शुक्रवार, दिसंबर 26, 2008
हे नाग! तुझे नदी कहे या नाला ( नागपुर )
हे नाग! तुझे नदी कहें या नाला ?
संजय स्वदेश/नागपुर.
दुनिया के अधिकतर विकसित शहर किसी न किसी नदी के किनारे बसे हैं। लेकिन बहुत कम शहर ही ऐसे हैं जिसके बीचो-बीच एक नदी गुजरती हो। ऐसे शहरों में नागपुर एक रहा है। नगर के बीचों-बीच गुजरने वाली नाग नदी गंदा नाला बना चुकी है। आज स्थिति यह है कि इसके पास से गुजरने वाले लोग इसकी बदबू के कारण दूर भागते हैं। नदी के नाम से पहचाने जाने वाला नागपुर का नाग नदी नाला बन चुकी है। लगभग 19 किलोमीटर लंबी यह नदी कूड़ा-करकट और प्रदूषण से गंदे नाले में का रूप ले चुकी है। इसे नदी कहें या नाला, इसका मतभेद दो पीढ़ियों के बीच है। पुरानी पीढ़ी के लोग इसे अभी भी नदी कहते हैं, लेकिन नई पीढी इसे बड़ी सहजता से नाग नाला कहती है। ऐसी बात नहीं है कि इस नदी की साफ-सफाई कर इसे सौंदर्यीकरण का कार्य नहीं हुए है। ऐसे अनेक कार्य हुए हैं, लेकिन सब कुछ कागजों पर ज्यादा हुआ है। यदि हकीकत में होता तो नदी नाला नहीं बनी रहती। जानकारों का कहना है कि पिछले साल नागपुर महानगर पालिका और केंद्र की जेएनयूआरएम योजना के तहत नाला नहरीकरण योजना बनाई थी। इसके लिए 248 करोड़ रुपये खर्च के लिए तय किए गए थे। लेकिन इस योजना का क्या हुआ, इसका कहीं कोई आता-पता नहीं है। महापौर देवेन्द्र फडणवीस के कार्यकाल 1995 से 2000 में नाग नदी के सौन्दर्यीकरण के लिए एक विशेष योजना बनाई गई थी। योजना बनाने के लिए इकोसिटी फाऊंडेशन नामक संस्था की मदद की बात भी कही गई थी। बाद में केंद्र की राजग सरकार के कार्यकाल में केंद्रीय नदी संरक्षण प्रकल्प में नाग नदी को भी शामिल कर लिया गया। इसके लिए 30 करोड़ रुपये की भी मंजूरी हुई थी। राशि का कुछ हिस्सा राज्य सरकार व मनपा को भी वहन करना था। इस पर नीरी ने प्रदूषण रिपोर्ट भी तैयार की थी। लेकिन योजना कब और कैसे ठंडे बस्ते में चल गई? किसी को कुछ पता ही नहीं चला। इसके अलावा हर साल मनपा की ओर से मानसून आने से पूर्व बरसाती पानी की समुचित बहाव के लिए इसके साफ-सफाई का दावा किया जाता है, लेकिन हकीकत इस नदी के पास से गुजरने पर पता चलता है कि इसके लिए कितना काम हुआ है? जानकारों का कहना है कि वर्षों पूर्व लोग नदी में नहाते थे। डूबकी लगा कर भक्त जन संगमेश्रवर के दर्शन करते थे। समय बदलता गया और नाग नदी केवल गंदगी बहाने का माध्यम बन चुकी है।
क्या कहती है नीरी की रिपोर्ट
नीरी ने अपनी रिपोर्ट में नाग नदी के पुनर्जीवन को शहर के स्वस्थ व पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण बताया है। नीरी के विशेषज्ञों का कहना है कि नदी का जल प्रवाह ढलान की ओर होने से इसमें परेशानी नहीं आएगी। संस्था ने नदी के किनारे रहने वाले 5 बच्चों की श्वसन प्रक्रिया की जांच की थी। इन बच्चों की तुलना बेहतर वातावरण में रहने वाले दूसरे 5 बच्चों के श्वसन प्रक्रिया से की गई, जिसमें नाग नदी के किनारे रहने वाले बच्चों में सांस लेने में समस्या होने का खुलासा हुआ था।
कहां से निकली नदी?
