गुरुवार, दिसंबर 31, 2009
बुधवार, दिसंबर 30, 2009
स्वतंत्र विदर्भ के लिए कांग्रेस में लॉबिंग हुई तेज
संजय स्वदेश
विलास मुत्तेमवार नागपुर। संसद व पूर्व केंद्रीय मंत्री विलास मुत्तेमवार ने यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर स्वतंत्र पृथक विदर्भ राज्य के गठन में अपेक्षित सहयोग का अनुरोध किया है। पत्र में उन्होंने विदर्भ के मांगों का उल्लेख करते हुए बताया कि यह कितना पुराना है और विदर्भ की जनता के हित में स्वतंत्र विदर्भ राज्य के गठन कितना आवश्यक है।
श्री मुत्तेमवार ने सोनिया गांधी को लिखे पत्र में उन्हें सबसे पहले पृथक तेलंगाना राज्य के गठन में केंद्र सरकार की पहल के लिए बधाई देते हुए पृथक विदर्भ के मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित कराया है। पृथक विदर्भ का मुद्दा तेलंगाना राज्य की मांग से भी पूरानी है। पत्र में कही गई अपनी बातों को समर्थन में श्री मुत्तेमवार ने कई पुरानी बातों का हवाला देकर यह स्पष्ट किया है कि केंद्र सरकार के अलावा कांग्रेस की ओर से गठित कई आयोग और समितियों ने पृथक विदर्भ पर अपनी सहमति दी है। आजादी से पूर्व 1888 में अंग्रेसी प्रशासकों ने ब्रिटिस आयुक्तालय में पृथक विदर्भ के लिए प्रस्ताव रखा था। इसके अलावा 1918 में संविधान समीक्षा समिति और डार कमेटी तथा जे.वी.पी. कमेटी ने पृथक विदर्भ पर अपनी सहमति दी थी।
आजादी के बाद 1955 में राज्य पुर्नगठन आयोग ने सरकार से कहा था कि स्वतंत्र विदर्भ से ही यहां की जनता को लाभ मिलेगा। इसके बाद 1960 में विदर्भ के नेताओं को राष्ट्रीय नेताओं ने स्वतंत्र विदर्भ राज्य की गठन का आश्वासन दिया। 1988 में युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यह महसूस किया कि विदर्भ के साथ अन्याय हो रहा है, इसके लिए उन्होंने पी. संगमा को इस पर विस्तृत जानकारी देने की जिम्मेदारी सौंपी थी। श्री संगमा ने भी पृथक विदर्भ के लिए अपनी सहमति सरकार को दी। 1996 में राष्ट्रीय नेता अहमद पटेल, गुलाम नबी आजाद, श्रीमती मीरा कुमार, के. करूणाकरण, स्व.राजेश पायलट, बलराम जाखड़, मुकुल वासनिक, वसंत साठे, एनकेपी साल्वे, स्व. सुधाकर नाईक समेत कई राष्ट्रीय और स्थानीय नेताओं का प्रतिनिधि मंडल तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौडा से मुलाकात कर स्वतंत्र विदर्भ राज्य के गठन की मांग की। वर्ष, 2000 में जिन तीन नये राज्यों का गठन हुआ। उनका प्रस्ताव 1955 में गठीत राज्य पुर्नगठन आयोग ने नहीं दिया था।
श्री मुत्तेमवार ने यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को यह याद दिलाया है कि पार्टी के कई वरिष्ठ नेता, संसद और विधायक कई मौके पर आपसे मुलाकात कर पृथक विदर्भ के लिए आपके सहयोग की अपेक्षा जता चुके हैं। इसके लिए आपने पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रणव मुखर्जी के नृतृत्व में स्वतंत्र विदर्भ और तेलंगाना राज्य के लिए पार्टी की एक कमेटी भी बनाई थी। लेकिन अब कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने पृथक तेलंगाना राज्य की पहल करते हुए विदर्भ की अनदेखी कर दिया।
गत पचास सालों में विदर्भ की जनता ने कांग्रेस के प्रति भरोसा जताया है, लेकिन गत दस सालों में इस क्षेत्र के करीब 7 हजार किसानों ने आत्महत्या की है। क्षेत्र के पांच जिले नक्सल समस्या से गंभीर रूप से प्रभावित हैं, बेरोजगारी की समस्या भी गंभीर है। लिहाजा, विदर्भ की जनता इस निष्कर्ष पर पहुंच चुकी है कि विदर्भ का आर्थिक व समाजिक विकास स्वतंत्र राज्य का दर्जा प्राप्त होने के बाद ही संभव हो पाएगा।
