गुरुवार, मार्च 31, 2011
सरकार यूं ही दिखाती रही उच्च शिक्षा के हसीन सपने
राजकेश्वर सिंह, नई दिल्ली सरकार सपना तो देख रही है नॉलेज इकोनॉमी में भारत को विश्व का केंद्र बनाने का, लेकिन वह खुद बालू के ढेर पर खड़ी है। हकीकत यह है कि उच्च शिक्षा के जिन आंकड़ों की बुनियाद पर अब तक वह आगे के सपने देख रही थी, उसे पता चला कि वही सही ही नहीं हैं। बदतर स्थिति यह है कि उसके पास उच्च शिक्षा में मौजूदा छात्रों, संस्थानों, शिक्षकों तक का प्रामाणिक आंकड़ा नहीं है। सरकार खुद मानती है कि उच्च शिक्षा में सकल दाखिला दर (जीईआर) का उसका मौजूदा आंकड़ा आधा-अधूरा है। वह उच्च स्तर की पढ़ाई-लिखाई की सही तस्वीर नहीं पेश करता। जबकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने उन्हीं आंकड़ों पर एतबार करके उच्च शिक्षा में 12 प्रतिशत की सकल दाखिला दर को 11वीं योजना के अंत तक 15 प्रतिशत और 2020 तक 30 प्रतिशत करने का लक्ष्य भी तय कर दिया है। उच्च शिक्षा में हम कहां खड़े हैं? यह सवाल माथे पर बल डालने वाला है। विकसित देशों में 18 से 24 आयु वर्ग के 40 प्रतिशत बच्चे विश्वविद्यालयों में दाखिला लेते हैं। दुनिया में इसकी औसत दर 23 प्रतिशत है और भारत अभी 15 प्रतिशत जीईआर के लिए जूझ रहा है। भविष्य में ज्यादा बेहतर योजनाएं व नीतियां बन सकें। क्षमता विकास के साथ ही संसाधनों का ज्यादा अच्छा उपयोग हो सके। मानव संसाधन विकास मंत्रालय को इसके लिए अब एक प्रामाणिक डाटा की जरूरत है। लिहाजा अब वह सर्वे कराना चाहती है। इसके लिए उसने एक टास्क फोर्स भी गठित कर दिया है। जबकि सर्वे की जिम्मेदारी राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय (न्यूपा) को दी गयी है। सर्वे में उच्च शिक्षा के सभी संस्थान, केंद्रीय, राज्य व डीम्ड विश्वविद्यालय, विश्वविद्यालयों से जुड़े कॉलेज, राष्ट्रीय महत्व के संस्थान, पॉलिटेक्निक और शोध संस्थान शामिल होंगे। आगामी 16 अप्रैल तक परीक्षण के तौर पर यह सर्वे होने भी जा रहा है। जिसमें फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय और उसके कुछ कॉलेज, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, आइआइटी दिल्ली व अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) दिल्ली जैसे संस्थान शामिल हैं। गौरतलब है कि इस सर्वे को लेकर इनोवेशन, बुनियादी ढांचा और जन सूचना मामलों के लिए प्रधानमंत्री के सलाहकार सैम पित्रोदा ने बीते दिनों सरकार को आड़े हाथों लिया था। उनका आरोप था कि योजनाओं पर अमल के बजाय सरकार सर्वे व बहस-मुबाहिसों में फंसी है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय का तर्क है कि प्रामाणिक आंकड़ों के लिए यह जानना जरूरी है कि सही मायने में कितने लोग उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं और कितनों के लिए इंतजाम करना है। किस स्ट्रीम में कितने शिक्षक हैं, कितनी कमी है। पढ़ाई का कौन सा क्षेत्र ज्यादा लोकप्रिय है? किसमें कितने संस्थानों की जरूरत होगी। समाज के किस तबके को ज्यादा तवज्जो की दरकार है। सरकारी, गैर सरकारी किन संस्थानों को कितने धन की जरूरत है। from dainik jagran.
यहां कन्या का विवाह करने से डरते हैं अभिभावक
जलपाईगुड़ी, जागरण संवाददाता : जिले का सिपाहीपाड़ा, बांगालपाड़ा और खुदीपाड़ा ऐसे गांव हैं जहां अपनी बेटियों का ब्याह करने से अभिभावक घबराते हैं। यदि किसी भी सूरत से शादी हो भी गई तो उसे कन्या को वरपक्ष स्वीकार नहीं करते। इससे विवाहिता कन्या को सारी उम्र अपने मायके में ही गुजार देनी पड़ती है। सुनने में यह अविश्र्वनीय लगता है लेकिन है यह सोलहों आने सच। कई साल से नगर बेरुबाड़ी अंचल में शादी ब्याह पर जैसे अघोषित रोक लग गई हो। विवाह का हर प्रस्ताव खारिज हो जाता है। उक्त गांवों की करीब डेढ़ सौ कुंवारी युवतियां शादी का नाम सुनकर ही भयभीत हो जाती हैं। स्थानीय ग्रामीणों से बातचीत करने पर पता चला कि सीमा सुरक्षा बल की कड़ाई के चलते ही शादियां नहीं हो पाती हैं। आरोप है कि बीएसएफ के अत्याचार से यहां लोग अपनी कन्या का विवाह करने से घबराते हैं। इन ग्रामीणों का कहना है कि जब कोई कन्या पक्ष का व्यक्ति इन गांवों में शादी के प्रस्ताव लेकर पहुंचता है तो सीमा सुरक्षा बल वाले उन्हें उल्टी सीधी बात समझा कर गेट के बाहर ही भेज देते हैं। विदित हो कि भारत बांग्लादेश सीमा के जीरो प्वाइंट के भीतर ही ये गांव स्थित हैं जिसके चलते लोगों को इन गांवों तक पहुंचने के लिए गेट से होकर गुजरना पड़ता है। इन गेटों से जाने के लिए निर्धारित समय पर जाना होता है अन्यथा गेटें सुरक्षा कारणों से बंद हो जाती हैं। शादी के लिए पहुंचने वालों से बीएसएफ वाले सीमावर्ती गांव होने के चलते गहन पूछताछ करते हैं जिससे आजिज आकर ये लोग वापस लौट जाते हैं। आरोप है कि सीमा सुरक्षा बल के जवान पूछताछ के क्रम में कन्या पक्ष वालों को शादी के खिलाफ भड़काते हैं। स्थानीय स्वनिर्भर दल की सदस्य मांतिजनेस्सा ने कहा कि सीमा सुरक्षा बल जवानों के असहयोग के चलते यहां की युवतियों की शादी नहीं हो पा रही है। कहा जाता है कि भारत में क्या लड़कियों की कमी है कि बांग्लादेश में शादी कर रहे हो। सैयद रहमान और एनामुल नामक दो युवकों की शादी इसी तरह के व्यवहार के चलते टूट गई। अब्दुल कादिर ने बताया कि उसकी शादी तय हो गई थी। लेकिन जब वह शादी के लिए सीमावर्ती गांव गया तो उसे वहां काफी देर तक रोक कर रखा गया जिससे शादी का वक्त गुजर गया। बहु भात की रस्म के दौरान उसके यहां आने वाले कन्या पक्ष वालों को आने नहीं दिया गया। स्थानीय पंचायत सदस्य नतिबर रहमान ने माना कि इस बारे में कई बार सीमा सुरक्षा बल के उच्च अधिकारियों से शिकायत की गई लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। इन गांवों के निवासियों की इस व्यथा कथा पर स्थानीय ग्रामीण माजिर अली ने गीत भी लिखे हैं। इनका कहना है कि देश के आजाद होने के बावजूद हम आजाद नागरिक की तरह नहीं जी पा रहे हैं। इसी दुख भरी दास्तान को बयान करने के लिए उन्होंने गीत लिखे हैं। कविताओं की कुछ बानगी इस तरह से है : बाड़ के भीतर रहते हैं मजबूर, गहरी है हमारी तकलीफ, मेहमान व रिश्तेदार घर आएं तो साहब होते हैं मगरूर। जलपाईगुड़ी के सांसद महेंद्र कुमार राय ने कहा कि यह समस्या काफी पुरानी है। बीएसएफ को सीमा की निगरानी करने का काम है। लेकिन उसे शादी ब्याह में रूकावट नहीं डालनी चाहिए। यह तो सरासर अनुचित है। उन्होंने बताया कि सिपाहीपाड़ा, मुदीपाड़ा, अंडूपाड़ा, हिदूपाड़ा, खेखिरडांगा, बांगालपाड़ा के अलावा कुकुरजान, सुखानी और मेखलीगंज महकमा के सीमावर्ती इलाकों की एक ही समस्या है। यदि यहां के लोग उनके पास शिकायत लेकर आते हैं तो वे सीमा सुरक्षा बल के उच्च अधिकारियों से बात कर सकते हैं। सीमा सुरक्षा बल के अधिकारियों ने हालांकि आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है। इनका कहना है कि वे ग्रामीणों के शादी ब्याह के मामले में सहयोग करने के लिए हमेशा तैयार हैं। उधर, ग्रामीणों के अनुसार इलाके में 48 नंबर सीमा सुरक्षा बल की बटालियन तैनात होने वाली है। उम्मीद है कि नई बटालियन ग्रामीणों के दुख-दर्द को समझेगी। आने वाला दिन हमारे लिए नई सुबह लेकर आएगा।
