रविवार, दिसंबर 14, 2008
बैड बाजा में बदहाली के सुर
बैंड का नाम हो। इन दिनों दुकानदारी बहुत बढ़ गई है। पहले दुकानें कम थी। हालांकि आज जितनी संख्या में दुकानें हैं, उसके अनुपात में अव्च्छे कलाकरों की कमी है। इन कलाकारों की कोई नई पीढ़ी तैयार नहीं हो रही है। वर्तमान पीढ़ी नई पीढ़ी को बेहतर शिक्षा देकर उन्हें दूसरे व्यावसायिक क्षेत्रों से जोडऩा चाहती है।
कुशल कलाकारों की कमी से कहीं इतिहास न बन जाए बैंड बाजे
नागपुर से संजय स्वदेश
शादी-विवाह में शान का प्रतीक माने जाने वाले बैंड बाजे में अच्छे कलाकारों की लगातार कमी होती जा रही है। व्यवसाय घटने के कारण भले ही बैंड संचालक यह बात मानने से कतराते हों, हकीकत यह है कि बैंडपार्टी के वर्तमान कलाकार अपने बच्चों की इसे पेशे में कतई नहीं डालना चाहते हैं। एक शोध रपट के मुताबिक अधिकतर कलाकार किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त है। नई पीढ़ी को इस कला में रुचि नहीं। यदि स्थिति ऐसी रही तो एक से डेढ़ दशक बाद इसके अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। डीजे सिस्टम आने के कारण भी बैंड के व्यवसाय पर असर आया है। कलाकारों की कमी के कारण महंगे होते बैंडपार्टी के कारण आर्थिक रूप से कमजोर समुदाय में होने वाले शादी-विवाह में पंजाबी ढोल का क्रेज बढ़ता जा रहा है। हालांकि शादी-विवाह में आज भी बैंड शान का प्रतीक माना जाता है। नाम न छापने की शर्त पर एक बैंड संचालक ने बताया कि कार्यक्रम ज्यादा होने और कलाकारों की कमी के कारण कई बैंड संचालक गैर-प्रशिक्षित लोगों को पोशाक पहनाकर टीम में खड़ा कर देते हैं। कुशल वादक ही गाने व धुन बजाते हैं और बाकी बैंड बजाने का नकल करते हैं। किसी समय दिन भर लिए तय होने वाले बैंडबाजे अब घंटे की दर से बजते हैं। एक साधारण बैंड कम से कम 5 हजार रुपये घंटे में उपलब्ध है, वहीं पंजाबी ढोल 400 से 1000 रुपये घंटे की दर से उपलब्ध है। लिहाजा कम बजट में होने वाली शादी में ढोल बजाने वालों की पूछ बढ़ गई है। ढोल बजाने के पुश्तैनी व्यवसाय से जुड़े रमेश बावने उर्फ मलंग बाबा का कहना है कि धामनगांव, फूलगांव, यवतमाल, वर्धा आदि क्षेत्रों के लोग इस पेशे से ज्यादा जुड़े हुए हैं।इससे साल भर व्यवसाय तो नहीं मिलता है, पिछले कुछ सालों से विवाह मुहूर्त कम होने से कई बार बैंड पार्टी की कमी हो जाती है। इसलिए कुछ लोग डीजे के साथ ढोले वाले को रख लेते हैं। लेकिन इसमें भी अच्छे ढोल कलाकरों की कमी है। आम आदमी धुमाल पाटी, पंजाबी भांगड़ा ढोल में कोई अंतर नहीं समझ पाते हैं। इसलिए आवश्यक मौके पर कई बार संदल वाले भी ढोल की भूमिका में उतर आते हैं। इसके अलावा रिक्शाचालक, खोमचे लगाने वाले, फटपाथ में दुकान सजाने वाले कई मजदूर विवाह मुहूर्त के दिनों में ढोल बजाने का काम शुरू करने लगे हैं।
