम के रूप में देखना चाहती है। लेकिन चुनावी समर में इनके कई उम्मीदवार ऐसे हैं जो जनता को शायद ही हजम हो। लिहाजा वोट देने वाली जनता के सामने दो विकल्प बनते हैं। या तो वह चेहरा देख कर पार्टी के नाम पर इवीएम का बटन दवाएं या फिर उम्मीदवार देख कर। भाजपा की ओर से डा. रमन सिंह को सौम्य चेहरा प्रदेश स्तर की जनता में मन में सहज स्वीकार्य है। लेकिन इस बार चुनावी मैदान में भाजपा के कई ऐसे उम्मीदवार हैं जो जनता को स्वीकार्य नहीं है। लिहाजा, वे खुद अपने दम पर जीत के लिए जनता से मनुहार करने के बजाय डा. रमन सिंह को फिर से सीएम बनाने के नाम पर मतदाताओं के जज्जबात को उभरने की कोशिश में है। चुनाव से पूर्व गुटबाजी में बिखरी कांग्रेस की एकता फिलहाल संतुलित दिख रही है। अजीत जोगी को कांग्रेस आलाकमान से इस चुनाव के लिए मना कर गुटबाजी पर लगाम दे दी। लेकिन स्वास्थ्य कारणों से वह कांग्रेस के पक्ष में लहर बनाने में सफलता पाते नहीं दिख रहे हैं। यह खराब स्वास्थ्य का ही नतीजा है कि पिछले चुनाव की तुलना में इस बार जोगी की सभाएं कम हुई हैं। लिहाजा, कांग्रेस के पास चुनाव जीतने के लिए कुछ खास मुद्दों (विशेष कर बस्तर का जीरम कांड) पर जनता की सहानुभूति की लहर चलने का विकल्प बचता है। पर चुनावी मौसम में सियासी लहर को चलाने की वह कुशलता भी कांग्रेस में दिख नहीं रही है। भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा अपनों से मुकाबला दो चुनावों से अपना परचम लहराती आई भाजपा के लिए इस बार समस्या प्रतिद्वन्द्वी कांग्रेस की ओर से कम, खुद अपने ही असंतुष्टों की ओर से ज्यादा पैदा हो रही है। पार्टी हालांकि विकास के दम पर अपनी नैया पार होने की उम्मीद बांधे हुए है ,लेकिन असंतुष्ट स्वर उसे अहसास करा रहे हैं कि उसकी राह आसान नहीं होगी। फिलहाल भाजपा राज्य में बीते 10 साल के दौरान अपने शासनकाल में हुए विकास को गिनाते हुए ओर केंद्र के कुशासन को बताते हुए जनता से वोट मांग रही है। जगह जगह की जनसभाओं में भाजपा के दिग्गज जनता को बता रहे हैं कि छत्तीसगढ़ में धान की खरीदी पूरे देश में एक मिसाल है। यहां की सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पूरे देश में सराहा जाता है जिसमें महिलाओं को परिवार का मुखिया बना कर उनका सशक्तिकरण किया गया है। पहले इस राज्य को पलायन वाले राज्य के तौर पर जाना जाता था लेकिन राज्य सरकार ने यहां रोजगार के अवसर सृजित कर इसकी तस्वीर बदल दी है। बागी करुणा का कितना असर हाल ही में भाजपा महिला मोर्चा की पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व सांसद करुणा शुक्ला ने मुख्यमंत्री रमण सिंह के खिलाफ राजनंदगांव सीट से खड़ी कांग्रेस की उम्मीदवार अलका मुदलियार के पक्ष में चुनाव प्रचार कर अपनी नाराजगी खुल कर जाहिर कर दी। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी करूणा शुक्ला ने अपनी उपेक्षा से नाराज हो कर इसी साल चुनावों से पहले पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उनका इस्तीफा मंजूर कर लिया है। करूणा ने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरें्रद मोदी और रमन सिंह दोनों को निशाने पर लेते हुए कथित तौर पर कहा कि गोधरा के बाद राज्य में हुए दंगों के दाग मोदी के दामन से और जीरम घाटी में हुए नक्सली हमले के दाग रमन सिंह के दामन से कभी नहीं धुल सकते। टिकट न मिलने से नाराज दो विधायकों ने तो निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया था। इस पर प्रदेश अध्यक्ष रामसेवक पैकरा ने पूर्व विधायक गणेशराम भगत और राजाराम तोड़ेम सहित कुछ बागियों को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से 6 साल के लिए निलंबित कर दिया। लेकिन करुणा के इस बगावती तेवर से भाजपा पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। उनके नाम पर जनता की भीड़ उमड़ती हो ऐसा कोई करिश्माई व्यक्तित्व उनमें नहीं है। हालांकि करुणा की बगावत को भुनाने के लिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष चरण दास महंत ने उन्हें कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने का आॅफर दिया था। लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। प्रदेश के कई दिग्गज भाजपाइयों ने तो यहां तक कह दिया कि करुणा शुक्ला के जाने से भाजपा पर केवल एक वोट का अंतर पड़ेगा। करुणा को इस तरह भाव नहीं देने से यह साफ होता है कि राजानीतिक में करुणा शुक्ला का वजूद उनके मामा पूर्व पीएम अटल बिहारी बाजपेयी के कारण था। क्यों शांत हैं जोगी कुनबा कांग्रेस की दिखने वाली एकता के पीछे की कहानी बहुत कम लोग समझ पा रहे होंगे। कांग्रेस आलाकमान ने प्रदेश स्तर पर सबसे बड़े सिरदर्द अजीत जोगी को मना कर बड़ी सफलता पा ली। अंदरखाने के जानकार कहते हैं कि जोगी को राज्य सभा में भेजने का आवश्वासन मिला तो बेटे अमित जोगी ओर पत्नी रेणु जोगी को विधायकी का टिकट के सौदे पर जोगी मान गए। बताते हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव में बड़े और छोटे जोगी ने चुनावी मैदान में हुकार भरी थी। लेकिन इस बार अमित जोगी खुद समर में होने के कारण पूरा ध्यान उन्हें भारी मतों से जिताने पर लगा है। स्वास्थ्य कारणों से इस बार अतीज जोगी की सभाएं पिछली चुनाव की तुलना में बहुत कम हुई हैं। छग में कांग्रेस सत्ता का इतिहास छत्तीसगढ़ के वर्ष 2000 में अस्तित्व में आने के बाद से अब तक कांग्रेस की सरकार केवल एक बार ही रही है और पिछले दो विधानसभा चुनावों में सत्ता भाजपा को मिली। राज्य में वर्ष 2008 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 50 सीटें जीती थी, जबकि कांग्रेस को यहां 38 और बहुजन समाज पार्टी को दो सीटें मिली थीं।

मंगलवार, नवंबर 05, 2013

बंगलादेश का बीटी बैगन

****************************** संदर्भ : भारत में नामंजूरी के बाद पड़ोसी देश में बीटी के व्यावसायिक उपयोग की मंजूरी का भारत में असर *******************************
भारत में बीटी के प्रभावों का इतिहास काला है। वर्ष 1996 में बीटी का जीएम बीज भारत आया। उस समय मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में इसकी उगाई की गई। मप्र में इसकी उगाई अहितकर और नुकासनदेह साबित हुआ। महाराष्ट्र में इसकी उगाई 30 हजार हेक्टेयर में की गई। तब फसल बर्बाद होने से 200 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की थी और करोड़ों का नुकसान हुआ था। ************************
संजय स्वदेश कुछ वर्ष पूर्व बीटी बैंगन को लेकर देश में हो हल्ला मचा था। देशभर में जनसुनवाई हुई थी। भारी विरोध को देखते हुए सरकार ने इसके मंजूरी के मंसूबों से मुंह फेर लिया, वही बीटी बैगन अब पड़ोसी देश बंगलादेश के रास्ते भारत में प्रवेश करेगा। बंगलादेश सरकार ने इसे अपने देश में व्यावसायिक खेती के लिए मंजूरी दे दी है। अब बंगलादेश में धड़ल्ले से बीटी बैंगन की खेती होगी। लिहाजा, वहां का बैंगन लुढ़क कर बिना किसी विरोध के भारत भी पहुंचेगा। फिलहाल इस ओर गंभीरता से किसी का ध्यान भी नहीं है। बंगलादेश में बीटी बैंगन की खेती से भारत के लिए खतरे की बात यह है कि दोनों देशों की सीमाएं सांझा है। यदि खेती बांगलादेश के सीमावर्ती खेतों में होगी तो प्रदूषण भारत में भी आएगा। इतना ही नहीं बांग्लादेश से भारत में फल, सब्जियों का काफी आयात किया जाता है। लिहाजा, इस रास्ते भारत की थाली में बीटी बैंगन के लुढ़ने की पूरी संभावना बनती है। इस स्वाभाविक हालात को देखते हुए ही इस बात से इनकार नहीं की जा सकती है कि बीटी बीज के उत्पादक कंपनियों ने भारत में सीधे प्रवेश में असफलता के बाद पड़ोसी देश के रास्ते यहां प्रवेश करने की योजना बनाई होगी। बड़े पैमाने पर धन कमाने की लालसा रखने वाली बीटी बीज उत्पादक कंपनियां अपने छोटे देश के रास्ते भारत में घुसने की कवायद में है। यदि बंगलादेश में बीटी बैंगन की खेती हो रही है तो इसके भारत में प्रवेश में देरी नहीं होगी। फिलहाल बंगलादेश में इसकी व्यावसायिक खेती की हरी झंडी मिलने के बाद भारत में होने वाले प्रभावों को लेकर मीडिया में मौन की स्थिति है। हालांकि इंटरनेट पर दिखी एक समाचार के मुताबिक इस पर विरोध जताते हुए ‘कोलीजन फॉर ए जीएम फ्री इंडिया’ संगठन ने केंद्रीय पर्यावरण एवं वन राज्य मंत्री जयंती नटराजन को पत्र लिखकर कहा है किवो बांग्लादेश की सरकार से बीटी बैंगन की व्यावसायिक खेती की मंजूरी के फैसले पर तुरंत रोक लगाने की मांग करे। बीटी बैंगन के बीज उत्पादक कंपनी मांसेंटो और महिको भारत में कड़े विरोध के बाद मुंह को को खा चुकी है। जब भारत में दाल नहीं गली तो इन कंपनियों ने अपनी लॉबिंग फिलीपींस जैसे देश में किया। वहां भी इन कंपनियों के मंसूबे पर पानी फिर गया। आर्थिक रूप से कमजोर देश बंगलादेश को इस कंपनी ने अपने झांसे में ले लिया। ढाका में महज दो दिन में ही व्यावसायिक खेती मंजूरी मिल गई। बांगलादेश के सीमावर्ती इलाकों के किसाने अपने बीजों का आदान प्रदान भारतीय किसानों से करते हैं। इस रास्ते भारत में मांसेंटो और महिको के मंसूबे थोड़ा या कम जरूर पूरे होते दिख रहे हैं। भारत में बीटी के प्रभावों का इतिहास काला है। वर्ष 1996 में बीटी का जीएम बीज भारत आया। उस समय मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में इसकी उगाई की गई। मप्र में इसकी उगाई अहितकर और नुकासनदेह साबित हुआ। महाराष्ट्र में इसकी उगाई 30 हजार हेक्टेयर में की गई। तब फसल बर्बाद होने से 200 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की थी और करोड़ों का नुकसान हुआ था। भारत के बीटी विरोधियों का तर्क है कि बैसिलस थुरियनजीनिसस (बीटी) नामक एक मृदा जीवाणु से प्राप्त किया जाता है। बीटी बैंगन और बीटी कपास (कॉटन) दोनों में इस विधि का प्रयोग होता है। आनुवांशिक संशोधित फसल (जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलें) यानी ऐसी फसलें जिनके गुणसूत्र में कुछ मामूली से परिवर्तन कर के उनके आकार-प्रकार और गुणवत्ता में मनवांछित स्वरूप प्राप्त किया जा सकता है। वैज्ञानिकों को अब यह ज्ञात है कि प्राकृतिक तौर पर विभिन्न जीन्स को अलग-अलग कार्य बंटे हैं, जैसे, कुछ जीन्स प्रोटीन निर्माण करते हैं तो कुछ रासायनिक प्रक्रिया की देख-रेख करते हैं। मानव शरीर में भी यही प्रक्रिया चलती है। बीटी बैक्टीरिया में एक जीन होता है जो कुछ खास किस्म के लार्वा के विरुद्ध कार्य करता है। यह लार्वा कपास या बैंगन की फसल के लिए हानिकारक होते हैं। लार्वा विरोधी इस कोशिका को कपास या बैंगन के पौधे के डीएनए में कृत्रिम रूप से निषेचित किया जाता है। इस कोशिका के जीन्स में कीटनाशक कोड निहित होता है। कीटाणु जब इस जीन्स से बनी फसलों को खाना शुरू करते हैं, तो वे शीघ्र ही मर जाते हैं। इन जीन्स से निर्मित पौधों पर कीटनाशक मारने वाले छिड़काव का भी विपरीत प्रभाव नहीं होता है। भारत में इससे पूर्व जीएम राइस जैसी फसलों पर प्रयोग हो चुके हैं जिसमें प्रोटीन की अधिक मात्र मौजूद रहती है। इससे पूर्व देश में फसलों के हाइब्रिडाइजेशन भारतीय परिवेश के लिहाज से सही साबित नहीं हुए थे। जिस कारण महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कई अन्य हिस्सों में फसलों को नुकसान पहुंचा था। 2002 में देश में 55 हजार किसानों ने देश के चार मध्य और दक्षिणी राज्यों में कपास फसल उगाई थी। फसल रोपने के चार माह बाद कपास के ऊपर उगने वाली रुई ने बढ़Þना बंद कर दिया था। इसके बाद पत्तियां गिरने लगीं। अकेले आंध्र प्रदेश में ही कपास की 79 प्रतिशत फसल को नुकसान पहुंचा था। महाराष्टÑ के विदर्भ में तो किसानों ने अधिक उत्पादक के लालच में भारी ब्याज पर ज्यादा कर्ज लेकर खेती की थी। लेकिन जब फसल ने धोखा दे दिया तो कर्ज के तनाव में आत्महत्या करने लगे। विदर्भ में एक के बाद एक किसान आत्महत्या की खबरों ने भारत को अंतरराष्टÑीय स्तर पर सुर्खियों में ला दिया था। जिस समय तब में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश जहां जहां बीटी बैंगन के भारत में व्यावसायिक प्रयोग की मंजूरी से पूर्व जनसुनवाई कर रहे थे, वहां-वहां विरोध में प्रदर्शन हो रहे थे। कई किसानों ने देसी बीजों से बड़े आकार प्रकार के बैंगनों का अपने खेतों से तोड़ कर लाया और उन्हें बताया कि हमारे देशी बीजों में वह क्षमता है, जिसे किसान अपनी मेहनत से प्रयोगशाला से निकले बीटी बीजों को मात दे खकते हैं। बस किसानों को बेहतर संरक्षण और प्रोत्साहन की दरकार है। ऐसा भी नहीं है कि भारत में बीटी किश्म के बीजों के समर्थक नहीं है। कई वैज्ञानिक बीटी की पैरोकारी भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से देखें तो अभी तक इसका कोई पुख्ता प्रमाण मौजूद नहीं है कि जीएम फसलों से सेहत को सीधे तौर पर कोई नुकसान पहुंचता हो। हालांकि, यह नुकसान नहीं पहुंचाएगा इस बात की कोई गारंटी भी नहीं है। जीएम फसलों से अनजाने में एलर्जी, एंटीबायटिक विरोध, पोषण की कमी और विषाक्तता (टॉक्सिंस) हो सकती है। इसके बावजूद बीटी समर्थकों का कहना है कि हरेक भूखे पेट तक भोजन पहुंचाने के लिए हमें अपनी पारंपरिक भोजन शैली को ही आधार बनाना होगा। मांसेंटो और महिको भारत ने भारत में केवल बैंगन और कपास की आड़ में ही अपना बाजार नहीं देख रही हैं। ये कंपनियां करीब चार दर्जन खद्यान फसलों के आड़ में अपना करोबार समृद्ध कराना चाहती है। बताया जा रहा है कि गेहूं, बासमती चावल, सेब, केला, पपीता, प्याज, तरबूज, मिर्च, कॉफी और सोयाबीन आदि कुल 41 खद्यान्न फसलों में ये कंपनियां अपना शोध कर रही हैं। ये सभी खद्यान्न फसलों को देश के विभिन्न हिस्सों में भारतीय किसान अपनी मेहनत से भारी मात्रा में उगाते हैं। निश्चित रूप से माहिको और मांसेंटो को भारत केवल बैंगन और कपास के रूप में अपना बाजार नहीं दिख रहा है, उनकी नजर देश के दर्जनों खद्यान्न उत्पादन बीजों पर है। यदि ये एक बार किसी न किसी तरह से देश में घुस गई तो धीरे-धीरे अन्य खद्यान्न उत्पादनों पर अपना एक छत्र राज्य कर लेगी। उसका पर्यावरण पर असर नाकारात्मक पड़े या उसके सेवन करने वाले के शरीर में बीमारी हो, यह सब मुनाफा कमाने वाली कंपनियां भला कहां सोचती हैÞ।