बुधवार, मार्च 23, 2011
कौन पैदा करेगा इंसानियत की रूह में हरकत
संजय स्वदेश
आज भगत सिंह का बलिदान दिवस है। हर साल की तरह इस बार भी एकाद संगठन के प्रेस नोट से अखबार के किसी कोने में भगत सिंह के को श्रद्धांजलि की खबर दिख जाएगी। शहर में कही धूल खाती भगत सिंह की मूर्ति पर माल्यपर्ण होगा। कहीं संगोष्ठि होगी तो भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता बता कर उनसे प्रेरणा लेने की बात कही जाएगी। फिर सब कुछ पहले जैसे समान्य हो जाएगा और अगले वर्ष फिर बलिदास दिवस पर यही सिलसिला दोहराया जाएगा। भगत सिंह के विचारों से न किसी को लेना न देना। यदि लेना-देना होता तो आज युवा दिलों में भ्रष्टाचार के खिलाफ धधकने वाली ज्वाला केवल धधकती हुई घुटती नहीं। यह ज्वाला बाहर आती। सड़कों पर आती। सरकार की चूले हिला देती। फिर दिखती कोई मिश्र की तरह क्रांति। भ्रष्टाचारी सत्ता के गलियारे से भाग जाते। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है। युवाओं का मन किसी न किसी रूप में पूरी तरह से गतिरोध की स्थिति में जकड़ चुका है।
वह भगत सिंह को क्यों याद करें। उस क्या लेना-देना क्रांति से। आजाद भारत में क्रांति की बात करने वाले पागल करार दिये गये हैं। छोटे-मोटे अनेक उदहारण है। एक-दो उदाहरण को छोड़ दे तो अधिकर कहां खो गये, किसी को पता नहीं।
गुलाम भारत में भगत सिंह ने कहा था- जब गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंज में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरुरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रांति की स्पिरिट ताजा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो
शहीद भगत सिंह के नाम भर से केवल कुछ युवा मन ही रोमांचित होते हैं। करीब तीन साल पहले नागपुर में भगत सिंह के शहीद दिवस पर वहां के युवाओं से बातचीत कर स्टोरी की। केवल इतना ही पूछा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को जानते हो, ये कौन थे। अधिकर युवाओं के केवल इतना ही बनाया कि उन्होंने भगत सिंह का नाम सुना है। उनके बाकी साथियों के नाम पता नहीं था। वह भी भगत सिंह को शहीद के रूप में इस लिए जानते थे, क्योंकि उन्होंने भगत सिंह पर अधारित फिल्में देखी थी या उस पर चर्चा की थी।
देश के अन्य शहरों में भी यदि ऐसी स्टोरी करा ली जाए तो भी शत प्रतिशत यही जवाब मिलेंगे। लिहाजा सवाल है कि आजाद भारत में इंसानियत की रूह में हरकत पैदा करने की जहमत कौन उठाये। वह जमाना कुछ और था जो भगत सिंह जैसे ने देश के बारे में सोचा। आज भी हर कोई चाहता है कि समाज में एक और भगत सिंह आए। लेकिन वह पड़ोसी के कोख से पैदा हो। जिससे बलिदान वह दे और राज भोगे कोई और।
भगत सिंह ने अपने समय के लिए कहा था कि गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंजा में कसे हुए है। लेकिन आज गतिरोध की स्थितियां वैसी है। बस अंतर इतना भर है कि स्थितियों का रूप बदला हुआ है। मुर्दे इंसानों की भरमार आज भी है और क्रांतिकारी स्पिरिट की बात करने वाले हम जैसे पालग कहलाते हैं।
आज भगत सिंह का बलिदान दिवस है। हर साल की तरह इस बार भी एकाद संगठन के प्रेस नोट से अखबार के किसी कोने में भगत सिंह के को श्रद्धांजलि की खबर दिख जाएगी। शहर में कही धूल खाती भगत सिंह की मूर्ति पर माल्यपर्ण होगा। कहीं संगोष्ठि होगी तो भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता बता कर उनसे प्रेरणा लेने की बात कही जाएगी। फिर सब कुछ पहले जैसे समान्य हो जाएगा और अगले वर्ष फिर बलिदास दिवस पर यही सिलसिला दोहराया जाएगा। भगत सिंह के विचारों से न किसी को लेना न देना। यदि लेना-देना होता तो आज युवा दिलों में भ्रष्टाचार के खिलाफ धधकने वाली ज्वाला केवल धधकती हुई घुटती नहीं। यह ज्वाला बाहर आती। सड़कों पर आती। सरकार की चूले हिला देती। फिर दिखती कोई मिश्र की तरह क्रांति। भ्रष्टाचारी सत्ता के गलियारे से भाग जाते। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है। युवाओं का मन किसी न किसी रूप में पूरी तरह से गतिरोध की स्थिति में जकड़ चुका है।
वह भगत सिंह को क्यों याद करें। उस क्या लेना-देना क्रांति से। आजाद भारत में क्रांति की बात करने वाले पागल करार दिये गये हैं। छोटे-मोटे अनेक उदहारण है। एक-दो उदाहरण को छोड़ दे तो अधिकर कहां खो गये, किसी को पता नहीं।
गुलाम भारत में भगत सिंह ने कहा था- जब गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंज में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरुरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रांति की स्पिरिट ताजा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो
शहीद भगत सिंह के नाम भर से केवल कुछ युवा मन ही रोमांचित होते हैं। करीब तीन साल पहले नागपुर में भगत सिंह के शहीद दिवस पर वहां के युवाओं से बातचीत कर स्टोरी की। केवल इतना ही पूछा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को जानते हो, ये कौन थे। अधिकर युवाओं के केवल इतना ही बनाया कि उन्होंने भगत सिंह का नाम सुना है। उनके बाकी साथियों के नाम पता नहीं था। वह भी भगत सिंह को शहीद के रूप में इस लिए जानते थे, क्योंकि उन्होंने भगत सिंह पर अधारित फिल्में देखी थी या उस पर चर्चा की थी।
देश के अन्य शहरों में भी यदि ऐसी स्टोरी करा ली जाए तो भी शत प्रतिशत यही जवाब मिलेंगे। लिहाजा सवाल है कि आजाद भारत में इंसानियत की रूह में हरकत पैदा करने की जहमत कौन उठाये। वह जमाना कुछ और था जो भगत सिंह जैसे ने देश के बारे में सोचा। आज भी हर कोई चाहता है कि समाज में एक और भगत सिंह आए। लेकिन वह पड़ोसी के कोख से पैदा हो। जिससे बलिदान वह दे और राज भोगे कोई और।
