संजय स्वदेश
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धरती के मानचित्र पर भारत सबसे अधिक रहस्यमय देश हैं. भारत में ऐसे कई पात्र ऐसे हैं जो संसार के रंगमंच से कभी विदा ही नहीं हुए. इसमें रामायण और महाभारत काल के कुछ पात्र आज भी उपस्थित माने जाते हैं. नेताजी ऐसे ही चरित्र हो गये हैं. आजादी के रंगमंच का एक ऐसा नायक जो आता तो है लेकिन जिसके जाने का कोई प्रमाण नहीं मिल पाता है.
नेताजी सुभाषचंद्र बोस। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के महानायक। ऐसा महानायक जिसका कद महत्मा गांधी से भी ज्यादा उंचा था। पर गांधी के नेहरू प्रेम से देश की राजनीति की ऐसी धारा बही कि इस महानयक को पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया गया। आजादी के छह दशक बाद भी सरकार इस महानायक के मौत के रहस्य से परदा उठाने में कभी गंभीर नहीं रही। समय-समय पर अनेक विवाद हुए। पर जांच आयोग से मामला ठंडे बस्ते में दम दोड़ चुका है। 23 जनवरी 2010 को नेताजी की 113वीं जयंती है। नेताजी की अब तक जिवीत रहने की संभावना बहुत कम बचती है। पर नेताजी के मौत या उनके गायब होने के रहस्य जानने के लिए लोगों में हमेशा उत्सुकता रही है।
एनडीए सरकार के कार्यकाल में गठित मुखर्जी आयोग ने जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी, उसे यूपीए सरकार ने अपने कार्यकाल में खारिज कर दिया गया था। महानायक के मौत के रहस्य से परदा हमेशा कभी नहीं हटा। बार-बार यह बात उठी कि आखिर ताइवान में 18 अगस्त 1945 को कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त नहीं हुआ तो नेताजी अचनाक कहां गायब हो गये? कुछ वर्ष पूर्व यूपीए सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट यह कह कर खारिज कर दिया था कि उसमें कुछ भी नया नहीं है। जो बातें मुखर्जी आयोग ने कही हैं, वैसी बातें पहले भी होती रही है और उस पर काफी चर्चा हो रही है। लेकिन तब विवाद इस बात पर ज्यादा हुआ था कि मुखर्जी आयोग को अपनी जांच पूरी करने में सरकार की कई एजेसियों ने सकारात्मक रवैया नहीं अपना। यहां तक कि सरकार ने आयोग को रूस जाने तक की अनुमति नहीं दी गई थी।
सरकारी गलियारे में दबती है शोर
इससे बड़ी दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है कि देश की आजादी में अपना सब कुछ न्यौछावर करने वाले वीर योद्धा का अस्तित्व कहां खो गया यह आजाद भारत के छह दशक से भी ज्यादा समय में नहीं पता लगाया जा सका। किसी भी राष्ट्र के स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनी ऐतिहासिक धरोहर होती है। आने वाली पीढिय़ां इन्हीं के आदर्शों से प्रेरणा लेते हुए एक अपने देश के लिए सोचती हैं, कुछ करती हैं और किसी विशेष दिवस पर उनकी यादों को ताजा कर गौरवांवित होती है, एक ताकत पाती है। पर वर्तमान पीढ़ी बहुत प्रोफेसनल है। उस याद नेताजी के आदर्श से कुछ लेना नहीं है। उन्हें इतिहास तक सीमित रखना चाहती है। जिन्हें रुचि है, वे समय-समय पर नेताजी के मौत से परदा उठाने और उनके बिरासत को सहेजने की बात उठाते हैं। उनका शोर सरकारी गलियारे में दब जाता है।
खबर के लिए रिपोर्टर कानून तोड़ते हैं