शनिवार, अक्तूबर 26, 2013

जाति पूछो जनता की

संदर्भ : जाति जनगणना का क्या हुआ
जाति जनगणना का इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि देश में पिछली बार सन 1931 में अंग्रेजों ने जातियों की गिनती करवाई थी। 21वीं सदी में एक दशक निकल जाने के बाद केंद्र सरकार ने इसके लिए मन बनाया। 21 दिन में पूरी होने वाली 2011 की आम जनगणना के लिए जो राशि खर्च हुई, उस पर प्रति व्यक्ति औसतन 18 रुपये का खर्च आया। वहीं जाति जनगणना में प्रति व्यक्ति औसतन करीब 30 रुपये के हिसाब से बजट रखा गया। लेकिन इनती भारी-भरकम राशि खर्च होने के बाद भी जाति जनगणना का अतापता नहीं है।
संजय स्वदेश करीब एक बरस पहले की बात है। घर पर दो लोग टेबलेट के साथ लैस हो कर आए। जाति गनगणना की जानकारी ली। एक पर्ची दिया और चले गए। आज सहज की वह बात याद आई तो अपने कई मित्रों से यह पूछा कि क्या उनकी भी जाति पूछने वाले कोई आए थे। उन्होंने बताया कि आज तक उनके पास ऐसे सवाल लेकर कोई नहीं आया। जबकि सरकार की एक इकाई वर्ष 2011 से अब तक देश में जाति जनगणना में लगी है। देश की सियासत में मचे काफी बवाल के बाद करीब ढाई बरस पहले जून, 2011 में सामाजिक, आर्थिक व जाति जनगणना की शुरुआत हुई। सरकार ने बताया कि सामाजिक, आर्थिक व जाति जनगणना 2011 में सितंबर तक पूरा कर लिया जाएगा। क्या आपको कभी आपके जेहन में यह सहज ख्याल आया कि इस जनगणना का क्या हुआ। सरकार ने जाति जनगणना के परियोजना के लिए 3543.29 करोड़ रुपये का भारी भरकम बजट तय किया था। देश में हर दस साल पर होने वाली जनगणना 21 दिन में पूरी होती है। 2011 में जो आम जनगणना हुई थी उसके मुकाबले जाति जनगणना के लिए 1345 करोड़ रुपये की अधिक राशि का प्रावधान किया गया। इस जनगणना को पूरी करने के लिए हाईटेक तकनीक अपनाने की भी बात कही गई थी। करीब ढ़ाई महीने पहले एक आरटीआई से यह जानकारी मिली थी कि इस परियोजना में महज 293 करोड़ रुपये ही शेष बचे थे। शायद इन ढ़ाई महीनों में यह राशि और भी अल्प हो चुकी होगी। भारी भरकम बजट के इस गणित को और सरलता से समझिए। 2011 की आम जनगणना के लिए जो राशि खर्च हुई, उस पर प्रति व्यक्ति औसतन 18 रुपये का खर्च आया। वहीं जाति जनगणना में प्रति व्यक्ति औसतन करीब 30 रुपये के हिसाब से बजट रखा गया। लेकिन इनती भारी-भरकम राशि खर्च होने के बाद भी जाति जनगणना का क्या हाल है, इसकी चिंता किसी को नहीं है। सियासी गलियारे में उन लोगों को भी ध्यान नहीं है जिन्होंने जाति जनगणना के पुराजोर पैरोकार थे। इस जनगणना के खिलाफ गला फाड़ कर विरोध करने वालों भी अब चुप है। कम से कम विरोधी तो यह सवाल खड़े कर ही सकते हैं कि इनती बड़ी राशि खर्च करने के बाद भी जाति जनगणना की हालत क्या है। सरकार चाहती तो 2011 के ही आम जनगणना में महज एक जाति का कॉलम जोड़ कर देश में जातिवार जनसंख्या का आंकड़ा जान सकती थी। लेकिन अफसरशाही ने नियम कायदों का धौंस दिखा कर गोपनियता की दुहाई देकर अपनी मनमर्जी चला ली। लिहाजा, नई परियोजना बनी। भारी भरकम बजट रखा गया और परिणाम क्या आया आज तक कोई खबर नहीं। जाति जनगणना का इतिहास खंगालने पर पता चलता है कि देश में पिछली बार सन 1931 में अंग्रेजों ने जातियों की गिनती करवाई थी। अंगरेज तो चले गए, लेकिन उसके बाद आजाद भारत की सरकार ने कभी जाति जनगणना की सुध नहीं ली। जबकि देश के संतुलित समाजिक व जातिगत विकास के लिए यह जनगणना बेहतर जरूरत थी। जाति व्यवस्था पर संचालित हजारों वर्षों के सामाजिक व्यवस्था को आजाद भारत में इसे समाज की आवश्यक बुराई कर कर हासिये पर रख दिया गया। लेकिन दशकों बाद जब हाशिये के जाति के लोग पढ़ लिख कर सचेत हुए तो इक्कीसवी सदी की सरकार जाति जनगणना की सुध लेती है। पर इसके लिए अपनाये जााने वाले इस युग की हाईटेक तकनीक में यह जाति जनगणना पूरी तरह से दम तोड़ती दिख रही है। इसमें कोई शक नहीं कि देश में जाति की राजनीति होती है। हर चुनाव में उम्मीदवारों के चयन के वक्त जातिय समीकरण का विशेष ध्यान रखा जाता है। भारी भरकम बजट उपलब्ध करा कर सरकार भले ही देश की जातिगत जनगणना में फेल होती दिख रही हो, लेकिन राजनीतिक दल हमेशा इसमें अव्वल रहे हैं। हर राजनीतिक दल चुनाव से पहले संबंधित क्षेत्र के जातिय मतदाओं की संख्या के आधार पर अपना राजनीतिक गणित समझ-बुझ लेते हैं। आम कार्यकर्ता मतदाता सूची और पंचायत स्तर पर मिले कमोबेश आंकड़ों से अपना सटीक हिसाब निकाल कर आला कमान को सौंपते हैं। और उसी पर राजनीतिक चलती है। जनगणना विभाग से जुड़े जानकार बताते हैं कि हाईटेक तकनीक से होने वाली जाति जनगणना में करीब छह करोड़ टेबलेट का उपयोग होने वाला था। सरकार ने कितना टेबलेट खरीदा वही जाने। *******************