भगत सिंह ने अपने समय के लिए कहा था कि गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंजा में कसे हुए है। लेकिन आज गतिरोध की स्थितियां वैसी है। बस अंतर इतना भर है कि स्थितियों का रूप बदला हुआ है। मुर्दे इंसानों की भरमार आज भी है और क्रांतिकारी स्पिरिट की बात करने वाले हम जैसे पालग कहलाते हैं।
कौन पैदा करेगा इंसानियत की रूह में हरकत
संजय स्वदेश
आज भगत सिंह का बलिदान दिवस है। हर साल की तरह इस बार भी एकाद संगठन के प्रेस नोट से अखबार के किसी कोने में भगत सिंह के को श्रद्धांजलि की खबर दिख जाएगी। शहर में कही धूल खाती भगत सिंह की मूर्ति पर माल्यपर्ण होगा। कहीं संगोष्ठि होगी तो भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता बता कर उनसे प्रेरणा लेने की बात कही जाएगी। फिर सब कुछ पहले जैसे समान्य हो जाएगा और अगले वर्ष फिर बलिदास दिवस पर यही सिलसिला दोहराया जाएगा। भगत सिंह के विचारों से न किसी को लेना न देना। यदि लेना-देना होता तो आज युवा दिलों में भ्रष्टाचार के खिलाफ धधकने वाली ज्वाला केवल धधकती हुई घुटती नहीं। यह ज्वाला बाहर आती। सड़कों पर आती। सरकार की चूले हिला देती। फिर दिखती कोई मिश्र की तरह क्रांति। भ्रष्टाचारी सत्ता के गलियारे से भाग जाते। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है। युवाओं का मन किसी न किसी रूप में पूरी तरह से गतिरोध की स्थिति में जकड़ चुका है।
वह भगत सिंह को क्यों याद करें। उस क्या लेना-देना क्रांति से। आजाद भारत में क्रांति की बात करने वाले पागल करार दिये गये हैं। छोटे-मोटे अनेक उदहारण है। एक-दो उदाहरण को छोड़ दे तो अधिकर कहां खो गये, किसी को पता नहीं।
गुलाम भारत में भगत सिंह ने कहा था- जब गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंज में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरुरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रांति की स्पिरिट ताजा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो
शहीद भगत सिंह के नाम भर से केवल कुछ युवा मन ही रोमांचित होते हैं। करीब तीन साल पहले नागपुर में भगत सिंह के शहीद दिवस पर वहां के युवाओं से बातचीत कर स्टोरी की। केवल इतना ही पूछा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को जानते हो, ये कौन थे। अधिकर युवाओं के केवल इतना ही बनाया कि उन्होंने भगत सिंह का नाम सुना है। उनके बाकी साथियों के नाम पता नहीं था। वह भी भगत सिंह को शहीद के रूप में इस लिए जानते थे, क्योंकि उन्होंने भगत सिंह पर अधारित फिल्में देखी थी या उस पर चर्चा की थी।
देश के अन्य शहरों में भी यदि ऐसी स्टोरी करा ली जाए तो भी शत प्रतिशत यही जवाब मिलेंगे। लिहाजा सवाल है कि आजाद भारत में इंसानियत की रूह में हरकत पैदा करने की जहमत कौन उठाये। वह जमाना कुछ और था जो भगत सिंह जैसे ने देश के बारे में सोचा। आज भी हर कोई चाहता है कि समाज में एक और भगत सिंह आए। लेकिन वह पड़ोसी के कोख से पैदा हो। जिससे बलिदान वह दे और राज भोगे कोई और।
भगत सिंह ने अपने समय के लिए कहा था कि गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंजा में कसे हुए है। लेकिन आज गतिरोध की स्थितियां वैसी है। बस अंतर इतना भर है कि स्थितियों का रूप बदला हुआ है। मुर्दे इंसानों की भरमार आज भी है और क्रांतिकारी स्पिरिट की बात करने वाले हम जैसे पालग कहलाते हैं।
आज भगत सिंह का बलिदान दिवस है। हर साल की तरह इस बार भी एकाद संगठन के प्रेस नोट से अखबार के किसी कोने में भगत सिंह के को श्रद्धांजलि की खबर दिख जाएगी। शहर में कही धूल खाती भगत सिंह की मूर्ति पर माल्यपर्ण होगा। कहीं संगोष्ठि होगी तो भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता बता कर उनसे प्रेरणा लेने की बात कही जाएगी। फिर सब कुछ पहले जैसे समान्य हो जाएगा और अगले वर्ष फिर बलिदास दिवस पर यही सिलसिला दोहराया जाएगा। भगत सिंह के विचारों से न किसी को लेना न देना। यदि लेना-देना होता तो आज युवा दिलों में भ्रष्टाचार के खिलाफ धधकने वाली ज्वाला केवल धधकती हुई घुटती नहीं। यह ज्वाला बाहर आती। सड़कों पर आती। सरकार की चूले हिला देती। फिर दिखती कोई मिश्र की तरह क्रांति। भ्रष्टाचारी सत्ता के गलियारे से भाग जाते। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है। युवाओं का मन किसी न किसी रूप में पूरी तरह से गतिरोध की स्थिति में जकड़ चुका है।
वह भगत सिंह को क्यों याद करें। उस क्या लेना-देना क्रांति से। आजाद भारत में क्रांति की बात करने वाले पागल करार दिये गये हैं। छोटे-मोटे अनेक उदहारण है। एक-दो उदाहरण को छोड़ दे तो अधिकर कहां खो गये, किसी को पता नहीं।
गुलाम भारत में भगत सिंह ने कहा था- जब गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंज में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरुरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रांति की स्पिरिट ताजा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो
शहीद भगत सिंह के नाम भर से केवल कुछ युवा मन ही रोमांचित होते हैं। करीब तीन साल पहले नागपुर में भगत सिंह के शहीद दिवस पर वहां के युवाओं से बातचीत कर स्टोरी की। केवल इतना ही पूछा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को जानते हो, ये कौन थे। अधिकर युवाओं के केवल इतना ही बनाया कि उन्होंने भगत सिंह का नाम सुना है। उनके बाकी साथियों के नाम पता नहीं था। वह भी भगत सिंह को शहीद के रूप में इस लिए जानते थे, क्योंकि उन्होंने भगत सिंह पर अधारित फिल्में देखी थी या उस पर चर्चा की थी।
देश के अन्य शहरों में भी यदि ऐसी स्टोरी करा ली जाए तो भी शत प्रतिशत यही जवाब मिलेंगे। लिहाजा सवाल है कि आजाद भारत में इंसानियत की रूह में हरकत पैदा करने की जहमत कौन उठाये। वह जमाना कुछ और था जो भगत सिंह जैसे ने देश के बारे में सोचा। आज भी हर कोई चाहता है कि समाज में एक और भगत सिंह आए। लेकिन वह पड़ोसी के कोख से पैदा हो। जिससे बलिदान वह दे और राज भोगे कोई और।
भगत सिंह ने अपने समय के लिए कहा था कि गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंजा में कसे हुए है। लेकिन आज गतिरोध की स्थितियां वैसी है। बस अंतर इतना भर है कि स्थितियों का रूप बदला हुआ है। मुर्दे इंसानों की भरमार आज भी है और क्रांतिकारी स्पिरिट की बात करने वाले हम जैसे पालग कहलाते हैं।