कई लोगों में यह भ्रम है कि नाग नदी का उद्गम स्रोत कन्हाण नदी है। लेकिन यह गलत है। 19 किलोमीटर लंबी नाग नदी का उद्गम अमरावती मार्ग के लावा गांव से होता है। वहां से दो प्रवाह निकलते हैं जो थोड़ी दूरी के बाद अलग-अलग दिशाओं से होकर जाते हैं। इसमें से एक अंबाझरी तालाब व दूसरा तेलनखंडी तालाब में मिलता है। दोनों धाराओं का संगम सीताबर्डी में यशवंत स्टेडियम के समीप और बैंक आॅफ महाराष्टÑ के पीछे होता है। इस संगम स्थल पर संगमेश्वर का प्रसिद्ध मंदिर है। बुजुर्गों का कहना है कि इसके घाट पर कभी श्रद्धालुओं की भीड़ जमा होती थी। यहां डूबकी लगाकर ल ोग संगमेश्वर का दर्शन करते थे। संगम से नदी की एक धारा निकलती है और यह आगे चल कर भंडार मार्ग पर पारडी के आगे भरतवाड़ा गांव की ओर मुड़ती हुई निकल जाती है। नदी की पूरी लंबाई वैसी ही निकली है जैसे नाग टेडे-मेड़े चलता है।
अंबाझरी के किनारे बांध बंधे होने के तलाब का पानी बाहर नहीं निकलता है। दूसरे शब्दों में कहें तो नदी के उद्गम का स्रोत बंद हो चुका है। लेकिन यहां नाला होने का अस्तित्व जरूर नजर आता है। बांध के पास से निकला नाला पूरी तरह से सूखा हुआ है। लगभग 50 गज तक दो-तीन जगह बीच के गढ्ढे में थोड़ा सा पानी का जमाव है। शायद ये पानी पिछले दिनों आए बरसात का हो। आगे की ओर बढ़ती नदी के रास्ते में नाले, गटर आदि मिलते है। कन्हाण तक जाते-जाते सैकड़ों गटर और नाले अपने गंदे पानी से इसे समृद्ध कर रहे हैं। इस गंदे पानी से नदी के किनारे जंगली पैधे हरियाली बिखेरे हुए है। कहीं-कहीं गर्मी से बेहाल पशु विशेष कर भौंस और स्वान इसमें बैठे हुए भी नजर आएंगे।
मुख्यमंत्री ने की थी सफाई की घोषणा
वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता उमेश चौबे का कहना है कि नदी की सफाई के लिए कई बार मांगे तो उठी, लेकिन कोई आंदोलन नहीं हुआ। 2002-2003 में जब नागपुर का त्रिशताब्दी महोत्व मनाया गया, तब इसकी सफाई के लिए विशेष मांग की गई थी। श्री चौबे का कहना है कि इसी वर्ष मुंबई में उनकी तत्कालीन मुख्यमंत्री विलाश राव देशमुख के साथ बैठक हुई। बैठक में नाग नदी की सफाई की मांग उठाई गई। बैठक के बाद मुख्यमंत्री ने एक प्रेसवार्ता में यह घोषणा भी कि की नाग नदी की सफाई की जाएगी। लेकिन हुआ कुछ नहीं। इसके अलावा मनपा के बजट में नाग नदी की सफाई के लिए लाखों की राशि आवंटित होती रही है। लेकिन काम कुछ नहीं हुआ है। यदि होता तो वह हकीकत में सामने नजर आता है। नदी को कहीं से और कभी देखें,तो साफ लगेगा, इसकी सफाई कभी हुई ही नहीं है।
नदी के किनारे हुआ था अंग्रेजों के साथ युद्ध
इतिहासकार डा. भा.रा. अंधारे का कहना है कि सीताबर्डी में जहां इस नदी की दो धाराओं का संगम स्थल है, वहां संगमेश्वर का प्रसिद्ध महादेव मंदिर का निर्माण सेना धुंरंधर मुढ़ोजी भोसले के कार्यकाल में हुआ था। उनका कार्यकाल 1772 से 1788 तक था। इसका निर्माणा दूसरे रघुजी की माता ओर मुढ़ोजी की पत् नी चिमाबाई ने कराया था। यहां संगम का पुराना पुल भी था। जहां तक मेरी स्मृति है 1956 तक इस नदी का पानी स्वच्छ था। गणेश चतुथी से एक दिन पहले तीन पर इस नदी के घाट पर पूजा के लिए महिलाओं की भीड़ जमा होती थी। नदी में गंदगी की शुरुआत 60 के दशक से हुई है। भोंसले काल में नदी का पानी इनतना साफ था कि संगम पर धार्मिक विधियां संपन्न होती थी। आज का सीपीएंड बरार कॉलेज कभी भोसलों