शुक्रवार, दिसंबर 26, 2008

हे नाग! तुझे नदी कहे या नाला ( नागपुर )

हे नाग! तुझे नदी कहें या नाला ? संजय स्वदेश/नागपुर. दुनिया के अधिकतर विकसित शहर किसी न किसी नदी के किनारे बसे हैं। लेकिन बहुत कम शहर ही ऐसे हैं जिसके बीचो-बीच एक नदी गुजरती हो। ऐसे शहरों में नागपुर एक रहा है। नगर के बीचों-बीच गुजरने वाली नाग नदी गंदा नाला बना चुकी है। आज स्थिति यह है कि इसके पास से गुजरने वाले लोग इसकी बदबू के कारण दूर भागते हैं। नदी के नाम से पहचाने जाने वाला नागपुर का नाग नदी नाला बन चुकी है। लगभग 19 किलोमीटर लंबी यह नदी कूड़ा-करकट और प्रदूषण से गंदे नाले में का रूप ले चुकी है। इसे नदी कहें या नाला, इसका मतभेद दो पीढ़ियों के बीच है। पुरानी पीढ़ी के लोग इसे अभी भी नदी कहते हैं, लेकिन नई पीढी इसे बड़ी सहजता से नाग नाला कहती है। ऐसी बात नहीं है कि इस नदी की साफ-सफाई कर इसे सौंदर्यीकरण का कार्य नहीं हुए है। ऐसे अनेक कार्य हुए हैं, लेकिन सब कुछ कागजों पर ज्यादा हुआ है। यदि हकीकत में होता तो नदी नाला नहीं बनी रहती। जानकारों का कहना है कि पिछले साल नागपुर महानगर पालिका और केंद्र की जेएनयूआरएम योजना के तहत नाला नहरीकरण योजना बनाई थी। इसके लिए 248 करोड़ रुपये खर्च के लिए तय किए गए थे। लेकिन इस योजना का क्या हुआ, इसका कहीं कोई आता-पता नहीं है। महापौर देवेन्द्र फडणवीस के कार्यकाल 1995 से 2000 में नाग नदी के सौन्दर्यीकरण के लिए एक विशेष योजना बनाई गई थी। योजना बनाने के लिए इकोसिटी फाऊंडेशन नामक संस्था की मदद की बात भी कही गई थी। बाद में केंद्र की राजग सरकार के कार्यकाल में केंद्रीय नदी संरक्षण प्रकल्प में नाग नदी को भी शामिल कर लिया गया। इसके लिए 30 करोड़ रुपये की भी मंजूरी हुई थी। राशि का कुछ हिस्सा राज्य सरकार व मनपा को भी वहन करना था। इस पर नीरी ने प्रदूषण रिपोर्ट भी तैयार की थी। लेकिन योजना कब और कैसे ठंडे बस्ते में चल गई? किसी को कुछ पता ही नहीं चला। इसके अलावा हर साल मनपा की ओर से मानसून आने से पूर्व बरसाती पानी की समुचित बहाव के लिए इसके साफ-सफाई का दावा किया जाता है, लेकिन हकीकत इस नदी के पास से गुजरने पर पता चलता है कि इसके लिए कितना काम हुआ है? जानकारों का कहना है कि वर्षों पूर्व लोग नदी में नहाते थे। डूबकी लगा कर भक्त जन संगमेश्रवर के दर्शन करते थे। समय बदलता गया और नाग नदी केवल गंदगी बहाने का माध्यम बन चुकी है। क्या कहती है नीरी की रिपोर्ट नीरी ने अपनी रिपोर्ट में नाग नदी के पुनर्जीवन को शहर के स्वस्थ व पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण बताया है। नीरी के विशेषज्ञों का कहना है कि नदी का जल प्रवाह ढलान की ओर होने से इसमें परेशानी नहीं आएगी। संस्था ने नदी के किनारे रहने वाले 5 बच्चों की श्वसन प्रक्रिया की जांच की थी। इन बच्चों की तुलना बेहतर वातावरण में रहने वाले दूसरे 5 बच्चों के श्वसन प्रक्रिया से की गई, जिसमें नाग नदी के किनारे रहने वाले बच्चों में सांस लेने में समस्या होने का खुलासा हुआ था। कहां से निकली नदी? कई लोगों में यह भ्रम है कि नाग नदी का उद्गम स्रोत कन्हाण नदी है। लेकिन यह गलत है। 19 किलोमीटर लंबी नाग नदी का उद्गम अमरावती मार्ग के लावा गांव से होता है। वहां से दो प्रवाह निकलते हैं जो थोड़ी दूरी के बाद अलग-अलग दिशाओं से होकर जाते हैं। इसमें से एक अंबाझरी तालाब व दूसरा तेलनखंडी तालाब में मिलता है। दोनों धाराओं का संगम सीताबर्डी में यशवंत स्टेडियम के समीप और बैंक आॅफ महाराष्टÑ के पीछे होता है। इस संगम स्थल पर संगमेश्वर का प्रसिद्ध मंदिर है। बुजुर्गों का कहना है कि इसके घाट पर कभी श्रद्धालुओं की भीड़ जमा होती थी। यहां डूबकी लगाकर ल ोग संगमेश्वर का दर्शन करते थे। संगम से नदी की एक धारा निकलती है और यह आगे चल कर भंडार मार्ग पर पारडी के आगे भरतवाड़ा गांव की ओर मुड़ती हुई निकल जाती है। नदी की पूरी लंबाई वैसी ही निकली है जैसे नाग टेडे-मेड़े चलता है। अंबाझरी के किनारे बांध बंधे होने के तलाब का पानी बाहर नहीं निकलता है। दूसरे शब्दों में कहें तो नदी के उद्गम का स्रोत बंद हो चुका है। लेकिन यहां नाला होने का अस्तित्व जरूर नजर आता है। बांध के पास से निकला नाला पूरी तरह से सूखा हुआ है। लगभग 50 गज तक दो-तीन जगह बीच के गढ्ढे में थोड़ा सा पानी का जमाव है। शायद ये पानी पिछले दिनों आए बरसात का हो। आगे की ओर बढ़ती नदी के रास्ते में नाले, गटर आदि मिलते है। कन्हाण तक जाते-जाते सैकड़ों गटर और नाले अपने गंदे पानी से इसे समृद्ध कर रहे हैं। इस गंदे पानी से नदी के किनारे जंगली पैधे हरियाली बिखेरे हुए है। कहीं-कहीं गर्मी से बेहाल पशु विशेष कर भौंस और स्वान इसमें बैठे हुए भी नजर आएंगे। मुख्यमंत्री ने की थी सफाई की घोषणा वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता उमेश चौबे का कहना है कि नदी की सफाई के लिए कई बार मांगे तो उठी, लेकिन कोई आंदोलन नहीं हुआ। 2002-2003 में जब नागपुर का त्रिशताब्दी महोत्व मनाया गया, तब इसकी सफाई के लिए विशेष मांग की गई थी। श्री चौबे का कहना है कि इसी वर्ष मुंबई में उनकी तत्कालीन मुख्यमंत्री विलाश राव देशमुख के साथ बैठक हुई। बैठक में नाग नदी की सफाई की मांग उठाई गई। बैठक के बाद मुख्यमंत्री ने एक प्रेसवार्ता में यह घोषणा भी कि की नाग नदी की सफाई की जाएगी। लेकिन हुआ कुछ नहीं। इसके अलावा मनपा के बजट में नाग नदी की सफाई के लिए लाखों की राशि आवंटित होती रही है। लेकिन काम कुछ नहीं हुआ है। यदि होता तो वह हकीकत में सामने नजर आता है। नदी को कहीं से और कभी देखें,तो साफ लगेगा, इसकी सफाई कभी हुई ही नहीं है। नदी के किनारे हुआ था अंग्रेजों के साथ युद्ध इतिहासकार डा. भा.रा. अंधारे का कहना है कि सीताबर्डी में जहां इस नदी की दो धाराओं का संगम स्थल है, वहां संगमेश्वर का प्रसिद्ध महादेव मंदिर का निर्माण सेना धुंरंधर मुढ़ोजी भोसले के कार्यकाल में हुआ था। उनका कार्यकाल 1772 से 1788 तक था। इसका निर्माणा दूसरे रघुजी की माता ओर मुढ़ोजी की पत् नी चिमाबाई ने कराया था। यहां संगम का पुराना पुल भी था। जहां तक मेरी स्मृति है 1956 तक इस नदी का पानी स्वच्छ था। गणेश चतुथी से एक दिन पहले तीन पर इस नदी के घाट पर पूजा के लिए महिलाओं की भीड़ जमा होती थी। नदी में गंदगी की शुरुआत 60 के दशक से हुई है। भोंसले काल में नदी का पानी इनतना साफ था कि संगम पर धार्मिक विधियां संपन्न होती थी। आज का सीपीएंड बरार कॉलेज कभी भोसलों का बरसाती महला था। यह नदी के किनारे स्थित था। भोसले राजा खाना खाने के बाद यहां आराम के लिए आते थे। तब नदी के बने सुंदर बांग के प्राकृतिक नजरे आनंद लेते थे। इसी के किनारे बेलवाग और तुलसी आग था। तुलसी आग में मुरलधर का मंदिर उत्कृष्ट कला का नमूना था। भोसले राजघराने की हाथी सुबह इसी नदी में नहाते थे। इससे नदी की गहराई का अनुमान लगाया जा सकता है। इसके अलावा भोसले घराने का श्मसानघाट भी इसी के गांधीगेट के पास था। कभी थडगाबाग के नाम से मशहूर भोसले घराने का राजघाट में पिंडदान होती थी। यहां ब्राह्मणों के पांव धोये जाते थे। नदी के किनारे आज के यशवंत स्टेडियम की जमीन पर ही भोसले राजा आपा साहब और अंग्रेजों के बीच सीताबर्डी की लड़ाई 181 में हुई थी। तब सक्करदरा का इलाका मेडिकल तक था। अंग्रेजों के साथ भोसलों की अंतिम लड़ाई सक्करदरा में ही नदी के किनारे हुई थी। यहां की डूबकी से मिलती थी पाप से मुक्ति कभी घाट पर लोग दूर-दूर से आकर बैठते थे। संगम की कलकल ध्वनी को सुन कर मन में सुखद शांति की अनुभूति करते थे। दो दशक से ऊपर हो गए। घाट की सीढ़ियां वीरान पड़ी है। सीताबर्डी के संगम चाल स्थित मंदिर के बुजुर्ग पुजारी पं. रामेश्वर प्रसाद तिवारी की का कहना है कि लाखों लोगों की आस्था का प्रतिक इस घाट का सौंदर्य शायद कोई नहीं लौटा सकता है। वे दिन गए जब दूर सड़क पर खड़े लोग संगम को देख श्रद्धा से अपना शीश नवा लेते थे। अब तो इधर कोई झांकता तक नहीं है। बस्ती में रहने वाले बच्चे कभी खेलते हुए यहां तक आ जाते हैं। यहां 6 प्राचीन मंदिर है। कहां यहां दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता था। विभिन्न मौके विशेषकर महाशिवरात्री पर यहां मेले लगते थे। संगम में डूबकी लगाकर लोग मंदिर में देव दर्शन करते थे। भक्त अपने पापों से मुक्ति पाते थे। यहां के मंदिर भी सूने रहते हैं। अब तो महाशिवरात्री को ही भक्तों की संख्या यहां थोड़ी ज्यादा दिखती है। अन्यथा महीने में दस लोग भी इन मंदिरों में आ जाए तो बहुत है। ये श्रद्धालु भी कोई बुर्जुग ही होते हैं। वैसे भी श्रद्धालु यहां आए क्यों? यहां संगम अब दो नदियों का नहीं है। यह दो गंदे नाले का है। बरसात के दिनों में जब पानी भरता है और बहाव कम होता है, तो मनपा की ओर से इसमें की मिट्टी और गंदगी को निकाला जाता है। लेकिन उस गंदगी को मनपाकर्मी किनारे पर ही छोड़ जाते है। जो अगली बारिश में धीरे-धीरे फिर इसमें ही आ जाते हैं। कई बार हुई सफाई की मांग वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता उमेश चौबे का कहना है कि नदी की सफाई के लिए कई बार मांगे तो उठी, लेकिन कोई आंदोलन नहीं हुआ। 2002-2003 में जब नागपुर का त्रिशताब्दी महोत्व मनाया गया, तब इसकी सफाई के लिए विशेष मांग की गई थी। श्री चौबे का कहना है कि इसी वर्ष मुंबई में उनकी तत्कालीन मुख्यमंत्री विलाश राव देशमुख के साथ बैठक हुई। बैठक में नाग नदी की सफाई की मांग उठाई गई। बैठक के बाद मुख्यमंत्री ने एक प्रेसवार्ता में यह घोषणा भी कि की नाग नदी की सफाई की जाएगी। लेकिन हुआ कुछ नहीं। इसके अलावा मनपा के बजट में नाग नदी की सफाई के लिए लाखों की राशि आवंटित होती रही है। लेकिन काम कुछ नहीं हुआ है। यदि होता तो वह हकीकत में सामने नजर आता है। नदी को कहीं से और कभी देखें,तो साफ लगेगा, इसकी सफाई कभी हुई ही नहीं है। यहां की मछलियां थी खास श्री चौबे का कहना है कि वे बचपन में नदी के कई सुंदर घाट देखें है। गणेश विसर्जन की शुरुआत भी सीताबर्डी के संगम से हुई। यह स्थान दर्शनीय रहा है। इस नदी में जो मछलियां रहती थी, वे मच्छरों के अंडे खाती थी। इस कारण कई राज्य के लोग यहां की मछलियों के बीज अपने यहां के नदी और तलाब में ले जाते थे। सिचार्इं के पानी का स्रोत भोंसला बंशज राजे मुढ़ोजी भोंसले यह स्वीकारने से नहीं हिचकते कि नाग नदी नहीं रही। यह पूरी तरह से गंदे नाले में परिवर्तित हो चुकी है। इसकी जो वर्तमान चौड़ाई है, वह कभी तिगुनी होती थी। इसके किनारे अतिक्रमण हुए हैं। कभी धोबियों के लिए यह नदी बेहद उपयोगी होती थी। ब्रिटिश शासन काल से कपड़े धोने के लिए उनके लिए घाट बने थे। छह-सात घोबी घाट तो 1965 तक चले। आज कहीं भी यह घाट नजर नहीं आता है। नदी की पानी का उपयोग आमजन विभिन्न कार्यों में करते थे। इसके किनारे होने वाली खेती की सिंचाई, नाग नदी के भरोसे ही थी। किनारे कई मंदिर थे। महाशिवरात्री और नागपंचमी के दिन मेले लगते थे। राजधानी बने रहने तक इसका पानी कई कार्यों में उपयोग होता था। किनारे के बगीचे इसी से सींचे जाते थे। रेसम बाग, तुलसी बाग में कुंए तो थे, लेकिन सिंचाई के लिए इसके पानी का उपयोग ज्यादा होता था नहीं चला नाग बचाने का अभियान श्री मुढ़ो का कहना है कि नदी की गहराई के बारे में तो हमें ज्ञात नहीं। लेकिन यह 40-50 फीट जरूर होगी। पूर्वजों का कहना था कि नदी पत्थर से बंधी हुई हैं। लेकिन भोंसला इतिहास में इसका कोई लिखीत उल्लेख नहीं है। यदि इसमें से गंदगी निकाल दी जाए तो नगर की समृद्धी में चार चांद लग जाए। नगर में कई अभियान शुरू होते हैं, लेकिन नदी की सफाई के लिए कभी कोई अभियान शुरू नहीं हुआ। इसके अलए अभियान चलाना चाहिए। आश्चर्य की बात यह है कि विभिन्न जन-समस्याओं व पर्यावरण से संबंधित मामलों को लेकर न्यायालय में कई जनहित याचिका दायर की गई। लेकिन नाग नदी की सफाई के लिए किसी ने कोई जनहित याचिका दायर नहीं की। नागपुर नगर की रचना के केंद्र में यह नदी रही है। हालत बिगाड़ने में प्रशासन का भी हाथ करीब 60 के दशक में इसके आसपास अतिक्रमण शुरू हुआ। इसका सारा दोष नगर पालिका को जाता है। नगर पालिका ने इसकी बार्बदी में कम भूमिका नहीं निभाई है। कई जगहों पर नाग नदी की जमीन को स्वयं नगर पालिका प्रशासन ने दूसरे को दिया। सड़क को बढ़ाने के लिए इसकी चौड़ाई घटाई। ढाई-दशक पहले तक हालत ठीक थी नदी के किनारे नगर को बसाने में भोंसले राजाओं का उद्देश्य था कि नगर के आमजन को पानी के परेशानी न हो। पानी के कारण नगर में हरियाली से पर्यावरण स्वच्छ रहने के साथ समृद्धी रहेगी। पुराने नागपुर का भूगोल नदी के इर्द-गिर्द ही है। जिस नदी के नाम से शहर को पहचाना जाता है, उसका अस्तित्व खत्म होने के कगार पर है। 25-30 साल पहले तक नदी का जल अशुद्ध नहीं था और पीने के अतिरिक्त पानी की समस्या नहीं होती थी। ऐतिहासिक फैसले इसके किनारे नागपुर में कई ऐतिहासिक फैसले इस नदी के किनारे हुए है। अंग्रेजों के विरोध में भोंसलों की कई मुहिमों की योजना बनी। क्योंकि नदी के किनारे घाट और मंदिर आसपास की घनी हरियाली से ढकी रहती थी। नागपुर से आजादी की लड़ाई की जो भी मुहिम छेड़ी गई थी, इन्हीं घाटों व मंदिरों से शुरू होती थी। नदी को पार करके कभी हमला नहीं हुआ।