शनिवार, अक्तूबर 05, 2013

छत्तीसगढ़ में विकास बनाम भ्रष्टाचार पर जंग

विधानसभा चुनाव : संजय स्वदेश/रायपुर देश की राजधानी दिल्ली में जैसे ही चुनाव आयोग ने विधानसभा चुनाव की घोषणा की, छत्तीसगढ़ की की राजधानी रायपुर की सियासी गलियारे में हलचल बढ़ गई। आचार संहिता को लागू करने के लिए प्रशासन पहले से मुस्तैद बैठा था। सड़कों के किनारे चमकते दमकते आकर्षक पोस्टर फटने लगे। सरकार व मंत्रियों से संबंधित होर्डिंग उतरने लगे। सरकारी गैरेज में मंत्रियों की गाड़ियां पहुंचे लगी। मंत्रियों का रूतबा उतर गया। शहर नेताओं से आजाद हो गया। छोटे से राज्य के दो बड़े दल भाजपा और कांग्रेस खुल कर मैदान में उतर गए। उनके तरकश से मुद्दे के तीर छूटने लगे। दशक भर से राज्य की सत्ता से महरूम कांग्रेस ने हुंकार भरी। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश के कद्दवार कांग्रेस रविंद्र चौबे ने ललकारते हुए कहा कि चुनावी मैदान में उतरने तैयार हैं। भाजपा सरकार का भ्रष्टाचार और वादाखिलाफी जैसे कई मुद्दों पर आक्रोशित जनता सरकार को उखाड़ फेंकने तैयार है। आचार संहिता प्रभावी होने के साथ इस सरकार के ताबूत में अंतिम कील ठुक चुका है। अक्सर मौन और सौम्य दिखने वाले चाउर वाले बाबा डा. रमन सिंह भी मुखर हो गए। आचार संहिता लागू होते ही पहली प्रतिक्रिया दी- हम तो तैयार ही बैठे हैं। विकास के मुद्दे के साथ यह चुनाव लड़ा जाएगा। जनता के बीच सरकार अपनी उपलब्धियों को लेकर जाएगी। कांग्रेस के पास कोई मुद्दा नहीं है। विकास यात्रा में जनता का जो उत्साह छलका, उसके बेहतर परिणाम नजर आएंगे। भाजपा सरकार ने अपने वादे के अलावा अतिरिक्त कार्य भी किए हैं। इसका भी फायदा मिलेगा। डा. रमन के मुताबिक छत्तीसगढ़ में इस बार 5 से 7 फीसदी अधिक वोट पड़ेंगे। बीते चुनाव की तुलना में इस बार भाजपा की अधिक सीटें जीतकर आएगी। इसके साथ ही मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वे राजनांदगांव से ही चुनाव लड़ेंगे। बीच में यह चर्चा सुर्खियों में थी कि डा. रमन सिंह अपना चुनावी मैदान बदल सकते हैं या फिर दो जगह से मैदान में उतर सकते हैँ। विकास बनाम भ्रष्टाचार मतलब साफ है, निर्वतमान सरकार के मुखिया डा. रमन सिंह अपने विकास कार्यों का हिसाब किताब छत्तीसगढ़ की जनता को बताएंगे और फिर से सत्ता का मौका पाएंगे। रमन के विकास में भ्रष्टाचार देखने वाली कांग्रेस भ्रष्टचार के मुद्दे को ही जनता में भुनाने की आस में बैठी है। फिलहाल कांग्रेस की अंदरूनी गुटबाजी की ऊंट किस करवट बैठेगा यह ठोस कुछ कहा नहीं जा सकता है। पूरे के पूरे चुनावी समीकरण इसी पर निर्भर है। हालांकि तीसरे मोर्चे को लेकर जो चर्चाएं थी, उसका असर कुछ खास पड़े ऐसी कोई गुंजाइश नहीं दिख रही है। तीसरे मोर्चे का असर स्थानीय स्तर पर उम्मीदवारों के अनुसार भाजपा और कांग्रेस के वोटों पर असर करेगा। पर लड़ाई भाजपा और कांग्रेस के बीच ही रहेगी। तू डाल-डाल मैं पात पात चुनाव में मुद्दे को लेकर कांग्रेस ओर भाजपा के बीच तू डाल डाल मैं पात पात की स्थिति की संभावना बनती दिख रही है। चुनाव की घोषणा होने से से पहले ही भाजपा और विपक्ष कांग्रेस ने अपनी रणनीतियों को मूर्त रूप देना शुरू कर दिया था। भाजपा के चाणक्यों को रमन सरकार के दस वर्ष के कार्यकाल एवं विकास के मुद्दों का ही ब्रहत्र है। वहीं कांग्रेस रमन सरकार के भ्रष्टाचार को लेकर जनता दरबार में जमेगी। लिहाजा, भाजपा के धुरंधरों को विकास के दांव के साथ कांग्रेस के भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जवाब देना थोड़ा मुश्किल कर सकता है। भ्रष्टाचार सहित जीरम घाटी नक्सल हादसा समेत नक्सली हिंसा में मारे गए आदिवासियों का मुद्दे कांग्रेस के तरकस के कुछ ऐसे तीर हैं जो भाजपा को निरूत्तर कर सकते हैं। इन मुद्दों को भुनाएगी भाजपा -दस वर्ष में छत्तीसगढ़ का विकास -उपलब्धियां और योजनाओं का ब्योरा -खाद्यान्न सुरक्षा और सार्वजनिक वितरण प्रणाली -विभिन्न वर्गों को सौगातें -इस कुशासन को गिनाएगी कांग्रेस - दस वर्ष के कुशासन और भ्रष्टाचार - जीरम नक्सल हादसे में चूक - नक्सली हिंसा और लचर कानून व्यवस्था - सरकार की वादाखिलाफी - प्रशासनिक आतंकवाद - मंत्रियों की खींचतान - घोटालेबाजों को संरक्षण - किसानों की आत्महत्या - आदिवासियों और दलितों पर अत्याचार - कांकेर के कन्या आश्रम में सरकारी संरक्षण में दुष्कर्म

मंगलवार, सितंबर 24, 2013

दंगे की आग में जल गया कोयला

दंगे की आग में जल गया कोयला दंगा हुआ मुजफ्फरनगर में। लोगों के घर जले और दिल भी। लेकिन दंगों पर सद्भावना दिखानेवाली कांग्रेस सरकार ने क्या किया? उसने बड़ी चालाकी से दंगों की इसी आग में कोयला भी जला लिया और राख का ढेर भी फूंककर हवा में उड़ा दिया। आप सोच रहे होंगे कैसे तो समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है। कोयले की आग में जल रही केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने सीएजी की उस रिपोर्ट को हवा कर दिया है जिसमें एक बार फिर यही बात कही गई है कि खनन कंपनियां देश को लूट रही है। लेकिन तब जब सीएजी ने यह बात कही थी तब शुरू हुआ हंगामा अब तक जारी है लेकिन अब सीएजी वही बात कह रही है तो किसी को कान देने की फुर्सत नहीं है। न मीडिया को, और न ही विपक्ष को। सब मुजफ्फरनगर की आग में हाथ सेंक रहे हैं। ********************************************** संजय स्वदेश ************************************************************ 2002 से 2012 के बीच की इस रिपोर्ट में हालांकि सीएजी ने विपक्षी दल भाजपा की एनडीए सरकार पर भी अंगुली उठाई है लेकिन कांग्रेस को भी इतनी फुर्सत कहां कि वह भाजपा को आइना दिखा सके। इस बीच भाजपा भी भूल ही गई है कि सीबीआई की फाइलें भी गायब हैं और गायब फाइलें मिल रही हैं उसमें से पन्ने के पन्ने गायब हैं। कोलगेट कांड में राजनीतिक दलों की यह उदासी शायद इसलिए कि मुजफ्फरनगर कांड के कोलाहल के बीच आई सीएजी की रिपोर्ट पर किसी ने कान देने की जरूरत ही नहीं समझी। इसलिए इस रिपोर्ट की कही न कोई ठीक से खबर आई और न ही विपक्षी दलों ने मुद्दे के रूप में उठाया। राजनीतिक रूप से देखें तो विपक्ष के लिए यह एक शानदार और महत्वपूर्ण मौका था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार को कोलगेट मामले में फटकार लगा रहा था और जनता के जेहन में कोलगेट की बात अभी भी बनी हुई है। कभी छत्तीसगढ़, ओडिशा, कर्नाटक, झारखंड तो कभी उत्तर प्रदेश में काले सोने के काले धंधे का दाग किसी न किसी प्रदेश पर जरूर लगता है। मीडिया में शोर मचता है, आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता है, पर होता कुछ नहीं। सैकड़ों करोड़ों रुपये के घपले की सत्यता परखने के लिए जांच बैठा दी जाती है। जांच की रिपोर्ट कब आती है, क्या कार्रवाई होती है, यह सब मीडिया के सुर्खियों में नहीं आ पाता है। कभी जांच पड़ताल में कोई मृत निकलता है तो फाइल गायब मिलती है। जानने वाले तो यह भी जानते हैं विभागीय जांच पड़ताल के दौरान घपले की फाइलों को दबा दी जाती है या उसमें हेर फेर कर हिसाब किताब सुधार लिया जाता है। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, कोयले की लूट खसोट में हर दल शामिल रहा है। कैग की ताजा रिपोर्ट 2002 से 2012 तक की अवधि पर आधारित है। इस समय अवधि में केंद्र में एनडीए और यूपीए दोनों की सरकार रही। मतलब साफ है, कोयले की लूट में हर प्रमुख दल शामिल रहा। लिहाजा, कौन सा दल किसका गिरबान पकड़े, आसान स्थिति नहीं है। गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार के जल संसाधन मंत्री जब लाइमस्टोन के अवैध खनन मामले में भीतर गए तो उनके साथ कांग्रेस के पूर्व सांसद भी थे। जानकार लोग कहते हैं कि सत्ता के गलियारे में कोल परियोजनाओं से जुड़े माफियाओं का नेटवर्क इतना मजबूत है कि उनकी मनमर्जी चलती रहती है। जंगल क्षेत्रों में कोल खनन के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की भी हरी झंडी जरूरी है। कैग के नये रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि खनन कार्य वन संरक्षण कानून के मुताबिक नहीं हो रहा है। कोल माफियाओं का नेटवर्क इतना प्रभावशाली है कि वे सत्ता के संरक्षण में ही ऐसे कानूनों को अपनी मनमर्जी के आगे बेवस बना देते हैं। केंद्र और प्रदेश सरकार इनके प्रभाव में होते हैं। किसी भी कंपनी को कोल खनन प्रदेश सरकार सहमति के बगैर नहीं मिलते हैं। लिहाजा, लूट के खेल में प्रदेश सरकारों की भूमिका को भी बाखूबी समझी जा सकती है। दामन में दांग होने के कारण ही कई बार केंद्र के निर्णय पर प्रदेश सरकार चुपचाप रहती है। 52 निजी कंपनियों के पट्टे बिना गिरानी रिपोर्ट के ही बढ़ा दिए गए। न कहीं खबर चली और नहीं ही कोई शोर-शराबा हुआ। आमतौर पर यह देखा गया है कि ऐसे निर्णय उसी दौरान लिए जाते हैं जब देश की जनता व मीडिया का ध्यान दूसरी खबरों में डूबा रहता है। पश्चिम उत्तर प्रदेश के दंगे में न केवल इंसानियत जली बल्कि उसके शोर-शराबे की आड़ में प्रकृति संसाधानों की लूट खसोड़ पर आधारित एक बड़ी रिपोर्ट गुम हो गई।

सोमवार, सितंबर 16, 2013

जनता को जगाओ, बच्चों को बचाओ

भारत में केंद्र और राज्य सरकार के ढेरों ऐसी योजनाएं हैं जिसके माध्यम से सरकारी अमला बच्चों के बेहतर भविष्य का दावा करता हैं, लेकिन हालात यह है कि ऐसी योजनाएं लाखों मासूम तक पहुंचने से पहले भ्रष्टाचार का ग्रास बन जाती है। ये भ्रष्टाचारी कभी यह नहीं सोचते हैं कि जिनके हिस्से की राशि वे भ्रष्टाचार के रूप में लेकर कर अपने घर-परिवार में बच्चों को ऐसो आराम उपलब्ध करा रहे हैं, दरअसल उसकी कीमत किसी दूसरे के गोद के मासूम के मुंह में जाने वाला निवाला है, स्वास्थ्य सुविधाओं समेत अन्य दूसरी योजनाओं के रूप में उनकी जिंदगी है।
संजय स्वदेश संयुक्त राष्ट्र ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि उसके प्रयासों से पिछले दो दशक में दुनिया भर के करीब नौ लाख बच्चों की जिंदगियां बचाई जा सकी हैं लेकिन 2015 तक इस मृत्यु दर में दो तिहाई की कमी का लक्ष्य फिलहाल पूरा होता नहीं दिखता। रिपोर्ट खुलासा करती है कि 1990 में जहां विभिन्न कारणों से दुनिया भर में पांच साल तक की आयु के एक करोड़ 26 लाख बच्चे असमय काल के ग्रास बन गए। वहीं 2012 में यह आंकड़ा 66 लाख पर ही रुक गया। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के आधे से अधिक बच्चों की मौत अकेले भारत, चीन, कांगो, पाकिस्तान और नाइजीरिया में होती है। बच्चों की इस असामयिक मौत के लिए निमोनिया, मलेरिया और दस्त के साथ कुपोषण को बड़ी वजह बताया गया है। इस अभियान का सबसे सुखद, सराहनीय और उल्लेखनीय पहलू यह है कि बांग्लादेश, इथोपिया, नेपाल, लाइबेरिया, मलावी और तंजानिया जैसे गरीब देश भरसक कोशिश करते हुए 1990 के बाद से अब तक अपने यहां बाल मृत्यु दर में दो तिहाई या उससे अधिक की कमी का लक्ष्य हासिल कर प्रेरक बन गए हैं। ए गरीब देश भारत जैसे विकासोन्मुख देशों के लिए बड़ी प्रेरणा कहे जा सकते हैं जहां दिन-ब-दिन बढ़Þती जनसंख्या के साथ बाल मृत्यु दर सबसे भयावह समस्या बनी हुई है। यूनिसेफ की 2012 की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2011 में वैश्विक स्तर पर इस आयु वर्ग के प्रतिदिन मरने वाले 19000 बच्चों में से करीब चौथाई भारत में मृत्यु का ग्रास बने। यानी हर दिन करीब चार हजार बच्चे मौत के मुंह में समा गए। बाल विकास के नाम पर तमाम सरकारी और गैर-सरकारी योजनाओं की मौजूदगी के बावजूद अपने यहां दुनिया के बाकी देशों की तुलना में सबसे ज्यादा मौतें होना बहुत त्रासद और विचारणीय है। अपने यहां बच्चों की असामयिक मौत के पीछे गरीबी, कुपोषण और अशिक्षा सबसे बड़े कारण माने जाते हैं और इसके लिए अंतत: हमारा शासन तंत्र जिम्मेदार है। भारत में केंद्र और राज्य सरकार के ढेरों ऐसी योजनाएं हैं जिसके माध्यम से सरकारी अमला बच्चों के बेहतर भविष्य का दावा करता हैं, लेकिन हालात यह है कि ऐसी योजनाएं लाखों मासूम तक पहुंचने से पहले भ्रष्टाचार का ग्रास बन जाती है। ये भ्रष्टाचारी कभी यह नहीं सोचते हैं कि जिनके हिस्से की राशि वे भ्रष्टाचार के रूप में लेकर कर अपने घर-परिवार में बच्चों को ऐसो आराम उपलब्ध करा रहे हैं, दरअसल उसकी कीमत किसी दूसरे के गोद के मासूम के मुंह में जाने वाला निवाला है, स्वास्थ्य सुविधाओं समेत अन्य दूसरी योजनाओं के रूप में उनकी जिंदगी है। मासूम बच्चों के लालन-पालन, स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए अनुकूल माहौल बनाने की जिम्मेदारी केवल केंद्र सरकार पर नहीं हैं। केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकार के कंधे पर भी यही बोझ है। आज के मासूम बच्चे ही कल के जिम्मेदार नागरिक हैंÑ, जैसा वे वातावरण पाकर बड़े होंगे वैसा ही आने वाले भारत का भविष्य होगा। आज देश में छोटे-बड़े क्षेत्रों में कई क्रूर इंसान मिल जाएंगे। वे असामाजिक तत्वों के दायरे में आएंगे। दरअसल ऐसी प्रवृत्ति उनके बचपन में मिले वातावरण के कारण ही विकसित हुए। समाज की भी ऐसी जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने बीच के भूखे-नंगे और किसी बीमारी से पीड़ित बच्चों की सुध ले। भविष्य संवारने की जिम्मेदारी केवल सरकार और एक परिवार विशेष की नहीं होती है। समाज को इस दिशा के सोचना बेहद जरूरी है कि आज के नौनिहालों के मन में यदि नकारात्मक प्रवृत्ति घर करती है और वे बड़े होकर असामाजिक तत्वों हो जाते हैं। फिर वे उसी समाज को दर्द देंगे। समाजिक-सरकारी उपेक्षा से में पल कर तैयार होने वाले नागरिक इस बात की गारंटी नहीं दिलाते हैं कि वे अपने बचपन में समाजिक और सरकारी उपेक्षा के बदले समाज और देश के साथ कुछ अच्छा करेंगे। राष्टÑीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चलाई जाने वाली योजनाओं की सफलता की रफ्तार बहुत धीमे हैं। क्योंकि इन योजनाओं में समाज का उचित सहयोग नहीं मिल पता है। समाज में माहौल तैयार करने की प्रक्रिया एक वाहन के दो पहिए की तरह है। एक पहिया योजनाओं के क्रियान्वयन करने वाले एजेंसियों हैं तो दूसरा समाज। यह सामूहिक जिम्मेदारी है।