कौन पैदा करेगा इंसानियत की रूह में हरकत
संजय स्वदेश
आज भगत सिंह का बलिदान दिवस है। हर साल की तरह इस बार भी एकाद संगठन के प्रेस नोट से अखबार के किसी कोने में भगत सिंह के को श्रद्धांजलि की खबर दिख जाएगी। शहर में कही धूल खाती भगत सिंह की मूर्ति पर माल्यपर्ण होगा। कहीं संगोष्ठि होगी तो भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता बता कर उनसे प्रेरणा लेने की बात कही जाएगी। फिर सब कुछ पहले जैसे समान्य हो जाएगा और अगले वर्ष फिर बलिदास दिवस पर यही सिलसिला दोहराया जाएगा। भगत सिंह के विचारों से न किसी को लेना न देना। यदि लेना-देना होता तो आज युवा दिलों में भ्रष्टाचार के खिलाफ धधकने वाली ज्वाला केवल धधकती हुई घुटती नहीं। यह ज्वाला बाहर आती। सड़कों पर आती। सरकार की चूले हिला देती। फिर दिखती कोई मिश्र की तरह क्रांति। भ्रष्टाचारी सत्ता के गलियारे से भाग जाते। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है। युवाओं का मन किसी न किसी रूप में पूरी तरह से गतिरोध की स्थिति में जकड़ चुका है।
वह भगत सिंह को क्यों याद करें। उस क्या लेना-देना क्रांति से। आजाद भारत में क्रांति की बात करने वाले पागल करार दिये गये हैं। छोटे-मोटे अनेक उदहारण है। एक-दो उदाहरण को छोड़ दे तो अधिकर कहां खो गये, किसी को पता नहीं।
गुलाम भारत में भगत सिंह ने कहा था- जब गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंज में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरुरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रांति की स्पिरिट ताजा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो
शहीद भगत सिंह के नाम भर से केवल कुछ युवा मन ही रोमांचित होते हैं। करीब तीन साल पहले नागपुर में भगत सिंह के शहीद दिवस पर वहां के युवाओं से बातचीत कर स्टोरी की। केवल इतना ही पूछा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को जानते हो, ये कौन थे। अधिकर युवाओं के केवल इतना ही बनाया कि उन्होंने भगत सिंह का नाम सुना है। उनके बाकी साथियों के नाम पता नहीं था। वह भी भगत सिंह को शहीद के रूप में इस लिए जानते थे, क्योंकि उन्होंने भगत सिंह पर अधारित फिल्में देखी थी या उस पर चर्चा की थी।
देश के अन्य शहरों में भी यदि ऐसी स्टोरी करा ली जाए तो भी शत प्रतिशत यही जवाब मिलेंगे। लिहाजा सवाल है कि आजाद भारत में इंसानियत की रूह में हरकत पैदा करने की जहमत कौन उठाये। वह जमाना कुछ और था जो भगत सिंह जैसे ने देश के बारे में सोचा। आज भी हर कोई चाहता है कि समाज में एक और भगत सिंह आए। लेकिन वह पड़ोसी के कोख से पैदा हो। जिससे बलिदान वह दे और राज भोगे कोई और।
भगत सिंह ने अपने समय के लिए कहा था कि गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंजा में कसे हुए है। लेकिन आज गतिरोध की स्थितियां वैसी है। बस अंतर इतना भर है कि स्थितियों का रूप बदला हुआ है। मुर्दे इंसानों की भरमार आज भी है और क्रांतिकारी स्पिरिट की बात करने वाले हम जैसे पालग कहलाते हैं।
आज भगत सिंह का बलिदान दिवस है। हर साल की तरह इस बार भी एकाद संगठन के प्रेस नोट से अखबार के किसी कोने में भगत सिंह के को श्रद्धांजलि की खबर दिख जाएगी। शहर में कही धूल खाती भगत सिंह की मूर्ति पर माल्यपर्ण होगा। कहीं संगोष्ठि होगी तो भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता बता कर उनसे प्रेरणा लेने की बात कही जाएगी। फिर सब कुछ पहले जैसे समान्य हो जाएगा और अगले वर्ष फिर बलिदास दिवस पर यही सिलसिला दोहराया जाएगा। भगत सिंह के विचारों से न किसी को लेना न देना। यदि लेना-देना होता तो आज युवा दिलों में भ्रष्टाचार के खिलाफ धधकने वाली ज्वाला केवल धधकती हुई घुटती नहीं। यह ज्वाला बाहर आती। सड़कों पर आती। सरकार की चूले हिला देती। फिर दिखती कोई मिश्र की तरह क्रांति। भ्रष्टाचारी सत्ता के गलियारे से भाग जाते। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है। युवाओं का मन किसी न किसी रूप में पूरी तरह से गतिरोध की स्थिति में जकड़ चुका है।
वह भगत सिंह को क्यों याद करें। उस क्या लेना-देना क्रांति से। आजाद भारत में क्रांति की बात करने वाले पागल करार दिये गये हैं। छोटे-मोटे अनेक उदहारण है। एक-दो उदाहरण को छोड़ दे तो अधिकर कहां खो गये, किसी को पता नहीं।
गुलाम भारत में भगत सिंह ने कहा था- जब गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंज में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरुरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रांति की स्पिरिट ताजा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो
शहीद भगत सिंह के नाम भर से केवल कुछ युवा मन ही रोमांचित होते हैं। करीब तीन साल पहले नागपुर में भगत सिंह के शहीद दिवस पर वहां के युवाओं से बातचीत कर स्टोरी की। केवल इतना ही पूछा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को जानते हो, ये कौन थे। अधिकर युवाओं के केवल इतना ही बनाया कि उन्होंने भगत सिंह का नाम सुना है। उनके बाकी साथियों के नाम पता नहीं था। वह भी भगत सिंह को शहीद के रूप में इस लिए जानते थे, क्योंकि उन्होंने भगत सिंह पर अधारित फिल्में देखी थी या उस पर चर्चा की थी।
देश के अन्य शहरों में भी यदि ऐसी स्टोरी करा ली जाए तो भी शत प्रतिशत यही जवाब मिलेंगे। लिहाजा सवाल है कि आजाद भारत में इंसानियत की रूह में हरकत पैदा करने की जहमत कौन उठाये। वह जमाना कुछ और था जो भगत सिंह जैसे ने देश के बारे में सोचा। आज भी हर कोई चाहता है कि समाज में एक और भगत सिंह आए। लेकिन वह पड़ोसी के कोख से पैदा हो। जिससे बलिदान वह दे और राज भोगे कोई और।
भगत सिंह ने अपने समय के लिए कहा था कि गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंजा में कसे हुए है। लेकिन आज गतिरोध की स्थितियां वैसी है। बस अंतर इतना भर है कि स्थितियों का रूप बदला हुआ है। मुर्दे इंसानों की भरमार आज भी है और क्रांतिकारी स्पिरिट की बात करने वाले हम जैसे पालग कहलाते हैं।
मंगलवार, मार्च 22, 2011
तोमरजी जैसा सच लिखने का कीड़ा दूसरों में भी कुलबुलाये
संजय स्वदेश