श्री मुत्तेमवार ने कहा कि कि विदर्भ के जनता तोड़-फोड़ वाली मानसिकता के नहीं है। यहां की जनता राष्ट्रपिता महात्मागांधी बिनानोबा भावे और डा. बाबा साहेब आंबेडकर की तरह हमेशा ही शांति और प्यार तथा अहिंसा के राह पर चलने में विश्वास करती हैं। मुझे डर है कि कही विदर्भ की जनता पृथक विदर्भ के लिए इस राह से भटक न जाए। मुझे लगता है कि वह समय आ गया है जब विदर्भ की जनता को सम्मानित करते हुए कांग्रेस नेतृत्व विदर्भ की जनता की भावनाओं को समझते हुए उसके साथ आए।
विलास मुत्तेमवार नागपुर। संसद व पूर्व केंद्रीय मंत्री विलास मुत्तेमवार ने यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर स्वतंत्र पृथक विदर्भ राज्य के गठन में अपेक्षित सहयोग का अनुरोध किया है। पत्र में उन्होंने विदर्भ के मांगों का उल्लेख करते हुए बताया कि यह कितना पुराना है और विदर्भ की जनता के हित में स्वतंत्र विदर्भ राज्य के गठन कितना आवश्यक है।
श्री मुत्तेमवार ने सोनिया गांधी को लिखे पत्र में उन्हें सबसे पहले पृथक तेलंगाना राज्य के गठन में केंद्र सरकार की पहल के लिए बधाई देते हुए पृथक विदर्भ के मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित कराया है। पृथक विदर्भ का मुद्दा तेलंगाना राज्य की मांग से भी पूरानी है। पत्र में कही गई अपनी बातों को समर्थन में श्री मुत्तेमवार ने कई पुरानी बातों का हवाला देकर यह स्पष्ट किया है कि केंद्र सरकार के अलावा कांग्रेस की ओर से गठित कई आयोग और समितियों ने पृथक विदर्भ पर अपनी सहमति दी है। आजादी से पूर्व 1888 में अंग्रेसी प्रशासकों ने ब्रिटिस आयुक्तालय में पृथक विदर्भ के लिए प्रस्ताव रखा था। इसके अलावा 1918 में संविधान समीक्षा समिति और डार कमेटी तथा जे.वी.पी. कमेटी ने पृथक विदर्भ पर अपनी सहमति दी थी।
आजादी के बाद 1955 में राज्य पुर्नगठन आयोग ने सरकार से कहा था कि स्वतंत्र विदर्भ से ही यहां की जनता को लाभ मिलेगा। इसके बाद 1960 में विदर्भ के नेताओं को राष्ट्रीय नेताओं ने स्वतंत्र विदर्भ राज्य की गठन का आश्वासन दिया। 1988 में युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यह महसूस किया कि विदर्भ के साथ अन्याय हो रहा है, इसके लिए उन्होंने पी. संगमा को इस पर विस्तृत जानकारी देने की जिम्मेदारी सौंपी थी। श्री संगमा ने भी पृथक विदर्भ के लिए अपनी सहमति सरकार को दी। 1996 में राष्ट्रीय नेता अहमद पटेल, गुलाम नबी आजाद, श्रीमती मीरा कुमार, के. करूणाकरण, स्व.राजेश पायलट, बलराम जाखड़, मुकुल वासनिक, वसंत साठे, एनकेपी साल्वे, स्व. सुधाकर नाईक समेत कई राष्ट्रीय और स्थानीय नेताओं का प्रतिनिधि मंडल तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौडा से मुलाकात कर स्वतंत्र विदर्भ राज्य के गठन की मांग की। वर्ष, 2000 में जिन तीन नये राज्यों का गठन हुआ। उनका प्रस्ताव 1955 में गठीत राज्य पुर्नगठन आयोग ने नहीं दिया था।