कानून से कैसे रुकेगा aatnakwad

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गुरुवार, दिसंबर 25, 2008

मौसम ने छोड़ा साथ तो फैशन से मिलाया हाथ

तिब्बती शरणार्थियों के गर्म कपड़ों से कौन परिचित नहीं होगा। हर साल सर्दी शुरू होते ही कई तिब्बती सपरिवार नागपुर आते हैं। रंग-बिरंगे फैशनेबल कपड़े नागपुर के लोग खूब पसंद करते हैं। यहां आर्इं तिब्बती महिलाएं पुरुषों से कहीं ज्यादा मेहनत करती हैं। वे घर की रसोई की जिम्मेदारी के साथ ही स्टॉल संभालने की जिम्मेदारी उठाती है। बाकी दिनों में मजदूर की तरह खेतों में काम करती हैं। कभी मौसम की बेरुखी हर साल भारी पड़ती है। कभी खेतों की उपज कम होती है तो, साल सर्दी कम होने से गर्म कपड़ों की बक्री खरीदी अच्छी नहीं रहती है। संजय स्वदेश नागपुर. यशवंत स्टेडियम के समीप पटवर्धन मैदान में सजे तिब्बति शरणार्थियों के गर्म कपड़ों के बाजार में अधिकतर दुकानदार महिलाएं हैं। बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि हर साल सर्दी शुरू होते ही नागपुर के इन मेहमानों जीवनयापन केवल गर्म कपड़ों के व्यवसाय से नहीं चलता है। इनका कहना है कि यह केवल तीन-से चार महीने का व्यवसाय है। बाकी समय तो वे खेती करती हैं। इसके बाद भी इतनी कमाई नहीं होती की बाकी समय बिना काम के गुजारा जा सके। यहां आर्इं महिलाएं कहती हैं कि वे घर के पुरुष सदस्यों के साथ खेती में पूरा सहयोग करती हैं। घर की जिम्मेदारी अलग। स्टॉल पर बैठ कर ग्राहकों को भी संभालना पड़ता है। कई महिलाओं ने बताया कि वे बच्चों को इस पेशे से नहीं जोड़ना चाहती हैं। सर्दी शुरू होेते ही खानाबदोश की तरह रहना पड़ता है। गर्म कपड़ों में फैशन यदि मौसम ने बेरुखी दिखाई तो खेती से भारी नुकसान उठाना पड़ता है। तब इस नुकसान की भरपाई अक्सर सर्द मौसम में गर्म कपड़ों के व्यापार से हो जाती है। यहां आई हुबली कहती हंै कि जब खेती पर मौसम की मार पड़ती है, तो सर्दी में फैशनेबल गर्म कपड़ों का साथ मिलता है। नागपुर के लोग गर्म कपड़ों में भी फैशन और स्टाइल देखते हैं। इसलिए यहां फैशनेबल कपड़ों ज्यादा लेकर आते हैं। नौकरी से ज्यादा व्यवसाय में मजा बैंगलूर से आई तेंजिन कहती हैं कि होटल मेजबानी करती हैं। इन दिनों भाई को सहयोग करने नागपुर आई है। अकेले इस स्टॉल को संभालना मुश्किल है। फिर नौकरी से ज्यादा व्यवसाय में मजा है। गर्म कपड़ों का व्यवसाय कुछ महीने का है। कई सालों से इसी व्यवसाय से जुड़े हैं, इसलिए दूसरा बदलने की सोचते नहीं। फसल अच्छी नहीं होन पर आर्थिक संकट मैसूर की डोलमा ने बताया कि वह 5 एकड़ जमीन में खेती करती हैं। पर खेती में लागत ज्यादा होने और मौसम की बेरुखी से जब अच्छी फसल नहीं होती तब आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है। बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। उन्हें इस पेशे में नहीं लाना है, क्योंकि यह बहुत तकलीफ वाला है। सर्द मौसम में सुबह जल्दी उठ कर घर का काम, फिर स्टॉल सजाओ, रात को घर वापस जाकर खाना बनाना-खाना। अपने लिए समय ही नहीं मिलता है। प्रेमा दसवीं की छात्रा है। उसके परिवार के लोग गोंदिया में चावल की खेती करते हैं। कहती है वह केवल दुकान में बैठती है। बारी-बारी से दुकान में बैठने से घर के दूसरे लोग आराम कर लेते हैं। बाजार में खेलते बच्चे तिब्बती शरणाथियों के संगठन के प्रमुख टी. नूरपुर ने बताया कि अल्पकालीन समय के लिए बने इस बाजार के लिए वे मनपा को चार लाख रुपये किराये के रूप में देते हैं। मनपा ही हर साल इस बाजार की व्यवस्था करती है। यहां कुल 62 परिवारों के 62 स्टॉल है। सभी लोग सपरिवार आए हैं। कई नन्हें-बच्चे बाजार में ही खेलते नजर आते हैं। सर्दी से कमाई टी. नूरपुर ने बताया कि उनके गर्म कपड़े दिल्ली और पंजाब से आते हैं। कई दुकानदार बैंक से ण लेकर स्टॉल सजाते हैं। विश्वसनीयता के आधार पर व्यापारी कपड़े भी उधार देते हैं। नवंबर से जनवरी तक नागपुर में रहते हैं। इस बीच व्यापारी अपनी उधार वसूली के लिए आते हैं। पिछले साल ठंड ज्यादा होने से कपड़े जल्दी बिक गये थे। इस साल ठंड कम होने से बिक्री सामान्य है। कई दुकानदारों के पास ण चुकाने भर की पर्याप्त कमाई नहीं होने से परेशान हैं। जब सर्दी कम होती है, तो कमाई कम होती है।

... ताकि महंगी में हो सके गुजरा.

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पॅकेज लेने से पहले ही सरे लेने की बेताबी

Âñ·ð¤Á ƒææðá‡ææ âð ÂãUÜð ŸæðØ ÜðÙð ·¤è ÕðÌæÕè
â¢ÁØ SßðÎàæ,
Ùæ»ÂéÚU, ×ãUæÚUæCïþU çßÏæÙâÖæ ·ð¤ àæèÌ â˜æ ×ð´ ÚUæ…Ø âÚU·¤æÚU Ùð Sßè·¤æÚU ç·¤Øæ ãñU ç·¤ ¥æˆ×ãUˆØæ ·ð¤ ·¤æÚU‡æ Îðàæ-ÎéçÙØæ ×ð´ âéç¹Øæð´ ×¢ð ¥æ° ç·¤âæÙæð´ ·ð¤ çÜ° ÂýÏæÙ×¢˜æè ·ð¤ ÚUæãUÌ Âñ·ð¤Á ×ð´ ·¤§ü ·¤ç×Øæ¢ ãñ¢UÐ §Ù ·¤ç×Øæ𴠷𤠷¤æÚU‡æ çÙØç×Ì ·¤Áü ÖÚUÙð ßæÜð Â梿 °·¤Ç¸U âð ¥çÏ·¤ Öêç× ßæÜð ç·¤âæÙæð´ ×ð´ ¥â¢Ìæðá ãñUÐ ÖÜð ãUè ÂýÏæÙ×¢˜æè âð ÚUæ…Ø âÚU·¤æÚU ·¤æð Âýæ# x ãUÁæÚU xw ·¤ÚUæðǸU ·ð¤ Âñ·ð¤Á ·¤æ âæÚUæ L¤ÂØæ ç·¤âæÙæð´ Ì·¤ ¥Öè ÙãUè´ Âãé¢U¿æ ãñ¢UÐ Üðç·¤Ù ÚUæ…Ø âÚU·¤æÚU §âð ¥Âæü# ×æÙ·¤ÚU °·¤ ¥æñÚU ÚUæãUÌ Âñ·ð¤Á ÎðÙð ·¤è ÌñØæÚUè ×ð´ ãñUÐ ·¤ãUæ Áæ ÚUãUæ ãñU ç·¤ ÙØð ÚUæãUÌ Âñ·ð¤Á ×ð´ ç·¤âæÙæð´ ÜæÖ ÎðÙð ·ð¤ çÜ° } Ÿæð‡æè ÕÙæ§ü »§ü ãñUÐ §â×¢ð v~~v âð ÂãUÜð x Üæ¹ zz ãUÁæÚU ·¤ÁüÎæÚU Öè ãñ¢Ð çÁÙ ÂÚU v ãUÁæÚU x® ·¤ÚUæðǸU L¤ÂØð ·¤æ Õ·¤æØæ ãñUÐ §â·ð¤ ¥Üæßæ çÙØç×Ì ·¤Áü ÜðÙð ßæÜð w{ Üæ¹ ç·¤âæÙ ãñ¢UÐ »ýæ×è‡æ ·ð¤çÇUÅU â¢SÍæ¥æð´ ·¤æð Öè §â â×SØæ ·¤æð ãUÜ ·¤ÚUÙð ·ð¤ çÜ° âÚU·¤æÚU âð v ãUÁæÚU ~v ·¤ÚUæðǸU L¤ÂØð ·¤è ÁM¤ÚUÌ ãñUÐ çßÏæÙâÖæ ×¢ð ç·¤âæÙ ¥æˆ×ãUˆØæ °ß¢ âê¹ð ç·¤ çSÍçÌ ÂÚU ãéU§ü Ü¢Õè ¿¿æü ×ð´ ç·¤âæÙæð´ ·¤è â×SØæ¥æð´ ·¤æ ÌêÜ çÎØæ »ØæÐ ×æ×Üð ·¤æð ÌêÜ ÎðÙð ·ð¤ ÕæÎ ãUè ÚUæ…Ø âÚU·¤æÚU Ùð âÎÙ ·¤æð ÁæÙ·¤æÚUè Îè ç·¤ ÚUæ…Ø âÚU·¤æÚU ·ð¤¢¼ý ·ð¤ ·¤Áü ×æÈ¤è ·ð¤ çÜ° ߢç¿Ì yv Üæ¹ ~® ãUÁæÚU ç·¤âæÙæð´ ·¤æð ·¤Áü ×æÈ¤è ·¤æ °·¤ ¥æñÚU Âñ·ð¤Á ÎðÙð ·¤è ØæðÁÙæ ×ð´ ãñUÐ ÙØð Âñ·ð¤Á ·ð¤ çÜ° ·é¤Ü vvwy ·¤ÚUæðǸU L¤ÂØð ·¤è ¥æßàØ·¤Ìæ ãñUÐ §â·ð¤ ¥çÌçÚU€Ì ßáæü ÙãUè´ ãUæðÙð âð ¥æñÚU çßçÖ‹Ù ÚUæð»æ𴠷𤠷¤æÚU‡æ ÙCïU ãUé§ü ȤâÜ ·ð¤ çÜ° ×é¥æßÁæ ÎððÙð ·¤è Öè ƒææðá‡ææ ãUæðÙè ãñUÐ çßΏæü °ß¢ ×ÚUæÆUßæǸUæ ç⢿æ§ü ¥çÖØæÙ ·ð¤ ÁçÚU° ç⢿æ§ü âéçßÏæ ÕɸUæÙð ·¤è ÁM¤ÚUÌ ãñUÐ çSÍçÌØæ¢ ¿æãðU Áæð ãUæð, Îð¹Ùæ Øã ãñU ç·¤ âÎÙ ×ð´ ·ë¤çá×¢˜æè ÕæÕÜæâæãÕU ÍæðÚUæÌ, âãUæ·¤çÚUÌæ ×¢˜æè ãUáüßÏü ÂæçÅUÜ ¥æñÚU ÚUæÁSß ×¢˜æè ÇUæ. ÂÌ¢»ÚUæß ·¤Î× ØçÎ Âñ·ð¤Á ·¤è ƒææðá‡ææ ·¤ÚUÌð Öè ãñU Ìæð ©Uâð ¥×Ü ×ð´ ·¤Õ Ì·¤ ÜæÌð ãñ´UÐ ÂýÏæÙ×¢˜æè ·¤æ ÚUæãUÌ Âñ·ð¤Á ·¤æ ÕǸUæ çãUSâæ ¥Öè Ì·¤ ç·¤âæÙæ¢ð ·¤æð ÚUæãUÌ ÙãUè´ Âãé¢U¿æ ÂæØæ ãñUÐ Øæ çȤÚU ¥æÙð ßæÜð çÎÙæð´ ×ð´ ¿éÙæß ·ð¤ ×gðÙÁÚU Øð ßæðÅU ÜéÖæßÙè Âñ·ð¤Á ÕÙ ·¤ÚU ÚUãU Áæ°»æÐ Áæð ¿éÙæß ÕæÎ çȤÚU âð Æ¢UÇðU ÕSÌð ×ð´ ÂǸU Áæ° ¥æñÚU Â梿 âæÜ ÕæÎ ¥»Üæ ¿éÙæß ¥æÙð âð Âêßü ©Uâ·¤è âéÏ Üè Áæ°Ð
ßãUè´ ÎêâÚUè ¥æðÚU ÚUæ…Ø âÚU·¤æÚU ·¤è â¢ÖæçßÌ Âñ·ð¤Á ƒææðá‡ææ âð Âêßü ãUè çßçÖ‹Ù ÎÜæð´ ×𴠧⠷¤æ ŸæðØ ÜðÙð ·¤è ãUæðǸU ¿æÜê ãæ𠻧ü ãñUÐ ™ææÌ ãUæð ç·¤ ÁÕ ÂýÏæÙ×¢˜æè Ùð ÚUæãUÌ Âñ·ð¤Á ƒææðçáÌ ç·¤Øæ Íæ ÌÕ ÚUæCïþUßæÎè ·¤æ¢»ýðâ ÂæÅUèü Ùð çßÎÖü ×ð´ ÚñUÜè ¥æØæðçÁÌ ·¤ÚU ŸæðØ ÜðÙð ·¤è ·¤æðçàæàæ ·¤èÐ çàæßâðÙæ ·ð¤ ©Ugß ÆUæ·¤ÚðU Ùð ç·¤âæ٠΢ÇUè çÙ·¤æÜ ÁÙÌæ ·¤æð ØãU ÕÌæÙð ·¤è ·¤æðçàæàæ ·¤è ç·¤ ·¤Áü×æÈ¤è ©UÙ·¤è ÂãUÜ âð ãéU§ü ãñUÐ §â ÂãUÜ ×ð´ ÖæÚUÌèØ ÁÙÌæ ÂæÅUèü Öè ÂèÀðU ÙãUè´ ÚUãUèÐ ÖæÁÂæ ¥ŠØÿæ ÚUæÁÙæÍ çâ¢ãU ·¤è Öè ÚñUÜè ¥æØæðçÁÌ ãUé§üÐ ×ÁðÎæÚU ÕæÌ ØãU ãñU ç·¤ ·¢ð¤¼ý ¥æñÚU ÚUæ…Ø ×ð´ âžææ ãUæðÙð ·ð¤ ÕæÎ Öè Âñ·ð¤Á ·¤æ ŸæðØ ÜðÙ𠷤梻ýðâ çÂÀUǸU »§üÐ çSÍÌ ØãU ãñU ç·¤ çßÎÖü ·¤è ÁÙÌæ ·ð¤ ·¤æ¢»ýðâ ·¤è âæ¹ ·¤æð »ãUÚUè ¿æðÅU Ü»è ãñUÐ ÂýÏæÙ×¢˜æè ¥æñÚU ·¤æ¢»ýðâ ¥ŠØÿæ âæðçÙØæ »æ¢Ïè ·¤æ ÁÕ ÚUæ…Ø ÎæñÚUæ ãéU¥æ Ìæð ÚUæ…Ø ·ð¤ ÙðÌæ ©Uٷ𤠥æ»ð ÂèÀ¸ðU ƒæé×Ìð ÚUãðUÐ Õè¿ ×ð´ ÂæÅUèü ·ð¤ ÚUæ…Ø ¥ŠØÿæ ÂÎ ·¤æð Üð·¤ÚU ·¤æÈ¤è »éÅUÕæÁè ¿ÜèÐ ¥æ¢ÌçÚU·¤ ·¤ÜãU ×ð´ ãUè ·¤æ¢»ýðâ ·ð¤ ÙðÌæ È¢¤âð ÚUãðU ¥æñÚU ßãUè´ ÎêâÚðU ÎÜ Âñ·ð¤Á çÎÜæÙ ·¤è ¥ÂÙè ⢃æáü ·¤è »æÍæ Üð·¤ÚU ÁÙÌæ ·ð¤ Õè¿ Âãé¢U¿ »°Ð ¥Õ çßÂÿæè çÕÁÜè ·¤ÅUæñÌè ·¤æð ×éØ ×égæ ÕÙæ ·¤ÚU ©UÀUæÜ ÚUãðU ãñ´UÐ ·¤æ¢»ýðâ ¥æ¢ÌçÚU·¤ ·¤ÜãU ×ð´ ãUè »é×âé× çι ÚUãUè ãñUÐ ÚUæ…Ø âÚU·¤æÚU ·ð¤ ÙØð ×éç¹Øæ Øàæß¢Ì ÚUæß ¿ÃãUæ‡æ ·ð¤ Âæâ ·ð¤ßÜ v® ×æãU ·¤æ â×Ø ãUñ, ÂÚU ßð ¿æãð´U Ìæð ÁÙÌæ ·ð¤ Õè¿ ¥ÂÙè ¥æñÚU ·¤æ¢»ýðâ ·¤è ©UÂçÜçŽÏØæð ·¤æð ÁÙÌæ Ì·¤ Âã¢éU¿æ·¤ÚU ·é¤ÀU ÜæÖ Âýæ# ·¤ÚU â·¤Ìð ãñ´UÐ
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गुरुवार, दिसंबर 18, 2008