मुखर्जी आयोग का कहना था कि उसके जांच में ताईवान के अलावा किसी देश से भी सहयोग नहीं मिला। 1946 में सुभाष चंद्र बोस जिंदा थे। उन्हें रूस में देखा गया था, लेकिन इस दावे का कोई ठोस प्रमाण नहीं है। लेकिन जब अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए से अधिकृत जानकारी मिली थी कि १८ अगस्त १९४५ में ताईवान के ताईहोकू हवाई अड्डे पर कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं था। लेकिन अमेरिका के एक अखबार शिकागों ट्रिब्यून के रिपोर्टर अल्फ्रेड बेक ने ताईहाकू हवाई अड्डे का पर दुर्घटना से संबंधित कुछ तस्वीर पेश कि थी। तब खोसला आयोग के सामने इस चित्र से संबंधित प्रमाणिकता साबित नहीं हो पाई थी। इस चित्र को प्रस्तुत करने वाले रिपोर्टर का खुद कहना था कि उस हवाई अड्डे पर चित्र खिंचना प्रतिबंधित था, तो फिर उसने कैसे ये फोटो ले लिये? पर यह कहकर रिपोर्टर की फोटो को खारीज नहीं किया जा सकता था। क्योंकि रिपोर्ट ऐसे की चुनौतीपूर्ण कार्यों को अंजाम देते हैं। इसके लिए चोरी-छिपे कानूनी नियमों के सामने आंख मुंद लेते हैं।
कहीं जापान का षडयंत्र तो नहीं?विमान दुर्घटना प्रकरण में एक और बात गौर करने वाली यह है कि नेताजी की विमान दुर्घटना में हुई मौत का समाचार सबसे पहले जापानी रेडियों ने प्रसारित किया था। और उसके बाद कई ऐसे दलीले मिली जिससे नेताजी के जिंदा होने पर बल मिला। इससे यह भी लगता है कि जपान ने एक सुनियोजित योजना के तहत नेताजी को मृत घोषित किया, क्योंकि ब्रिटिश सेना को नेताजी की सरगर्मी से तलाश थी। हो सकता हो कि जपान के द्वितीय विश्व युद्ध में हार जाने बाद के ब्रिटिश सेना द्वारा उन्हें जापान में खोजने की कार्यवाही से बचना चाहता हो। इसलिए उसने रेडियों से उन्हें मरने की खबर प्रसारित कर दी हो।
गुप्त मिशन से कहीं मंचुरिया तो नहीं गये
पूर्व में गठित खोसला आयोग ने यह साबित किया था कि नेताजी शुरू से ही सोवियत संघ जाना चाहते थे और सोवियत संघ से ही भारत की आजादी का संघर्ष चलाना चाहते थे। लेकिन उनका सोवियत संघ से पहले जर्मनी पहुंचना जरूरी थी। क्योंकि उनको सहायता के लिए पहले ही जर्मनी से आश्वासन मिल चुका था। इतिहास के मुताबिक उन दिनों जर्मनी में भारत के हजारों सैनिक कैद थे। जर्मनी के शासकों ने नेताजी को आश्वासन दिया था कि वे इन भारतीय सैनिकों को कैद से रिहा कर देंगे जिनका उपयो नेताजी अपनी आजाद हिंद फैज में कर सकते थे। इसी सहायता से उन्होंने अंग्रेजी सेनाओं का जमकर मुकाबला भी किया। लेकिन जब द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी और जापान हार के कगार पर पहुंचने लगे तो इसका सीधा प्रभाव आजाद हिंद फौज पर पड़ा। तब नेताजी ने एक गुप्त योजना के मुताबिक रूस की यात्रा पर जाने की तैयारी कर लिया। जिस विमान से वह सफर कर रहे थे व दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिसमें नेताजी की मौत हो गई। लेकिन कई दस्तावेज अब भी खोसला आयोग पास है, जिसके मुताबिक नेताजी सुभाष चंद्र बोस अपने इस गुप्त मिशन के चलते मंचूरियां तक पहुंच गए थे। बाद में मंचूरिया को रूसी सेनाओं ने जापान से छीन लिया और वहां के सैनिकों को उन्होंने बंदी बना लिया जिसमें नेताजी भी थे। फिर बंदी सैनिकों को रूस ले जाया गया, जहां उन खतरनाक जेलों में डाल दिया गया, जहां से कैदियों को सिर्फ मरने की खबर आती है। इसी प्रकरण में कहा जाता है कि नेताजी को स्टॉलिन ने फांसी दे दी थी।
पत्र लिखा, तो जवाब नहीं आया
नेताजी के एक भतीजे अभियनाथ बोस ने खोसला आयोग को यह बयान दिया था कि एक बार उन्हें एक ब्रिटिश राजनयिक ने फोन पर बताया कि १९४७ में नेताजी के साथ रूसी अधिकारियों ने बहुत ही बुरा बर्ताव किया था। उनके पिता यानी नेताजी के भई शरद चंद्र बोस ने १९४९ में अपने बेटे से कहा था कि उन्हें कुछ कूटनीतिक सूत्रों के जरिए पता चला है कि सोवियत संघ में नेताजी को साइबेरिया के यातना शिविर में रख गया था और १९४७ में स्टालिन ने उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया था। कहा जाता है कि नेताजी के बड़े भाई शरदचंद्र बोस ने इस संबंध में तत्कालीन गृहमंत्री बल्लभ भाई पटेल को सूचित किया था और पेटल ने इस बात की सारी जानकारी प्राप्त करने के लिए मास्कों में तत्कालीन भारतीय राजदूत डॉ. राधाकृष्णनन को एक पत्र लिखा। डॉï राघाकृष्णन ने गृहमंत्री के पत्र का कोई जवाब नहीं दिया।
निष्कर्ष पर नहीं पहुची कमेटी
मुखर्जी आयोग से पहले नेताजी की मृत्यु से रहस्य से पर्दा उठाने के लिए मुखर्जी आयोग से पहले शाहनवाज कमेटी और बाद में गठित खोसला आयोग कमेटी किसी भी निष्कर्ष में पर नहीं पहुंची। खोसला आयोग ने भी यह कह कर रहस्य को और गहरा दिया कि विमान दुर्घटना में नेताजी के मरने का भी कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है। किसी भी आयोग को आज तक ऐसा कोई प्रमाण हाथ नहीं लगा जो यह साबित कर सके कि जिस विमान में नेताजी सफर कर रहे थे, उसमें उन्हें बैठते हुए देखा गया था।
नेता जी ने कहा था
आयोग का यह दावा को इससे भी पुष्ठिï होती है कि भारतीय राष्ट्रीय सेना के एक सिपाही निजामुद्दीन का यह कहना है कि जब नेताजी के मौत की खबर प्रसारित हुई, तब उसके बाद उन्होंने खुद नेताजी का वायरलेस संदेश ग्रहण किया था, जिसमें उन्होंने कहा था - मैं जिंदा हूं, वी विल कम टू इंडिया। लेकिन नेताजी की बेटी अनिता पैफ ने पिछले साल भारत यात्रा के दौरान साफ कहा था कि उन्हें यकीन है कि उनके पिता का निधन विमान हादसे में हो चुका है।
डीएनए टेस्ट का विचार बुरा नहीं विवाद इतना उलझ गया है कि हर पक्ष से विश्वसनीयता उठ चुकी है। जपान में रखी नेताजी की अस्थियों की असलियत पर संदेह उठने लगा है तो सरकार नेताजी की अस्थियों की डीएनए डेस्ट करार उसका मिलान उनकी बेटी से करने का विचार क्यों नहीं करती है? क्योंकि नेताजी की रहस्यमई मौते से पर्दा उठाने पर ही देश की आजादी के इतिहास से नेताजी और उनकी भारतीय राष्ट्रीय सेना के योगदान को और गौरव दिलाया जा सकता है।
... और आज के दिन यह खबर आई
हर साल 23 जनवरी पर नेताजी के विषय पर कुछ न कुछ खास समाचार प्रकाशित होता है। आज 23 जनवरी, 2010 को प्रकाशित खबर के मुताबिक थाईलैंड में रहने वाले त्रिलोक सिंह चावला आज भी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की दो पिस्तौलों को सहेजकर रखे हुए हैं। वह अपने जीते जी नेताजी की यह अमानत भारत सरकार को सौंपना चाहते हैं। नेताजी के सचिव रहे 89 वर्षीय त्रिलोक ने इस संबंध में बात करने के लिए अपने बेटे संतोष सिंह चावला को दिल्ली भेजा है। संतोष विगत दो हफ्तों से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने की कोशिश में हैं, ताकि इन दोनों पिस्तौलों को सरकार को सौंपकर अपने पिता की अधूरी ख्वाहिश पूरी कर सकें। बैंकॉक से बातचीत में त्रिलोक ने कहा कि नेताजी चाहते थे कि आजादी के बाद मैं उन्हें ये दोनों पिस्तौलें लाल किले में लौटा दूं। मुझे इन हथियारों को सौंपने के आठ दिन बाद ही एक विमान हादसे में उनके निधन की खबर आई। मैं अभी भी नहीं मानता कि नेताजी हमारे बीच नहीं हैं और मैं आज तक उनकी राह देख रहा हूं। परंतु उम्र बढऩे के साथ अब चाहता हूं कि उनकी अमानत को अपने मुल्क को ही सौंप दिया जाए। भारत सरकार इन पिस्तौलों को स्वीकार करने में अनिच्छुक दिखती है और इसकी वजह भी नहीं पता। इन्हें वापस लेने के लिए भारत सरकार को थाईलैंड सरकार से सीधे संपर्क साधना चाहिए।
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