सोमवार, सितंबर 09, 2013

समाज के रग में दंगे का जहर

देश में शांति का काल हो या अशांति का। मजहबी हिंसा रोज-रोज की बात बन चुकी है। दंगे को रोकने के लिए हर काफर््यू में दो चार दिनों के लिए वहां के नागरिक घरों में दुबक जाते हैं। जिंदगी थम जाती है, किसी के घर में खाने को है या नहीं यह देखने वाला कोई नहीं। किसी मासूम बच्चों को दूध मिला की नहीं, इस सोचने वाला नहीं है। उन्नमादियों ने आग लगाई और पूरी जनता ने सजा भोगी। क्या ऐसे मामले में 24 घंटे के अंदर उन्नमादियों पर नकेल कर कर पूरी जनता को राहत देने की दृढ़ता हमारे प्रशासन तंत्र में नहीं है?
संजय स्वदेश हाल के कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में एक के बाद एक दंगे ने साफ कर दिया है कि प्रशासनतंत्र दंगाइयों को रोकने में नाकाम है। ताजा मामला मुजफ्फरनगर जिले में भड़की हिंसा का है, जिसमें सरकारी आंकड़ों के अनुसार 26 लोगों की जान गई और दर्जनों लोग घायल हुए। पर गैर सरकारी आंकड़े इससे दोगुने के हैं। ऐसे हर हालात के बाद की तरह सरकार ने काफर््यू लगा दिया। हर काफर््यू में दो चार दिनों के लिए वहां के नागरिक घरों में दुबक जाते हैं। जिंदगी थम जाती है, किसी के घर में खाने को है या नहीं यह देखने वाला कोई नहीं। किसी मासूम बच्चों को दूध मिला की नहीं, इस सोचने वाला नहीं है। उन्नमादियों ने आग लगाई और पूरी जनता ने सजा भोगी। क्या ऐसे मामले में 24 घंटे के अंदर उन्नमादियों पर नकेल कर कर पूरी जनता को राहत देने की दृढ़ता हमारे प्रशासन तंत्र में नहीं है? जब तक दंगाइयों के मन में यह बात नहीं होती है कि उनके छोटे या बड़े कद के आका उनके नापाक हरकतों पर संरक्षण दे देंगे, वे खून कैसे बहाएंगे। पहले भी उत्तर प्रदेश के मुलायम सरकार पर दंगे को लेकर एक समुदाय विशेष पर तुष्टीकरण का आरोप लगा है। पढ़े-लिखे, दूरदर्शी सोच रखने वाले अखिलेश यादव भी पिता की इसी नक्शे कदम पर हैं। केंद्र में बैठी सरकार भी महज वोट वैंक के लिए ऐसी गंभीर मामले में आंखे मूंदे रहती है। मासूम दंगे की आग में जलते मरते हैं। काफर््यू में जनता पीसती रहती है। पीड़ितों की पीढ़ियां इसका दंश झेलती है। हमारे समाज में दंगे में पीड़ितों के भावी पीड़ियों पर क्या असर पड़ा इसको पीछे मुड़कर देखने की किसे पड़ी है। देश के किसी न किसी हिस्से में कहीं छोटे तो कहीं बड़े दंगे होते रहते हैं। लेकिन इस पर नियंत्रण के लिए न समाज में कोई ठोस चिंता दिख रही है और न ही किसी सरकार में दृढ़ता। देश में शांति का काल हो या अशांति का। मजहबी हिंसा रोज-रोज की बात बन चुकी है। दूर-दराज के क्षेत्रों में होने वाले ऐसे दंगे भले ही राष्टÑीय मीडिया के सुर्खियों में नहीं आते हों, लेकिन स्थानीय स्तर पर ही बड़ा भयावह परिणाम छोड़ जाते हैं। पिछले दिनों स्वयं केंद्र सरकार ने संसद में यह स्वीकार किया कि सांप्रदायिक हिंसा सरकार के लिए एक चुनौती के तौर पर उभर रही है। वर्ष 2012 में सांसद में प्रस्तुत पिछले तीन साल में सांप्रदायिक हिंसा के 2,420 मामले सामने आए जिसमें कम से कम 427 लोगों की मौत हो गई। इन आंकड़ों औसत देंखे तो देश में किसी न किसी हिस्से में हर दिन दो सांप्रदायिक हिंसा हो रहे हैं। इस हिंसा में हर माह करीब 11 लोग मौत के घाट उतर रहे हैं। घायलों की संख्या अलग है। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2012 के अगस्त तक सांप्रदायिक हिंसा के 338 मामले सामने आए जिसमें 53 लोगों की मौत हुई, जबकि 1,059 लोग घायल हुए। 2010 में सांप्रदायिक हिंसा की 651 घटनाओं में 114 लोगों की मौत हो गई और 2,115 व्यक्ति घायल हो गए। 2009 में सांप्रदायिक हिंसा की 773 घटनाओं में 123 लोगों की मौत हो गई जबकि 2,417 लोग घायल हुए। 2008 में सांप्रदायिक हिंसा की 656 घटनाओं में 123 लोगों की मौत हो गई जबकि 2,270 लोग घायल हुए। हालात को चुनौतीपूर्ण मानते हुए केद्र सरकार ने संबंधित राज्य सरकारों को इस तरह की घटनाओं से सख्ती से निपटने की सलाह देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पा ली। इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसी भी सांप्रदायिक हिंसा का समाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है। लेकिन सरकार के नेतृत्व थामने वाले किसी न किसी रूप में किसी सांप्रदाय विशेष के दामन में राजनीतिक लाभ के लिए आंखे बंद कर लेते हैं। इससे समाज के रंगों में जिस जहर का प्रवाह होता है, वह राष्टÑ के लिए घातक है। राष्टÑीय स्तर के अनेक ऐसी हिंसक घटनाओं के कारण देश अंतरराष्टÑीय स्तर पर सुर्खियों में रहा है। उसका दंश आज भी समाज के सैकड़ों लोग भोग रहे हैं। काल मार्क्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा दी थी। मतलब यह है कि धर्म के प्रति लोगों की अस्था ही हद नसेड़ी की अफीक की नशा की तरह है, जो हर कीमत पर नशा नहीं त्यागना चाहता है, भले ही उसकी जान क्यों न चली जाए। समाज की इसी कमजोरी को हर समुदाय के कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ को साधने का हथियार बनाया। भारत में अब तक हुए दंगों में सैकड़ों मासूमों के खून बह गये। पर क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया आदि तर्कों के नाम पर दंगों के उन्मादी जहर को रोकने के लिए समाज की ओर से कोई ठोस पहल की बड़ी जरुरत है। केवल कठोर कानून से काम नहीं चलेगा। कानून को लागू करा कर इसे सख्ती से निपटने की जरूरत है। जब तक लोगों में कानून का डर नहीं होगा और दंगाइयों के मन यह बात नहीं निकलेगी कि दूसरे के खुद बहाने पर उन्हें किसी का संरक्षण काम नहीं आएगा,उनके रंगों में बहता जहर नहीं धुलेगा।

रविवार, अगस्त 18, 2013

...तो कौन हरचरना जन गण मन गाएगा

आजाद भारत के छह दशक में ऐसे कई मौके आए जब कई जिम्मेदार हस्तियोंं ने राष्टÑध्वज को अपमान किया। लेकिन उसे मानवीय भूल समझ कर अनदेखी कर दी गई। कई राज्यों के सिनेमाघर में फिल्म शुरू होने से पहले लहराते तिरंगे के चलचित्र के साथ राष्टÑगान चलाया जाता है। लोग सम्मान में खड़े होते, कई बैठे रहते हैं। विकसित भारत में राष्टÑध्वज और राष्टÑगान के प्रति तेजी से घटते सम्मान के माहौल में यदि दलित समुदाय राष्टÑध्वज के लिए कमर कसते हैं, लड़ने मरने के लिए तैयार हैं, तो उस पर भृकुटी तानने वाले निश्चित रूप से गलत हैं। यदि ऐसे लोगों का दमन किया गया तो ने फिर कभी कोई फट्टा सुथन्ना हरचरना जन गण मन नहीं गाएगा।
संजय स्वदेश हिंदी के प्रसिद्ध कवि घुवीर सहाय की राष्ट्रगीत पर एक कविता की कुछ पक्तियों पर गौर करें-जनगण मन में कौन वो भाग्य विधाता है। फटा सुथन्ना पहने जिसके गुण हरचरना गाता है...कविता के इस अंश का प्रसंग इस लिए किया जा रहा है कि आजाद भारत के सम्मान व गर्व के प्रतीक राष्टÑध्वज के लिए न जाने देश को कितनी कुर्बानी देनी पड़ी उसी तिरंगे के शान में खड़े होने वाले फटे सुथन्ने हरचरना एक दलित की उस बिहार राज्य में हत्या कर दी जाती है जहां कि स्वतंत्र वीरों ने गोली खाकर तिरंगे को गिरने दिया। बिहार के सासाराम में 67वें स्वतंत्रता दिवस के दिन दलितों पर जैसा जुल्म ढाया गया उससे फिर सवाल खड़ा हो गया है कि क्या अंग्रेजों से मिली आजादी सभी देशवासियों से लिए थी। सासाराम के बद्दी गांव में दलितों का संत रविदास मंदिर के सामने स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा फहराना ऊंची जाति वालों को इतना नागवार गुजरा कि पत्थर से मारकर एक की हत्या कर दी। हमले में 40 लोग जख्मी हुए हैं। कत्थित सर्वण समुदाय के लोगों की भीड़ ने स्कूली बच्चों को भी नहीं छोड़ा। सड़कों पर दलित बच्चों पर हमले हुए। जो बच्चे घरों में थे उन्हें छत से नीचे फेंक दिया गया। पुलिसकर्मियों पर आरोप है कि उन्होंने इस हमले की अनदेखी की। जख्मी लोगों में ज्यादातर बुजुर्ग, बच्चे और महिलाएं शामिल हैं। बताया गया कि गंभीर रूप से जख्मी लोगों को पटना के पीएमसीएच हॉस्पिटल में शिफ्ट किया गया। मीडिया की मुख्यधारा से यह समाचार गायब है। आॅनलाइन मीडिया में ऐसे समाचार की चर्चा है। सवर्ण समुदाय वाले प्रभाव के माने जाने वाले बद्दी गांव में 15 दिन पहले से ही तनाव का माहौल था। गांव में सवर्ण समुदाय के लोगों ने यह निर्णय लिया था कि स्वतंत्रता सेनानी निशांत सिंह की मूर्ति लगाई जाएगी और वहीं के रविदास मंदिर प्रवेश द्वार के सामने प्लॉट पर तिरंगा फहराएंगे। इसी जगह पर 15 अगस्त के दिन दलित समुदाय के लोग तिरंगा लहराने गए थे। मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए प्रशासन ने दोनों पक्षों के साथ बैठक की थी। प्रशासन के इस पहल से भी गतिरोध और तनाव में कोई कमी नहीं आई। जमाना बदल चुका है, अब वे दिन नहीं रहे जब दलित घुड़कियों पर चुप हो जाया करते थे। आज सीने पर गोली खा कर अपनी मान मर्यादा की रक्षा के लिए मरने से पीछे नहीं हटते हैं। देश में हुई ऐसे अनेक घटना इस बात को साबित भी कर चुकी है। जब सवर्ण समुदाय ने यह निर्णय ले लिया कि उस जगह पर स्वतंत्रता सेनानी निशांत सिंह की मूर्ति के सामने वे तिरंगा लहराएंगे। तो दलित समुदाय के लोगों ने भी इनके डर से पीछे नहीं हटने का फैसला किया था। लिहाजा, यह टकराव स्वाभाविक था। हिन्दुस्तान की धरती पर समय-समय दलित समुदाय ने भी कई महान और साहसी लोगों को जन्म दिया है, जिन्होंने अपने बल पर अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे कर दिए थे। बिहार और झारखण्ड की धरती पर बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा अगर दिया जाता है तो उसके पीछे एक बहुत बड़ी वजह भी है कि मात्र 25 साल की उम्र में उन्होंने लोगों को एकत्रित कर एक ऐसे आंदोलन का संचालन किया जिसने देश की स्वतंत्रता में अहम योगदान दिया। जिस हिंदू वर्ण व्यवस्था से जन्म सवर्ण समुदाय ने आदिवासियों और दलितों को अपनी बराबरी का दर्जा नहीं दिया, उसके एक बड़े समुदाय को बिरसा मुंडा ने आदिवासी समाज में एकता लाकर देश में धर्मांतरण को रोका और दमन के खिलाफ आवाज उठाई। वीरांगना झल्लकारी बाई के योगदानों को इतिहास में उतनी जगह नहीं मिली जितनी कि वह हकदार थी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में दलित समुदाय के ऐसे अनगिनत योद्धा हैं जिन्होंने आजादी के लिए अपनी जान की कुर्बानी दी। लिहाजा, इस समुदाय को भी राष्टÑध्वज लहराने में उतना ही फक्र महसूस होता है जितना दूसरे समुदाय को। आजाद भारत के छह दशक में ऐसे कई मौके आए जब कई जिम्मेदार हस्तियोंं ने राष्टÑध्वज को अपमान किया। लेकिन उसे मानवीय भूल समझ कर अनदेखी कर दी गई। कई राज्यों के सिनेमाघर में फिल्म शुरू होने से पहले लहराते तिरंगे के चलचित्र के साथ राष्टÑगान चलाया जाता है। ढेरों लोग सम्मान में खड़े होते, कई बैठे रहते हैं। विकसित भारत में राष्टÑध्वज और राष्टÑगान के प्रति तेजी से घटते सम्मान के माहौल में यदि दलित समुदाय राष्टÑध्वज के लिए कमर कसते हैं, लड़ने मरने के लिए तैयार हैं, तो उस पर भृकुटी तानने वाले निश्चित रूप से गलत हैं। यदि ऐसे लोगों का दमन किया गया तो ने फिर कभी कोई फट्टा सुथन्ना हरचरना जन गण मन नहीं गाएगा।