जरा परिचारो की सुनिए

ÁÚUæ ÂçÚU¿ÚUæð´ ·¤è âéçÙØð...
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ÚUæ…Ø ·ð¤ âñ·¤Ç¸Uæð´ ç¿ç·¤ˆâ·¤æ ·ð´¤¼ýæð´ ×ð´ ÙâæðZ ·¤è âãUæØÌæ ·ð¤ çÜ° ãUÁæÚUæð´ ÂçÚU¿ÚU ×çãUÜæ°¢ ·¤æØüÚUÌ ãñUÐ Øð Ù ·ð¤ßÜ ¥SÂÌæÜ ·¤è âæȤ-âȤæ§ü ·¤ÚUÌè ãñ´U, ÕçË·¤ ×ÚUèÁæð´ ·¤è Ìè×æÚUÎæÚUè ·¤ÚUÙð ßæÜè ÙâæðZ ·¤æð âãUØæð» ·¤ÚUÌè ãñUÐ ¥æòÂÚðUàæÙ ×ð´ ©UÂØæð» ãUçÍØæÚæð´ ·¤æð ÏæðÙð âð Üð·¤ÚU ·¤¿Úæ ©UÆUæÙð Ì·¤ ·¤è çÁ×ðÎæÚUè §Ù ÂÚU ãñUÐ ·¤æ»Áæð´ ÂÚU §Ù·¤è âðßæ Ìæð ¥Ë·¤æÜèÙ ãñUÐ ÂÚU ãU·¤è·¤Ì ×ð´ Âê‡æü·¤æÜèÙ âðßæ ·ð¤ ÕÎÜð ×ãUÁ Õèâ L¤ÂØð ÂýçÌ çÎÙ ·¤è ÎÚU âð ×æÙÎðØ ÂæÌè ãñ´UÐ
Ùæ»ÂéÚU âð â¢ÁØ SÃæÎðàæ
ÚUæ…Ø ·ð¤ çÁÜæ ÂçÚUáÎ ·ð¤ ⢿æçÜÌ ÂýæÍç×·¤ ç¿ç·¤ˆâæ ·ð´¤¼ý ß ©U·𴤼ýæð´ ×𢠷¤æØüÚUÌ ÂçÚU¿Ø âðßæ ·ð¤ °ßÁ ç×ÜÙð ßæÜè ×æÙÎðØ ·ð¤ ÕÁæØ ßðÌÙ ×梻 ·¤ÚU ÚUãUè ãñ¢UÐ çÂÀUÜð çÎÙæð´ Ùæ»ÂéÚU ×ð´ çßÏæÙâÖæ àæèÌ â˜æ ·ð¤ ÎæñÚUæÙ ÚUæ…Ø ·ð¤ âæÌ çÁÜæð´ ·ð¤ ÂçÚU¿ÚU ⢻ÆUÙæð´ ·¤è ·¤ÚUèÕ ¿æÚU âæñ ×çãUÜæ ·¤æØü·¤Ìæü¥æð´ Ùð §â·ð¤ çÜ° ÂÚU ÏÚUÙæ-ÂýÎàæüÙ ç·¤ØæÐ ãUÚU ÕæÚU ·¤è ÌÚUãU §‹ãð´U ÁÙÂýçÌçÙçÏØæð´ âð ¥æàßæâÙ ·¤è âæãUÙéÖêç× ·ð¤ çâßæ° ·é¤ÀU ÙãUè´ ç×ÜæÐ ×ã¢U»æ§ü ·ð¤ Á×æÙð ×ð´ ×ãUÁ {®® L¤ÂØð ÂýçÌ×æãU ·ð¤ ×æÙÎðØ ÂÚU Âê‡æü·¤æÜèÙ âðßæ°¢ ÎðÙæ ×æ×êÜè ÕæÌ ÙãUè´ ãñUÐ »ýæ×è‡æ ÿæð˜ææð´ ×¢ð ãUÚU çSÍÌ ãUÚU °·¤ ÂýæÍç×·¤ ©U¿æÚU ·ð´¤¼ý ·ð¤ ÂèÀðU Â梿 âð ÀUãU »æ¢ß çÙÖüÚU ãñ´UÐ ·¤§ü ×æ×Üæð´ ×ð´ ÎêÚU çSÍÌ »æ¢ßæð´ ×¢ð ÁÕ ç¿ç·¤ˆâ·¤ç×üØæð´ ·ð¤ âæÍ ÎêÚU-ÎÚUæÁ ·ð¤ »æ¢ßæð´ ×ð´ ÁæÙæ ÂǸUÌæ ãñU, ÌÕ ·¤æð§ü ¥çÌçÚU€Ì Öžææ Ùãè´ ç×ÜÌæ ãñUÐ âÚU·¤æÚU Ùð ÁÙÌæ ·ð¤ SÃææS‰Ø âðßæ¥æð´ ·¤æð ŠØæÙ ×ð¢ ÚU¹·¤ÚU ·¤§ü ÌÚUãU ·¤è ØæðÁÙæ°¢ Üæ»ê ·¤è ãñUÐ §â·ð¤ ÌãUÌ ÎðÚU ÚUæÌ Ì·¤ ×ÚUèÁ ç¿ç·¤ˆâæ ·ð´¤¼ý ×ðð´ ¥æÌð ÚUãUÌð ãñ´UÐ ÎêÚU-ÎÚUæÁ ·ð¤ »æ¢ßæð´ ×¢ð çßçÖ‹Ù SßæSÍ ØæðÁÙæ¥æð´ ·ð¤ ÌãUÌ ÁæÙð ÂÚU ç·¤âè ÌÚUãU ·¤è æžææ æè ÙãUè´ ç×ÜÌæÐ
×ãUæÚUæDïU ÚUæ…Ø ÂçÚU¿ÚU ⢻ÆUÙ ·¤è âç¿ß ·¤æ¢ÌæÕæ§ü »æðçߢÎÚUæß ×æÙð ·¤ãUÌè ãñ´U ç·¤ ·¤æ»Áæð´ ÂÚU ¥æÁ Öè ©UÙ·¤è âðßæ ÂæÅUü-ÅUæ§× ãñ´UÐ ÂÚU ãU·¤è·¤Ì ×ð´ ÙâæðZ ·ð¤ âæÍ ç¿ç·¤ˆâ·¤æ ·ð´¤¼ýæð´ ×ð´ ©UÙ·¤è âðßæ ãUÚU çÎÙ ¥æÆU ƒæ¢ÅðU âð ·¤× ÙãUè´ ãUæðÌè ãñUÐ ¥æòÂÚðUàæÙ ·ð¤ ÕæÎ ·¤è »¢Î»è ·¤æð Îð¹·¤ÚU ãUÚU ç·¤âè ·¤æð çƒæÙ ¥æ â·¤Ìè ãñUÐ §â ÌÚUãU ·¤è Ì×æ× »¢Î»è ·¤è âæȤ-âȤæ§ü âð Üð·¤ÚU ÙâæðZ ·ð¤ ÎêâÚðU âãUØæð» ×ð´ ·ð¤ ÕÎÜð Ù ·¤æð§ü â×æÙ ç×ÜÌæ ãñU ¥æñÚU Ù ãUè ç·¤âè àææâ·¤èØ ·¤×ü¿æÚUè ·¤æ ÎÁæüÐ §â ·¤æØü ·ð¤ ÕÎÜð Õâ ·¤× ÉUæ§ü ãUÁæÚU L¤ÂØð ÂýçÌ×æãU ßðÌÙ ·¤è ×梻 ãñUÐ ·¤ãUÌè ãñ âÚU·¤æÚU âæð ÚUãUè ãñUÐ ãU×æÚUæ ÎÎü ©Uâ Ì·¤ ÙãUè´ Âãé¢U¿ ÚUãUæ ãñUÐ ÁãUæ¢ ·¤ãUè´ ÎÎü ·¤ãUæð ¥æàßæâÙ ·¤è âãUæÙéÖêçÌ ç×ÜÌè ãñUÐ §ÌÙæ ãUè ÙãUè´ °·¤ Îàæ·¤ â𠪤ÂÚU ·¤è âðßæ ¥ßçÏ ÂêÚUè ãUæðÙð ·ð¤ ÕæÎ Öè Ù ·¤æð§ü Âý×æðàæÙ ç×Üæ ¥æñÚU Ù ãUè ·¤æð§ü â¢ÌæðáÁÙ·¤ ×æÙÎðØßëçh ãéU§üÐ ·¤ãUÌè ãñ´U ç·¤ ×ã¢U»æ§ü ·ð¤ §â Á×æÙð ×ð´ ×ãUÁ Õèâ L¤ÂØð ÂýçÌçÎÙ ·¤è ÎÚU âð Âê‡æü·¤æÜèÙ âðßæ°¢ ¥æÁ ç·¤â Âðàæð ×ð´ ãUæðÌè ãñUÐ v~}® Ì·¤ ·ð¤ ÂçÚU¿ÚUæð´ ·¤æð ÚUæ…Ø âÚU·¤æÚU Ùð Âê‡æü ·¤æÜèÙ âðßæ ·¤æ ÎÁæü çÎØæ ãñUÐ âðßæ â×æ# ãUæðÙð ·ð¤ ÕæÎ ©U‹ãð¢ ÂðàæÙ Öè ç×Ü ÚUãè ãñUÐ v~}® ·ð¤ ÕæÎ Öè ãUÁæÚUæð´ ÂçÚU¿ÚUæð´ ·¤è çÙØéç€Ì ãéU§ü, Áæð ¥æÌ ·¤ Âê‡æü·¤æÜèÙ âðßæ ·ð¤ çÜ° ¥æÁ Ì·¤ ÌÚUâ ÚUãUè ãñU¢Ð ·¤æðËãUæÂéÚU ·¤è âéá×æ ÇUæÅðU ·¤æ ·¤ãUÙæ ãñU ç·¤ ÁÕ v~~{ ×ð´ ßð ÂçÚU¿ÚU ·ð¤ M¤Â ×ð¢ Ü»è ÌÕ Îæð âæñ L¤ÂØð ç×ÜÌð ÍðÐ ¥æÁ {®® L¤ÂØð ÂýçÌ×æãU ·ð¤ ×æÙÎðØ ç×Ü ÚUãUæ ãñUÐ ×ã¢U»æ§ü ·ð¤ ·¤æÚU‡æ §ÌÙè ÚUæçàæ ×ð´ »éÁæÚUæ ×éçà·¤Ü âð ãUæð ÚUãUæ ãñUÐ ·¤× Úæçàæ ·ð¤ ¥Üæßæ ãU×ðàææ ÙâæðZ ·ð¤ ÌæÙð âéÙÙð ÂǸUÌð ãñ´UÐ ·¤Öè ÀéUÅUï÷ÅUè ÙãUè´ ÎðÌèÐ ¥·¤æðÜæ çÁÜð ·¤è ×¢ÁéÜæ Õ梻ÚU ·¤æ ·¤ãUÙæ ãñU ç·¤ ÁÕ æè ·¤ãUè ÏÚUÙæ ×ð´ ÁæÌè ãñ´U, ·ð¤ßÜ ¥æàßæâÙ ãUè ç×ÜÌæ ãñUÐ ¥æñÚ¢U»æÕæÎ ·¤è »¢»ê ÇUæ·¤æðÚU·¤ÚU Ùð ÕÌæØæ ç·¤ Âñâð ·¤è ·¤×è ·ð¤ ·¤æÚU‡æ ÎêÚU-ÎÚUæÁ çSÍÌ ¥çÏ·¤æçÚUØæð´ ·ð¤ ΍ÌÚU Øæ â¢Õ¢çÏÌ ×¢˜æè ·ð¤ ·¤æØüÜØ ×ð´ ÙãUè´ Áæ ÂæÌð ãñ´UÐ Îæð-Ìè٠⢻ÆUÙ ·ð¤ â×êãU ×ð´ ×é¢Õ§ü ¥æñÚU çÎËÜè Ì·¤ Áæ·¤ÚU ÏÚUÙæ ÂýÎàæüÙ ×ð´ çãUSâæ çÜØæ Üðç·¤Ù ¥æàßæâÙ ·ð¤ çâßæ ·é¤ÀU Ùãè´ ç×ÜæÐ ·¤æàæ, ãU×ð´ Âý×æðàæÙ ãUæð Ìæð ÕéɸUæÂð ×ð´ Âð´àæÙ ·¤æ âãUæÚUæ ç×Ü Áæ°Ð
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18/12/2008

मंगलवार, दिसंबर 16, 2008

जंगल बचने में जुटी ह अं तीन हज़ार महिलाये.