होली की शुभकामनाओं के लिए जैसे ही मोबाइल में उठाकर शुभकामनाओं का एसएमएस टाइप शुरू किया था, कि एक वह मनहूस एसएमएस आया। एसएमएस दिल्ली के मित्र सुभाषचंद जी का था। उसकी एमएमएस को पढ़ कर होली की सारी खुशियां उड़ गई। काफी देर तक सोचता रहा। आखिर ऐसा क्यों होता है। जो लोग साहस के साथ सच को जोरदार आवाज में उठाते हैं, उन्हें ईश्वर प्रेम क्यों नहीं करता है। दुराचारी, भ्रष्टÑों की आयु हमेशा लंबी रही है।
बिना जाने-पहचाने पहली बार तोमर जी के नाम पर एक मित्र से चर्चा तब हुई थी, जब सीनियर इंडिया में दानिश कार्टून को प्रकाशित मामले में तिहाड़ गए थे। तब सीनियर इंडिया में काम करने वाले मनोज कृष्णा से पूछा था कि आखिर यह सब हुआ कैसे? उन्होंने बताया कि सीनियर इंडिया का मालिक उनसे बार-बार सहसिक स्टोरी छापने के लिए कहता था जिससे सीनियर इंडिया सुर्खियों में आए। उन्होंने सच का छापा। मुसीबत आई। मालिक ने हाथ खड़े कर लिये। खैर मामला, चर्चा आई गई रह गई।
उसके बाद विभिन्न पोर्टलों पर एक के बाद महत्वपूर्ण मुद्दों पर साहसिक लेखन ने मुझे इनका फैन बना दिया था। नागपुर से प्रकाशित दैनिक 1857 में इनका नियमित कॉलम प्रतिदिन प्रकाशित होता था। जब भी पढ़ता। मन में में यह विचार जरुर आता था कि आखिर विविध मुद्दों की गहराई तक की बात इन्हें कैसे मालूम। कितना अध्ययन है। किताबी और दुनियादारी की। मन में यही ख्याल आता कि काश, मैं भी इसी तरह दमादार शैली में लिखू पाता। लेकिन अल्प अनुभव में ऐसा बेवाक लेखन कहां संभव है। लेकिन पढ़ कर लिखने की हिम्मत जरुर बढ़ती रही। इनकी बीमारी के समाचार सुन कर कई बार सोचा दिल्ली जाऊंगा तो जरुर मिलूंगा। ऐसे पत्रकार कहां, जो ठाठ से फीचर एजेंसी चलाए और बिना किसी दबाव में सच को साहस के साथ उठाये। दिल्ली दूर रही और दर्शन की आस अधूरी।
आज एक वेबसाइट पर दिल्ली में उनकी अंत्येष्ठी के दौरान उनके पिताजी का फोटो देख कर मन की व्यथा और बढ़ गई। एक पिता के लिए सबसे दु:खद इससे बड़ा और क्या हो सकता है कि वह अपने ही दुलारे लाल की अंतिम यात्रा में शामिल हो। हे, प्रभु, दबंग पत्रकार के पिता और उनके परिवार को सहनशक्ति दें। सच लिखने की जो कीड़ा तोमरजी में थी, वैसा ही कीड़ा अन्य पत्रकारों में भी कुलबुलाये। जिससे कि साहस के साथ सच को लिखने की परंपरा कायम रहे।
होली की शुभकामनाओं के लिए जैसे ही मोबाइल में उठाकर शुभकामनाओं का एसएमएस टाइप शुरू किया था, कि एक वह मनहूस एसएमएस आया। एसएमएस दिल्ली के मित्र सुभाषचंद जी का था। उसकी एमएमएस को पढ़ कर होली की सारी खुशियां उड़ गई। काफी देर तक सोचता रहा। आखिर ऐसा क्यों होता है। जो लोग साहस के साथ सच को जोरदार आवाज में उठाते हैं, उन्हें ईश्वर प्रेम क्यों नहीं करता है। दुराचारी, भ्रष्टÑों की आयु हमेशा लंबी रही है।
बिना जाने-पहचाने पहली बार तोमर जी के नाम पर एक मित्र से चर्चा तब हुई थी, जब सीनियर इंडिया में दानिश कार्टून को प्रकाशित मामले में तिहाड़ गए थे। तब सीनियर इंडिया में काम करने वाले मनोज कृष्णा से पूछा था कि आखिर यह सब हुआ कैसे? उन्होंने बताया कि सीनियर इंडिया का मालिक उनसे बार-बार सहसिक स्टोरी छापने के लिए कहता था जिससे सीनियर इंडिया सुर्खियों में आए। उन्होंने सच का छापा। मुसीबत आई। मालिक ने हाथ खड़े कर लिये। खैर मामला, चर्चा आई गई रह गई।
उसके बाद विभिन्न पोर्टलों पर एक के बाद महत्वपूर्ण मुद्दों पर साहसिक लेखन ने मुझे इनका फैन बना दिया था। नागपुर से प्रकाशित दैनिक 1857 में इनका नियमित कॉलम प्रतिदिन प्रकाशित होता था। जब भी पढ़ता। मन में में यह विचार जरुर आता था कि आखिर विविध मुद्दों की गहराई तक की बात इन्हें कैसे मालूम। कितना अध्ययन है। किताबी और दुनियादारी की। मन में यही ख्याल आता कि काश, मैं भी इसी तरह दमादार शैली में लिखू पाता। लेकिन अल्प अनुभव में ऐसा बेवाक लेखन कहां संभव है। लेकिन पढ़ कर लिखने की हिम्मत जरुर बढ़ती रही। इनकी बीमारी के समाचार सुन कर कई बार सोचा दिल्ली जाऊंगा तो जरुर मिलूंगा। ऐसे पत्रकार कहां, जो ठाठ से फीचर एजेंसी चलाए और बिना किसी दबाव में सच को साहस के साथ उठाये। दिल्ली दूर रही और दर्शन की आस अधूरी।
आज एक वेबसाइट पर दिल्ली में उनकी अंत्येष्ठी के दौरान उनके पिताजी का फोटो देख कर मन की व्यथा और बढ़ गई। एक पिता के लिए सबसे दु:खद इससे बड़ा और क्या हो सकता है कि वह अपने ही दुलारे लाल की अंतिम यात्रा में शामिल हो। हे, प्रभु, दबंग पत्रकार के पिता और उनके परिवार को सहनशक्ति दें। सच लिखने की जो कीड़ा तोमरजी में थी, वैसा ही कीड़ा अन्य पत्रकारों में भी कुलबुलाये। जिससे कि साहस के साथ सच को लिखने की परंपरा कायम रहे।
सीआई की करतूत : दहेज नहीं दिया तो पत्नी को घर से निकाला
जयपुर, 21 मार्च। शादी के करीब डेढ़ साल बाद पत्नी से मारपीट व दस लाख रुपए दहेज मांगने वाले सीआई के खिलाफ पीड़िता ने महिला थाना पूर्व में मामला दर्ज कराया है। आरोपी मामला दर्ज होने के बाद ही थाने से छुट्टी लेकर फरार हो गया।
पीड़िता अंजु मेहरा (30) बापूनगर की रहने वाली है। पीड़िता ने रिपोर्ट में बताया कि उसकी शादी तीन जुलाई सन् 2009 को अनिता कॉलोनी प्रतापनगर निवासी नरेश बंशीवाल के साथ हुई थी। आरोपी टोंक जिले के पीपलू थाने में सीआई के पद पर कार्यरत है। पीड़िता ने रिपोर्ट में बताया कि शादी के बाद से ही आरोपी पति, सास, ससुर, ननद व ननदोई उसको दहेज लाने के लिए परेशान व मारपीट करते हैं। आरोपियों ने कुछ दिन पहले पीड़िता को मारपीट कर घर से बाहर भी निकाल दिया। पीड़िता का आरोपी है कि वह दहेज में दस लाख रुपए मांगता है।
कई जगह छोड़ी सगाई
जांच अधिकारी थानेदार मुनिंदर ने बताया कि आरोपी ने कुछ दिन पहले चंडीगढ़ निवासी युवती से भी सगाई हुई थी। बाद में आरोपी ने शादी के तीन दिन पहले दहेज की अतिरिक्त मांग करते हुए शादी से इनकार कर दिया। इसकी रिपोर्ट पीड़िता ने चंडीगढ़ के सेक्टर 31 थाने में दो साल पूर्व सीआई के खिलाफ मामला दर्ज कराया था। उस मामले में दोनों के राजीनामा हो गया। पीड़िता ने पुलिस को बताया कि आरोपी सीआई ने कुछ दिन पहले रावतभाटा में भी एक युवती से सगाई की थी। शादी की तारीख तय हो जाने व कार्ड छपवाने के बाद आरोपी ने उसके साथ सगाई तोड़ दी।
पीड़िता अंजु मेहरा (30) बापूनगर की रहने वाली है। पीड़िता ने रिपोर्ट में बताया कि उसकी शादी तीन जुलाई सन् 2009 को अनिता कॉलोनी प्रतापनगर निवासी नरेश बंशीवाल के साथ हुई थी। आरोपी टोंक जिले के पीपलू थाने में सीआई के पद पर कार्यरत है। पीड़िता ने रिपोर्ट में बताया कि शादी के बाद से ही आरोपी पति, सास, ससुर, ननद व ननदोई उसको दहेज लाने के लिए परेशान व मारपीट करते हैं। आरोपियों ने कुछ दिन पहले पीड़िता को मारपीट कर घर से बाहर भी निकाल दिया। पीड़िता का आरोपी है कि वह दहेज में दस लाख रुपए मांगता है।
कई जगह छोड़ी सगाई
जांच अधिकारी थानेदार मुनिंदर ने बताया कि आरोपी ने कुछ दिन पहले चंडीगढ़ निवासी युवती से भी सगाई हुई थी। बाद में आरोपी ने शादी के तीन दिन पहले दहेज की अतिरिक्त मांग करते हुए शादी से इनकार कर दिया। इसकी रिपोर्ट पीड़िता ने चंडीगढ़ के सेक्टर 31 थाने में दो साल पूर्व सीआई के खिलाफ मामला दर्ज कराया था। उस मामले में दोनों के राजीनामा हो गया। पीड़िता ने पुलिस को बताया कि आरोपी सीआई ने कुछ दिन पहले रावतभाटा में भी एक युवती से सगाई की थी। शादी की तारीख तय हो जाने व कार्ड छपवाने के बाद आरोपी ने उसके साथ सगाई तोड़ दी।
शुक्रवार, मार्च 18, 2011
विकीलीस का दावे पर एक दुविधा
संजय स्वदेश
भारतीय मामले में विकीलीस एक के बाद एक दावे कर भारतीय राजनीति में सुनामी की लहर छोड़ रहा है। पर इस पत्राकरिय सुनामी से कुछ नष्ट नहीं होने वाला है। ताला खुलासे से मन में एक दुविधा है। विकीलीस की मिशन पत्रकारिता की चर्चा अरसे से हो रही है। पर सवाल यह है कि आखिर ऐसे खुलासों का पुख्ता आधार क्या है। विकीलीस की मिशन पत्रकारिता ऐसे सनसनीखेज राजनीतिक खुलासे अब क्यों कर रही है? 2008 के प्रकरण का खुलासा इन दिनों होने से इनकी मिशन पत्रकारिता पर से विश्वास डगमगाने लगा है।
यूं ना करे इनकार
ताजा खुलाशा है कि मनमोहन सिंह सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 22 जुलाई, 2008 को भारत-अमेरिका न्यूलियर डील पर संसद में विश्वासमत जीतने के लिए घूस दी। विश्वास मत प्रस्ताव के पांच दिन पहले कांग्रेस नेता सतीश शर्मा के सहयोगी नचिकेता कपूर ने एक अमेरिकी अधिकारी को रुपयों भरे दो बैग दिखाए और कहा- एटमी डील पर सांसदों का समर्थन हासिल करने के लिए 50-60 करोड़ रुपये जुटाए हैं। नचिकेता ने कहा कि अजीत सिंह की रालोद के चार सांसदों को 10- 10 करोड़ रु. दिए गए हैं। अमेरिकी दूतावास द्वारा 17 जुलाई, 08 को यह गुह्रश्वत संदेश अमेरिका भेजा गया। यह खबर एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित हुई। फिर संसद में मामला गूंजा। उसके बाद हिंदी अखबरों ने शोर शुरू किया है। दुविधा वाली बात यह है कि आखिर वर्ष 2008 में जुलाई माह की घटना का खुलासा अब क्यों हो रहा है। इस सवाल को केवल यह तर्क देकर नहीं इनकार किया जा सकता है कि जब जागा तब सवेरा।
विदेसी मीडिया को देशहीत से मतलब नहीं
भारतीय जनमानस में दूर की विदेसी मीडिया पर भारतीय मीडिया से कुछ ज्यादा ही भरोसा है। विदेशी मीडिया पर विश्वास का सबसे बड़ा उदाहरण बीबीसी हिंदी समाचार सेवा है। हमारे दूर के एक ग्रामीण रिश्तेदार ने बचपन में हमें बताया था कि बीबीसी ने सबसे पहले इंदिरा गांधी की मौत की खबर सुनाई थी। आॅल इंडिया रेड़ियों के पास यह खबर ही नहीं पहुंची। इसके अलावा अन्य कई ऐसी खबरे हैं जिसे स्पष्ट रूप से बीबीसी ने ही प्रसारित किया। देसी मीडिया पर वह खबर बाद में आई। मीडिया शिक्षण काल के दौरान यही सवाल प्राध्यापक से पूछा - इंदिरा गांधी की मौत की खबर सुनाने में आॅल इंडिया रेडियो क्यों पिछड़ गया? उन्होंने अच्छे से समझाया। संतुष्ट किया। उनका कहना था कि देसी मीडिया पर देशहीत की जिम्मेदारी है। उसकी सनसनी वाली खबरों से राष्टÑ पर आपत्ति आ सकती है। इसलिए इंदिरा गांधी की मौत की खबर में देरी हुई। इसके साथ ही उन्होंने दो-चार उदाहरण दिये। एक उदाहरण याद आ रहा है।
बीबीसी ने सुनाई पुरानी खबर
बीबीसी के पत्रकार असम के सुरुर इलाके में नहीं हैं। मुख्य शहरों में संवाददाता है। एक सपताह भर पुरानी स्थानीय घटना की खबर बीबीसी पर प्रसारित हुई। देश ने सुना और जाना कि सुरुर इलाके में क्या हो रहा है। जबकि वहीं खबर करीब सप्ताह भर पहले स्थानीय सप्ताहिक समाचार पत्र में प्रकाशित हो चुकी थी। बीबीसी के संवाददाता ने उस खबर को वहीं से उठाया था। दरअसल देश के कोने-कोने में अनेक सनसनीखेज घटनाएं होती है। राष्टÑीय मीडिया उठाये तो सनसनी, नहीं तो स्थानीय समाचार पत्र में ही उस खबर की मौत हो जाती है। एक और उदाहरण लें।
टाइम का हीरो भ्रष्ट निकला
अमेरिका के जिस टाइम पत्रिका ने बिहार के एक आईएएस अधिकारी को हिरो बनाया, बाद में वही सबसे बड़ा भ्रष्ट निकला। विदेशी मीडिया खासकर अमेरिकी मीडिया के संदर्भ इस उदहारण के बाद और किसी तरह के तर्क की जरुरत नहीं पड़ती है।
कहीं दाल में काला तो नहीं
सरकार बचाने के लिए संसद की खरीद फरोख्त को लेकर विकीलीस का दावे पर एक दुविधा क्यों न हो। यदि यही दावा वर्ष 2008 में ही आता तो विश्वास होता। लेकिन इतने दिन बाद इसका खुलासा ऐसा लता है कि जैसे दाल में काला नहीं बल्कि दाल ही काली है। इस विषय दिल्ली के अपने मित्र सुभाष चंद से पूछा कि विकीलीस के दावे पर क्या कहना है- उनका यह कहना था- हो सकता है कि इस मामले को लेकर कोई बड़ा डील हो रहा हो। मामला पटा नहीं, तो खुलासा हो गया हो। यदि मिशन पत्रकारिता की दृढ़ता होती तो खुलासा पहले ही होता। फिलहाल मुझे भी ऐसा ही लगता है।
भारतीय मामले में विकीलीस एक के बाद एक दावे कर भारतीय राजनीति में सुनामी की लहर छोड़ रहा है। पर इस पत्राकरिय सुनामी से कुछ नष्ट नहीं होने वाला है। ताला खुलासे से मन में एक दुविधा है। विकीलीस की मिशन पत्रकारिता की चर्चा अरसे से हो रही है। पर सवाल यह है कि आखिर ऐसे खुलासों का पुख्ता आधार क्या है। विकीलीस की मिशन पत्रकारिता ऐसे सनसनीखेज राजनीतिक खुलासे अब क्यों कर रही है? 2008 के प्रकरण का खुलासा इन दिनों होने से इनकी मिशन पत्रकारिता पर से विश्वास डगमगाने लगा है।
यूं ना करे इनकार
ताजा खुलाशा है कि मनमोहन सिंह सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 22 जुलाई, 2008 को भारत-अमेरिका न्यूलियर डील पर संसद में विश्वासमत जीतने के लिए घूस दी। विश्वास मत प्रस्ताव के पांच दिन पहले कांग्रेस नेता सतीश शर्मा के सहयोगी नचिकेता कपूर ने एक अमेरिकी अधिकारी को रुपयों भरे दो बैग दिखाए और कहा- एटमी डील पर सांसदों का समर्थन हासिल करने के लिए 50-60 करोड़ रुपये जुटाए हैं। नचिकेता ने कहा कि अजीत सिंह की रालोद के चार सांसदों को 10- 10 करोड़ रु. दिए गए हैं। अमेरिकी दूतावास द्वारा 17 जुलाई, 08 को यह गुह्रश्वत संदेश अमेरिका भेजा गया। यह खबर एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित हुई। फिर संसद में मामला गूंजा। उसके बाद हिंदी अखबरों ने शोर शुरू किया है। दुविधा वाली बात यह है कि आखिर वर्ष 2008 में जुलाई माह की घटना का खुलासा अब क्यों हो रहा है। इस सवाल को केवल यह तर्क देकर नहीं इनकार किया जा सकता है कि जब जागा तब सवेरा।