बुधवार, अगस्त 07, 2013

फिर कोई नये नाम से मैदान में डटेगा

संजय स्वदेश करीब डेढ़ दशक पहले जब खबरिया चैनल तेजी से पनपने लगे तब यह चर्चा जोरशोर से हुई कि अब समाचार पत्रों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। वर्तमान हालात देख कर लगता है कि प्रिंट मीडिया ने इन डेढ़ दशक में अपना पांव और मजबूत कर लिया। भारत के समाचार पंजीयक के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के अनुसार देश में 86754 समाचार प्रकाशित हो रहे हैं। इसमें 16310 समाचार पत्रों का तो बकायदा वार्षिक रिपोर्ट भी जमा की गई। इसमें ढेरों संख्या लुघ पत्र पत्रिकाओं की भी है। समाचार चैनलों के विकास के उतार-चढ़ाव के दौर में समाचार पत्रों की विश्वसनीयता समाप्त नहीं हुई। बड़े घराने के बड़े समाचार पत्र समूहों ने तो अपने संस्करणों को बढ़ाया। नई-नई यूनिटों की भी शुरुआत की। आखिर क्यों? कई मीडिया दिग्गजों ने कहा कि अब कालाधन को मीडिया के माध्यम से ही सफेद किया जाने लगा है। संपादकीय नीति पूरी तरह समाचारपत्रों के मालिकानों के द्वारा ही संचालित हो रहे हैं। मंदी के दौर में भी विज्ञापनों की भरमार रही। इसके अलावा भी अनेक ऐसी परिस्थितियां हैं जिससे मीडिया की साख पर बट्टा तो लगा, लेकिन पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से विचारों के साथ खबरों को जानने की बेचैनी कम नहीं हुई। हां, व्यस्त जिंदगी में अखबारों के एक-एक शब्द पढ़ जाने वाले वैसे पाठक अब बिरले ही बचे हैं। देश में ऐसे परिवारों की संख्या कम नहीं है जिनकी चाय बिना अखबार के हजम होती हो। यह जरूर हुआ कि खबरों के प्रसार चाहे प्रिंट हो या इलेकट्रॉनिक माध्यम इनके समाचारों के प्रति मानवीय सवंदेना कम जरूर हुर्इं। समाचारों के सुर्खियों में आने के बाद भी संबंधित तंत्र की निष्क्रियता जरूर साबित हो गई है। बार-बार खबरों की सुर्खियों से भी कभी-कभार सत्ता तंत्र सचेत नहीं होता है तो भला इसमें मीडिया कहां दोषी है। उसके हाथ में क्या है। पत्रकार की जिम्मेदारी कवरेज तक सीमित है। न्याय-अन्याय का वह निर्धारण नहीं कर सकता है। स्थितियों को बतला भर सकता है। उसका काम है सच को परोसाना। बदलते दौर में भले ही मीडिया में ढेरों बुराइयों का शुमार हुआ हो, लेकिन ढेरों बिसंगतियों के बाद आज भी कई बार मीडिया ने अपनी सार्थकर्ता साबित की। अब समाज की बढ़ती असंवेदनशीलता से दुनिया को हिला देने वाली खबरों की उम्र भी सप्ताह से ज्यादा नहीं होती। तो इसमें मीडिया का क्या दोष। आज अखबार वाले वहीं लिख रहे हैं जो समाज पढ़ना चाहता है। टीवी वाले वही दिखा रहे हैं जो उसका दर्शक देखना चाह रहा है, तो किसको कैसे कटघरे में खड़ा किया जाए। ऐसे पाठक और दर्शकों की संख्या निश्चय ही ज्यादा है। लेकिन इन्हीं सबके बीच ऐसे पाठक भी हैं जो देश-दुनिया के सरोकार को लेकर गंभीर हैं। उनके अंदर एक बेचैनी है, उनके मन मुताबिक मीडिया कंटेंट की। वृहद समाज में ऐसे लघु संख्यक पाठकों की बेचैनी लघु स्तर के समाचार पत्र अच्छी तरह समझते हैं। तभी तो विषम परिस्थितियों में आज ढेरों लघु स्तर की पत्र-पत्रिकाएं वर्षों से निरंतर प्रकाशित हैं। ढेरों ने दम तोड़ दिया। आगे भी तोड़ती रहेंगी। फिर कोई नये नाम को लेकर मैदान में डटेगा। सरोकारों को लेकर बियबान में शोर मचाने जैसे हालात में भी लघु स्तर की पत्र पत्रिकाएं बेईमान समाज में वैसे ही कुंदन की तरह चमकती दमकती रहेगी, जैसे कत्थित कलियुगी समाज में सत्यवादी हरिशचंद का नाम।

शनिवार, जून 08, 2013

कुटीर उद्योग भी बचाते vikash दर को

31 मार्च 2007 की स्थिति के मुताबिक देश में पांच लाख पंजीकृत उद्यमों को बंद किया गया। सबसे ज्यादा 82966 इकाइयां तमिलनाडु में बंद हुईं। इसके बाद 80616 इकाइयां उत्तर प्रदेश में, 47581 इकाइयां कर्नाटक में, 41856 इकाइयां महाराष्ट्र में, 36502 इकाइयां मध्य प्रदेश में और 34945 इकाइयां गुजरात में बंद करनी पड़ीं। बंद होने के सरकारी आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा कि जब पंजीकृत उद्यमों को अकाल मौत आ गई, तब देश के गैर पंजीकृत और परंपरागत कुटीर उद्योगों का क्या हश्र हुआ हो, वे कैसे दम तोड़े होंगे संजय स्वदेश करीब बीस साल पहले जब देश की अर्थव्यवस्था बदहाल थी, तब उसे मजबूत करने के नाम पर तब के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने देश के द्वार विदेशी बाजारों के लिए खोल दिए। तरह-तरह के सपने दिखाकर जनता को विदेशी कंपनियों के लिए तैयार कर लिया गया। हालांकि उससे देश के विकास पर फर्क भी पड़ा। बाजार में पैसे का प्रवाह तेज हुआ, लोग समृद्ध भी हुए। पर इस प्रवाह में देश का पारंपरिक व मौलिक बाजार का वह ढांचा चरमरा गया, जिस कीमत में न केवल संतोष था बल्कि सुख-चैन भी था। लेकिन अब इसके घातक परिदृश्य सामने आने लगे हैं। बाजार के जानकार कहते हैं कि केवल कृषि उत्पादों और स्वास्थ्य सेवाओं पर करीब 54 लाख करोड़ रु पया हर साल बहकर देश से बाहर चला जाता है। यदि परंपरागत बाजार के ढांचे में इतने धन का प्रवाह देश में ही होता तो शायद उदारीकरण की समृद्धि के पीछे चली नकारात्मक चीजें देश की मौलिक व पारंपरिक ढांचे को नहीं तोड़ती। उदारीकरण की मनमोहनी हवा चलने से पहले गांव के बाजार पारंपरिक हाट की शक्ल में ही गुलजार होते थे। यही समय उसके गुलजार होने का उत्तरार्ध काल था। करीब दो दशक में ही आधुनिक बाजार के थपेड़ों में पारंपरिक गांव के बाजार में सजने वाले वे सभी उत्पाद गायब हो चुके हैं, जो कुटीर उद्योगों के माध्यम से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की संरचना को मजबूत किए हुए थे। यहां एक उदाहरण गिनाने से बात नहीं बनेगी। 20 साल पहले जिन्होंने हाट का झरोखा देखा होगा, उनके मन मस्तिष्क में उन उत्पादों के रेखाचित्र सहज ही उभर आएंगे। फिलहाल, तब से देश करीब डेढ़ पीढ़ी आगे आ चुका है। जिन गांवों में शहर की हर सुविधा के कमोबेश पहुंचने के दंभ पर सफल विकास के दावे किए जा रहे हैं, उसका असली लाभ कौन ले रहा है? कहने और उदाहरण देने की जरूरत नहीं है कि उन फटेहाल ग्रामीण या किसानों की संख्या में कमी नहीं आई है, जो आज भी जी-तोड़ मेहनत मजदूरी और महंगी लागत के बाद आराम की रोटी खाने लायक मुनाफे से दूर हैं। पर शहर में अपने उत्पादों को बेचते-बेचते कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों में बाजार विकसित कर लिया। कॉरपोरेट व्यवस्था की नीति ही है कि वह किसी व जिस भी बाजार में जाए वहां पहले से जमे उसके जैसे उत्पादों के बाजार को किसी न किसी तरह से प्रभावित करें। इसमें सफलता का सबसे बेहतर तरीका है कि प्रतिस्पर्धी की मौलिक योग्यता नष्ट कर दी जाए। मतलब दूसरे की मौलिक उत्पादन की क्षमता की संरचना को ही खंडित करके बाजार में अपनी पैठ बना कर जेब में मोटा मुनाफा ठूंसा जा सकता है। विदेशी पूंजी के बयार से जब बाजार गुलजार हुआ तब लघु और मध्यम श्रेणी की औद्योगिक गतिविधियों में काफी हलचल हुई। उनके आंकड़ों को गिना कर सरकार ने समय-समय पर अपनी पीठ भी थपथपाई। आज उसी नीति की सरकार के आंकड़े जो हकीकत बयां कर रहे हैं, वे भविष्य के लिए सुखद नहीं कहे जा सकते। गत दिनों सरकार ने संसद में जो ताजा जानकारी दी उसके अनुसार 31 मार्च 2007 की स्थिति के मुताबिक देश में पांच लाख पंजीकृत उद्यमों को बंद किया गया। सबसे ज्यादा 82966 इकाइयां तमिलनाडु में बंद हुईं। इसके बाद, 80616 इकाइयां उत्तर प्रदेश में, 47581 इकाइयां कर्नाटक में, 41856 इकाइयां महाराष्ट्र में, 36502 इकाइयां मध्य प्रदेश में और 34945 इकाइयां गुजरात में बंद करनी पड़ीं। बंद होने के सरकारी आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा कि जब पंजीकृत उद्यमों की अकाल मौत आ गई, तब देश के परंपरागत कुटीर उद्योगों का क्या हश्र हुआ हो, वे कैसे दम तोड़े होंगे? उनसे जुड़े लाखों लोग कैसे जीवन जी रहे होंगे। कॉरपोरेट के रूप में आई विदेशी पूंजी का तेज प्रवाह ने ही कुटीर उद्योगों की मौलिक कार्यकुशलता की योग्यता को नष्ट कर दिया। गांवों में ही तैयार होने वाले पारंपरिक उत्पाद के ढांचे को तोड़ दिया। हसियां, हथौड़ा, कुदाल, फावड़े तक बनाने के धंधे कॉरपोरेट कंपनियों ने गांवों के कारीगरों से छीन लिए। इस पेशे से जुड़े कारीगर अब कहां है? कभी-कभार बड़े शहर की शक्ल में बदलते अर्धविकसित शहर के किसी चौक-चौराहे पर ऐसे कारीगर परिवार के साथ फटेहाली में तंबू लगाए दिख सकते हैं पर उन्हें हमेशा काम मिलता हो, ऐसी बात नहीं है। सब कुछ तो बाजार में है। यह तो एक उदहारण है। लकड़ी के कारीगरों के हाल देख लें। बड़े-बड़े धन्ना सेठों ने इसके कारोबार पर कब्जा कर लिया। इस परंपरागत पेशे से जुड़े कारीगर अब उनके लिए मामूली रकम में रौदा घंसते हुए उनकी जेबें मोटी कर रहे हैं। हालांकि कंपनियों ने लकड़ी की उपयोगिता के ढेरों विकल्प दे दिए हैं। यह सब कुछ गांव तक पहुंच चुका है। शहर से लगे गांव के अस्तित्व तो कब के मिल चुके हैं। दूरवर्ती गांवों में तेजी से रियल इस्टेट का कारोबार सधे हुए कदमों से पांव पसार रहा है। शायद इसी दंभ पर स्टील कंपनियां निकट भविष्य में केवल ग्रामीण इलाके में अपने लिए 17 हजार करोड़ डॉलर का बाजार देख अपनी तिजोरी बढ़ाने के सपनें संजो रही हैं। http://www.rashtriyasahara.com/epapermain.aspx?queryed=9/// rastriya sahara me hastshep page no 2//publish on 8/6/2013