श्री मुत्तेमवार ने यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को यह याद दिलाया है कि पार्टी के कई वरिष्ठ नेता, संसद और विधायक कई मौके पर आपसे मुलाकात कर पृथक विदर्भ के लिए आपके सहयोग की अपेक्षा जता चुके हैं। इसके लिए आपने पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रणव मुखर्जी के नृतृत्व में स्वतंत्र विदर्भ और तेलंगाना राज्य के लिए पार्टी की एक कमेटी भी बनाई थी। लेकिन अब कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने पृथक तेलंगाना राज्य की पहल करते हुए विदर्भ की अनदेखी कर दिया।
गत पचास सालों में विदर्भ की जनता ने कांग्रेस के प्रति भरोसा जताया है, लेकिन गत दस सालों में इस क्षेत्र के करीब 7 हजार किसानों ने आत्महत्या की है। क्षेत्र के पांच जिले नक्सल समस्या से गंभीर रूप से प्रभावित हैं, बेरोजगारी की समस्या भी गंभीर है। लिहाजा, विदर्भ की जनता इस निष्कर्ष पर पहुंच चुकी है कि विदर्भ का आर्थिक व समाजिक विकास स्वतंत्र राज्य का दर्जा प्राप्त होने के बाद ही संभव हो पाएगा।
श्री मुत्तेमवार ने कहा कि कि विदर्भ के जनता तोड़-फोड़ वाली मानसिकता के नहीं है। यहां की जनता राष्ट्रपिता महात्मागांधी बिनानोबा भावे और डा. बाबा साहेब आंबेडकर की तरह हमेशा ही शांति और प्यार तथा अहिंसा के राह पर चलने में विश्वास करती हैं। मुझे डर है कि कही विदर्भ की जनता पृथक विदर्भ के लिए इस राह से भटक न जाए। मुझे लगता है कि वह समय आ गया है जब विदर्भ की जनता को सम्मानित करते हुए कांग्रेस नेतृत्व विदर्भ की जनता की भावनाओं को समझते हुए उसके साथ आए।
महात्मा गांधी के नाम पर
अनिल
विश्वविद्यालय प्रशासन के विरोध में मुंडन करवाते दलित छात्र वर्धा के महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में एक ओर आज जहां ’स्थापना दिवस’ मनाया जा रहा है वहीं दूसरी ओर दलित विद्यार्थी पढ़ाई लिखाई पर अपने अधिकार को हासिल करने के लिए अनशन पर बैठे हैं। इन विद्यार्थियों ने इस दिन को ’शोक दिवस’ के रूप में मनाने का आह्वान किया है।
पिछले नौ दिसंबर को दीक्षांत समारोह के बहिष्कार से लेकर आज यह दूसरा बड़ा आयोजन हुआ, विद्यार्थियों द्वारा जिसके सामूहिक बहिष्कार की घोषणा की जा रही है। ऐसे वक्त में यहां इस पूरे आयोजन और इस ’स्थापना दिवस’ की ऐतिहासिकता पर एक नज़र डालना तर्कसंगत होगा। तीन साल पहले, 29 दिसंबर 2006 को तत्कालीन कुलपति जी गोपीनाथन के कार्यकाल में अकादमिक धांधलियों के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन में लगभग चालीस छात्र-छात्राओं को जेल भेज दिया गया था। तत्कालीन प्रशासन की निरंकुशता और बेशर्मी का एक नमूना यह था कि स्थापना दिवस के उस आयोजन में मिठाइयां बांटते हुए आदोलनरत विद्यार्थियों के बारे में मंच से एक भद्दी टिप्पणी की गई थी जिसका आशय कुछ इस तरह था कि कुछ ’सनकी’ क़िस्म के लोग यह ’समारोह’ जेल में मना रहे होंगे। अब, मंच से ऐसी बातें नहीं होंगी। हो भी नहीं सकतीं। लेकिन विश्वविद्यालय के वातावरण में आज भी अन्याय और भेदभाव को व्यापक स्तर पर प्रोत्साहित करने वाली स्थितियां मौजूद हैं। समाज में सत्ताधारी सांस्कृतिक वर्चस्व को बनाए रखने वाली सभी ताक़तें एक भिन्न रूप और भिन्न तरीक़ों से सत्ता के पायदान पर आसीन हो गई हैं। उनमें से मात्र कुछेक ज़रूरी मसलों पर वर्तमान दलित छात्र-छात्राएं आंदोलनरत हैं, लेकिन वर्तमान प्रशासन नीतिगत स्तर पर इन सारे मुद्दों को ’नाजायज़’ और व्यक्तिगत स्तर पर अपनी ’प्रतिष्ठा’ का मुद्दा मान रहा है। उसने इन्हें नज़रअंदाज़ करने और इन मुद्दों को ’पचाने’ के नए और अपेक्षाकृत बेहतर तकनीकी ईजाद कर ली है। अब ’उपलब्धियों’ का बखान करने वाले अतिरंजित जनसंपर्क द्वारा लोगों को सरलता से मूर्ख बनाया जा सकता है। सांस्थानिक जनसंपर्क द्वारा सतही प्रचार करने के इस उपक्रम से वास्तविक मुद्दों को चट कर जाने में आसानी हो जाती है। स्थानीय स्तर पर पत्रकारिता के तिकड़मों के कारण ऐसे हवाई दावों को चुनौती मिलनी भी मुश्किल हो रही है। साथ ही स्थानीय जनमानस के बीच ऐसी छवि गढ़ने की कोशिश की जाती है जैसे कि विश्वविद्यालय कोई ’असामान्य’ तथा हर तरह के सवालों से परे रहने वाला संस्थान हो। अब सक्रिय तथा गतिशील हिंदी समाज तो यहां की स्थितियों पर कोई रोज़मर्रा की निगरानी रख नहीं रहा है कि उसे इन सेकंड हैंड तथा आत्ममुग्ध विवरणों को आलोचनात्मक ढंग से परखने का मौक़ा मिले।
वर्तमान कुलपति विभूति नारायण राय को विश्वविद्यालय में आए तेरह-चौदह महीने हो चुके हैं। उनके इस एक साल के कार्यकाल और कामों के बारे में अब कुछेक वस्तुपरक टिप्पणियां कदाचित की जा सकती हैं। दिलचस्प है कि इस दौरान विश्वविद्यालय के प्रति अवधारणा और विज़न के बारे में उनकी भाषा और शब्दावली में आश्चर्यजन ढंग से, ग़ौरतलब परिवर्तन आया है। कुलपति के रूप में अपने पहले वर्धा आगमन से लेकर अब तक उन्होंने हिंदी समाज और उसकी विसंगतियों, विश्वविद्यालय से समाज की अपेक्षाएं, प्रशासन के कामकाज आदि के बारे में कई बार बयान दिए हैं जो काफ़ी उलझाने वाले अंदाज़ (पोलेमिक स्टाइल) के जीते जागते नमूने हैं। यहां एक उदाहरण देना उचित होगा जिससे उनके अकादमिक विज़न के बारे में कुछ ठोस राय बनाई जा सकती है। इस स्थापना दिवस की पूर्वसंध्या पर उन्होंने कहा, “हिंदी को मात्र साहित्य या चिंतन की भाषा नहीं बनानी है, इसे वैश्विक स्तर पर एक भाषिक राजदूत की भूमिका निभानी है।” ज़ाहिर है, ऐसा उन्होंने हिंदी विश्वविद्यालय की भूमिका के संदर्भ में कहा है। साल भर पहले, कुलपति का कार्यभार ग्रहण करते वक़्त उन्होंने कबीर को याद करते हुए कहा था कि हिंदी विश्वविद्यालय को हिंदी समाज में नवजागरण के अग्रदूत की भूमिका निभानी होगी। यहां हिंदी भाषी समाज में हिंदी के प्रगतिशील चिंतन पक्ष के प्रति एक ज़ोर था। लेकिन साल भर में शब्दावली ख़ामोश तरीक़े से बदल गई। और अब कई पदासीन लोगों को ऐसे प्रसंगों को याद करना बाल में खाल निकालने जैसा लगने लगता है।
यह एक सुपरिचित तथ्य है कि देश के भीतर हिंदी के प्रचारात्मक ’राजदूत’ की भूमिका के लिए कई हिंदी प्रचार समितियां सालों से चल रही हैं। इनके ज़िम्मे प्राथमिक काम हिंदी समाज के हिंदी के कर्मकांडी सांस्कृतिक वर्चस्व को स्थापित करते हुए उन्हें वैध ठहराने से लेकर, सड़े गले परंपरावादी विचारों के पुनरोत्पादन तक का है। एक पतित नौकरशाही मशीनरी ने इनका धंधा और आसान कर दिया है। अब हिंदी विश्वविद्यालय भी इस पटाखा तैयारी में व्यस्त है कि वह इसी लीक का अनुसरण करते हुए, विश्वविद्यालय की बौद्धिक सरगर्मीयुक्त ज़िम्मेदारी से अपने आप को घटाकर (रिड्यूज़ कर) अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे ही प्रचारात्मक ’राजदूत’ की भूमिका का निर्वहन करेगा। यहां यह याद करना प्रासंगिक होगा कि भूतपूर्व दो कुलपतियों का कार्यकाल ऐसी ही समझदारियों से संचालित कार्यपद्धतियों की असफलता का दौर रहा है। इन्हीं विचारों की उपज में उस अकादमिक भ्रष्टाचार के उत्स हैं जिसने स्थितियों को और दयनीय बना दिया।
