रविवार, दिसंबर 14, 2008

संसद के पास काम नही


संसद घटती बैठकों की संख्या

जन-प्रतिनिधियों की कामचोरी का प्रमाण

संजय स्वदेश

जनता माने या न मानें? उनके ही चुने जनप्रतिनिधियों के पास उनके लिए वक्त नहीं है। यह सच्चाई संसद की कार्यवाही का इतिहास बयां कर रही है। संसद की बैठकों की संख्या देखें तो पता चलता है कि अब तक 1956 में लोकसभा की सबसे अधिक कुल 151 बैठक ही हो पाई है। 196 में 98, 2003 में 4 बैठक ही हुईं। इस वर्ष अभी तक तीन सप्ताह की भी बैठक नहीं पूरी हो पाई है। इस अवधि में संसद में जो कुछ भी हुआ, उसमें ऐसा कुछ भी नहीं जो इतिहास बने। देशहीत और जनहीत से मुद्दों पर न तो किसी तरह की बहस हुई और न ही कोई ठोस निर्णय हो पाए। वर्ष 2008 का उत्तराद्र्ध चल रहा है। अब तक हुई बैठक के आधार पर यह साल संसदीय इतिहास का सबसे खराब सालों में गिना जाएगा। उम्मीद थी कि इस साल 2004 में पेश बीज विधेयक अधिनियम, ग्राम न्यायालय और दलितों व आदिवासियों के आरक्षण से संबंधित विधेयक, 200 में पेश किए गए असंगठित मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा से संबधित महत्वपूर्ण विधेयक को मंजूरी मिल जाएगी। इसी साल बजट सत्र में सरकार ने बड़ी ही शिद्दत से ग्रामीण न्यायालय विधेयक पेश कर गांवों की आम जनता के बीच विभिन्न मामलों में जल्दी न्याय की आशा जगाई थी। कहा गया कि इस विधेयक के पास होने से गांव के लोगों को उनकी चौखट पर ही न्याय मिल जाएगा। उन्हें शहर स्थित कोर्ट-कचहरी में सालों चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे। इसके साथ ही उच्चतम न्यायालय में लंबित करीब 45 हजार मामलों में त्वरित न्याय के लिए न्यायधिशों की संख्या बढ़ाने की बात हुई थी। न्यायायिक क्षेत्र में भ्रष्टïाचार से लडऩे के लिए भी एक विधेयक पेश किया गया था। दंगे की आग में देश का कोई इलाका न झुलसे, इसके लिए सांप्रदायिक हिंसा रोकने के लिए 2005 में पेश विधेयक भी अभी ठंडे बस्ते में हैं। बीते बैठक में इस विधेयक को मंजूरी की सबसे ज्यादा जरूरत थी। क्योंकि उड़ीसा में हुए सांप्रदायिक मामले समेत पूर्व दंगे की कई घटनाएं अभी भी टीस दे रही हैं। सरकार अपने विधायी एजेंटे में अच्छे से अच्छे कानून बनाने की बात तो करती है, पर संसद की बैठक होने पर तत्कालीक मुद्दे के शोर-गुल में विधेयक की बात हमेशा गौण होती रही है। महंगाई की मार से हर कोई त्रस्त है। आम आदमी एक-एक रुपये की जुगत में है। वहीं इस वितीय वर्ष में संसद की कार्यवाही पर 440 करोड़ रुपये खर्च होने है। 440 करोड़ रुपये भारतीय करदाताओं की उगाही राशि का नाला बना हुआ है। संसद में बैठै चाहे कोई भी दल हो? मौका देख एक दूसरे पर लांछन लगाने में कोई भी दल नहीं चूकते हैं। पर जब बात मानधन और जीवनवृति की अथवा विविध सुविधाओं की आती है तो, सांसदों में हैरान कर देने वाली एकता दिखी है। बीस मीनट की कार्यवाही में संसदों का मानधन संबंधित विधेयक पारित होने का इतिहास है। सांसदों को नहीं भुलना चाहिए कि एक साल में इतनी बड़ी राशी खर्च करने के बाद पचास बैठक भी नहीं हो पाना उनकी कामचोरी को सिद्ध करने के लिए काफी हैं। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, सदस्यों की मिल-बांट कर अपना विकास करने का खेल चालू है। राष्टï्रीय राजधानी क्षेत्र नोएडा हो या नागपुर में मिहान प्रोजेक्ट। जहां भी ऐसी जगहों पर विकास की गंगा बहायी जा रही है, वहां आसपास इनसे जुड़े लोगों के ही कारोबार की नींव मजबूत हो रही है। इसी विकास की बहती गंगा के किनारे रहने वाले मजदूर, शिल्पकार, बुनकर आदि जैसे आम जन बदहाल है। साल भर में बैठक कम होने के बाद भी प्रतिनिधि कहां गुम हैं? इस जन को पता नहीं? बैठकों की घटती संख्या के कारण चाहे जो भी गिनाये जायें, पर सदस्य साल में कम से कम तीन माह यानी नब्बे दिन की भी बैठक करें तो बात बनें। यदि इस साल बैठक कम भी हुई तो भी लोकसभा क्षेत्रों में जनप्रतिनिधियों की प्रखर उपस्थिति और सक्रियता भी तो दिखनी चाहिए।
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संजय स्वदेश
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