सोमवार, जून 03, 2013

हत्याकांड के हत्यारे

By संजय स्वदेश 01/06/2013 16:25:00
छत्तीसगढ़ की दरभा घाटी में हुआ भीषण हत्याकांड सिर्फ वहीं होकर खत्म हो गया हो, ऐसा नहीं हो पाया। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में अपने तरह से इस सबसे जघन्य और अमानवीय हत्याकांड के बाद जिस तरह से मीडिया, सोशल मीडिया और राजनीतिक दलों द्वारा व्यवहार किया जा रहा है वह बताता है कि दरभा घाटी में हुए नरसंहार के दोषी अकेले माओवादी भर नहीं है। हमारा मीडिया, सोशल मीडिया और राजनीतिक जमात भी हत्याकांड के छिपे हुए हत्यारे की तरह व्यवहार कर रहा है। इस जघन्य हत्याकांड के बाद नक्सलवाद पर बहस चलाकर अगर मीडिया और सोशल मीडिया ने इसे कमजोर करने की साजिश की तो एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाकर राजनीतिक दल इस हत्याकांड की हत्या करने में जुट गये हैं।
रायपुर से संजय स्वदेश की रिपोर्ट- ---- कम से कम छत्तीसगढ़ के नेताओं से किसी ने यह उम्मीद बिल्कुल नहीं की होगी, जैसा वे कर रहे हैं। अभी हत्याकांड के तेरहवीं भी नहीं बीती कि राजनीतिक दल एक दूसरे पर कीचड़ उछालने के लिए मैदान में उतर आये हैं। हादसे के बाद जो आरोप-प्रत्यारोप की राजनीतिक चल रही है, वह राजनीतिक शुचिता को तार-तार करने वाली है। जिस हत्याकांड की जिम्मेदारी खुद हत्यारे ले रहे हैं। लिखित पर्चे भेज रहे हैं। खुले आम फिर से नरसंहार की चेतावनी दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में राजनीतिक दल बयानबाजी कर एक दूसरे को दोषी ठहराकर क्या साबित करना चाहते हैं? लेकिन लगता है कि इस हत्याकांड की हत्या करके कम के कम प्रदेश में कांग्रेस के कुछ नेता अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने में जुट गये हैं। छत्तीसगढ़ में अगला विधानसभा चुनाव होने में करीब नौ महीने शेष है। लेकिन लगता यही है कि राजनीतिक दलों का ध्यान इसी ओर केंद्रित है। दुखद सच यही है कि राजनीतिक दलों ने हत्याकांड के असल मुद्दे की ही हत्या कर दी है। कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में फिर से परिर्वतन यात्रा शुरू करने का फैसला ले लिया। दिवंगत नेताओं की तेरवीं के कांग्रेस अब नंदकुमार पटेल और महेंद्र कर्मा की फोटो लेकर परिवर्तन यात्रा लेकन जनता के बीच जाएगी। इसकी रणनीति घटनाक्रम के करीब एक सप्ताह के अंदर ही कांग्रेस बना चुकी है। मतलब कांग्रेस अपने नेताओं की हत्या को सत्ता पाने की कीमत में रूप में भुनाना चाहती है। बयानों की खुल्लम खुल्ला राजनीति इस नक्सली वारदात के बाद ही कांग्रेस का यह आरोप लगाया था कि राज्य के इंटेलिजेंस प्रमुख और मुख्यमंत्री के बीच गहरी सांठगांठ है, जिसके कारण राज्य के गृह मंत्री अधिकारविहीन हो गए हैं। भक्त चरण दास ने पार्टी की सोच का खुलासा करते हुए कहा कि राज्य सरकार के पास इस हमले की पूरी जानकारी थी, बावजूद इसके सरकार मौन और निष्क्रिय बनी रही। इसी गंभीर वातावरण में पड़ोसी प्रदेश मध्यप्रदेश के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया ने भी खूब राजनीतिक चमकाई। साफ-साफ मीडिया को बयान दिया कि पूरा षड्यंत्र भाजपा का है, तो मध्यप्रदेश भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर ने आरोप लगाया दिया कि हमले के मुख्य षड्यंत्रकारी छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी हैं। आरोप सुन जोगी ने तड़ से प्रेस कान्फ्रेन्स कर नरेंद्र सिंह तोमर के खिलाफ कानूनी नोटिस भेजने की घोषणा की। सर्वदलील बैठक में बन सकती थी बात घटनाक्रम को लेकर प्रदेश की भाजपा सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। इसमें मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने हिस्सा ही नहीं लिया। प्रदेश कांग्रेस महामंत्री भूपेश बघेल और वरिष्ठ विधायकअकबर ने कह दिया कि मुख्यमंत्री ही आरोप के घेरे में हैं। षडयं9 में सरकार के शामिल रहने का शक है तो ऐसे लोगों को बैठक में बुलाने का अधिकार नहीं। हालांकि मुख्यमंत्री रमन सिंह का कहना है कि सर्वदलीय बैठक की तिथि प्रतिपक्ष नेता वरिष्ठ कांग्रेसी रविंद्र चौबे और केंद्रीय मंत्री चरणदास महंत से चर्चा कर के तय की गई थी। जो भी एक सार्थक उद्देश्य के लिए बुलाई गई बैठक का बहिष्कार कर बयानबाजी कर राजनीति करने के बजाय कांग्रेस नक्सलियों के ढृढ़ सफाये के मुद्दे पर सरकार को झुका ही सकती थी। आंध्र प्रदेश से ले सबक छत्तीसगढ़ के पड़ोसी राज्य आंध्रप्रदेश में एक बार नक्सलियों ने चंद्रबाबू नायडू की हत्या करने की कोशिश की। लेकिन अगले विधानसभा चुनाव में 2004 में कांग्रेस ने यह घोषणा की कि यदि वह जीतती है तो नक्सलियों से बातचीत करेगी। कांग्रेस जीत भी गई। तब कांग्रेस पर यह आरोप लगा कि उसने चुनाव में नक्सलियों से साठगांठ कर सत्ता पाने में कामयाब रही। सत्ता मिलने पर कांग्रेस ने नक्सलियों से बातचीत का रास्ता अख्तियार किया। लेकिन नक्सली अपनी राह छाड़ने को राजी नहीं थे। बातचीत के दौरान नक्सली अपनी ताकत बढ़ाने और संगठन मजबूत करने में लगे रहें। तब राजशेखर रेड्ड़ी ने नक्सलियों को मुंहतोड़ जवाब दिया। विशेष रूप से नक्सलियों से लड़ने के लिए गठित विशेष सुरक्षा बल को आधुनिकीकरण किया। आधुनिक हथियार और तकनीक से लैस इस सुरक्षा बल के लड़ाके नक्सलियों के लिए खौफ के प्रतिक बन गए। इसके परिणामस्वरूप आंध्र प्रदेश में नक्सली घटनाओं में तेजी से कमी आई। आंध्र के नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ के जंगलों में शरण ली। यहां के आदिवासियों को अपना मातहत बना कर खूनी खेल खेल रहे हैं। वहीं छत्तीसगढ़ में किसी भी दल में ऐसी कोई बयान नहीं दिया जिससे यह लगे कि उनमें सत्ता पाकर नक्सलियों पर सख्ती से नकेल की दृढ़ता हो। लेकिन यहां तो मुखर्तापूर्ण ढंग से बयानबाजी कर नेता अपने ही गले के छुरी चला रहे हैं। गरमा गया नक्सलबाद इस नक्सली नरसंहार के बाद सोशल मीडिया बहस का एक बहुत बड़ा केंद्र बन गया। लेकिन इस बहसबाजी में भी हत्याकांड की बजाय नक्सलबाद एक गंभीर मुद्दे के रूप में उभार दिया गया। समाचार चैनलों पर भी इस मुद्दे पर हुए बहस में नक्सलबाद का मुद्दा ज्यादा केंद्रीत नजर आया। प्रिंट मीडिया, खासकर छत्तीसगढ़ की प्रिंट मीडिया ने तो हत्याकांड के बड़े-बड़े फोटो प्रकाशित कर मानवता को झकझोरने की कोशिश की। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विशेष कार्यक्रम चलाए गए या चलाए जा रहे हैं, उससे एक बात तो साफ-साफ नजर आ रही है कि यह बड़ा हादसा, उन तमाम नक्सली हत्याकांडों की तरह हो गया जो पहले हुए। यानी मौत के मातम पर मौत का मजा। मीडिया को मिला शिंदे का मसाला एक प्रमुख समाचार चैनल पर तो यह समाचार प्रसारित कर दी गई कि इस भीषण नक्सली वारदात के बाद केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे विदेश में छुट्यिां मना रहे हैं। चैनल ने यह भी बताया कि शिंदे अमेरिका में 19 से 22 तक आयोजित एक कार्यक्रम में भारत सरकार का प्रतिनिधित्व करने गए हैं। लेकिन हादसे के बाद भी नहीं लौटे। चैनल तो हकीकत की पड़ताल नहीं की। शिंदे कार्यक्रम की समाप्ति के बाद अपनी आंख के इलाज के लिए वे अस्पताल में भर्ती थे। नक्सली हत्याकांड के अगले दिन ही प्रधानमंत्री और यूपीए प्रमुख सोनिया गांधी छत्तीसगढ़ पहुंच गई। केंद्रीय गृहराज्यमंत्री भी आ गए। फिर शिंदे को घेरने की क्या जरूरत पड़ी। मतलब समाचार चैनल ने भी इस नक्सली वारदात में टीआरपी का एक मसाला ही खोजा। क्यों नहीं बताया पीएम के जापान दौरे का लाभ छत्तीसगढ़ में नक्सली वारदात के तीसरे दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जापान के दौरे पर गए। मीडिया ने यह भी आलोचना की कि ऐसे हालात में पीएम को विदेश नहीं जाना चाहिए था। लेकिन पीएम का जापान जाना कितना जरूरी था। इस पर तो कोई बात ही नहीं हुई। गत दिनों चीन के प्रधानमंत्री भारत दौरे पर आए थे। भारत की पर मनोवैज्ञानिक दवाब के लिए चीनी पीएम भारत दौर के बाद पड़ोसी देश पाकिस्तान गए। जिस दिन चीनी पीएम भारत आए थे, उसी दिन मनमोहन सिंह की जापान यात्रा तय हो गई थी। मनमोहन सिंह का जापान जाना चीन को जवाब देना था। जापान जाकर भारत में बुलेट ट्रेन चलाने के लिए महत्वपूर्ण समझौता हुआ। जबकि भारत में बुलेट ट्रेन चलाने के लिए फांस के साथ डील ुहई थी। फांस की कंपनी ने भारत में सर्वे भी कर लिया था। पहले चरण में पुणे, मुंबई और अहमदाबाद में बुलेट ट्रेन चलाने का ब्लूप्रिंट भी तैयार हो चुका था। इसके बाद भी भारत की इस बदली हुई कूटनीति के बारे में मीडिया ने कुछ ठोस चीज जनता को नहीं बताई। दुनिया जानती है, बुलेट ट्रेन तकनीक में चीन दुनिया में सबसे आगे हैं। भारत ने जापान से करार कर उसे बुलेट ट्रेन का एक बड़ा बाजार दे दिया। यह चीन को ठीक उसी तरह का करारा मनोवैज्ञानिक जवाब है जिस तरह चीन पीए भारत आकर पाकिस्तान गए और वहां उसकी पीठ ठोक आए। आए दिन सीमा विवाद को लेकर भारत को तंग करने वाले चीन को अब उसका पड़ोसी जापान भारत में रह कर बुलेट ट्रेन के बाजार के माध्यम से चीन को चुनौती देता रहेगा। केपीएस गिल ने बहती गंगा में हाथ धोया छत्तीसगढ़ के नक्सली वारदात में बयान देकर एक ओर जहां नेता राजनीतिक की रोटी सेंकने में लगे हैं, वहीं इस बहती गंगा में पूर्व आईपीएस अधिकारी केपीएस गिल ने भी हाथ धो लिया। के.पी.एस. गिल को छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद से लड़ने के लिए सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया था। छत्तीसगढ़ की वर्तमान राजनीतिक सरगर्मी में उन्होंने यह बयान दिया कि नक्सलियों के सफाये के लिए उन्होंने जो रणनीति मुख्यमंत्री रमन सिंह को बताई, उस पर मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया थी कि वेतन लो और मौज करो। यह बात कितनी सच है यह तो केपीएस गिल जाने और रमन सिंह। लेकिन सच यह है जितने दिन गिल साहब छत्तीसगढ़ में रहे सीएम के कथिला सलाह पर खूब अमल किया। खूब मौज मारा। तमाम तरह के एैश सरकारी खर्चे पर। दबी जुबान में पुलिस महकम के लोग यह भी कहते हैं कि दादा के उम्र के गिल साहब बेड पर नई लड़कियों के भी शैकिन थे।