श्री बावने का कहना है कि गरीब लोगों का शादी का बजट कम होता है। वे बैंड का खर्चा नहीं उठा सकते हैं। इसलिए वे ही ढोल पार्टी बुलाते हैं। गैर-वैवाहिक कार्यक्रमों में पंजाबी ढोल की मांग बढ़ती जा रही है। पर विभिन्न ताल व धुनों पर ढोल बजाने वाले नागपुर में बहुत कम कलाकार है। श्री बावने की मानें तो नागपुर में करीब सौ कलाकर ही ढोल वजाने वाले हैं।
ढोल बजाने वाले अशोक बावने का कहना है कि हमारी टीम में तीन लोग ही होते हैं। दो ढोल बजाने वाले और एक गोला बजाने वाला। गोला बजाने वाले हर्षद ने बताया कि उसे एक कार्यक्रम में गोला बजाने के एवज में 25 से 30 रुपये घंटे की मजदूरी मिलती है। आम दिनों में वह मेहनत मजदूरी करता है और ढोल वालों के संपर्क में रहता है। श्री अशोक ने बताया कि ढोल की आवाज में बराती खूब झूमते हैं। उनमें कई लोग ऐसे होते हैं जो शराब पीकर ढोल के सामने नाचते हैं। वे हमारे साथ अभ्रदता से पेश आते हैं। इस कारण इस पेशें में मन नहीं लगता है। रोजगार का दूसरा विकल्प नहीं होने से ढोल बजाना मजबूरी है।
डीजे संचालक विवेक का कहना है कि विवाह-पार्टियों में डीजे की लोकप्रियता बढ़ी है। पर बैंड पार्टियों को पछाडऩा अभी बाकी है। कई वैवाहिक समारोह में बैंड और डीजे दोनों होते हैं। बैंड बाजे के साथ जब बारात गंतव्य पर पहुंच जाती है, तब डीजे धमाल शुरू होता है। बहुत कम ही ऐसी बारात होती है जो केवल डीजे के साथ दुल्हन के दरवाजे पर पहुंचती है।
1935 में बना था पहला बैंड
जानकारो का कहना है कि सरदार नरेंद्र सिंह प्रधान ने 1935 में एक बैंड पार्टी की स्थापना की। उन्होंने कई लोगों को बैंड कलाकार के लिए विभिन्न वाद्यों का प्रशिक्षण दिया। नये नये बाद्य यंत्रों और संगीत के धुनों से लोगों को आकर्षित किया। यहां तक की मध्यप्रदेश के कई नगरों में आयोजित होने वाले मांगलिक कार्यों के मौके पर उनके बैंड को बुलाया गया। बाद में हिंदी सिनेमा के संगीत बैंड आने से और भी लोकप्रियता बढ़ी।
तब डांसर भी करते थे मनोरंजन
बैंड संचालक रमेश पुराने दिनों को याद करते हुए कहते है पहले बैंड में डांसर अनिवार्य रूप से रखा जाता था। जिस फिल्म का गानाा बजता था, उस डांसर को उस तरह की वेशभूषा और नकल उतारनी पड़ती थी। बात उन दिनों की है जब जय संतोषी मां फिल्म खूब हिट हुई थी। बैंड में उसके गाने बजते थे। तब डांसर संतोषी मां की वेशभूषा में खड़ा होता और बैंड के धुन पर उसकी आरती उतारी जाती थी। बाद में हिंदी फिल्मों में मिथुन चक्रवर्ती, गोविंदा आदि के डांस गाने लोकप्रिय हुए तो बराती भी बैंड धुनों पर डांस करने लगे। श्री प्रधान कहते हैं कि पहले श्रीगणेश वंदना से बैंड बाजने की शुरूआत होती थी। मेरा यार बना है दुल्हा..., आज मेरे यार की शादी है... आदि गाने बैंड बाजे के लिए हमेशा लोकप्रिय रहे हैं। कलाकारों का मानना है कि इस पेशे में प्रतिष्ठïा नहीं रही है।
खट्टे-मीठे अनुभव
अमरावती के सिंदुरागनाघाट के 52 वर्षीय आजाबराव खंडारे कहते हैं कि बचपन में घर में पारिवार का माहौल ऐसा था कि बैंड बजाना सीख लिया। बाद में अनेक तरह के खट्टे-मीठे अनुभव हुए। इस पेशे में साल भर रोजगार नहीं है। शादी के मौके पर अच्छी पोशाक तो पहल लेते हैं। बाद में मैली-कुचैली जिंदगी चलती है। मेहनत मजदूरी करके गुजारा करना पड़ता है। इसी कारण अपने दोनों बेटों को कोई भी बाद्य यंत्र नहीं सीखने दिया। श्री खंडारे कहते हैं कि पिताजी क्लोरनेट बजाते थे। उन्होंने ने ही तरंमबोल बजाना सीखाया, जिसे फूकने के लिए काफी ताकत चाहिए। कलेजे पर जोर पड़ता है। आज इससे शरीर कमजोर हो गया है।
रात दस बजे के बाद प्रतिबंध
करीब छह साल पहले की बात है कि मनपा ने सड़कों पर बैंड बजाने की पाबंदी लगा दी थी। इस कारण शाम के समय होने वाले शादी में बैंड नहीं बजते थे। आज भी रात दस बजे के बाद बैंड नहीं बजा सकते हैं। इसकी ध्वनि भी 50 से 60 डेसीबल की बीच होनी चाहिए।
पोशाक पर होता है अच्छा-खासा खर्च
बैंडबाजा संचालक का पुश्तैनी काम संभालने वाले रमेश प्रधान कहते हैं कि पहले बैंड के कलाकारों को खोजनें में बहुत ही दिक्कत होती थी। दादा जी कहते थे कि ग्रामीण क्षेत्र के दूर-दराज के इलाके में उन्हें संपर्क के लिए जाना पड़ता था। यातायात के साधन नहीं होने से परेशानी होती थी। एक गांव शाम में कलाकारों को बुलाने गए और बस नहीं पकड़ सके तो अगले दिन आना पड़ता था। कई बार घर से निकले सप्ताह भर से ज्यादा हो जाता था। इस तरह भाग दौड़ से ही बैंड संचालित होता था। यह स्थिति करीब साठ के दशक तक बनी रही। अस्सी के दशक तक आते आते यह समस्या सुलझ गई। आमतौर पर एक बैंड पार्टी की टीम में 22 कलाकार होते हैं। अधिकतर सदस्य आसपास के कलाकार होते हैं। इसमें प्रमुख रूप से अकोला, अमरावती, आदि क्षेत्रों के होते हैं। कलाकारों की कमी और मांग बढऩे के कारण ही दिन भर के लिए बुक होने वाले बाजे घंटे से बजना शुरू हुए। आमतौर पर एक सीजन में अच्छा बैंड 300-400 घंटे का व्यवसाय कर लेता है। आजकल स्पर्धा इतनी बढ़ गई है कि हर साल 1 लाख तक का नया सूट तैयार करना पड़ता है जिससे कि कलाकार स्मार्ट दिखे।
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नई पीढ़ी में रुचि नहीं
नागपुर. बैंड बाजे से जुड़े लोगों पर शोध करने वाली शिरीषपेठ निवासी वैशाली रूईकर का कहना है कि जिस तरह से बैंड पार्टी में कुशल कलाकरों की कमी हो रही है, उसको देखते हुए करीब ढेड़ दशक बाद इसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। इससे जुड़े कलाकारों की नई पीढ़ी तैयार नहीं हो रही है। जो कुशल कलाकार थे, वे अधेड़ या बूढ़े हो चुके हैं। वर्तमान कलाकर मुश्किल से 10 से 15 साल तक इससे जुड़े रह सकते हैं। बैंड के विकास तथा उसके वाद्यों को बजाने का प्रशिक्षण