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सोमवार, दिसंबर 15, 2008

कहा जाएगा मानसून का पानी

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·¤ãUæ¢ Áæ°»æ ×æÙâêÙ ·¤æ ÂæÙè, ×æÙâêÙ ·ð¤ Sßæ»Ì ·¤è ÌñØæÚUè
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कम के लिए लड़के चाहिए.

बुद्धरक्षित को "कामगार मुले पाहिजेे"
पढ़ाई पूरी करने के शर्त पर ब"ाों को रोजगार देते हैं
संजय कुमार
नागपुर. नगर के विभिन्न चौक-चौराहों पर गुजरते वक्त दीवारों पर कामगार मुले पाहिजे का इश्तहार नजर आता है। पढ़़ते समय शायद ही कभी इसके सामाजिक उद्देश्य के बारे में कोई सोचता हो? आमतौर पर पढ़ कर लोग यही समझते हैं कि इस माध्यम से ब"ाों को काम दिया जाता है लेकिन स"ााई कुछ और है। इश्तहार देने वाले सुजाता नगर के बुद्धरक्षित बन्सोड पढऩे-लिखने की उम्र में मजदूरी करने वाले ब"ाों के लिए रोजगार के साथ-साथ शिक्षा की राह आसान करने का बीड़ा उठाये हुए हैं। गत एक वर्ष से वे अब तक दर्जनों ब"ाों को शिक्षा की राह दिखा चुके हैं।
यहां बाल मजदूरी नहीं होती
श्री बन्सोड का कहना है कि हर दिन उनके पास पांच-छह ब"ाों के फोन आते हैं। फोन करने वाले ब"ो को वे घर बुलाते हैं। उनकी हर स्थिति अच्छी तरह से समझते हैं। यदि ब"ो की उम्र 14 साल से ऊपर होती है, तो उसे इस शर्त पर कार आदि की साफ-सफाई का काम देते हैं कि वह अपनी पढ़ाई पूरी करेगा। यदि लड़के की उम्र 14 साल से कम होती है, तो उसे समझाते हैं और उसे नगर के नि:शुल्क छात्रावास में दाखिला दिलाते हैं। इसके लिए कुछ आर्थिक सहयोग भी देते हैं। स्वयं ट्यूशन पढ़ाते हैं। यदि किसी कारणवश उस समय छात्रावास में दाखिले का समय निकल चुका होता है, तो उसके माता-पिता से मिल कर इस बात के लिए सहमत करते हैं कि ब"ो को पढ़ायें और निश्चित समय पर छात्रावास में दाखिला दिलायें, जहां उन्हें नि:शुल्क शिक्षा मिलेगी।
स्टेशन पर खोजते हैं भागे हुए ब"ो
वे रोज सुबह 4 बजे स्टेशन पर बाहर से भाग कर आने वाले ब"ाों की तलाश में जाते हैं। यदि किसी दिन ऐसा लड़का मिल जाता है, तो उससे बातचीत कर दोस्ती करते हैं। उसे काम के साथ-साथ पढ़ाई कराने के लिए सहमत कर अपने घर लाते हैं। फिर उसके साथ घर जाकर ब"ो के माता-पिता से मिलते हैं और उन्हें काम कराने के बजाये पढ़ाने के लिए सहमत करते हैं।
कहां से मिली प्रेरणा?
बुद्धरक्षित 12 भाई-बहनों में सबसे छोटे हैं। उम्र 32 साल की है। बचपन में हीे गंदे नाले और गलियों में प्लास्टिक और हड्डियां चुनते थे। उसे बेचने से जो पैसा मिलता था, उससे पेट भरते। एक बार घर से भाग कर मुंबई गए तो वहां गलत लोगों के चंगुल में फंस गए। लेकिन मां की याद ने वापस नागपुर आने के लिए विवश कर दिया। नागपुर वापस आए तो "बहुजय हिताय संस्था" से संपर्क हुआ। यहां से मजदूरी के साथ-साथ पढ़ाई की प्रेरणा मिली। स्नातक पूरी करने के बाद समाज सेवा में स्नातकोत्तर किया। फिलहाल डॉ. भीमराव अंबेडकर कॉलेज से कानून की पढ़ाई कर रहे हैं।
जेल में बंद मासूमों को देनी है नई जिंदगी
कानून की पढ़ाई करने का मकसद उन ब"ाों को एक नई जिंदगी देना है जो बचपन में छोटे-मोटे अपराध के कारण जेल में हैं। भागे हुए ब"ाों को पढ़ाने के उद्देश्य से कई लोग आर्थिक मदद देते हैं। 14 साल से अधिक उम्र के जो ब"ो हमारी टीम में होते हैं। वे पढ़ाई के साथ-साथ सप्ताह में एक या दो बार कार धोते हैं। इसके एवज में उन्हें 1000-1200 रुपया मासिक पारिश्रमिक मिल जाता है।
क्या कहते हैं लोग?
लीक से हटकर काम करने वाले दूसरे लोगों की तरह श्री बन्सोड को भी लोग पागल समझते हैं। घर वालों के विरोध के चलते दत्ता मेघे कॉलेज के समीप आनंद अत्रे ले-आऊट में अलग किराये के एक कमरे में रहते हैं। यहां लकड़ी जलाकर भोजन बनाते हैं। जब वे गंदी बस्तियों में ब"ाों के माता-पिता को पढ़ाने के लिए समझाने जाते हैं, तो लोग हंसते हैं। लेकिन बुद्धरक्षित को इन सबकी चिंता नहीं। उनका काम तो बस अपने काम में लगे रहना है।

जंगल बचने में जुटी mahilaye

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ÚUæ…Ø âÚU·¤æÚU ·ð¤ ßÙ çßÖæ» ·ð¤ §â ØæðÁÙæ ·ð¤ ÌãUÌ ×çãUÜæ Õ¿Ù »ÅU Öè ¿ÜæØæ ãñUÐ Øð »ÅU ßÙ ¥æÏæçÚUÌ Üƒæé ©Ulæð», ¹ðÌè ß ÎêâÚðU ·¤æØæðZ ×ð´ ¥æçÍü·¤ âãUØæð» ¥æçÎ ÎðÙð ·¤æ ·¤æØü ·¤ÚUÌæ ãñUÐ Áæð »æ¢ß çÁÌÙæ …ØæÎæ ßÙæð´ ·¤æð â¢ÚUçÿæÌ ·¤ÚUÌæ ãñU ¥æñÚU Á¢»Ü ·¤æð â×ëh ·¤ÚUÌæ ãñU, ©Uâð ÂéÚUS·ë¤Ì Öè ç·¤Øæ »Øæ ãñUÐ §ââð Ù ·ð¤ßÜ ÚUæ…Ø ·ð¤ Á¢»Ü â×ëh ãéUØð ãñ´U, ÕçË·¤ Á¢»Ü ·¤æð ·¤ÅUÙð âð ·¤æȤè ãUÎ Ì·¤ ÚUæð·¤æ Öè »Øæ ãñUÐ Üæð»æð´ ×¢ð Á¢»Ü ·ð¤ ÂýçÌ ÁÙÁæ»ëçÌ ¥æ§ü ãñUÐ ßð Á¢»Ü ·¤æ ×ãUˆß â×Ûæ¤ ·¤ÚU âãUè çÎàææ ×ð´ §â·¤æ ©UÂØæð» ·¤ÚU ¥ÂÙè Áèçß·¤æ æè ¿Üæ ÚUãðU ãñ´UÐ Ÿæè ×ãUæÁÙ ·¤æ ·¤ãUÙæ ãñU ç·¤ ãUÚU âæÜ ãUÚU »æ¢ß ×ð´ ÌèÙ âð ¿æÚU ØæðÁÙæ¥æð´ ·¤æ Âýçàæÿæ‡æ »ýæçׇææð´ ·¤æð çÎØæ ÁæÌæ ãñUÐ çÁâ×ð´ ×çãUÜæ°¢ ÕɸU-¿É¸U ·¤ÚU çãUSSææ ÜðÌè ãñ´UÐ
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ßÙ â×ëçh ·ð¤ çÜ° ßëÿææÚUæð‡æ
ßÙ ·¤è ç×Å÷UÅUè ß ÁÜâ¢ßhüÙ
ßÙ ·¤æð ¥æ» âð Õ¿æÙð ·¤æ Âýçàæÿæ‡æ
ßÙ âð ¥çÌ·ý¤×‡æ ãUÅUæÙæ

पाच बहनों का parcham

§ÌßæÚUè ·¤æ âÚUæȤæ ÕæÁæÚU
Â梿 ÕãUÙæð´ ·¤æ ÂÚU¿×
ßé×Ù ÖæS·¤ÚU
Ùæ»ÂéÚU. §ÌßæÚUè ·ð¤ âÚUæȤæ ÕæÁæÚU ×ð´ ¥æÙð-ÁæÙð ßæÜð Üæð»æð´ ×¢ð àææØÎ ãUè ·¤æð§ü ãUæð, Áæð ÕæÕéÜæÜ …ßðÜâü ·¤è Îé·¤æÙ âð ÂçÚUç¿Ì ÙãUè´ Ù ãUæð? ÂêÚæ âÚUæüȤæ ÕæÁæÚU ·¤ãð´U Øæ ÂêÚUæ çßΏæü, ØãUè °·¤ Îé·¤æÙ ãñU çÁâ×ð´ Â梿 ÕãUÙæð´ ×ð´ ¥ÂÙè ×ðãUÙÌ ¥æñÚU ãéUÙÚU ·ð¤ Î× ÂÚU …ßðÜÚUè ÕæÁæÚU ×ð´ ¥ÂÙæ ÂÚU¿× ÜãUÚUæØæ ãñUÐ âÚUæȤæ ÕæÁæÚU ×ð´ °·¤ âð ÕɸU ·¤ÚU °·¤ ÕǸUè ¥æñÚU ÀUæðǸUè …ßñÜÚUè ·¤è Îé·¤æÙ ç×Ü Áæ°¢»èÐ §Ù Îé·¤æÙæð´ ×ð´ ÕéÁé»ü …ßðÜÚUè ÁðßÚUæð ·¤è ÂÚU¹ ·¤ÚUÌð ÙÁÚU ¥æ°¢»ðÐ Üðç·¤Ù ÕæÕéÜæÜ …ßðÜâü ×ð´ Øð Â梿 ÕãUÙð ãUè âæðÙð-¿æ¢Îè ·¤è ¥âÜè ÂÚU¹ ·¤ÚUÌè ãñUÐ Â梿æð´ ÕãUÙð ©U‘‘æ çàæçÿæÌ ãñ´UÐ âÕâð ÕǸUè ÕãUÙ …ØæðçÌ Ùð ß·¤æÜÌ ·¤è ÂɸUæ§ü ÂêÚUè ·¤ÚUÙð ·ð¤ ÕæΠֻܻ vz âæÜ Ì·¤ ¥ÎæÜÌ ×ð´ ÎêâÚUæð´ ·ð¤ çÜ° ‹ØæØ ·¤è ÜǸUæ§ü ÜǸUè ãñUÐ ÎêâÚUè ÕãUÙ çãUÙæ SÙæÌ·¤æðžæÚU ãñU, Ìæð ÌèâÚUè ÕãUÙ ÀUæØæ Ùð Öè SÙæÌ·¤æðžæÚU ·ð¤ ÕæÎ ß·¤æÜÌ ·¤è ÂɸUæ§ü ·¤è ãñUÐ ¿æñÍè ÕãUÙ ç×Ìæ Ìæð ÂɸUæ§ü çܹæ§ü ·ð¤ ×æ×Üð ×ð´ ÌèÙæð´ ÕǸUè ÕãUÙæ¢ð âð Öè …ØæÎæ ¥æ»ð ãñUÐ ç×Ìæ Ùð çß™ææÙ ×ð´ SÙæÌ·¤ çÇU»ýè ÜðÙð ·ð¤ ÕæÎ Ù ·ð¤ßÜ ß·¤æÜÌ ·¤è ÂɸUæ§ü ÂêÚUè ·¤è ÕçË·¤ ÁÙâ¢Â·ü¤ ×ð´ Öè çÇUŒÜæð×æ Âýæ# ç·¤Øæ ãñUÐ Â梿ßè ÕãUÙ âè×æ Ùð Öè ßæç‡æ…Ø ·¤Üæ ×ð´ SÙæÌ·¤æðžæÚU ç·¤Øæ ãñUÐ
ÕðÅUè ãUæðÙð ·¤æ »ßü Ñ ÕÇU¸Uè ÕãUÙ …ØæðçÌ ·¤æ ·¤ãUÙæ ãñU ç·¤ ãU× Â梿æð´ ÕãUÙæð´ ·¤æð ÕðÅUè ãUæðÙð ·¤æ »ßü ãñUÐ ×æÌæ-çÂÌæ Ùð æè ·¤Öè ØãU ¥ãUâæâ ÙãUè´ ãUæðÙð çÎØæ ç·¤ ãU× ÕðÅðU ÙãUè´ ãñUÐ ÕðÅðU âð æè ÕɸU ·¤ÚU ÜæǸU-ŒØæÚU çÎØæÐ ÂɸUæ§ü çܹæ§ü ×¢¢ð Öè ç·¤âè ÌÚUãU ·¤è ·¤×è ÙãUè´ ·¤èÐ çÁâÙð çÁÌÙæ ¥æñÚU Áæð çßáØ ÂɸUÙæ ¿æãUæ, §â·¤è ÂêÚUè ÀêUÅU ÎèÐ ÌÖè Ìæð âæè ÕãUÙð ©U‘‘æ çàæçÿæÌ ãñUÐ Üðç·¤Ù L¤ç¿ çÂÌæ ·ð¤ ÃØßâæØ ·¤æð ãUè ¥æ»ð ÕɸUæÙð ×ð´ ÍèÐ çÜãUæÁæ, ©UÙ·¤æ ãUè ·¤æ× â¢ÖæÜ çÜØæÐ
…ÁÕæÌè ¥æñÚU ¥æçÍüÌ âéÚUÿææ ·¤è âè¹ Ñ Ü»Ö» wz âæÜæð´ âð …ßðÜÚUè ·¤æ ·¤æÚUæðÕæÚU â¢ÖæÜ ÚUãUè Â梿æð´ ÕãUÙð Õðßæ·¤è âð ·¤ãUÌè ãñU¢ ç·¤ ©UÙ·ð¤ ×æÌæ-çÂÌæ Ùð Õ‘æÂÙ ×ð´ ãUè …ÁÕæÌè ¥æñÚU ¥æçÍü·¤ âéÚUÿææ ·¤è âè¹ ÎèÐ ©U‹ãUæð´Ùð ÕÌæØæ ç·¤ ØçÎ §Ù ÎæðÙæð´ ¿èÁæð´ âð âéÚUÿææ ãUæð Ìæð çÁ¢Î»è ×ð´ ãUÚU ÌÚUãU ·¤è ·¤çÆUÙæ§ü ·¤æð ÂæÚU ç·¤Øæ Áæ â·¤Ìæ ãñUÐ ãU×ð´ §â ÕæÌ ·¤è ¹éàæè ãñU ç·¤ ×æÌæ-çÂÌæ Ùð §âè ÌÚUãU âð ÂæÜæ ¥æñÚU ÕǸUæ ç·¤ØæÐ
ÁÕ àæéM¤ ç·¤Øæ ·¤æÚUæðÕæÚU Ñ §ÌßæÚUè ÕæÁæÚU ×ð´ ÁÕ §Ù ÕãUÙæð´ Ùð çÂÌæ ·¤æ ØãU ·¤æÚUæðÕæÚU â¢ÖæÜæ Ìæð ÕæÁæÚU ·ð¤ Üæð»æð´ ·¤æð ¥æà¿Øü Ìæð ãéU¥æ Üðç·¤Ù ©U‹ãæð´Ùð ÂýæðˆâæãUÙ çÎØæÐ çãUÙæ ·¤ãUÌè ãñU¢ ç·¤ Îé·¤æÙ âð ÂãUÜè ÕæÚU »éÁÚUÙð ßæÜð »ýæãU·¤æð´ ·¤æð ãU×ð´ Îð¹·¤ÚU ¥æà¿Øü ãéU¥æÐ Üðç·¤Ù ©U‹ã¢ðU ¹éàæè ãéU§üÐ ×çãUÜæ »ýæãU·¤æð´ ·¤æð Ìæð ¥æñÚU Öè …ØæÎæ ¹éàæè ãéU§üÐ ×çãUÜæ »ýæãU·¤æð´ ·ð¤ ×æñç¹·¤ Âý¿æÚU âð ãU×æÚUæ ·¤æÚUæðÕæÚU ÕɸUÌæ »Øæ ãñUÐ ×çãUÜæ »ýæãU·¤æ𢠷¤æ ·¤ãUÙæ ãñU ç·¤ ßð ÂéL¤á ⢿æÜ·¤ Îé·¤æÙæð´ ·¤è ¥Âðÿææ ©UÙ·¤è Îé·¤æÙ ×ð´ …ØæÎæ ¥‘ÀUæ ×ãUâêâ ·¤ÚUÌè ãñU¢Ð …ßðÜÚUè ·ð¤ ×ÙÂâ¢Î çÇUÁæØÙ ¥æçÎ ·ð¤ ÕæÚðU ×ð´ ¹éÜ ·¤ÚU ÕæÌð´ ·¤ÚUÌè ãñ´UÐ
çÇUÁæØçÙ¢¢» ·¤æ ÙãUè´ çÜØæ Âýçàæÿæ‡æ Ñ ç·¤âè Ùð æè ç·¤âè â¢SÍæÙ âð …ßðÜÚUè çÇUÁæØçÙ¢» ·¤æ Âýçàæÿæ‡æ ÜðÙð ·ð¤ ÕæÚðU ×ð´ ÙãUè´ âæð¿æÐ §Ù·¤æ ·¤ãUÙæ ãñU ç·¤ Áæð ·é¤ÀU Öè âè¹æ ãñU ßãU âÕ ·é¤ÀU çÂÌæÁè Ÿæè çßÙæðÎ ÚUæ§ü ÕæÕéÜæÜæ ·é¤ÚUæÙè âð ÏèÚðU-ÏèÚðU âè¹æ ãñUÐ Îé·¤æÙ ×ð´ ¥ÂÙð çÇUÁæØÙ ·ð¤ ÁðßÚUæÌæ𴠷𤠥Üæßæ ÕæãUÚU ·ð¤ çÇUÁæØÙ ·ð¤ ÁðßÚUæÌ Öè ãñ´UÐ ÂêÚUæ ÃØßâæØ ©UÙ·ð¤ ãUè ×æ»üÎàæüÙ ×ð´ ¿Üæ ÚUãUè ãñ´UÐ
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पाच बहनों का parcham

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हमें बनाया देवो का ताज

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साडी वाव्स्था आग लगने की बाद की हैं.

सारी व्यवस्था आग लगने के बाद की है
नागपुर को जिस तरह से एक मॉडल सिटी बनाने की बात की जा रही है, उसमें आपतकालिन स्थिति में जीवन रक्षक व्यवस्था संतोषजनक नहीं है। नवनिर्मित भवनों में भी इसकी व्यवस्था नहीं की जा रही है। विभिन्न आवासीय व व्यावसायिक भवनों में जो भी कुछ व्यवस्था है, वह आग लगने के बाद उसके बुझाने के लिए है। लेकिन आग फैलने से कैसे रोके इसकी व्यवस्था मुश्किल से ही मिलेंगे। लोग पैसिव लाइफ सेफ्टी मैनर को नहीं जानते हैं। स्मोक मैनेजमेंट की व्यवस्था नहीं होती है। हालांकि ये आग से बचाव के तकनीकी भाषा है। लेकिन इसके प्रति लोगों में जागरूकता बेहद जरूरी है। भवनों में अग्निशमन के उपकरण तो होते हैं, लेकिन आग जाए और उससे निकला हुआ धुंआ कहीं और न फैले इसकी व्यवस्था कहां की जा रही है? भवन डिजायन कने वाले आर्किटेक और इंटिरियर डिजायनरों को स्वयं इस बात की पहल करनी चाहिए। अनेक लोग अपनी गाढ़ी कमाई से बहुमंजिले इमारतों पर फ्लैट्स लेते हैं। लेकिन आपतकालीन समय में उनका जीवन कितना सुरक्षित है? इस पर न ही वे विचार करते हैं और न ही भवन निर्माता? हमारे संस्थान में विभिन्न राज्यों के अनेक विभागों के अधिकारी प्रशिक्षण के लिए आते हैं, वे बताते हैं कि आम लोगों में इसके प्रति जागरूकता नहीं है। यदि स्थानीय प्रशासन नियम को सख्त करें तो आपतकालीन स्थिति में लोगों का जीवन सुरक्षित हो सकता है।
डा. शमीम,
प्रमुख,फैकल्टी ऑफ फायर इंजीनियरिंग एक टेक्नोलॉजी
राष्टï्रीय अग्निशमन महाविद्याल, नागपुर
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आग अगनी मिले न पुरोहितं. खाक होने के लिए कोफी है जरी सी लापरवाही

खाक होने के लिए काफी है जरा-सी लापरवाही
संजय कुमार
नागपुर. नगर में बढ़ती आबादी, विकास की तेज रफ्तार में आग के प्रति छोटी-सी लापरवाही बेहद खतरनाक है। हर साल आगजनी की छोटी-बड़ी सैकड़ों घटनाएं होती हैं, जिसमें करोड़ों रुपये की संपत्ति का नुकसान होता है। महानगर पालिका के अग्निशमन विभाग के प्रमुख अग्निशमन अधिकारी चंद्रशेखर जाधव की माने तो बीते वित्तीय वर्ष 200-08 में आगजनी की कुल 23 घटनाएं दर्ज की गईं, जिसमें 3,53,85,8160 रुपये का नुकसान हुआ। गत एक माह में गर्मी के चढ़ते पारे के साथ दर्जन भर से अधिक आगजनी की घटनाएं हुई हैं। नागपुर में कई इमारत व सावर्जनिक जगहों पर अग्निशमन के लिए जरूरी साधनों का अभाव है। हालांकि नेशनल बिल्डिंग कोड एनबीसी के मुताबिक पंद्रह मिटर के ऊपर की ऊंचाई वाले भवनों में अग्निशमन के संसाधनों को लगाकर विभाग से एनओसी लेना जरूरी होता है। इसके साथ ही हर तरह के व्यावसायिक गतिविधियों वाले भवन चाहे कितनी भी ऊंचाई के क्यों न हों, उसमें नियमानुसार आग पर नियंत्रण पाने वाले जरूरी उपकरण रखना आवश्यक है। अग्निशमन विभाग के सूत्रों की मानें तो विभाग ने पिछले दिनों करीब 200 भवनों में अग्निशमन सुविधाओं की लापरवाही को लेकर उन्हें नोटिस जारी किया है। इसमें नगर के कई नामी-गिरामी बिल्डर भी हैं। इतना ही नहीं नगर की कई बहुमंजिले इमारतों में आपातकाल के लिए अलग से कोई सुरक्षित दरवाजा नहीं है। इतवारी जैसे क्षेत्र में अनेक पुराने बाजारों की गलियां इतनी संकरी हैं कि आग लगने की स्थिति में आग पर काबू पाना मुश्किल है। श्री जाधव का कहना है कि जब कभी इतवारी क्षेत्र की किसी गली में आग लगती है तो संकरी गलियों में दमकल की गाडिय़ां भी नहीं घुस पाती हैं। इस कारण आग लगने की स्थिति में करीब एक हजार मीटर की पाइप-लाइन बिछाना पड़ता है। पुराने भवन और इमारतों में लगे आग बुझाने के गैस-सिलेंडर पुराने हैं। व्यावसायिक भवनों में जहां ये सिलेंडर लगे हैं, उसके आसपास खड़े गार्ड या कर्मचारी को इसे चलाना आता ही हो, यह जरूरी नहीं। हालांकि हर साल इन सिलेंडरों की रिफीलिंग करनी पड़ती है। लेकिन लोग इसके रिफिलिंग को लेकर सतर्क नहीं हैं। मुख्य अग्निशमन अधिकारी का कहना है कि उनकी टीम समय-समय पर विभिन्न क्षेत्रों में औचक निरीक्षण कर यह देखती है कि जरूरत के जगह पर कहां आग-निरोधी उपकरण रखे हैं। नियमों का उल्लंघन करने पर उन्हें नोटिस दी जाती है। अधिकतर आवासीय भवन 15 मिटर से कम ऊंचाई के हैं। लेकिन एनबीसी के नियमानुसार इनमें अग्निशमन उपकरणों को लगाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। 15 मिटर से अधिक उंचाई से ऊपर के भवनों में विभाग से एनओसी लेना अनिवार्य है। भवन निर्माताओं को चाहिए वे 15 मिटर से कम ऊंचाई वाले भवनों में भी अग्निरोधी उपकरणों की व्यवस्था करें। आपातकालीन सिढिय़ां रखे। अधिकर लोग फ्लैट आदि खरीदने के दौरान हर तरह की कागजी कार्रवाई दुरुस्त करते हैं, हर तरह की सुविधा देखते हैं। लेकिन आग से बचाव के लिए वहां किस तरह की सुविधा है, यह देखते ही नहीं। यह कितना जरूरी होता है, यह लोगों को तब समझ आती है, जब कोई घटना घट जाती है।
अग्निशमन उपकरणों का व्यवसाय करोड़ों का
भले ही नागपुर के कई व्यावसायिक भवनों में अग्निशमन उपकरणों के प्रति लापरवाही देखी जा सकती है। यहां ऐसे दर्जनों व्यावसायिक भवन हैं, जहां अग्निशमन के लिए करोड़ों रुपये के उपकरण लगे हैं। ये उपकरण अंतरराष्टï्रीय स्तर के हैं। आग लगने परे यह अपने आप अलार्म बजता है और केंद्रीय नियंत्रण कक्ष में यह भी सूचना देता है कि आग कहां लगी है और किस ओर फैल रही है। ऐसे भी उपकरण लगे हैं, जो आग के हिट से उसपर लगा कांच अपने आप टूूट जाता है और आग पर पानी गिरने लगता है। अग्निशमन उपकरणों के व्यावसाय में करीब बीस साल से जुड़े मनोज जाधव का कहना है कि दो दशक पहले तक स्थिति यह थी कि लोगों को बहुत ज्यादा समझा-बुझाकर उनके यहां अग्निरोधी यंत्र लगाये जाते थे। तब साल में दो-तीन ही ऐसे काम मिलते थे। आज स्थिति बदल चुकी है। हर साल करीब 25-30 भवनों में इसका काम मिलता है। नागपुर में ऐसे करीब दर्जन भर भवन हैं जिनमें हर एक में करीब एक से दो करोड़ रुपये खर्च करके इसकी व्यवस्था की गई है। हर शॉपिंग मॉल्स में इसकी व्यवस्था की जा रही है। क्योंकि कोई भी व्यावसायिक कंपनी आपातकालीन समय का जोखिम नहीं लेना चाहती हैं।
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रेलवे स्टेशन पर व्यवस्था खस्ता
यदि नागपुर रेलवे स्टेशन पर आग लगे तो स्थिति खतरना हो सकती है। अंदर के प्लेटफार्म से बाहर निकलने के दो ही पूल हैं। भीड़-भाड़ के दौरान यदि आग लगती है, तो वहां लोगों की अफरातरफरी मचना स्वाभाविक है। हालांकि रेल प्रशासन यह जरूर कहती है कि यहां अग्निशमन के सभी जरूरी उपकरण है। लेकिन हकीकत यह है कि यदि प्लेटफार्म पर एक छोर से दूसरे छोर तक घुम कर देखे आग बुझाने के लिए जरूरी चीजें नहीं मिलेंगी।
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खाली हैं अग्निशमन विभाग में 98 पद
महानगर प्रतिनिधि
नागपुर. नगर में कुल 8 फायर स्टेशन हैं। लेकिन नगर की बढ़ती आबादी और इसके विस्तार को देखते हुए इसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है। विभाग का कहना है कि अभी तीन और नये फायर स्टेशन खोलने की जरूरत है। तीन निर्माणाधिन है जिसमें जरीपटका, त्रिमूर्ति नगर और नरेन्द्र नगर के फायरस्टेशन हैं। अंतराष्टï्रीय सिटी की ओर कदम बढ़ाते नागपुर में आग की घटनाओं पर काबू पाने के लिए 8 फायर स्टेशनों में चीफ फायर ऑफीसर से लेकर क्लीनर तक कुल 411 पद हैं, जिनमें से 98 पद रिक्त हैं। मुस्तैद कर्मी मात्र 313 ही है। रिक्त पदों में सीनियर लिडिंग फायरमैन और लिडिंग फायरमैन के पद ज्यादा है। आग नियंत्रण करने में इस पद के कर्मचारियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। कई लोगों की शिकायत है कि आग लगने की स्थिति में विभाग का दूरभाष व्यस्त रहता है। इस संबंध में विभाग का कहना है हर रोज सैकड़ों फोन कॉल्स आते हैं, जिसमें से दो -तीन सही होती हैं। विभाग में टेलीफोन ऑपरेटर के कुल दस पद हैं जिसमें से पांच अभी भी रिक्त हैं।
बॉक्स में
गत वर्षों में नागपुर में लगी छोटी, मध्यम और बड़े स्तर की आग की घटनाओं को विवरण
वर्ष छोटी मध्यम बड़ी कुल नष्टï संपत्ति
१९९९ २५० २४७ ०७१ २,४८,२२,६९०
२००० ३४५ २३९ ०४९ २,७८,०७,८५०
२००१ ३२४ १५१ ०५८ २,४३,०२,४००
२००२ ५६१ १५१ ०७३ ४,०२,२१,८७०
२००३ ४९३ ०६९ ०७७ ५,६७,४८,०२५
२००४ ४३७ ०५९ ०६४ ३,३२,९३,७००
२००५ ४५८ १०३ ०६६ ४,८०,३३,७८७
२००६ ४४७ ०७० ०५९ ४,२५,१५,१५५
२००७ ४९० १४९ ०९८ २,१०,३१,१२०
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सारी व्यवस्था आग लगने के बाद की है
नागपुर को जिस तरह से एक मॉडल सिटी बनाने की बात की जा रही है, उसमें आपातकाल की स्थिति में जीवनरक्षक व्यवस्था संतोषजनक नहीं है। नवनिर्मित भवनों में भी इसकी व्यवस्था नहीं की जा रही है। विभिन्न आवासीय व व्यावसायिक भवनों में जो भी कुछ व्यवस्था है, वह आग लगने के बाद उसे बुझाने के लिए है। लेकिन आग फैलने से कैसे रोके इसकी व्यवस्था मुश्किल से ही मिलेंगे। लोग पैसिव लाइफ सेफ्टी मैनर को नहीं जानते हैं। स्मोक मैनेजमेंट की व्यवस्था नहीं होती है। हालांकि ये आग से बचाव के तकनीकी भाषा है। लेकिन इसके प्रति लोगों में जागरूकता बेहद जरूरी है। भवनों में अग्निशमन के उपकरण तो होते हैं, लेकिन आग बुझ जाए और उससे निकला हुआ धुंआ कहीं और न फैले इसकी व्यवस्था कहां की जा रही है? भवन डिजायन करने वाले आर्किटेक और इंटीरियर डिजाइनरों को स्वयं इस बात की पहल करनी चाहिए। अनेक लोग अपनी गाढ़ी कमाई से बहुमंजिले इमारतों पर फ्लैट्स लेते हैं। लेकिन आपातकालीन समय में उनका जीवन कितना सुरक्षित है? इस पर न ही वे विचार करते हैं और न ही भवन निर्माता? हमारे संस्थान में विभिन्न राज्यों के अनेक विभागों के अधिकारी प्रशिक्षण के लिए आते हैं। वे बताते हैं कि आम लोगों में इसके प्रति जागरूकता नहीं है। यदि स्थानीय प्रशासन नियम को सख्त करें तो आपातकालीन स्थिति में लोगों का जीवन सुरक्षित हो सकता है।
डा. शमीम,
प्रमुख,फैकल्टी ऑफ फायर इंजीनियरिंग एक टेक्नोलॉजी
राष्टï्रीय अग्निशमन महाविद्यालय, नागपुर
०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
वर्ष छोटी मध्यम बड़ी कुल नष्टï संपत्ति
१९९९ २५० २४७ ०७१ २,४८,२२,६९०
२००० ३४५ २३९ ०४९ २,७८,०७,८५०
२००१ ३२४ १५१ ०५८ २,४३,०२,४००
२००२ ५६१ १५१ ०७३ ४,०२,२१,८७०
२००३ ४९३ ०६९ ०७७ ५,६७,४८,०२५
२००४ ४३७ ०५९ ०६४ ३,३२,९३,७००
२००५ ४५८ १०३ ०६६ ४,८०,३३,७८७
२००६ ४४७ ०७० ०५९ ४,२५,१५,१५५
२००७ ४९० १४९ ०९८ २,१०,३१,१२०
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दावानल का नहीं कोई हल
पास नहीं पैसे, आग बुझाएं कैसे
जंगल की आग बुझाने में संसाधनों की कमी आ रही आड़े
प्रति वर्ष आग की भेंट चढ़ जाते हैं हजारों हेक्टेयर आरक्षित वन
राजेश यादव
नागपुर : वन विभाग विदर्भ के जंगलों में लगी आग को बुझाने के लिए अभी भी बाबा आदम के जमाने की परंपरागत तकनीक के सहारे है। अर्थात आग को झाडिय़ों से पीट-पीटकर बुझाया जाता है। विभाग गर्मियों में इस कार्य के लिए मजदूरों की विशेष भर्ती करता है। लेकिन ज्यादातर मौकों पर इनका समय पर उपयोग ही नहीं हो पाता। कारण, इन मजदूरों को आग लगने के स्थान तक ले जाने के लिए अलग कोई वाहन नहीं हैं। अन्य कार्यों में लगे विभागीय वाहनों को जब तक बुलाया जाता है, तब तक सैकड़ों हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ चुका होता है। वन विभाग के सूत्र बताते हैं कि जंगलों में लगी आग पर नियंत्रण के लिए जो बजट आवंटित किया जाता है, वह इतना कम होता है कि किसी तरह से आग बुझाने के कार्य में लगे लोगों को मजदूरी भर मिल पाती है। उपकरणों की तो बात ही छोड़ दीजिए। संसाधनों की कमी का आलम यह है कि पूरे राज्य में वन विभाग के पास अपना कोई फायर टेंडर नहीं है। आग बुझाने के आधुनिक उपकरणों को तो छोड़ ही दें, इस कार्य में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त अधिकारियों का भी टोटा है। वाहनों की कमी के अलावा संचार साधनों की कमी से भी विभाग जूझ रहा है। संचार सुविधाएं न होने से आरक्षित जंगलों में लगी आग की सूचना वरिष्ठï अधिकारियों को समय पर नहीं मिल पाती। फलस्वरूप आग बुझाने वाले विशेष दल को रवाना करने में काफी समय लग जाता है। राज्य में कुल 11 वन सर्किल हैं, पर केवल चार सर्किल को वायरलेस सुविधाओं से जोड़ा गया है। उस पर से भी काफी पुरानी तकनीक का होने के कारण ज्यादाकर सेट खराब पड़े हुए हैं। ऐसे में समय पर आग की सूचना अपने बड़े अधिकारियों तक पहुंचाना, दूर दराज के सघन वनों में तैनात वनकर्मियों के लिये टेढ़ी खीर है। पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश ने वनकर्मियों को मोबाइल फोन से लैस कर दिया है। जिसमें विभागीय नंबरो पर मुफ्त में काल की जा सकती है। यह योजना वहां काफी सफल रही और वहां आग पर काबू पाने में इससे काफी मदद मिल रही है। पर महाराष्टï्र में यह प्रस्ताव अभी-भी वनमंत्री के पास विचाराधीन पड़ हुआ है।
कितना जला जंगल
वन विभाग के अधिकृत आंकडों को ही ले तो प्रतिवर्ष हजारों हेक्टेयर आरक्षित वन आग की भेंट चढ़ जाते हैं। वर्ष 2006-00 में राज्य में वनों में आग लगने की 24 घटनाएं दर्ज की गई। इसमें 32 हेक्टेयर वनभूमि पर खड़े सघन जंगल को भारी क्षति पहुंची। जनवरी,200 से सितम्बर 200 तक राज्य में वनों में आग लगने की 126 घटनाएं दर्ज की गई, जिसमें 26112 हेक्टेयर वनभूमि जलकर खाक हो गई।
क्यों और कब लगती है आग
सूत्रों की मानें तो जंगल में लगने वाली 90 प्रतिशत आग मानव जनित होती है। खासकर फरवरी से लेकर अप्रैल तक के महीनों में सर्वाधिक आग लगने की घटनाएं दर्ज की जाती हैं। सूत्रों के अनुसार उत्तम दर्जे का तेंदू पत्ता इक_ïा करने के लिए लोग जानबूझकर आग लगा देते हैं। तेंदू की झुलसी हुई झाडियों से जो नई कपोले आती हैं उनकी बाजार में भारी मांग को देखते हुए ऐसा किया जाता है। कई बार महुआ बीनने के लिए भी आग लगा दी जाती है। आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर आग लगने की घटनाएं 11 बजे से 3 बजे तक दिन में ही होती है।
बॉक्स
कभी हेलीकाप्टर से बुझाई जाती थी आग
मात्र दो दशक पहले विदर्भ के लोगों को इस बात का गर्व था कि वनों में लगने वाली आग बुझाने के लिए उनके पास विशेष किस्म का हेलीकाप्टर है। दरअसल संयुक्त राष्टï्र विकासनिधि से भारत में वन संपदा के संरक्षण एवं जंगलों में लगने वाली आग पर नियंत्रण के लिए आग बुझाने के विशेष उपकरणों से लैस दो हेलीकाप्टर देश को मिले थे। इनमें से एक हेलीकाप्टर हलद्वानी में तैनात किया गया दूसरा राज्य के वनबहुल चन्द्रपुर जिले में संयुक्त राष्टï्र की विशेष सहायता जब तक मिलती रही तब तक तो ठीक चलता रहा, पर जैसे ही यह सहायता राशि बंद हुई, हेलीकाप्टर को ईंधन के ही लाले पड़ गए। जब राज्य सरकार ने भी हाथ खींच लिया तो केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने इस विशेष हेलीकाप्टर को वापस बुला लिया। हेलीकाप्टर तो गया ही जंगल में आग बुझाने के काम आने वाले संयुक्त राष्टï्र संघ द्वारा दिए गए आधुनिक उपकरण भी धीरे-धीरे बेकार हो गए। अब आलम यह है कि राज्य के वन विभाग के पास आग बुझाने के काम आने वाला एक फायर टेंडर तक नहीं है।

रविवार, दिसंबर 14, 2008

कौन सुनेगा हमरी

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पत्नी पीडितो की व् सुनिए.

संजय कुमार
नागपुर. अभी तक ज्यादातर महिलाओं पर अत्याचार के मामले सामने आते रहे हैं। इसे रोकने के लिए सशक्त कानून भी बनाएं गए हैं। समय बदल रहा है। महीला सशक्तिकरण के जमाने में अब पति पत्नी से पीडि़त हैं। चाहे वे पत्नी के लगाए गए दहेज प्रताडऩा और घरेलू हिंसा के झूठे आरोप हो या फिर घर में आपसी कलह। यदि ऐसा नहीं होता है तो पत्नी पीडि़त बीते 19 नंवबर को पुरुष दिवस के रूप में मनाने की जरूरत नहीं पड़ती है। आप माने या न माने? राष्टï्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि आत्महत्या के मामलेे में विवाहित पुरुषों की संख्या महिलाओं की तुलना में ज्यादा है। 2005-2006 के आंकड़ों के मुताबिक विवाहित पुरुषों में आत्महत्या के दर्ज कुल 10935 और महिलाओं की 5805 थी। प्रतिशत की दृष्टिï से पुरुषों की संख्या 64 है और महिलाओं की संख्या 36 प्रतिशत है। मतलब हर 8 मिनट में एक विवाहित पुरुष आत्महत्या कर रहा है। विवाहित महिलाओं का आत्महत्या का दर प्रति 13 मिनट में एक है। जानकारों का मनना है आत्महत्या करने वाले अधिकतर मामले परिवारिक कलह का ही कारण बनी। आंकड़े साल-दर साल बढ़ रहे हैं।
पत्नी से प्रताडि़त होने के मामले विदर्भ क्षेत्र के पुरुष भी पीछे नहीं है। तीन साल पूर्व नागपुर में पत्नी पीडि़तों एक संगठन बना। आज करीब 600 पत्नी पीडि़त के सदस्य है। इसमें सबसे ज्यादा संख्या नागपुर के लोगों की है। संगठन के जुड़े लोगों का कहना है कि पुरुष आत्महत्या के मामले प्रकाश में तो आते हैं पर पीछे की स"ााई से बहुत कम ही लोग रू-ब-रू हो पाते हैं। कई बार इन कानूनों का दुरूपयोग कर पत्नी पति को प्राडि़त करती है। ऐसे ही पीडि़त पुरुषों का कहना है कि उनके परिवार की जुड़ी महिलाएं भी दुखी हैं। पत्नी को प्रताडि़त करने वाली महिलाएं जब कानून का संरक्षण लेती हैं तो वे घर के अन्य महिला सदस्यों पर भी प्रताडऩा का अरोप लगाता हैं। पीडि़त पति हर रविवार को रामदासपेठ स्थित लैंडा पार्क में सुबह 9 बजे बैठक करते हैं। एक दूसरे की समस्या सुनते हैं और सहयोग करते हैं। जब नया पीडि़त आता है तो उनकी काउंसलिंग होती है जिससे कि वह आत्महत्या न कर सके। पीडि़तो का आरोप है कई महिलाएं कानूनी अधिकारों का दुरुपयोग कर परिवार को बदनाम करती है। दहेज विरोधी काननू का हवाला देकर घर-परिवार में बर्चस्त जमाने की कोशिश करती हैं। खेद की बात है कि जैसे ही पत्नी आरोप लगाती है और बात थाने तक पहुंचती है और मामला दर्ज होता है तो पति महोदाय जेल चले जाते हैं। घोर अवसाद का शिकार हो जाते है। पत्नी के हरकतों से बेटे भाई की जिंदगी में पडऩे वाली खलल से कई मां-बहनों का दिल टूटा है। युवा पति कोर्ट-कचरही के चक्कर काटते-काटते अधेड़ हो रहे हैं। पीडि़त संगठन के एक सदस्य ने बताया कि इस चक्कर में पड़े अधिकतर लोग आत्महत्या अंतिम विकल्प मान लेते हैं। क्योंकि जैसे ही पत्नी के अरोप पुलिस दर्ज करती है। नौकरी चाहे सरकारी हो या निजी चली जाती है। श्रम और रोजगार मंत्रालय के वर्ष 2001-05 के जारी आंकड़ों के मुताबिक निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों से करीब 14 लाख लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोनी पड़ी। कई सर्वे व जांच में यह बात सामने आ चुकी है कि आईपीसी की धारा 498 को बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है। इसके तहत कई पतियों पर दहेज के लिए पत्नी को प्रताडि़त करने के झूठे अरोप लगे हैं। दो साल पूर्व लागू घरेलू हिंसा उन्नमूलन कानून 2005 से तो महिलाओं को और ताकत दे दी है। उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2006 में एक सिविल याचिका 583 में यह टिप्पणी की थी कि इस कानून को तैयार करते समय कई खामियां रह गई है। उन खामियों को फायदा उठा कर कई पत्नी पति को धमका रहे हैं।
पत्नी पीडि़त इंद्रौरा निवासी महेश जांबुडकर (परिवर्तित नाम) संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण कर टेक्सटाइल इंजीनियर बनें। 2001 में डिप्लोमा किए हुए इंजीनियर लड़की से विवाह हुआ। विवाह के बाद सब कुछ सामान्य रहा। श्री जांबुडकर कहते हैं कि कुछ महीने तो सब कुछ सामान्य रहा, एक बेटी भी हुई। पारिवारिक मामले में धीरे-धीरे ससुरालवालों का हस्तेक्षप बढ़ता गया। घर जवाई बनने का दवाब बनाया। पत्नी में अहंम आ गया। वह हमारे परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ बिलकुल नहीं रहना चाहती थी। विवाद इतना बढ़ा कि एक बार मेरे ही खाने में जहर मिलाकर मायके चली गई। जिंदा बच गया तो दहेज प्रताडऩा का मुकदमा दर्ज करा दिया। वकील ने तर्क दिया मैंने इतना प्रताडि़त किया कि मजबूरन खाने में जहर मिलाना पड़ा। साथ में घर के दूसरे सदस्यों का नाम प्रताडि़त करने वालों में जोड़ दिया। मुकदमा आज भी चल रहा है। बच्ची से मिलने के लिए आज भी तड़प रहा हूं। मानसिक तनाव इतना बढ़ गया कि करीब एक साल से मेंटल स्ट्रेस की मेडीकल देकर छुट्टी पर हूं और कोर्ट का चक्कर काट रहा हूं।
कुछ ऐसी ही कहानी गोपाल भगवतकर (परिवर्तित नाम) का है। चंद्रपुर में जल संपदा विभाग में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत हैं। 21 दिसंबर, 2000 को समाज सेवा में स्नातकोत्तर लड़की से विवाह हुआ। श्री भगवतकर कहते हैं कि सास-ससुर का हमारे घर में अनावश्यक हस्तक्षेप होने से वैवाहिक जीवन सुखमय नहीं हो पाया। माता-पिता की ताकत पाकर पत्नी स्वच्छंद जिंदगी जिना चाही। परिवार टूटने बचाने के लिए हरसंभव कोशिश नकाम रही। पत्नी की मांग यही रही कि वह घर के दूसरे सदस्यों के साथ नहीं रहेगी। आखिर दजेह प्रताडऩा का झूठा अरोप लगाई। आरोपियों में उन रिश्तेदारों के भी नाम डाला जो दूसरे शहर में सकून की जिंदगी जी रहे थे। मेरी जिंदगी के साथ पूरे परिवार के दूसरे सदस्यों की जिंदगी में खलल पड़ चुकी है।
पत्नी पडि़तयों के संगठन और सेव इंडिया फैमिली नागपुर ईकाई के प्रमुख कार्यकर्ता राजेश बखारिया कहते हैं कि यदि पत्नी किसी भी कारण से आत्महत्या करती है तो पुलिस तुरंत केस दर्ज कर आरोपियों को हवालात में ले लेती है। घर घरेलू कलह से तंग आकर पति आत्महत्या करता है तो पत्नी से पूछताछ नहीं होती है। कुछ दिन पूर्व की नंदनवन में एक व्यक्ति से खिलाफ पत्नी ने घरेलू हिंसा मामले केस दर्ज कराया। वह व्यक्ति जेल गया। तुरंत जमानत नहीं होने मिलने से दो सप्ताह बाद जेल से बाहर आया। बाहर आते ही उसने आत्महत्या कर ली। उसके घर वालों के खिलाफ कोई केस दर्ज नहीं हुई। श्री बखरिया का कहना है कि पत्नी के प्रताडि़त करने के अधिकतर मामले साल 2000 से तेजी से बढ़े है। इसका प्रमुख जिम्मेदार टीवी पर प्रसारित होने वाले कुछ धारावाहिक हैं। जिनकी अनाप-शनाप कहानी में नकारात्मक छबि वाली महिला पात्रों ने समाज में गलत असर छोड़ा है। श्री बखारिया का कहना है कि पहले विवाह के समय बेटी बिदा करने के बाद लोग कहते थे कि डोली में बिदा गई है अब तो ससुराल से अर्थी ही वापस आएगी। लेकिन आज उल्टा है। लड़की वाले यह समझाकर भेजते हैं कि घर में कोई काम न करें? कोई बोले तो हमसे बताएं। कुल मिलाकार लड़कों वालों में वधु पक्ष के परिवार के अनावश्यक हस्तक्षेप बढ़ा है। जिनसे महिलाओं में अहंम छा जाता है। घरेलू हिंसा देखनी हैं तो स्लम बस्तियों में जाइए। जहां रोज शराब के नशे में पति पत्नी की पिटाई करते हैं। वहां के मामले दर्ज नहीं होते है। अधिकतर मामले मध्यम वर्ग, अपर मध्यम वर्ग और थोड़ा निम्न वर्ग के हैं। हमारा संगठन किसी महिला संरक्षण कानून का विरोध नहीं करता है। पर इसके होने वाले दुरुपयोग को रोकने के लिए पुुरुष आयोग के गठन की मांग करता है। लेकिन सुनने वाले कोई नहीं है।

केरोसिन का काला /गरीबों के हक पर डाका

संजय स्वदेश
कालाबाजरी को दो रूपों में देखा जा सकता है। पहला अगर वस्तु का अचानक बाजार में अभाव बन जाता है और दूसरा वस्तु की उपयोगिता कुछ इस तरह से हो कि उसके जरिये अधिक मुनाफा कमाया जा सके। इसी तरह का एक उत्पाद है- केरोसिन या मिट्टी का तेल जिसका उपयोग स्टोव में खाना बनाते और रोशनी के लिए किया जाता है। रसोईगैस के इस्तेमाल के चलते बेशक इसके प्रयोग में थोड़ी कमी आई है, लेकिन आज भी इसकी उपयोगिता दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में बनी हुई है। वहां इसका उपयोग बहुसंख्यक लोग रोशनी के लिए करते हैं। सरकार इसे गरीबों को राशन कार्ड के जरिये सस्ते दरों पर उपलब्ध कराती आ रही है। लेकिन पिछले एकाद सालों में जैसे ही पेट्रोलियम पदार्थों की दामों में तेजी से बढ़ोतरी हुइ है, इसकी कालाबाजारी तेजी से बढ़ती ही जा रही है। क्योंकि पेट्रोलियम पदार्थों में पूरी तरह से विलय हो जाने के कारण इसका प्रयोग मिलावट के लिए किया जाने लगा है। इसकी कीमत पेट्राल- डीजल के मुकाबले काफी कम है। आमजन के लिए उपयोगी होने के कारण ही सरकार ने इसे आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी में रखा है जिसकी वजह से इस पर भारी पैमाने पर सब्सिडी दी जाती है। मगर इसकी कालाबाजारी से सरकार को सालाना ५७०० करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है।
हाल ही में फिक्की द्वारा कराये गए एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि गरीबों को राशन कार्ड के जरिये मिलने वाले कुल किरोसीन तेल का ३८.६ फीसदी हिस्सा कालाबाजारी की भेंट चढ़ जाती है। जिसकी वजह से सरकार को करोड़ों रुपये का सालाना नुकसान तो हो ही रहा है, इसके साथ ही गरीबों को यह सस्ते दरों पर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो रहा है। जिसके चलते जैसे-तैसे कम रोशनी में ही वे अपने घरों में गुजारा कर रहे हैं। जिस मिटï्टी तेल के हकदार सिर्फ और सिर्फ गरीब हैं, उस तेल की जितनी बड़ी मात्रा में आज कालाबाजारी हो रही है, उसमें में कई तरह की कल्याणकारी योजनाएं चलाई जा सकती हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकार को पेट्रोलियम उत्पादों के मूल्य और कर के बीच सामंजस्य बैठाने की जरूरत है। पिछले कुछ महीनों में पेट्रोलियम पदार्थों विशेषकर डीजल और पेट्रोल के दामों मे जबर्दस्त उतार-चढ़ाव देखने को मिला। तेल के भाव अंतरराष्टï्रीय खुले बाजार की तर्ज पर तय करने कारण ही कुछ ही माह के अंतराल पर डीजल-पेट्रोल की कीमतें बढ़ती रही हैं। जबकि सब्सिडी के चलते मिट्टी के तेल की कीमतों को इसलिए स्थिर रखा जाता है क्योंकि इसका उपयोग आम लोग कर रहे हैं। इसी का फायदा कालाबाजारी करने वाले उठा रहे हैं। वे कम कीमत वाले इस किरोसिन को पेट्रोल-डीजल में मिलावट कर बेच रहे हैं। वर्तमान वित्तीय वर्ष में मिटावटी तेल के कारण ही सरकार को १५००० करोड़ रुपये सब्सिडी का बोझ उठाना पड़ेगा। हालांकि इसे रोकने के लिए सरकार कई वर्र्षों से प्रयास कर रही हैं, लेकिन अभी भी संतोषजनक सफलता नहीं मिल पा रही है। शुरूआत में मिटï्टी का तेल स्वच्छ पारदर्शी और रांगहीन होता था जिसे पेट्रेल-डीजल में मिलाने के बाद बिलकुल ही पता नहीं चल पाता था। सिवाय उसकी गंध से ही पहचाना जा सकता था। बाद में सरकार ने किरोसिन में नीला रंग मिलना अनिवार्य बना दिया। सरकार का कहना था कि इससे मिलावट को रोका जा सकेगा। लेकिन सरकार के इस पहल का भी कोई फायादा नहीं हुआ। वर्तमान में सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थों में किरोसिन की मिलावट को रोकने के लिए मार्कर प्रणाली शुरू की है। जिसकी वजह से पेट्रोलियम पदार्थों में मिलावट का पता लगाया जा सकेगा। मगर यह प्रणाली कितनी कारगर होगी यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा?
मिट्टी के तेल की कालाबाजारी में छोटे दुकानदार ही नहीं बल्कि बड़े स्तर पर भी पर भी लोग शामिल हैं। पेट्रोल पंपों में इसका इस्तेमाल मिलावट के लिए बड़े पैमान पर चोरी-छिपे हो रहा है। विडंबना यह भी है कि तमाम जांच विभाग होने के बाद भी इस तरह की कालाबाजारी जारी है। किरोसिन का आवंटन सही तरिके से हो, इसका दायित्व केंद्र सरकार खासतौर पर वित्तमंत्रालय, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय, नागरिक आपूर्ति और उपभोक्ता मामले से जुड़े विभागों पर बनता है। लेकिन इसके बाद भी ये सभी मंत्रालय मिल कर इस बात की व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं कि किस तरह से इस कालाबाजारी को रोका जा सके और सरकारी सहायता प्राप्त उत्पाद सीधे अपने लक्ष्य तक पहुंच सके। मिट्टी के तेल पर दी जाने वाली सब्सिडी सीधे तौर पर गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले लोगों के लिए दी जाती है। इसके बाद भी अगर कालाबाजारी का यह खेल जारी रहता है तो इसका सीधा मतलब है कि गरीबों के हिस्से की सब्सिडी काटकर उसका लाभ अघोषित तौर पर उन लोगों को दिया जा रहा है जो पहले से ही साधन संपन्न हैं। देखा जाए तो यह स्थिति गरीबी उन्नमुलन जैसे कार्यों के लिए भी चिंताजनक है। इसलिए सरकार को केरोसिन की कालाबाजारी को रोकने के लिए गंभीरता से विचार कर किसी कारगर नीति को लागू करने के लिए सोचना चाहिए।

संसद के पास काम नही


संसद घटती बैठकों की संख्या

जन-प्रतिनिधियों की कामचोरी का प्रमाण

संजय स्वदेश

जनता माने या न मानें? उनके ही चुने जनप्रतिनिधियों के पास उनके लिए वक्त नहीं है। यह सच्चाई संसद की कार्यवाही का इतिहास बयां कर रही है। संसद की बैठकों की संख्या देखें तो पता चलता है कि अब तक 1956 में लोकसभा की सबसे अधिक कुल 151 बैठक ही हो पाई है। 196 में 98, 2003 में 4 बैठक ही हुईं। इस वर्ष अभी तक तीन सप्ताह की भी बैठक नहीं पूरी हो पाई है। इस अवधि में संसद में जो कुछ भी हुआ, उसमें ऐसा कुछ भी नहीं जो इतिहास बने। देशहीत और जनहीत से मुद्दों पर न तो किसी तरह की बहस हुई और न ही कोई ठोस निर्णय हो पाए। वर्ष 2008 का उत्तराद्र्ध चल रहा है। अब तक हुई बैठक के आधार पर यह साल संसदीय इतिहास का सबसे खराब सालों में गिना जाएगा। उम्मीद थी कि इस साल 2004 में पेश बीज विधेयक अधिनियम, ग्राम न्यायालय और दलितों व आदिवासियों के आरक्षण से संबंधित विधेयक, 200 में पेश किए गए असंगठित मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा से संबधित महत्वपूर्ण विधेयक को मंजूरी मिल जाएगी। इसी साल बजट सत्र में सरकार ने बड़ी ही शिद्दत से ग्रामीण न्यायालय विधेयक पेश कर गांवों की आम जनता के बीच विभिन्न मामलों में जल्दी न्याय की आशा जगाई थी। कहा गया कि इस विधेयक के पास होने से गांव के लोगों को उनकी चौखट पर ही न्याय मिल जाएगा। उन्हें शहर स्थित कोर्ट-कचहरी में सालों चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे। इसके साथ ही उच्चतम न्यायालय में लंबित करीब 45 हजार मामलों में त्वरित न्याय के लिए न्यायधिशों की संख्या बढ़ाने की बात हुई थी। न्यायायिक क्षेत्र में भ्रष्टïाचार से लडऩे के लिए भी एक विधेयक पेश किया गया था। दंगे की आग में देश का कोई इलाका न झुलसे, इसके लिए सांप्रदायिक हिंसा रोकने के लिए 2005 में पेश विधेयक भी अभी ठंडे बस्ते में हैं। बीते बैठक में इस विधेयक को मंजूरी की सबसे ज्यादा जरूरत थी। क्योंकि उड़ीसा में हुए सांप्रदायिक मामले समेत पूर्व दंगे की कई घटनाएं अभी भी टीस दे रही हैं। सरकार अपने विधायी एजेंटे में अच्छे से अच्छे कानून बनाने की बात तो करती है, पर संसद की बैठक होने पर तत्कालीक मुद्दे के शोर-गुल में विधेयक की बात हमेशा गौण होती रही है। महंगाई की मार से हर कोई त्रस्त है। आम आदमी एक-एक रुपये की जुगत में है। वहीं इस वितीय वर्ष में संसद की कार्यवाही पर 440 करोड़ रुपये खर्च होने है। 440 करोड़ रुपये भारतीय करदाताओं की उगाही राशि का नाला बना हुआ है। संसद में बैठै चाहे कोई भी दल हो? मौका देख एक दूसरे पर लांछन लगाने में कोई भी दल नहीं चूकते हैं। पर जब बात मानधन और जीवनवृति की अथवा विविध सुविधाओं की आती है तो, सांसदों में हैरान कर देने वाली एकता दिखी है। बीस मीनट की कार्यवाही में संसदों का मानधन संबंधित विधेयक पारित होने का इतिहास है। सांसदों को नहीं भुलना चाहिए कि एक साल में इतनी बड़ी राशी खर्च करने के बाद पचास बैठक भी नहीं हो पाना उनकी कामचोरी को सिद्ध करने के लिए काफी हैं। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, सदस्यों की मिल-बांट कर अपना विकास करने का खेल चालू है। राष्टï्रीय राजधानी क्षेत्र नोएडा हो या नागपुर में मिहान प्रोजेक्ट। जहां भी ऐसी जगहों पर विकास की गंगा बहायी जा रही है, वहां आसपास इनसे जुड़े लोगों के ही कारोबार की नींव मजबूत हो रही है। इसी विकास की बहती गंगा के किनारे रहने वाले मजदूर, शिल्पकार, बुनकर आदि जैसे आम जन बदहाल है। साल भर में बैठक कम होने के बाद भी प्रतिनिधि कहां गुम हैं? इस जन को पता नहीं? बैठकों की घटती संख्या के कारण चाहे जो भी गिनाये जायें, पर सदस्य साल में कम से कम तीन माह यानी नब्बे दिन की भी बैठक करें तो बात बनें। यदि इस साल बैठक कम भी हुई तो भी लोकसभा क्षेत्रों में जनप्रतिनिधियों की प्रखर उपस्थिति और सक्रियता भी तो दिखनी चाहिए।
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संजय स्वदेश
बी २/३५ पत्रकार सहनिवास, अमरावती रोड
सिविल लाइन्स,नागपुर, महाराष्टï्र ४४०००१
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बैड बाजा में बदहाली के सुर


बैंड का नाम हो। इन दिनों दुकानदारी बहुत बढ़ गई है। पहले दुकानें कम थी। हालांकि आज जितनी संख्या में दुकानें हैं, उसके अनुपात में अव्च्छे कलाकरों की कमी है। इन कलाकारों की कोई नई पीढ़ी तैयार नहीं हो रही है। वर्तमान पीढ़ी नई पीढ़ी को बेहतर शिक्षा देकर उन्हें दूसरे व्यावसायिक क्षेत्रों से जोडऩा चाहती है।

कुशल कलाकारों की कमी से कहीं इतिहास न बन जाए बैंड बाजे

नागपुर से संजय स्वदेश
शादी-विवाह में शान का प्रतीक माने जाने वाले बैंड बाजे में अच्छे कलाकारों की लगातार कमी होती जा रही है। व्यवसाय घटने के कारण भले ही बैंड संचालक यह बात मानने से कतराते हों, हकीकत यह है कि बैंडपार्टी के वर्तमान कलाकार अपने बच्चों की इसे पेशे में कतई नहीं डालना चाहते हैं। एक शोध रपट के मुताबिक अधिकतर कलाकार किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त है। नई पीढ़ी को इस कला में रुचि नहीं। यदि स्थिति ऐसी रही तो एक से डेढ़ दशक बाद इसके अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। डीजे सिस्टम आने के कारण भी बैंड के व्यवसाय पर असर आया है। कलाकारों की कमी के कारण महंगे होते बैंडपार्टी के कारण आर्थिक रूप से कमजोर समुदाय में होने वाले शादी-विवाह में पंजाबी ढोल का क्रेज बढ़ता जा रहा है। हालांकि शादी-विवाह में आज भी बैंड शान का प्रतीक माना जाता है। नाम न छापने की शर्त पर एक बैंड संचालक ने बताया कि कार्यक्रम ज्यादा होने और कलाकारों की कमी के कारण कई बैंड संचालक गैर-प्रशिक्षित लोगों को पोशाक पहनाकर टीम में खड़ा कर देते हैं। कुशल वादक ही गाने व धुन बजाते हैं और बाकी बैंड बजाने का नकल करते हैं। किसी समय दिन भर लिए तय होने वाले बैंडबाजे अब घंटे की दर से बजते हैं। एक साधारण बैंड कम से कम 5 हजार रुपये घंटे में उपलब्ध है, वहीं पंजाबी ढोल 400 से 1000 रुपये घंटे की दर से उपलब्ध है। लिहाजा कम बजट में होने वाली शादी में ढोल बजाने वालों की पूछ बढ़ गई है। ढोल बजाने के पुश्तैनी व्यवसाय से जुड़े रमेश बावने उर्फ मलंग बाबा का कहना है कि धामनगांव, फूलगांव, यवतमाल, वर्धा आदि क्षेत्रों के लोग इस पेशे से ज्यादा जुड़े हुए हैं।इससे साल भर व्यवसाय तो नहीं मिलता है, पिछले कुछ सालों से विवाह मुहूर्त कम होने से कई बार बैंड पार्टी की कमी हो जाती है। इसलिए कुछ लोग डीजे के साथ ढोले वाले को रख लेते हैं। लेकिन इसमें भी अच्छे ढोल कलाकरों की कमी है। आम आदमी धुमाल पाटी, पंजाबी भांगड़ा ढोल में कोई अंतर नहीं समझ पाते हैं। इसलिए आवश्यक मौके पर कई बार संदल वाले भी ढोल की भूमिका में उतर आते हैं। इसके अलावा रिक्शाचालक, खोमचे लगाने वाले, फटपाथ में दुकान सजाने वाले कई मजदूर विवाह मुहूर्त के दिनों में ढोल बजाने का काम शुरू करने लगे हैं।
श्री बावने का कहना है कि गरीब लोगों का शादी का बजट कम होता है। वे बैंड का खर्चा नहीं उठा सकते हैं। इसलिए वे ही ढोल पार्टी बुलाते हैं। गैर-वैवाहिक कार्यक्रमों में पंजाबी ढोल की मांग बढ़ती जा रही है। पर विभिन्न ताल व धुनों पर ढोल बजाने वाले नागपुर में बहुत कम कलाकार है। श्री बावने की मानें तो नागपुर में करीब सौ कलाकर ही ढोल वजाने वाले हैं।
ढोल बजाने वाले अशोक बावने का कहना है कि हमारी टीम में तीन लोग ही होते हैं। दो ढोल बजाने वाले और एक गोला बजाने वाला। गोला बजाने वाले हर्षद ने बताया कि उसे एक कार्यक्रम में गोला बजाने के एवज में 25 से 30 रुपये घंटे की मजदूरी मिलती है। आम दिनों में वह मेहनत मजदूरी करता है और ढोल वालों के संपर्क में रहता है। श्री अशोक ने बताया कि ढोल की आवाज में बराती खूब झूमते हैं। उनमें कई लोग ऐसे होते हैं जो शराब पीकर ढोल के सामने नाचते हैं। वे हमारे साथ अभ्रदता से पेश आते हैं। इस कारण इस पेशें में मन नहीं लगता है। रोजगार का दूसरा विकल्प नहीं होने से ढोल बजाना मजबूरी है।
डीजे संचालक विवेक का कहना है कि विवाह-पार्टियों में डीजे की लोकप्रियता बढ़ी है। पर बैंड पार्टियों को पछाडऩा अभी बाकी है। कई वैवाहिक समारोह में बैंड और डीजे दोनों होते हैं। बैंड बाजे के साथ जब बारात गंतव्य पर पहुंच जाती है, तब डीजे धमाल शुरू होता है। बहुत कम ही ऐसी बारात होती है जो केवल डीजे के साथ दुल्हन के दरवाजे पर पहुंचती है।
1935 में बना था पहला बैंड
जानकारो का कहना है कि सरदार नरेंद्र सिंह प्रधान ने 1935 में एक बैंड पार्टी की स्थापना की। उन्होंने कई लोगों को बैंड कलाकार के लिए विभिन्न वाद्यों का प्रशिक्षण दिया। नये नये बाद्य यंत्रों और संगीत के धुनों से लोगों को आकर्षित किया। यहां तक की मध्यप्रदेश के कई नगरों में आयोजित होने वाले मांगलिक कार्यों के मौके पर उनके बैंड को बुलाया गया। बाद में हिंदी सिनेमा के संगीत बैंड आने से और भी लोकप्रियता बढ़ी।
तब डांसर भी करते थे मनोरंजन
बैंड संचालक रमेश पुराने दिनों को याद करते हुए कहते है पहले बैंड में डांसर अनिवार्य रूप से रखा जाता था। जिस फिल्म का गानाा बजता था, उस डांसर को उस तरह की वेशभूषा और नकल उतारनी पड़ती थी। बात उन दिनों की है जब जय संतोषी मां फिल्म खूब हिट हुई थी। बैंड में उसके गाने बजते थे। तब डांसर संतोषी मां की वेशभूषा में खड़ा होता और बैंड के धुन पर उसकी आरती उतारी जाती थी। बाद में हिंदी फिल्मों में मिथुन चक्रवर्ती, गोविंदा आदि के डांस गाने लोकप्रिय हुए तो बराती भी बैंड धुनों पर डांस करने लगे। श्री प्रधान कहते हैं कि पहले श्रीगणेश वंदना से बैंड बाजने की शुरूआत होती थी। मेरा यार बना है दुल्हा..., आज मेरे यार की शादी है... आदि गाने बैंड बाजे के लिए हमेशा लोकप्रिय रहे हैं। कलाकारों का मानना है कि इस पेशे में प्रतिष्ठïा नहीं रही है।
खट्टे-मीठे अनुभव
अमरावती के सिंदुरागनाघाट के 52 वर्षीय आजाबराव खंडारे कहते हैं कि बचपन में घर में पारिवार का माहौल ऐसा था कि बैंड बजाना सीख लिया। बाद में अनेक तरह के खट्टे-मीठे अनुभव हुए। इस पेशे में साल भर रोजगार नहीं है। शादी के मौके पर अच्छी पोशाक तो पहल लेते हैं। बाद में मैली-कुचैली जिंदगी चलती है। मेहनत मजदूरी करके गुजारा करना पड़ता है। इसी कारण अपने दोनों बेटों को कोई भी बाद्य यंत्र नहीं सीखने दिया। श्री खंडारे कहते हैं कि पिताजी क्लोरनेट बजाते थे। उन्होंने ने ही तरंमबोल बजाना सीखाया, जिसे फूकने के लिए काफी ताकत चाहिए। कलेजे पर जोर पड़ता है। आज इससे शरीर कमजोर हो गया है।
रात दस बजे के बाद प्रतिबंध
करीब छह साल पहले की बात है कि मनपा ने सड़कों पर बैंड बजाने की पाबंदी लगा दी थी। इस कारण शाम के समय होने वाले शादी में बैंड नहीं बजते थे। आज भी रात दस बजे के बाद बैंड नहीं बजा सकते हैं। इसकी ध्वनि भी 50 से 60 डेसीबल की बीच होनी चाहिए।
पोशाक पर होता है अच्छा-खासा खर्च
बैंडबाजा संचालक का पुश्तैनी काम संभालने वाले रमेश प्रधान कहते हैं कि पहले बैंड के कलाकारों को खोजनें में बहुत ही दिक्कत होती थी। दादा जी कहते थे कि ग्रामीण क्षेत्र के दूर-दराज के इलाके में उन्हें संपर्क के लिए जाना पड़ता था। यातायात के साधन नहीं होने से परेशानी होती थी। एक गांव शाम में कलाकारों को बुलाने गए और बस नहीं पकड़ सके तो अगले दिन आना पड़ता था। कई बार घर से निकले सप्ताह भर से ज्यादा हो जाता था। इस तरह भाग दौड़ से ही बैंड संचालित होता था। यह स्थिति करीब साठ के दशक तक बनी रही। अस्सी के दशक तक आते आते यह समस्या सुलझ गई। आमतौर पर एक बैंड पार्टी की टीम में 22 कलाकार होते हैं। अधिकतर सदस्य आसपास के कलाकार होते हैं। इसमें प्रमुख रूप से अकोला, अमरावती, आदि क्षेत्रों के होते हैं। कलाकारों की कमी और मांग बढऩे के कारण ही दिन भर के लिए बुक होने वाले बाजे घंटे से बजना शुरू हुए। आमतौर पर एक सीजन में अच्छा बैंड 300-400 घंटे का व्यवसाय कर लेता है। आजकल स्पर्धा इतनी बढ़ गई है कि हर साल 1 लाख तक का नया सूट तैयार करना पड़ता है जिससे कि कलाकार स्मार्ट दिखे।
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नई पीढ़ी में रुचि नहीं
नागपुर. बैंड बाजे से जुड़े लोगों पर शोध करने वाली शिरीषपेठ निवासी वैशाली रूईकर का कहना है कि जिस तरह से बैंड पार्टी में कुशल कलाकरों की कमी हो रही है, उसको देखते हुए करीब ढेड़ दशक बाद इसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। इससे जुड़े कलाकारों की नई पीढ़ी तैयार नहीं हो रही है। जो कुशल कलाकार थे, वे अधेड़ या बूढ़े हो चुके हैं। वर्तमान कलाकर मुश्किल से 10 से 15 साल तक इससे जुड़े रह सकते हैं। बैंड के विकास तथा उसके वाद्यों को बजाने का प्रशिक्षण देने के लिए कोई संस्थान भी नहीं है। श्रीमती रूईकर का कहना है कि बैंड के गाने की धुन दम लगाकर फूंकने और सांस पर निर्भर है। मुंह से फूंक कर बजाने वाले वाद्ययंत्रों के कलाकार फेफडे की बीमारियों की चपेट में जल्दी आ जाते हैं। श्रीमती वैशाली का कहना है कि 2005-06 में नागपुर और आसपास के कलाकारों से बातचीत पर हुए शोध के दौरान पाए गए तथ्यों के मुताबिक 90 प्रतिशत कलाकारों ने यह स्वीकार किया कि बैंड बजाने के कारण उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। इनमें 0 प्रतिशत कलाकारों ने माना कि बैंड बजाने से वे छाती में दर्द की शिकायत हुई है। 20 प्रतिशत ने स्वीकार किया कि लगातार फूकने और वाद्ययंत्र लटकाने के कारण पेट की बीमारी से ग्रस्त हुए। 10 प्रतिशत कलाकरों ने बताया कि समुचित आहार व नशा नहीं करने से इस तरह की बीमारियों से बचा जा सकता है। इसके साथ ही शोध में यह बात भी सामने आई कि अधिकतर कलाकार किसी न किसी तरह के नशे के आदि हैं।
सामाजिक व आर्थिक स्थिति
85 प्रतिशत कलाकारों ने बताया कि समाज में उन्हें सम्मान नहीं मिलता है। बैंड कलाकारों को आर्थिक समस्याओं से हमेशा जूझना पड़ता है औसतन कलाकार दो हजार रुपये प्रति माह भी नहीं कमा पाते हैं। बातचीत में 55 प्रतिशत कलाकारों ने स्वीकार किया कि वे दो हजार रुपये प्रतिमाह कमा लेते हैं। दस प्रतिशत कलाकार महीने में मुश्किल से हजार रुपये कमा पाते हैं। तीन हजार रुपये महीने कमाने वाले कलाकारों की संख्या करीब 20 तथा 5 हजार रुपये महीने कमाने वाले कलाकारों की संख्या 15 प्रतिशत ही मिली। 91 प्रतिशत कलाकारों ने बताया कि वे कर्ज में डूबे हैं।
बॉक्स में
लधु शोध में कहा गया कि जिस क्षेत्र में बैंड बजते हैं, उसके आसपास के करीब 100 मीटर के दायरे के स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक किटाणु नष्टï हो जाते हैं।
मालिक और कलाकारों का संबंध
बैंड कलाकार के साथ मालिक एक निर्धारित हिस्सेदारी के तहत अनुबंध करते हैं। जितनी राशि उन्हें मिलती है। एक निश्चित रकम मालिक काट कर बाकी रकम कलाकरों में बांट देते हैं। दूर-दराज से आने वाले कलाकारों को रहने और भोजन की व्यवस्था मालिक की ओर से ही कराई जाती है। एक जगह से दूसरे जगह पर जाने पर परिवहन का खर्च भी मालिक को उठाना पड़ता है। बाद में जब हिसाब होता है तब वह खर्च मालिक की ओर से काट लिया जाता है। कलाकारों को विशेष पोशाक दी जाती है, उसकी धुलाई और प्रैस का खर्च भी मालिक की जिम्मेदारी होती है। लेकिन बाद में इसके भी पैसे काट लिए जाते हैं। जिस दिन बैंड पार्टी को कही जाना होता है, सभी कलाकारों को कार्यालय में आना पड़ता है।
संपर्क: संजय स्वदेश,
बी-35, पत्रकार सहनिवास, अमरावती रोड,
सिविल लाइन्स, नागपुर -440001, महाराष्टï्र,

बदहाली में बंद बाजा

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