विदेसी मीडिया को देशहीत से मतलब नहीं
भारतीय जनमानस में दूर की विदेसी मीडिया पर भारतीय मीडिया से कुछ ज्यादा ही भरोसा है। विदेशी मीडिया पर विश्वास का सबसे बड़ा उदाहरण बीबीसी हिंदी समाचार सेवा है। हमारे दूर के एक ग्रामीण रिश्तेदार ने बचपन में हमें बताया था कि बीबीसी ने सबसे पहले इंदिरा गांधी की मौत की खबर सुनाई थी। आॅल इंडिया रेड़ियों के पास यह खबर ही नहीं पहुंची। इसके अलावा अन्य कई ऐसी खबरे हैं जिसे स्पष्ट रूप से बीबीसी ने ही प्रसारित किया। देसी मीडिया पर वह खबर बाद में आई। मीडिया शिक्षण काल के दौरान यही सवाल प्राध्यापक से पूछा - इंदिरा गांधी की मौत की खबर सुनाने में आॅल इंडिया रेडियो क्यों पिछड़ गया? उन्होंने अच्छे से समझाया। संतुष्ट किया। उनका कहना था कि देसी मीडिया पर देशहीत की जिम्मेदारी है। उसकी सनसनी वाली खबरों से राष्टÑ पर आपत्ति आ सकती है। इसलिए इंदिरा गांधी की मौत की खबर में देरी हुई। इसके साथ ही उन्होंने दो-चार उदाहरण दिये। एक उदाहरण याद आ रहा है।
बीबीसी ने सुनाई पुरानी खबर
बीबीसी के पत्रकार असम के सुरुर इलाके में नहीं हैं। मुख्य शहरों में संवाददाता है। एक सपताह भर पुरानी स्थानीय घटना की खबर बीबीसी पर प्रसारित हुई। देश ने सुना और जाना कि सुरुर इलाके में क्या हो रहा है। जबकि वहीं खबर करीब सप्ताह भर पहले स्थानीय सप्ताहिक समाचार पत्र में प्रकाशित हो चुकी थी। बीबीसी के संवाददाता ने उस खबर को वहीं से उठाया था। दरअसल देश के कोने-कोने में अनेक सनसनीखेज घटनाएं होती है। राष्टÑीय मीडिया उठाये तो सनसनी, नहीं तो स्थानीय समाचार पत्र में ही उस खबर की मौत हो जाती है। एक और उदाहरण लें।
टाइम का हीरो भ्रष्ट निकला
अमेरिका के जिस टाइम पत्रिका ने बिहार के एक आईएएस अधिकारी को हिरो बनाया, बाद में वही सबसे बड़ा भ्रष्ट निकला। विदेशी मीडिया खासकर अमेरिकी मीडिया के संदर्भ इस उदहारण के बाद और किसी तरह के तर्क की जरुरत नहीं पड़ती है।
कहीं दाल में काला तो नहीं
सरकार बचाने के लिए संसद की खरीद फरोख्त को लेकर विकीलीस का दावे पर एक दुविधा क्यों न हो। यदि यही दावा वर्ष 2008 में ही आता तो विश्वास होता। लेकिन इतने दिन बाद इसका खुलासा ऐसा लता है कि जैसे दाल में काला नहीं बल्कि दाल ही काली है। इस विषय दिल्ली के अपने मित्र सुभाष चंद से पूछा कि विकीलीस के दावे पर क्या कहना है- उनका यह कहना था- हो सकता है कि इस मामले को लेकर कोई बड़ा डील हो रहा हो। मामला पटा नहीं, तो खुलासा हो गया हो। यदि मिशन पत्रकारिता की दृढ़ता होती तो खुलासा पहले ही होता। फिलहाल मुझे भी ऐसा ही लगता है।
गुरुवार, मार्च 03, 2011
बुधवार, मार्च 02, 2011
जनता से अपेक्षा
गोधरा कांड में सर्जा मुकरर्र हो चुकी। सजा से पहले और सजा के बाद देश के माहौल पर कोई फर्क नहीं पड़ा। क्या देश की जनता प्रबुद्ध हो चली है। क्या वह समझ चुकी है कि दंगे और फसाद का परिणाम केवल रक्तपात है। यदि समझ चुकी है तो फिर क्या जनता से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे दंगों पर राजनीति करने वालों को सबक सिखाएंगी।
सिनेमा में दलित
http://dastak-ekpehel.blogspot.com/2011/02/blog-post_27.html
भारतीय परिवेश के तमाम क्षेत्रों के समान ही सिनेमा के क्षेत्र में भी दलितों की स्थिति निरीह एवं लाचार हैं. भारतीय सिनेमा का नजरिया भी दलितों के प्रति कुछ खास भिन्न नहीं है. दलितों के प्रति करूणा दिखाकर भारतीय फिल्म निर्माता एवं निर्देशक अछूत कन्या, आदमी, अछूत, सुजाता, बूटपालिश, अंकुर,सदगति, वेलकम तो सज्जनपुर, पीपली लाइव, आक्रोश, भीम गर्जना, और राजनीति जैसी फिल्मों का निर्माण तो किया हैं और इनमे से कुछ फिल्मो में दलितों को केंद्र में और कुछ में सहयोगी भूमिका में दलित के चरित्र को दर्शाया भी गया हैं परन्तु जिस गंभीरता और शिद्दत से दलित जाति के प्रश्न को उठाए जाने की जरूरत है, उस तरह से इन फिल्मो ने उसको नहीं उठाया गया हैं.
हिन्दी सिनेमा के कुछ ठोस यथार्थ हैं- नौकर का नाम दीनु या रामू ही होगा, बहुत होगा तो उसके नाम के साथ काका भी जोड़ दिया जाएगा. बेशक दलित यथार्थ हिन्दी सिनेमा में पर्याप्त जगह प्राप्त नहीं कर पाया है. भारत में प्रतिरोध का सिनेमा अनुपस्थित है, फिल्मों में असली भारत कम ही दिखता है, फिल्मों में काम करने वालों में भारत की विविधता नहीं दिखती.फिल्मों में दलित हमेशा लाचार ही होता है, जबकि पिछले तीन-चार दशक भारत के दलितों के लिए प्रतिरोध के दशक रहे हैं. दलित लगान में कचरा क्यों होता है, दलित दिल्ली-6 की जमादारिन क्यों हैं, जिससे दुधमुंहे बच्चे कहते हैं कि तुम सबको बड़ा बनाती हो, हमें भी बड़ा बना दो. यह मजाक किसी पुजारिन के साथ भी तो किया जा सकता था, लेकिन नहीं, यह नहीं हो सकता. इसके साथ ही हम सुजाता फिल्म की अछूत-दलित कन्या सुजाता की दयनीय चित्रण को कैसे भूल सकते हैं.फिल्म में सुजाता नाम की दलित कन्या चुप रहनेवाली, गुनी, सुशील और त्यागी ‘मैरिज-मैरिटल’ यानी सेविका बनी है जबकि उसी परिवार-परिवेश की असली बेटी एक प्रतिभावान मंचीय नर्तकी, आधुनिका, वाचाल और अपनी मर्जी की इज्जत करनेवाली शख्सियत बनती है. हमारी फिल्मे दलितों को सबल दिखाने में हमेशा ही परहेज करती आई हैं और उसका एक सशक्त उदाहरण प्रकाश झा की नयी फिल्म राजनीति में देखा जा सकता हैं. दलितों का नेता ‘सूरज’ (अजय देवगन), जो भरी सभा में सवर्णों और ऊंचे लोगों से लोहा लेता दिखाई देता है, आखिर वह भी उसी सवर्ण परिवार में जन्मा हुआ साबित होता है. अंततः फिल्म इसी परिपाटी पर लौट आती है कि दलितों का वह मसीहा इसी कारण से इतनी घाघ राजनीति कर सका क्यूंकि उसके अन्दर उसी राजनीतिक खानदान का खून था. फिल्म की कहानी का आधार कुछ भी रहा हो, लेकिन यह सत्य है कि फिल्म समाज की दलितों के प्रति इसी तस्वीर को पुष्ट करती है किसी दलित में स्वाभाविक रूप से वर्चस्ववादी लोगों का सामना करने का साहस ही नहीं है. हमारी फिल्मो में दलितों को सबल दिखाने से परहेज क्यों किया जाता हैं? भारतीय सवर्ण दलितों से जितनी नफरत करते हैं, उतनी नफरत अमेरिका में अश्वेतों से भी नहीं की जाती.