पिछले एक साल में, भवन आदि के निर्माण में अपेक्षाकृत तेज़ी आई है। ढांचागत निर्माण के जो काम पिछले कई सालों से प्रशासनिक इच्छा की कमी के कारण स्थगित पड़े रहे उनकी शुरुआत हो गई है। लेकिन अकादमिक तौर पर कोई भेदभावरहित व्यवस्था अब तक नहीं बन पाई है। न ही अकादमिक गुणवत्ता को बनाने का कोई पैमाना और आदर्श निर्मित किया गया है। इस बीच, कई बड़े, महत्त्वाकांक्षी जनसंपर्क समारोह आयोजित किए गए। इनमें हिंदी समाज के कई लेखक, कवि तथा आलोचकों ने अभिनंदनयुक्त भागीदारी की। आंशिक तौर पर लोगों की प्रदर्शनयुक्त भागीदारी सुनिश्चित हुई जिसके माध्यम से हिंदी के दूर-दूर तक पसरे साहित्यिक समाज को लुभावना संदेश दे दिया गया कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। और, भेदभाव के पुराने ढांचे क़ायम रहे। बस, औज़ार बदल गए। भाषा बदल गई, उसके स्वरूप में आंशिक हेरफेर किया गए लेकिन वर्चस्व के प्रतिमान नहीं बदले। अनुष्ठानिक गुणगान जारी रहे बस, उसकी पद्धतियां बदल गईं।
सत्ता के नीचे के पायदानों पर ऐसे कई लोग हैं जिनका व्यवहार प्रमाणिक रूप से जातिवादी हैं। जो अपने अधिष्ठाता, विभागाध्यक्ष या पदाधिकारी होने के रसूख का इस्तेमाल अपने भ्रष्ट आचरण को मूंदने-ढांपने के लिए करते हैं। साफ़ साफ़ असहमति व्यक्त करने वाले छात्र-छात्राओं, शिक्षकों और ग़ैर-शैक्षणिक कर्मचारियों को मानसिक तौर पर उत्पीड़ित करते हैं। अब बात बात पर भयाक्रांत करने वाली नौकरशाही घुड़कियों का एक ऐसा मज़बूत घेरा निर्मित हुआ है कि अधिकतर लोग चुपचाप प्रशासन से सुविधाजनक नज़दीकी बनाए रखने में ही अपनी भलाई समझने लगे हैं। आम छात्र-छात्राओं के बीच यह यह बात सौ फ़ीसदी प्रमाणित हो गई है कि विश्वविद्यालय में उन्हीं विद्यार्थियों को तरक़्क़ी या ’नियुक्ति’ मिलती है जो हां में हां मिलाते हुए ’फ़ील गुड’ मुद्रा में रहते हैं। अकादमिक कौंसिल में छात्र-छात्रा प्रतिनिधियों के नाम पर हुई हालिया नियुक्ति इसका सर्वाधिक ज्वलंत उदाहरण है जहां मनमाने ढंग से यह नियुक्तियां संपन्न कर ली गईं। सौ से अधिक छात्र छात्राओं के विरोध पत्र के बावजूद अब तक कोई उचित कारवाई नहीं की गई है। अंततः आंदोलन का रास्ता अख़्तियार करने वाले छात्र राहुल कांबले को अब तक न्याय नहीं मिल पाया है। आज नागपुर तथा वर्धा के स्थानीय मीडिया में जो ख़बरें छपी हैं उनमें लफ़्फ़ाज़ियों तथा स्तुतिगान का एक नपा तुला मिश्रण मौजूद है।
यह एक दारूण दृश्य है कि आज जनसंपर्क के मुखौटे और पाखंड के घटाघोप के बीच अपनी न्यायपूर्ण मांगों के लिए विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं का एक बड़ा समूह ’स्थापना दिवस’ को एक ’शोक दिवस’ के रूप में मना रहा है। तीन सौ नियमित विद्यार्थियों वाले हिंदी विश्वविद्यालय में कुछ छात्र पिछले बीस पच्चीस दिनों से भूखे बैठे हैं और ऐसे अनुष्ठान पूरे घमंड के साथ जारी हैं। ऐसे में तीन साल पुराने स्थापना दिवस समारोह की यादें ताज़ी हो जाना स्वाभाविक है, जब उस समय की संख्या के लिहाज़ से एक तिहाई छात्र-छात्राएं जेल में हों और अपनी क्रूरता को सामान्य बनाने (नॉर्मलाइज़ करने) के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन मिठाइयां बांट रहा था। क्या अब हिंदी के सक्रिय और चिंतित बुद्धिजीवियों को यह सवाल नहीं करना चाहिए कि हिंदी के नाम पर आख़िर यह कैसा समाज रचने की बुनियाद निर्मित की जा रही है?