का बरसाती महला था। यह नदी के किनारे स्थित था। भोसले राजा खाना खाने के बाद यहां आराम के लिए आते थे। तब नदी के बने सुंदर बांग के प्राकृतिक नजरे आनंद लेते थे। इसी के किनारे बेलवाग और तुलसी आग था। तुलसी आग में मुरलधर का मंदिर उत्कृष्ट कला का नमूना था। भोसले राजघराने की हाथी सुबह इसी नदी में नहाते थे। इससे नदी की गहराई का अनुमान लगाया जा सकता है। इसके अलावा भोसले घराने का श्मसानघाट भी इसी के गांधीगेट के पास था। कभी थडगाबाग के नाम से मशहूर भोसले घराने का राजघाट में पिंडदान होती थी। यहां ब्राह्मणों के पांव धोये जाते थे। नदी के किनारे आज के यशवंत स्टेडियम की जमीन पर ही भोसले राजा आपा साहब और अंग्रेजों के बीच सीताबर्डी की लड़ाई 181 में हुई थी। तब सक्करदरा का इलाका मेडिकल तक था। अंग्रेजों के साथ भोसलों की अंतिम लड़ाई सक्करदरा में ही नदी के किनारे हुई थी।
यहां की डूबकी से मिलती थी पाप से मुक्ति
कभी घाट पर लोग दूर-दूर से आकर बैठते थे। संगम की कलकल ध्वनी को सुन कर मन में सुखद शांति की अनुभूति करते थे। दो दशक से ऊपर हो गए। घाट की सीढ़ियां वीरान पड़ी है। सीताबर्डी के संगम चाल स्थित मंदिर के बुजुर्ग पुजारी पं. रामेश्वर प्रसाद तिवारी की का कहना है कि लाखों लोगों की आस्था का प्रतिक इस घाट का सौंदर्य शायद कोई नहीं लौटा सकता है। वे दिन गए जब दूर सड़क पर खड़े लोग संगम को देख श्रद्धा से अपना शीश नवा लेते थे। अब तो इधर कोई झांकता तक नहीं है। बस्ती में रहने वाले बच्चे कभी खेलते हुए यहां तक आ जाते हैं। यहां 6 प्राचीन मंदिर है। कहां यहां दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता था। विभिन्न मौके विशेषकर महाशिवरात्री पर यहां मेले लगते थे। संगम में डूबकी लगाकर लोग मंदिर में देव दर्शन करते थे। भक्त अपने पापों से मुक्ति पाते थे। यहां के मंदिर भी सूने रहते हैं। अब तो महाशिवरात्री को ही भक्तों की संख्या यहां थोड़ी ज्यादा दिखती है। अन्यथा महीने में दस लोग भी इन मंदिरों में आ जाए तो बहुत है। ये श्रद्धालु भी कोई बुर्जुग ही होते हैं। वैसे भी श्रद्धालु यहां आए क्यों? यहां संगम अब दो नदियों का नहीं है। यह दो गंदे नाले का है। बरसात के दिनों में जब पानी भरता है और बहाव कम होता है, तो मनपा की ओर से इसमें की मिट्टी और गंदगी को निकाला जाता है। लेकिन उस गंदगी को मनपाकर्मी किनारे पर ही छोड़ जाते है। जो अगली बारिश में धीरे-धीरे फिर इसमें ही आ जाते हैं।
कई बार हुई सफाई की मांग
वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता उमेश चौबे का कहना है कि नदी की सफाई के लिए कई बार मांगे तो उठी, लेकिन कोई आंदोलन नहीं हुआ। 2002-2003 में जब नागपुर का त्रिशताब्दी महोत्व मनाया गया, तब इसकी सफाई के लिए विशेष मांग की गई थी। श्री चौबे का कहना है कि इसी वर्ष मुंबई में उनकी तत्कालीन मुख्यमंत्री विलाश राव देशमुख के साथ बैठक हुई। बैठक में नाग नदी की सफाई की मांग उठाई गई। बैठक के बाद मुख्यमंत्री ने एक प्रेसवार्ता में यह घोषणा भी कि की नाग नदी की सफाई की जाएगी। लेकिन हुआ कुछ नहीं। इसके अलावा मनपा के बजट में नाग नदी की सफाई के लिए लाखों की राशि आवंटित होती रही है। लेकिन काम कुछ नहीं हुआ है। यदि होता तो वह हकीकत में सामने नजर आता है। नदी को कहीं से और कभी देखें,तो साफ लगेगा, इसकी सफाई कभी हुई ही नहीं है।
यहां की मछलियां थी खास