सवाल दलितों पर फ़िल्में बनाने का नहीं है, सवाल ये है की वे जब परदे पर उतारे जाते हैं तो किस तरह का चरित्र उनमें उभारा जाता है. ज़रा सोचिये कि आत्म-बोध, आत्म-सम्मान, मनुष्यगत-अस्मिता, स्वाभिमान जैसे गुण उसमें क्यूँ नहीं होते? वह अपने तिरस्कार पर ख़ुद क्यों चीत्कार करता नहीं दिखता? वह अपने प्रति हर ज़्यादती-अत्याचार को आत्मसात करनेवाला ही क्यों है? उसकी ये छवि उसके असल जीवन में अत्याचारों के विरुद्ध उठाए प्रतिकारों-चीत्कारों को ख़ारिज करती है. उसके आत्म-सम्मान के संघर्ष को नकारती है.
जातिगत दृष्टिकोण और अन्याय का प्रतिकार करने वाली अभी तक की सबसे सशक्त फिल्म बेंडिट क्वीन ही दिखाई देती हैं जो साधारण दलित स्त्री से दस्यु सुंदरी और फिर फिर सांसद बनी फूलन देवी पर आधारित थी. इसके अलावा शायद ही कोई ऐसी फिल्म हैं जिसने दलित प्रश्न को ठीक ढंग से छुआ तक हो.
खैर..सिनेमा में दलित की स्थिति का वर्णन करने के बाद बस इतना ही कहना चाहूंगी की सिनेमा में दलित बहस का मुद्दा ना होकर सामाजिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग हैं और इसके लिए किसी बहस की ज़रुरत नहीं बल्कि सही मायनों में इसके उत्थान, विकास और सशक्तिकरण के लिए कुछ करने की ज़रुरत हैं. वैश्वीकरण और आधुनिकता की इस बयार में हम सबको यही कोशिश करनी चाहिए की समाज में दलित समुदाय की पहचान की नयी चेतना जागृत कर सके और इनको हर क्षेत्र में सशक्त पहचान दिलाई जा सके.
( विभिन्न वेबसाइट्स पर मिली जानकारी से ये पोस्ट संभव हो पायी हैं.)
भारतीय परिवेश के तमाम क्षेत्रों के समान ही सिनेमा के क्षेत्र में भी दलितों की स्थिति निरीह एवं लाचार हैं. भारतीय सिनेमा का नजरिया भी दलितों के प्रति कुछ खास भिन्न नहीं है. दलितों के प्रति करूणा दिखाकर भारतीय फिल्म निर्माता एवं निर्देशक अछूत कन्या, आदमी, अछूत, सुजाता, बूटपालिश, अंकुर,सदगति, वेलकम तो सज्जनपुर, पीपली लाइव, आक्रोश, भीम गर्जना, और राजनीति जैसी फिल्मों का निर्माण तो किया हैं और इनमे से कुछ फिल्मो में दलितों को केंद्र में और कुछ में सहयोगी भूमिका में दलित के चरित्र को दर्शाया भी गया हैं परन्तु जिस गंभीरता और शिद्दत से दलित जाति के प्रश्न को उठाए जाने की जरूरत है, उस तरह से इन फिल्मो ने उसको नहीं उठाया गया हैं.
हिन्दी सिनेमा के कुछ ठोस यथार्थ हैं- नौकर का नाम दीनु या रामू ही होगा, बहुत होगा तो उसके नाम के साथ काका भी जोड़ दिया जाएगा. बेशक दलित यथार्थ हिन्दी सिनेमा में पर्याप्त जगह प्राप्त नहीं कर पाया है. भारत में प्रतिरोध का सिनेमा अनुपस्थित है, फिल्मों में असली भारत कम ही दिखता है, फिल्मों में काम करने वालों में भारत की विविधता नहीं दिखती.फिल्मों में दलित हमेशा लाचार ही होता है, जबकि पिछले तीन-चार दशक भारत के दलितों के लिए प्रतिरोध के दशक रहे हैं. दलित लगान में कचरा क्यों होता है, दलित दिल्ली-6 की जमादारिन क्यों हैं, जिससे दुधमुंहे बच्चे कहते हैं कि तुम सबको बड़ा बनाती हो, हमें भी बड़ा बना दो. यह मजाक किसी पुजारिन के साथ भी तो किया जा सकता था, लेकिन नहीं, यह नहीं हो सकता. इसके साथ ही हम सुजाता फिल्म की अछूत-दलित कन्या सुजाता की दयनीय चित्रण को कैसे भूल सकते हैं.फिल्म में सुजाता नाम की दलित कन्या चुप रहनेवाली, गुनी, सुशील और त्यागी ‘मैरिज-मैरिटल’ यानी सेविका बनी है जबकि उसी परिवार-परिवेश की असली बेटी एक प्रतिभावान मंचीय नर्तकी, आधुनिका, वाचाल और अपनी मर्जी की इज्जत करनेवाली शख्सियत बनती है. हमारी फिल्मे दलितों को सबल दिखाने में हमेशा ही परहेज करती आई हैं और उसका एक सशक्त उदाहरण प्रकाश झा की नयी फिल्म राजनीति में देखा जा सकता हैं. दलितों का नेता ‘सूरज’ (अजय देवगन), जो भरी सभा में सवर्णों और ऊंचे लोगों से लोहा लेता दिखाई देता है, आखिर वह भी उसी सवर्ण परिवार में जन्मा हुआ साबित होता है. अंततः फिल्म इसी परिपाटी पर लौट आती है कि दलितों का वह मसीहा इसी कारण से इतनी घाघ राजनीति कर सका क्यूंकि उसके अन्दर उसी राजनीतिक खानदान का खून था. फिल्म की कहानी का आधार कुछ भी रहा हो, लेकिन यह सत्य है कि फिल्म समाज की दलितों के प्रति इसी तस्वीर को पुष्ट करती है किसी दलित में स्वाभाविक रूप से वर्चस्ववादी लोगों का सामना करने का साहस ही नहीं है. हमारी फिल्मो में दलितों को सबल दिखाने से परहेज क्यों किया जाता हैं? भारतीय सवर्ण दलितों से जितनी नफरत करते हैं, उतनी नफरत अमेरिका में अश्वेतों से भी नहीं की जाती.
सवाल दलितों पर फ़िल्में बनाने का नहीं है, सवाल ये है की वे जब परदे पर उतारे जाते हैं तो किस तरह का चरित्र उनमें उभारा जाता है. ज़रा सोचिये कि आत्म-बोध, आत्म-सम्मान, मनुष्यगत-अस्मिता, स्वाभिमान जैसे गुण उसमें क्यूँ नहीं होते? वह अपने तिरस्कार पर ख़ुद क्यों चीत्कार करता नहीं दिखता? वह अपने प्रति हर ज़्यादती-अत्याचार को आत्मसात करनेवाला ही क्यों है? उसकी ये छवि उसके असल जीवन में अत्याचारों के विरुद्ध उठाए प्रतिकारों-चीत्कारों को ख़ारिज करती है. उसके आत्म-सम्मान के संघर्ष को नकारती है.
जातिगत दृष्टिकोण और अन्याय का प्रतिकार करने वाली अभी तक की सबसे सशक्त फिल्म बेंडिट क्वीन ही दिखाई देती हैं जो साधारण दलित स्त्री से दस्यु सुंदरी और फिर फिर सांसद बनी फूलन देवी पर आधारित थी. इसके अलावा शायद ही कोई ऐसी फिल्म हैं जिसने दलित प्रश्न को ठीक ढंग से छुआ तक हो.
खैर..सिनेमा में दलित की स्थिति का वर्णन करने के बाद बस इतना ही कहना चाहूंगी की सिनेमा में दलित बहस का मुद्दा ना होकर सामाजिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग हैं और इसके लिए किसी बहस की ज़रुरत नहीं बल्कि सही मायनों में इसके उत्थान, विकास और सशक्तिकरण के लिए कुछ करने की ज़रुरत हैं. वैश्वीकरण और आधुनिकता की इस बयार में हम सबको यही कोशिश करनी चाहिए की समाज में दलित समुदाय की पहचान की नयी चेतना जागृत कर सके और इनको हर क्षेत्र में सशक्त पहचान दिलाई जा सके.
( विभिन्न वेबसाइट्स पर मिली जानकारी से ये पोस्ट संभव हो पायी हैं.)
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