भारतीय बाजार से चीन मालामाल

--------------------ॅ----------------- भारत के बड़े बाजार में धंधा कर चोखा मुनाफा बटोरने वाली कंपनियों की दो जमात है। एक वह जो अपने उत्पाद में थोड़ी बहुत गुणवत्ता देकर भारतीय व्यापारियों के ग्राहकों को लुभा रहे हैं, दूसरे वे हैं जो घटिया उत्पाद या धोखा देकर भारतीय व्यापारी, कपंनियां या ग्राहकों का पैसा हड़प ले रही हैं। ----------------------------------------
संजय स्वदेश पड़ोसी देश चीन कभी भी भारत का विश्वस्त नहीं रहा। लेकिन वैश्विक स्तर पर बदले हालात और बाजार के प्रभाव के कारण कूटनीतिक स्तर पर हमेशा दोनों देशों के संबंधों को सकारात्मक बनाये रखने की पहल दोनों देशों की ओ से होती है। वैश्विक स्तर पर मजबूत होते भारत के कदम चीन की आंखों में हमेशा खटकता रहा है। लिहाजा, चीन ने हमेशा से हर मोर्चे पर भारत को कमजोर करने की कोशिश करता रहा है। कभी सीमा में घुसपैठ करके तो कभी देश के महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों के वेबसाइटों साइबर धावा बोलकर मानसिक रूप से अशांत करता है। लेकिन आर्थिक स्तर पर चीन भारत को जिस तरह से खोखला कर रहा है, वह निश्चय ही गंभीर है। मीडिया में भारतीय सीमा पर चीनी सैनिकों की हलचल की खबरों पर नजर ज्यादा रहती है, लेकिन इस हलचल के पीछे चीन से जुड़े आर्थिक मुद्दे अक्सर गौड़ होते गए हैं। करीब दशक भर पहले जब चीनी माल भारत में सस्ते दामों में पहुंचा तब लोगों ने हाथों-हाथ लिया। हालांकि चीन अभी भी भारत की हर जरूरत की समान यहां तक ही हमारे भगवान की मूर्तियों तक को भेज रहा है। शुरुआती दिनों में वस्तुओं की गुणवत्ता इतनी खराब निकली कि धीरे-धीरे लोगों को विश्वास चीनी वस्तुओं से उठने लगा। लेकिन शुरुआती दौर में चीन ने भारती व्यपारियों को भीषण तरीके से मानसिक आघात पहुंचाया। अब भारत आने वाला चीनी माल में अब थोड़ी बहुत गुणवत्ता आने लगी है। यहीं कारण है कि गुणवत्ता को लेकर टूटा जनता का विश्वास किफायती दाम के कारण फिर बहाल होने लगा है। आम भारतीय बाजार में ब्रांडेट कंपनियों का 20 से 40 हजार में मिलने वाला टेबवलेट चीनी ब्रांड में हूबहू दो-चार हजार में उपलब्ध हो जा रहा है। जो लोग ब्रांडेड टेबलेट नहीं खरीद पाते हैं, चीनी टेबलेट से टशन मारते हैं। यह तो केवल टेबलेट भर की बात है। खिलौना, देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से लेकर, फर्नीचर और इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएं चीनी उत्पाद भारत में उपलब्ध हैं। समझदार भारतीय उपभोक्ता अब किफायती दर के साथ गुणवत्ता की तुलना कर वस्तुओं को चुनने लगा है। चीन से आयातित सस्ती वस्तुओं से भारतीय कारोबारियों और निर्माताओं पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। सबसे अधिक नुकसान भारत के छोटे और मझौले उद्यमियों पर पड़ा है। भारत के बड़े बाजार में धंधा कर चोखा मुनाफा बटोरने वाली कंपनियों की दो जमात है। एक वह जो अपने उत्पाद में थोड़ी बहुत गुणवत्ता देकर भारतीय व्यापारियों के ग्राहकों को लुभा रहे हैं, दूसरे वे हैं जो घटिया उत्पाद या धोखा देकर देशी व्यापारी, कपंनियां या ग्राहकों का पैसा हड़प ले रही हैं। हालही में चीन से व्यापार करने वालों को भारतीय दूतावास ने खबरदार करते हुए सचेत रहने को कहा। पिछले वर्ष 86 भारतीय कंपनियों को चीनी कपंनियों ने धोखा दिया। धोखा खाने वाले छोटे और मझोले स्तर के भारतीय कारोबारी थे। दिया है कि भारतीय कंपनियां कोई भी कारोबारी समझौता करने से पहले चीनी कंपनियों की जांच-परख कर लें। जो चीनी चीनी कंपनियां धोखाधड़ी में शामिल पाई गर्इं है, वे रसायन, स्टील, सौर उर्जा के उपकरण, आॅटो व्हील, आर्ट एंड क्राफ्ट्स, हाडर्वेयर और बायोलॉजिकल टेक्नोलॉजी के कारोबार से जुड़ी हैं। ऐसे मामले भी सामने आए हैं जब भारतीय कंपनियों ने चीन से मशीनरी मंगवाई। जब इसकी इंस्टालेशन करने के बाद काम शुरू किया तो मशीन चली ही नहीं। चीनी वेबसाइट देखकर भारतीय व्यापारी सामान खरीदने को आर्डर देते हैं। चीनी कंपनियां उनसे पैसा तो ले लेती है, लेकिन बाद में सामान भेजती ही नहीं। भारतीय दूतावास ऐसी धोखेबाजी चीनी कंपनियों की सूची आॅनलाइन उपलब्ध करा रहा है। चीनी कंपनियों की धोखेबाजी के धंधे से अलग अनेक चीनी कंपनियां भारत में बेहतर धंधा कर मालामाल हो रही हैं। देश की प्रतिष्ठित औद्योगिक संगठन का दावा हैकि चीन भारतीय अर्थव्यवस्था को किसी भी तरह से नुकसान पहुंचाने का खतरा नहीं उठा सकता है क्योंकि उसके भारत से व्यापक व्यापारिक हित जुड़े हुए हैं। भारत के बढ़ते बाजार में चीन की हिस्सेदारी में बड़ी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। फिलहाल चीन का भारत में वार्षिक कारोबार 40 अरब डॉलर यानी की करीब 2 लाख 22 हजार करोड़ रुपये हो रहा है। संभावना है कि चालू वित्त वर्ष में यह आंकड़ा बड़ 44 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा। एसोचैम का सुझाव है कि भारत और चीन को आपस में व्यापारिक अंतर को पाटने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। -----------------------

मर्ज की मजबूरी पर लूट का गोरखधंधा

संदर्भ : जरूरी दवाओं को सरकारी मूल्य से ज्यादा पर बिक्री ---- कई कंपनियों ने अनेक जरूरी दवाओं के लिए गत कुछ वर्षों में ग्राहकों से लगभग 2,362 करोड़ रुपए अधिक वसूले। इसमें से करीब 95 फीसदी रकम से संबंधित मामले कोर्ट में विचाराधीन हैं। कई कंपनियों ने तो जुर्माने के रूप में एक पैसा भी नहीं भरा है। कंपनियां कानूनी दांव पेंच का सहारा लेकर मामले को लंबित करवा देती हैं, तब तक बाजार में उनकी मनमानी चलती रहती है। कंपनियों की तिजोरी भरती जाती है। इसके बाद भी दवा से मरीज की जान बचे या जाए इसकी गारंटी भी नहीं है। ---- संजय स्वदेश कोई बीमारी जब जानलेवा हो जाती है तो लोग इलाज के लिए क्या कुछ नहीं दांव पर लगा देते हैं। क्या अमीर क्या गरीब। ऐसे हालात में वे मोलभाव नहीं करते हैं। इस नाजुक स्थिति को भुनाने में दवा उत्पादक कंपनियों ने मोटी कमाई का बेहतरीन अवसर समझ लिया है। सरकारी नियमों को खुलेआम धत्ता बता कर दवा कंपनियां जरूरी दवाइयों की मनमानी कीमत वसूल रही हैं। कंपनियों की इस मनमानी पर सरकार की नकेल नाकाम है। दवा मूल्य नियामक राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) ने अपने हालिया रिपोर्ट में कहा है कि सिप्ला, डॉ. रेड्डीज लैब्स और रैनबैक्सी जैसी प्रमुख बड़ी दवा कंपनियों ने ग्राहकों से तय मूल्य से ज्यादा में दवाएं बेचीं। रिपोर्ट के अनुसार बेहतरीन उत्पादकों की सूची में शामिल इन कंपनियों ने कई जरूरी दवाओं के लिए गत कुछ वर्षों में ग्राहकों से लगभग 2,362 करोड़ रुपए अधिक वसूले। इसमें से करीब 95 फीसदी रकम से संबंधित मामले विभिन्न राज्यों उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन हैं। इनमें से कई कंपनियों ने तो जुर्माने के रूप में एक पैसा भी नहीं भरा है। ऐसे मामलों में कंपनियां कानूनी दांव पेंच का सहारा लेकर मामले को लंबित करवा देती हैं। तब तक बाजार में उनकी मनमानी चलती रहती है। जनता की जेब कटती रहती है। कंपनियों की तिजोरी भरती जाती है। इसके बाद भी दवा से मरीज की जान बचे या जाए इसकी गारंटी भी नहीं है। सरकार एनपीपीए के माध्यम से ही देश में दवाओं का मूल्य निर्धारित करती है। वर्तमान समय में एनपीपीए ने 74 आवश्यक दवाओं के मूल्य निर्धारित कर रखा है। नियम है कि जब दवा की कीमत में बदलाव करना हो तो कंपनियों को एनपीपीए से संपर्क जरूरी है। लेकिन देखा गया है कि कई बार कंपनियां औपचारिक रूप से आवेदन तो करती हंै पर दवा का मूल्य मनमाने ढंग से बढ़Þा देती हैं। निर्धारित मूल्यों की सूचीबद्ध दवाओं से बाहर की दवाओं के कीमतों में बढ़Þोत्तरी के लिए भी एनपीपीए से मंजूरी अनिवार्य है। इसमें एनपीए अधिकतम दस प्रतिशत सालाना वृद्धि की ही मंजूरी देता है। लेकिन अनेक दवा कंपनियों ने मनमाने तरीके से दाम बढ़Þाए हैं। दवा कंपनियों के इस मुनाफे की मलाई में दवा विक्रेताओं को भी अच्छा खासा लाभ मिलता है। स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में कार्यरत एक गैर सरकारी संगठन प्रतिभा जननी सेवा संस्थान की एक रिपोर्ट ने इस बात का खुलासा किया कि दवा कंपनियां केवल अधिक कीमत वसूल की ही अपनी जेब नहीं भरती है, बल्कि वे सरकारी कर बचाने एवं अपने ज्यादा उत्पाद को खापने के लिए खुदरा और थोक दवा विक्रेताओं को भी मुनाफे का खूब अवसर उपलब्ध कराती हैं। जिसके बारे में आम जनता के साथ-साथ सरकार भी बेखबर है। कंपनियां दवा विक्रेताओं को दवाओं का बोनस देती है। मतलब एक केमिस्ट किसी कंपनी की एक स्ट्रीप खरीदता है तो नियम के हिसाब से उससे एक स्ट्रीप का पैसा लिया जाता हैं लेकिन साथ ही में उसे एक स्ट्रीप पर एक स्ट्रीप फ्री या 10 स्ट्रीप पांच स्ट्रीप फ्री दे दिया जाता है। बिलिंग एक स्ट्रीप की ही होती है। इससे एक ओर सरकार को कर नहीं मिल पाता वहीं दूसरी ओर कंपनियां दवा विक्रेताओं को अच्छा खासा मुनाफा कमाने का मौका दे देती है। वे निष्ठा से उसके उत्पाद को ज्यादा से ज्यादा बेचने की कोशिश करते हैं। दवा विक्रेताओं ने अपना संघ बना रखा है। ए अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) से कम पर दवा नहीं बेचते हैं। ग्राहक की दयनीयता से इनका दिल भी नहीं पसीजता है। दवा कंपनियां के इस खेल का एक बनागी ऐसे समझिए। मैन काइंड कंपनी की निर्मित अनवांटेड किट भी स्त्रीरोग में उपयोग लाया जाता है। इसकी एमआरपी 499 रुपए प्रति किट है। खुदरा विक्रेता को यह थोक रेट में 384.20 रुपए में उपलब्ध होता है। लेकिन कंपनी खुदरा विक्रेताओं को एक किट के रेट में ही 6 किट बिना कीमत लिए मतलब नि:शुल्क देती है। बाजार की भाषा में इसे एक पर 6 क डिल कहा जाता है। इस तरह से खुदरा विक्रेता को यह एक किट 54.80 रुपए का पड़ा। अगर इस मूल्य को एम.आर.पी से तुलना करके के देखा जाए तो एक कीट पर खुदरा विक्रेता को 444 रुपए यानी 907.27 प्रतिशत का मुनाफा होता है। हालांकि कुछ विवादों के चलते कुछ प्रदेशों में यह दवा अभी खुलेआम नहीं बिक रही है। मर्ज मिटाने की दवा में मोटी कमाई के खेल को समझने के लिए और और उदाहरण सुनिए। सिप्रोफ्लाक्सासिन 500 एम.जी और टिनिडाजोल 600 एम.जी नमक से निर्मित दवा है। जिसे सिपला, सिपलॉक्स टी जेड के नाम से बेचती है। लूज मोसन (दस्त) में यह बहुत की कारगर दवा है। सरकार ने जिन 74 दवाइयों को मूल्य नियंत्रण श्रेणी में रखा है। इस दवा की सरकार द्वार तय बिक्री मूल्य 25.70 पैसा प्रति 10 टैबलेट बताई गई है। मगर देश की सबसे बड़ी कंपनी का दावा करने वाली सिपला इस दवा को पूरे देश में 100 रुपए से ज्यादा में बेच रही हैं। यानी हर 10 टैबलेट वह 75-80 रुपए ज्यादा वसूल कर रही है। मजबूत अधिकार और मानव संसाधानों की कमी के कारण ही दवाओं के मूल्य निर्धारण करने के लिए ही बनी एनपीपीए बिना दांत का शेर साबित हो रहा है। जनता में इस बात को लेकर किसी तरह का जागरूकता नहीं होने से इसकी खिलाफत नहीं होती है। चूंकि मामला जान से जुड़ा होता है, इसलिए हर कीमत पर दवा लेकर लोग जान बचाने की ही सोचते हैं। ऐसी विषम स्थिति में भला कोई दवा विक्रेता से मोल भाव क्यों करे? नियम तो यह है कि केमिस्ट दुकानों में दवा के मूल्य सूची प्रर्दशित होना जरूरी है। लेकिन किसी भी दवा दुकान में झांक लें, इस नियम का पालन नहीं दिखेगा। जो दवा मिलेगी उसपर कोई मोलभाव नहीं। खरीदने की छमता नहीं तो कही भी गुहार पर तत्काल राहत की कोई गुंजाइश नहीं। नियम की दृढ़ता से लागू हो इसके लिए सरकार के पास पर्याप्त निरीक्षक भी नहीं है। जनता गुहार भी लगाना चाहे तो कहां जाए? सीधे एनपपीपीए में लिखित शिकायत की जा सकती है, लेकिन यह प्रक्रिया लंबी है। जनता को तो दवा खरीदते वक्त तत्काल राहत चाहिए। हर किसी को दवा मूल्य नियामक राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण के बारे में जानकारी भी नहीं है। जिन्हें जानकारी हैं, वे शिकायत भी नहीं करते हैं। संजय स्वदेश