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विश्वविद्यालय प्रशासन के विरोध में मुंडन करवाते दलित छात्र वर्धा के महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में एक ओर आज जहां ’स्थापना दिवस’ मनाया जा रहा है वहीं दूसरी ओर दलित विद्यार्थी पढ़ाई लिखाई पर अपने अधिकार को हासिल करने के लिए अनशन पर बैठे हैं। इन विद्यार्थियों ने इस दिन को ’शोक दिवस’ के रूप में मनाने का आह्वान किया है।
पिछले नौ दिसंबर को दीक्षांत समारोह के बहिष्कार से लेकर आज यह दूसरा बड़ा आयोजन हुआ, विद्यार्थियों द्वारा जिसके सामूहिक बहिष्कार की घोषणा की जा रही है। ऐसे वक्त में यहां इस पूरे आयोजन और इस ’स्थापना दिवस’ की ऐतिहासिकता पर एक नज़र डालना तर्कसंगत होगा। तीन साल पहले, 29 दिसंबर 2006 को तत्कालीन कुलपति जी गोपीनाथन के कार्यकाल में अकादमिक धांधलियों के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन में लगभग चालीस छात्र-छात्राओं को जेल भेज दिया गया था। तत्कालीन प्रशासन की निरंकुशता और बेशर्मी का एक नमूना यह था कि स्थापना दिवस के उस आयोजन में मिठाइयां बांटते हुए आदोलनरत विद्यार्थियों के बारे में मंच से एक भद्दी टिप्पणी की गई थी जिसका आशय कुछ इस तरह था कि कुछ ’सनकी’ क़िस्म के लोग यह ’समारोह’ जेल में मना रहे होंगे। अब, मंच से ऐसी बातें नहीं होंगी। हो भी नहीं सकतीं। लेकिन विश्वविद्यालय के वातावरण में आज भी अन्याय और भेदभाव को व्यापक स्तर पर प्रोत्साहित करने वाली स्थितियां मौजूद हैं। समाज में सत्ताधारी सांस्कृतिक वर्चस्व को बनाए रखने वाली सभी ताक़तें एक भिन्न रूप और भिन्न तरीक़ों से सत्ता के पायदान पर आसीन हो गई हैं। उनमें से मात्र कुछेक ज़रूरी मसलों पर वर्तमान दलित छात्र-छात्राएं आंदोलनरत हैं, लेकिन वर्तमान प्रशासन नीतिगत स्तर पर इन सारे मुद्दों को ’नाजायज़’ और व्यक्तिगत स्तर पर अपनी ’प्रतिष्ठा’ का मुद्दा मान रहा है। उसने इन्हें नज़रअंदाज़ करने और इन मुद्दों को ’पचाने’ के नए और अपेक्षाकृत बेहतर तकनीकी ईजाद कर ली है। अब ’उपलब्धियों’ का बखान करने वाले अतिरंजित जनसंपर्क द्वारा लोगों को सरलता से मूर्ख बनाया जा सकता है। सांस्थानिक जनसंपर्क द्वारा सतही प्रचार करने के इस उपक्रम से वास्तविक मुद्दों को चट कर जाने में आसानी हो जाती है। स्थानीय स्तर पर पत्रकारिता के तिकड़मों के कारण ऐसे हवाई दावों को चुनौती मिलनी भी मुश्किल हो रही है। साथ ही स्थानीय जनमानस के बीच ऐसी छवि गढ़ने की कोशिश की जाती है जैसे कि विश्वविद्यालय कोई ’असामान्य’ तथा हर तरह के सवालों से परे रहने वाला संस्थान हो। अब सक्रिय तथा गतिशील हिंदी समाज तो यहां की स्थितियों पर कोई रोज़मर्रा की निगरानी रख नहीं रहा है कि उसे इन सेकंड हैंड तथा आत्ममुग्ध विवरणों को आलोचनात्मक ढंग से परखने का मौक़ा मिले।
वर्तमान कुलपति विभूति नारायण राय को विश्वविद्यालय में आए तेरह-चौदह महीने हो चुके हैं। उनके इस एक साल के कार्यकाल और कामों के बारे में अब कुछेक वस्तुपरक टिप्पणियां कदाचित की जा सकती हैं। दिलचस्प है कि इस दौरान विश्वविद्यालय के प्रति अवधारणा और विज़न के बारे में उनकी भाषा और शब्दावली में आश्चर्यजन ढंग से, ग़ौरतलब परिवर्तन आया है। कुलपति के रूप में अपने पहले वर्धा आगमन से लेकर अब तक उन्होंने हिंदी समाज और उसकी विसंगतियों, विश्वविद्यालय से समाज की अपेक्षाएं, प्रशासन के कामकाज आदि के बारे में कई बार बयान दिए हैं जो काफ़ी उलझाने वाले अंदाज़ (पोलेमिक स्टाइल) के जीते जागते नमूने हैं। यहां एक उदाहरण देना उचित होगा जिससे उनके अकादमिक विज़न के बारे में कुछ ठोस राय बनाई जा सकती है। इस स्थापना दिवस की पूर्वसंध्या पर उन्होंने कहा, “हिंदी को मात्र साहित्य या चिंतन की भाषा नहीं बनानी है, इसे वैश्विक स्तर पर एक भाषिक राजदूत की भूमिका निभानी है।” ज़ाहिर है, ऐसा उन्होंने हिंदी विश्वविद्यालय की भूमिका के संदर्भ में कहा है। साल भर पहले, कुलपति का कार्यभार ग्रहण करते वक़्त उन्होंने कबीर को याद करते हुए कहा था कि हिंदी विश्वविद्यालय को हिंदी समाज में नवजागरण के अग्रदूत की भूमिका निभानी होगी। यहां हिंदी भाषी समाज में हिंदी के प्रगतिशील चिंतन पक्ष के प्रति एक ज़ोर था। लेकिन साल भर में शब्दावली ख़ामोश तरीक़े से बदल गई। और अब कई पदासीन लोगों को ऐसे प्रसंगों को याद करना बाल में खाल निकालने जैसा लगने लगता है।
यह एक सुपरिचित तथ्य है कि देश के भीतर हिंदी के प्रचारात्मक ’राजदूत’ की भूमिका के लिए कई हिंदी प्रचार समितियां सालों से चल रही हैं। इनके ज़िम्मे प्राथमिक काम हिंदी समाज के हिंदी के कर्मकांडी सांस्कृतिक वर्चस्व को स्थापित करते हुए उन्हें वैध ठहराने से लेकर, सड़े गले परंपरावादी विचारों के पुनरोत्पादन तक का है। एक पतित नौकरशाही मशीनरी ने इनका धंधा और आसान कर दिया है। अब हिंदी विश्वविद्यालय भी इस पटाखा तैयारी में व्यस्त है कि वह इसी लीक का अनुसरण करते हुए, विश्वविद्यालय की बौद्धिक सरगर्मीयुक्त ज़िम्मेदारी से अपने आप को घटाकर (रिड्यूज़ कर) अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे ही प्रचारात्मक ’राजदूत’ की भूमिका का निर्वहन करेगा। यहां यह याद करना प्रासंगिक होगा कि भूतपूर्व दो कुलपतियों का कार्यकाल ऐसी ही समझदारियों से संचालित कार्यपद्धतियों की असफलता का दौर रहा है। इन्हीं विचारों की उपज में उस अकादमिक भ्रष्टाचार के उत्स हैं जिसने स्थितियों को और दयनीय बना दिया।
पिछले एक साल में, भवन आदि के निर्माण में अपेक्षाकृत तेज़ी आई है। ढांचागत निर्माण के जो काम पिछले कई सालों से प्रशासनिक इच्छा की कमी के कारण स्थगित पड़े रहे उनकी शुरुआत हो गई है। लेकिन अकादमिक तौर पर कोई भेदभावरहित व्यवस्था अब तक नहीं बन पाई है। न ही अकादमिक गुणवत्ता को बनाने का कोई पैमाना और आदर्श निर्मित किया गया है। इस बीच, कई बड़े, महत्त्वाकांक्षी जनसंपर्क समारोह आयोजित किए गए। इनमें हिंदी समाज के कई लेखक, कवि तथा आलोचकों ने अभिनंदनयुक्त भागीदारी की। आंशिक तौर पर लोगों की प्रदर्शनयुक्त भागीदारी सुनिश्चित हुई जिसके माध्यम से हिंदी के दूर-दूर तक पसरे साहित्यिक समाज को लुभावना संदेश दे दिया गया कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। और, भेदभाव के पुराने ढांचे क़ायम रहे। बस, औज़ार बदल गए। भाषा बदल गई, उसके स्वरूप में आंशिक हेरफेर किया गए लेकिन वर्चस्व के प्रतिमान नहीं बदले। अनुष्ठानिक गुणगान जारी रहे बस, उसकी पद्धतियां बदल गईं।