श्री चौबे का कहना है कि वे बचपन में नदी के कई सुंदर घाट देखें है। गणेश विसर्जन की शुरुआत भी सीताबर्डी के संगम से हुई। यह स्थान दर्शनीय रहा है। इस नदी में जो मछलियां रहती थी, वे मच्छरों के अंडे खाती थी। इस कारण कई राज्य के लोग यहां की मछलियों के बीज अपने यहां के नदी और तलाब में ले जाते थे।
सिचार्इं के पानी का स्रोत
भोंसला बंशज राजे मुढ़ोजी भोंसले यह स्वीकारने से नहीं हिचकते कि नाग नदी नहीं रही। यह पूरी तरह से गंदे नाले में परिवर्तित हो चुकी है। इसकी जो वर्तमान चौड़ाई है, वह कभी तिगुनी होती थी। इसके किनारे अतिक्रमण हुए हैं। कभी धोबियों के लिए यह नदी बेहद उपयोगी होती थी। ब्रिटिश शासन काल से कपड़े धोने के लिए उनके लिए घाट बने थे। छह-सात घोबी घाट तो 1965 तक चले। आज कहीं भी यह घाट नजर नहीं आता है। नदी की पानी का उपयोग आमजन विभिन्न कार्यों में करते थे। इसके किनारे होने वाली खेती की सिंचाई, नाग नदी के भरोसे ही थी। किनारे कई मंदिर थे। महाशिवरात्री और नागपंचमी के दिन मेले लगते थे। राजधानी बने रहने तक इसका पानी कई कार्यों में उपयोग होता था। किनारे के बगीचे इसी से सींचे जाते थे। रेसम बाग, तुलसी बाग में कुंए तो थे, लेकिन सिंचाई के लिए इसके पानी का उपयोग ज्यादा होता था
नहीं चला नाग बचाने का अभियान
श्री मुढ़ो का कहना है कि नदी की गहराई के बारे में तो हमें ज्ञात नहीं। लेकिन यह 40-50 फीट जरूर होगी। पूर्वजों का कहना था कि नदी पत्थर से बंधी हुई हैं। लेकिन भोंसला इतिहास में इसका कोई लिखीत उल्लेख नहीं है। यदि इसमें से गंदगी निकाल दी जाए तो नगर की समृद्धी में चार चांद लग जाए। नगर में कई अभियान शुरू होते हैं, लेकिन नदी की सफाई के लिए कभी कोई अभियान शुरू नहीं हुआ। इसके अलए अभियान चलाना चाहिए। आश्चर्य की बात यह है कि विभिन्न जन-समस्याओं व पर्यावरण से संबंधित मामलों को लेकर न्यायालय में कई जनहित याचिका दायर की गई। लेकिन नाग नदी की सफाई के लिए किसी ने कोई जनहित याचिका दायर नहीं की। नागपुर नगर की रचना के केंद्र में यह नदी रही है।
हालत बिगाड़ने में प्रशासन का भी हाथ
करीब 60 के दशक में इसके आसपास अतिक्रमण शुरू हुआ। इसका सारा दोष नगर पालिका को जाता है। नगर पालिका ने इसकी बार्बदी में कम भूमिका नहीं निभाई है। कई जगहों पर नाग नदी की जमीन को स्वयं नगर पालिका प्रशासन ने दूसरे को दिया। सड़क को बढ़ाने के लिए इसकी चौड़ाई घटाई।
ढाई-दशक पहले तक हालत ठीक थी
नदी के किनारे नगर को बसाने में भोंसले राजाओं का उद्देश्य था कि नगर के आमजन को पानी के परेशानी न हो। पानी के कारण नगर में हरियाली से पर्यावरण स्वच्छ रहने के साथ समृद्धी रहेगी। पुराने नागपुर का भूगोल नदी के इर्द-गिर्द ही है। जिस नदी के नाम से शहर को पहचाना जाता है, उसका अस्तित्व खत्म होने के कगार पर है। 25-30 साल पहले तक नदी का जल अशुद्ध नहीं था और पीने के अतिरिक्त पानी की समस्या नहीं होती थी।
ऐतिहासिक फैसले इसके किनारे
नागपुर में कई ऐतिहासिक फैसले इस नदी के किनारे हुए है। अंग्रेजों के विरोध में भोंसलों की कई मुहिमों की योजना बनी। क्योंकि नदी के किनारे घाट और मंदिर आसपास की घनी हरियाली से ढकी रहती थी। नागपुर से आजादी की लड़ाई की जो भी मुहिम छेड़ी गई थी, इन्हीं घाटों व मंदिरों से शुरू होती थी। नदी को पार करके कभी हमला नहीं हुआ।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें