मंगलवार, दिसंबर 01, 2009

एचआईवी एड्स का सच और सवाल


सुरक्षित यौन सम्बन्धों के लिए कण्डोम का प्रयोग करें। नैतिक शिक्षा का ये नारा खालिस कारोबारी है। पूरे अभियान की आक्रामकता की ताकत भी कारोबार ही है। नैतिक रूख में अगर जरा सी तब्दीली करने की हिम्मत सरकार दिखाये तो दूसरी बीमारियों से मरने वाले हर साल लाखो लोग बच सकते हैं।

संजय स्वदेश
दिसंबर शुरू हुआ। एड्स दिवस और सप्ताह की धूम शुरू हो गई। हर ओर प्रचार अभियान की धूम है। जॉच के लिए विशेष कैंप आयोजित हो रहे हैं। पर जितना हो हल्ला एड्स को लेकर किया जाता रहा है, ऐसा प्रभावशाली अभियान उन दूसरी बीमारियों के खिलाफ नहीं है, जिससे हर साल लाखों लोग मरते हैं। इन बीमारियों से मरने वाले लागों की संया एड्स से मरने वाले लोगों से कई गुना ज्यादा है। टी.वी. कैंसर, हैजा, मलेरिया आदि बीमारियां से आज भी करोड़ों लोग मर रहे है।
करीब तीन दशक जब अमेरिका में एचआईवी या एड्स का पहला मामला दर्ज हुआ था, तब पूरी दुनिया में इस नई बीमारी से तहलका मच गया था। हर देश इसे रोकने के लिए ऐसे अभियान में जुट गया जैसे कोई महामारी फैल रही हो। महामारी रोकने सरीके अभियान आज भी चल रहे हैं। करोड़ों रूपये आज भी खर्च हो रहे है। पर अभी तक न इसकी कारगर दवा खोजी जा सकी और न टीका। एड्स निर्मूलन अभियान में भारत समेत दूसरे पिछड़े और गरीब देशों में पहले से व्याप्त दूसरी गंभीर बीमारियों के प्रति सरकार की गंभीरता हल्की पड़ गई। पिछले साल ही स्वस्थ्य मंत्री अबुमणि रामदौस ने लोकसभा को बताया था कि 1986 से लेकर तब तक 10170 लोगों की मौत एड्स से हुई। उनके बयान के आधार पर औसतन हर साल 500 लोग मर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर हर साल साढ़े तीन लाख से ज्यादा लोग क्षय रोग के समुचित इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं। अकाल काल के गाल में सामने वाले कैंसर रोगी भी कमोबेश इतने ही हैं। 2005-06 में एड्स नियंत्रण पर 533 करोड़ खर्च हुए जबकि क्षय रोग उन्मूलन पर 186 करोड़, कैंसर नियंत्रण पर 69 करोड़। आखिर अभियान के पीछे छिपने वाली इस खौफनाक हकीकत के असली चेहरे को सरकार क्यों नहीं पहचान पा रही है?
एक विचार करने वाली बात यह भी है कि जब एड्स निर्मूलन अभियान शुरू हुए थे। तब से ही कई प्रसिद्ध चिकित्सों व वैज्ञानिकों ने इसे खारिज किया। आरोप लगा कि एचआईवी एड्स की आड़ में कंडोम बनाने वाली कंपनियां भारी लाभ कमाने के लिए अभियान को हवा दे रही है। पर आरोपियों की आवाज एड्स के इस अभियान में गुम है। अभियान के शुरूआती दिनों में ही प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक कैरी मुलिस ने अभियान पर सवाल खड़ा किया था। संदेह जताने वाले कैरी मुलिस वही जैव रसायन वैज्ञानिक हैं जिन्हें 1993 का नोबेल पुरस्कार मिला। पालिमरेज चेन रिए क्सन तकनीक के विकास का श्रेय इन्हें ही हैं। इसी तकनीक का इस्तेमाल कर वायरस परीक्षण होता है। अमेरिकी पत्रिका पेंट हाऊस के सितंबर 1998 अंक में अपने प्रकाशित प्रकाशित लेख में बड़े ही तािर्कक तरीके से एड्स की अवधारणा को खंडित किया था। इनके अलावा भी दुनिया के कई बड़े वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया कि मानव सयता के हर कालखंड में किसी न किसी रूप में एड्स जैसी खतरनाक स्वास्थ्य स्थिति का खौफ रहा है। चरक संहिता में एड्स से मिलती-जुलती स्थिति होने का उल्लेख भी मिलता है। वैज्ञानिक दावा करते है कि एड्स अपने आप में कोई बीमारी नहीं है। यह शरीर की ऐसी स्थिति है जिसे मनुष्य की रोग प्रतिरोध क्षमता नष्ट हो जाती है और वह धीरे-धीरे मौत की ओर अग्रसर हो जाता है।
हालांकि एड्स की स्थिति निश्चय ही गंभीर है। रोकथाम के लिए अभियान चलाया ही जाना चाहिए। मजे की बात यह है कि एड्स नियंत्रण अभियान जितने पैमाने पर चलाया जा रहा है, उस पैमाने पर एचआईवी एड्स पीडि़तों की संया नहीं है। समय-समय पर जारी होने वाले एचआईवी एड्स से ग्रस्त लोगों की संख्या में हमेशा संदिग्ध रही है। किसी साल कहां गया कि भारत एड्स की राजधानी बन रही है। तो कभी रिपोर्ट आई कि यहां एड्स प्रभावित लोगों की संया में कमी आई है। यह किसी मजेदार पहेली से कम नहीं है। एड्स और एचआईवी दोनों अलग-अलग धारणा है। प्रभावित व्यक्ति शायद ही समाज में कभी नजर आए। पर प्रचार इतना हो चुका है कि आज छोटे-छोटे बच्चों के जेहन में जनसंचार माध्यमों ने एड्स की जानकारी डाल दी है। मासूम नन्हें-मुन्ने भी जानने लगे हैं कि सुरक्षित यौन-संबंध के लिए कंडोम जरूरी है। यह स्वाभाविक भी है। जब देश-विदेश की दवा कंपनियों से लेकर हजारों उनजीओ इसके प्रचार-प्रसार में जुटे हो तो इतनी सफलता अपेक्षित है। एक तरह से कहें तो कम समय में इसके बारे में इतना प्रचार हो चुका है जितना की दूसरी बीमारियों के बारे में जागरूकता होनी चाहिए।
अभी भी केंद्र सरकार एड्स नियंत्रण पर हर साल करोड़ रूपये का बजट तय कर रही है। राज्य सरकार का बजट अलग होता है। विदेशी अनुदान भी अतिरिक्त है। बजट की भारी-भरकम राशि ने जनहीत के दूसरे कार्यो में लगे गैर-सरकारी संस्थाओं के मन में लालच भर दिया। जितना जल्दी एड्स विरोधी कार्यक्रम चलाने के लिए अनुदान मिल जाता है, उतना दूसरे कार्यों के लिए नहीं। लिहाजा, कई संस्थानों ने जनहित में जारी दूसरी परियोजनाओं को छोड़ कर एड्स अभियान का दामन पकड़ लिया है, जितने रूपये अभियान चलाने के लिए जितनी राशि एनजीओ को मिले, उतनी कम राशि खर्च करके उन लाखों गर्भवती माताओं को बचाया जा सकता हैं, जिन्हें समुचित इलाज की सुविधा नहीं मिल पाती है। डायरिया से ग्रस्त करीब 90 प्रतिशत महिलाओं भी अकाल काल के गाल में सामने से रोका जा सकता है। इतनी भारी भरकम राशि का अगर एक हिस्सा भी ईमानदारी से कुपोषित महिलाओं और बच्चों पर खर्च होता तो एक आज एक ऐसी नई सेहतमंद पीढ़ी जवान होती जो एड्स के खतरे से पहले ही सावधान रहती। पर एड्स नियंत्रण अभियान का जादू कुछ ऐसा छा गया है जिसने देश की बहुसंख्यक आबादी का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है जिससे दूसरी जनस्वास्थ्य की दूसरी सुविधाओं को बेहतर तरीके से उपलब्ध कराने के अभियान पीछे छूट चुके हैं।
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