गुरुवार, मार्च 21, 2013

प्राचीन भाषा की हत्या का उपक्रम

संदर्भ : सिविल सेवा परीक्षा से पाली को हटाना
तर्क देने वाले कह सकते हैं कि आज पालि बोलता कौन है? यही सवाल संस्कृत और उर्दू को लेकर भी उठाया जा सकता है। संस्कृत बोलने वाले एक प्रतिशत लोग भी देश में नहीं है। जिस भाषा से रोजगार उपलबध होती है, वह उतना ही समृद्ध होती है। रोजगार उपलब्ध करा कर ही अंग्रेजी ने हिंदी को मात दे दी। पाली संस्कृत को पछाड़ रही है।
संजय स्वदेश संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा के पाठ्यक्रम से अंग्रेजी की अनिवार्यता को फिलहाल रोक कर के केंद्र सरकार ने खूब वाहवाही बटोरी। यह खबर कई प्रमुख समाचारपत्रों के प्रमुखता से प्रकाशित हुई। हिंदी प्रेमियों ने खूब स्वागत किया। लेकिन इसी के साथ आयोग ने भारत की प्राचीन भाषा पालि का गला घोंट दिया। किसी को कोनोकान खबर नहीं लगी। पालि भाषा एवं साहित्य अनुसंधान परिषद ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। पर अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता है। न कहीं शोर सुनाई दिया और न ही कई कोई बड़ा विरोध। आयोग की परीक्षाओं से अंग्रेजी की अनिवार्यता को हटाने के लिए वर्षों आंदोलन चले। करीब एक दशक पहले की बात है तब आयोग के मुख्य द्वार पर हिंदी समर्थित विरोधियों का एक तंबू हमेशा दिखता था। वहां के बैनर पर यह लिखा होता था कि हिंदी के समर्थन में चलने वाला देश में अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन। एक बार दिल्ली में शाहजहां रोड़ से गुजरते वक्त किसी ने बताया था कि इसके समर्थन में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज उतर चुके हैं। लेकिन कब उस आंदोलन का दम घुट गया और प्रदर्शनकारियों का तंबू हट गया, किसी को कानोकान खबर नहीं चली। ऐसे समय में जब न कोई आंदोलन था और न ही कहीं से कोई दबाव। आयोग ने हिंदी के प्रति हमदर्दी दिखाते हुए अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर देने की घोषणा कर दी। बात असानी से हजम नहीं होती। जब समाज में अंग्रेजी का भूत भूत सवार हो रहा हो, तब अपने आप आयोग ने आखिर रहमदिली क्यों दिखाया। ढेरों ऐसे प्रतिभाशाली लोग हैं जिन्होंने आयोग की अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण परीक्षा में असफलता की मुंह खाई। लेकिन अन्य क्षेत्रों में सफलता के शिखर पर पहुंचे। फिलहाल चर्चा, आयोग के पाठ्यक्रम से पालि को हटाने को लेकर है। प्राचीनकाल की जनभाषा और धार्मिक अल्पसंख्यकों बौद्धों की एक मात्र भाषा को हटाने के पीछे आयोग की क्या मंशा रही, इसे न ही उसने बताना उचित समझा और न ही सार्वजनिक रूप से समझाना। पालि भषा के विषय को लेकर सिवलि सेवा की मुख्य परीक्षा देने वाले प्रतिभागियों की संख्या हजारों में है। जिसमें से अधिकतर प्रतिभागी सफलता को प्राप्त करते हैं। मजेदार बात यह है कि सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा में इस भाषा को ऐच्छिक विषय के रूप में चुनने वाले अधिकतर प्रतिभागी दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय से होते हैं। आयोग के कठिन मापदंडों के कारण ही वर्षों से आरक्षित वर्ग के भरपूर अफसर बनाने में पूरी तरह से नकाम रहे हैं। शीर्ष सेवा में सैकड़ों पद आरक्षित वर्ग के रिक्त पड़े हैं। महंगे और पहुंच से दूर पाठ्यक्रमों में दाखिला नहीं मिलने के कारण हर वर्ष हजारों विद्यार्थी पालि और बौद्ध अध्ययन में दाखिला लेते हैं। हालात तो यह है कि एक ओर जहां विश्वविद्यालयों के संस्कृत विभाग में सन्नाटा पसरता जा हरा है, वहीं पालि और बौद्ध अध्ययन के विभाग गुलजार होने लगे हैं। इसके बाद भी बिना किसी ठोस तर्क दिए बगैर पालि के प्रति यूपीएससी की मनमानी उसकी साकारात्मक मंशा को जाहिर नहीं करती है। दलित, आदिवासी और पिछड़े हमेशा ही इस बात को लेकर यह शोर मचाते रहे हैं कि जिन कठिन राहों को वे अपनी मेहनत से आसान बना रहे हैं नीति नियंता किसी न किसी तरह से उनके राह में और अड़ंगा डालते हैं। सिविल सेवा परीक्षा से पालि का हटाना देश के उन हजारों युवाओं के सपने तोड़ने जैसा है जो पालि का अध्ययन कर रहे हैं और इस विषय के साथ देश की सर्वोच्च प्रतिष्ठित सेवा क्षेत्र अपनी काबिलियत सिद्ध करना चाहते हैं। सिविल सेवा की परीक्षा में संस्कृत, उर्दू और पंजाबी को अभी भी रखा गया है। जैसे संस्कृत हिंदुओं से, उर्दू मुस्लिमों से तथा पंजाबी सिक्खों से संबंधित है। वैसे ही पालि बौद्ध धर्म के लोगों से संबंधित है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में इनकी संख्या बढ़ रही है। भविष्य में निश्चय ही समाज में इस भाषा की प्रतिष्ठा और रूढ़ होगी। तर्क देने वाले कह सकते हैं कि आज पालि बोलता कौन है? यही सवाल संस्कृत और उर्दू को लेकर भी उठाया जा सकता है। संस्कृत बोलने वाले एक प्रतिशत लोग भी देश में नहीं है। संस्कृत भाषा के प्रति बचे खुचे लोगों का भी मोहभंग हो रहा है। विभिन्न विश्वविद्यालयों में संचालित संस्कृत के पाठ्यक्रमों में दाखिले के लिए पर्याप्त संख्या में विद्यार्थी भी नहीं पहुंच रहे हैं। लेकिन पालि भाषा की स्थिति संस्कृत से उलट है। वर्तमान समय में पालि को लगभग 55 विश्वविद्यालयों में पालि एवं बौद्ध अध्ययन विषयों का अध्यपन हो रहा है। विदेशों को छोÞड़कर सिर्फ भारत में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग हर साल दो बार यूजीसी नेट एवं जेआरएफ की परीक्षा पालि भाषा में भी आयोजित करवा रहा है। सभी लगभग 55 विश्वविद्यालयों और उनके संबंद्ध कॉलेजों में स्रातक, एमए, एमफिल, पीएचडी की उपधियां दी जाती है। इसके साथ ही पालि भाषा एवं साहित्य में प्रमाण-पत्र, डिप्लोमा एवं पालि आचार्य की भी उपाधि दी जाती है। इतना ही नहीं वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, बिहार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड एवं महाराष्टÑ माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में भी पालि भाषा विषय की पढ़ाई हाई स्कूल एवं इंटरमीडिएट कक्षाआ में होती है। इसके अलावा देशभर के करीब पचास से ज्यादा विश्वविद्यालयों में पाली भाषा विभाग संचालित है। पालि भाषा के बिना प्राचीन भारतीय इतिहास को जनाना कठिन ही नहीं, अपितु असंभव भी है, क्योंकि पालि भाषा भारत देश की प्राच्य भाषाओं (पालि,प्रकृत व संस्कृत) में से एक महत्पूर्ण भाषा है। ऐतिहासिक महत्व की दृष्टि ही नहीं बल्कि सार्क देशों और दक्षिणी एशियाई देशों के साथ हमारी विदेश नीतियों को भी यह भाषा प्रभावित करती है। क्योंकि इन देशों में बौद्ध धर्म का प्रभाव ज्यादा है। तमाम सार्थक बिंदुओं की अनदेखी करते हुए केवल पालि भाषा को यूपीएसी की परीक्षा से अचानक हटाने का निर्णय अदूरदर्शिता नहीं है। जिस भाषा से रोजगार उपलबध होती है, वह उतना ही समृद्ध होती है। रोजगार उपलब्ध करा कर ही अंग्रेजी ने हिंदी को मात दे दी। पाली संस्कृत को पछाड़ रही है। ऐसे समय में जब यूपीएससी द्वारा पालि को पाठ्यक्रम से हटाने का निर्णय इसका गला घोंटने से कम नहीं है।