देने के लिए कोई संस्थान भी नहीं है। श्रीमती रूईकर का कहना है कि बैंड के गाने की धुन दम लगाकर फूंकने और सांस पर निर्भर है। मुंह से फूंक कर बजाने वाले वाद्ययंत्रों के कलाकार फेफडे की बीमारियों की चपेट में जल्दी आ जाते हैं। श्रीमती वैशाली का कहना है कि 2005-06 में नागपुर और आसपास के कलाकारों से बातचीत पर हुए शोध के दौरान पाए गए तथ्यों के मुताबिक 90 प्रतिशत कलाकारों ने यह स्वीकार किया कि बैंड बजाने के कारण उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। इनमें 0 प्रतिशत कलाकारों ने माना कि बैंड बजाने से वे छाती में दर्द की शिकायत हुई है। 20 प्रतिशत ने स्वीकार किया कि लगातार फूकने और वाद्ययंत्र लटकाने के कारण पेट की बीमारी से ग्रस्त हुए। 10 प्रतिशत कलाकरों ने बताया कि समुचित आहार व नशा नहीं करने से इस तरह की बीमारियों से बचा जा सकता है। इसके साथ ही शोध में यह बात भी सामने आई कि अधिकतर कलाकार किसी न किसी तरह के नशे के आदि हैं।
सामाजिक व आर्थिक स्थिति
85 प्रतिशत कलाकारों ने बताया कि समाज में उन्हें सम्मान नहीं मिलता है। बैंड कलाकारों को आर्थिक समस्याओं से हमेशा जूझना पड़ता है औसतन कलाकार दो हजार रुपये प्रति माह भी नहीं कमा पाते हैं। बातचीत में 55 प्रतिशत कलाकारों ने स्वीकार किया कि वे दो हजार रुपये प्रतिमाह कमा लेते हैं। दस प्रतिशत कलाकार महीने में मुश्किल से हजार रुपये कमा पाते हैं। तीन हजार रुपये महीने कमाने वाले कलाकारों की संख्या करीब 20 तथा 5 हजार रुपये महीने कमाने वाले कलाकारों की संख्या 15 प्रतिशत ही मिली। 91 प्रतिशत कलाकारों ने बताया कि वे कर्ज में डूबे हैं।
बॉक्स में
लधु शोध में कहा गया कि जिस क्षेत्र में बैंड बजते हैं, उसके आसपास के करीब 100 मीटर के दायरे के स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक किटाणु नष्टï हो जाते हैं।
मालिक और कलाकारों का संबंध
बैंड कलाकार के साथ मालिक एक निर्धारित हिस्सेदारी के तहत अनुबंध करते हैं। जितनी राशि उन्हें मिलती है। एक निश्चित रकम मालिक काट कर बाकी रकम कलाकरों में बांट देते हैं। दूर-दराज से आने वाले कलाकारों को रहने और भोजन की व्यवस्था मालिक की ओर से ही कराई जाती है। एक जगह से दूसरे जगह पर जाने पर परिवहन का खर्च भी मालिक को उठाना पड़ता है। बाद में जब हिसाब होता है तब वह खर्च मालिक की ओर से काट लिया जाता है। कलाकारों को विशेष पोशाक दी जाती है, उसकी धुलाई और प्रैस का खर्च भी मालिक की जिम्मेदारी होती है। लेकिन बाद में इसके भी पैसे काट लिए जाते हैं। जिस दिन बैंड पार्टी को कही जाना होता है, सभी कलाकारों को कार्यालय में आना पड़ता है।
संपर्क: संजय स्वदेश,
बी-35, पत्रकार सहनिवास, अमरावती रोड,
सिविल लाइन्स, नागपुर -440001, महाराष्टï्र,
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