सत्ता के नीचे के पायदानों पर ऐसे कई लोग हैं जिनका व्यवहार प्रमाणिक रूप से जातिवादी हैं। जो अपने अधिष्ठाता, विभागाध्यक्ष या पदाधिकारी होने के रसूख का इस्तेमाल अपने भ्रष्ट आचरण को मूंदने-ढांपने के लिए करते हैं। साफ़ साफ़ असहमति व्यक्त करने वाले छात्र-छात्राओं, शिक्षकों और ग़ैर-शैक्षणिक कर्मचारियों को मानसिक तौर पर उत्पीड़ित करते हैं। अब बात बात पर भयाक्रांत करने वाली नौकरशाही घुड़कियों का एक ऐसा मज़बूत घेरा निर्मित हुआ है कि अधिकतर लोग चुपचाप प्रशासन से सुविधाजनक नज़दीकी बनाए रखने में ही अपनी भलाई समझने लगे हैं। आम छात्र-छात्राओं के बीच यह यह बात सौ फ़ीसदी प्रमाणित हो गई है कि विश्वविद्यालय में उन्हीं विद्यार्थियों को तरक़्क़ी या ’नियुक्ति’ मिलती है जो हां में हां मिलाते हुए ’फ़ील गुड’ मुद्रा में रहते हैं। अकादमिक कौंसिल में छात्र-छात्रा प्रतिनिधियों के नाम पर हुई हालिया नियुक्ति इसका सर्वाधिक ज्वलंत उदाहरण है जहां मनमाने ढंग से यह नियुक्तियां संपन्न कर ली गईं। सौ से अधिक छात्र छात्राओं के विरोध पत्र के बावजूद अब तक कोई उचित कारवाई नहीं की गई है। अंततः आंदोलन का रास्ता अख़्तियार करने वाले छात्र राहुल कांबले को अब तक न्याय नहीं मिल पाया है। आज नागपुर तथा वर्धा के स्थानीय मीडिया में जो ख़बरें छपी हैं उनमें लफ़्फ़ाज़ियों तथा स्तुतिगान का एक नपा तुला मिश्रण मौजूद है।
यह एक दारूण दृश्य है कि आज जनसंपर्क के मुखौटे और पाखंड के घटाघोप के बीच अपनी न्यायपूर्ण मांगों के लिए विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं का एक बड़ा समूह ’स्थापना दिवस’ को एक ’शोक दिवस’ के रूप में मना रहा है। तीन सौ नियमित विद्यार्थियों वाले हिंदी विश्वविद्यालय में कुछ छात्र पिछले बीस पच्चीस दिनों से भूखे बैठे हैं और ऐसे अनुष्ठान पूरे घमंड के साथ जारी हैं। ऐसे में तीन साल पुराने स्थापना दिवस समारोह की यादें ताज़ी हो जाना स्वाभाविक है, जब उस समय की संख्या के लिहाज़ से एक तिहाई छात्र-छात्राएं जेल में हों और अपनी क्रूरता को सामान्य बनाने (नॉर्मलाइज़ करने) के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन मिठाइयां बांट रहा था। क्या अब हिंदी के सक्रिय और चिंतित बुद्धिजीवियों को यह सवाल नहीं करना चाहिए कि हिंदी के नाम पर आख़िर यह कैसा समाज रचने की बुनियाद निर्मित की जा रही है?
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मंगलवार, दिसंबर 29, 2009
नदी को नाला कह जिम्मेदारियों से बच जाती हैं हर सरकार
नागपुर। मानव ने जल को जीविका का साधन मान लिया, इसी कारण उसके सामने जल का गंभीर संकट उत्पन्न हो रहा है। यदि जल को जीवन माना गया होता तो इसे पोषण मिलता है। अब जल संकट से निपटने के लिए जल साक्षरता चलाने की जरूरत है। यह कहना है प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र सिंह का। वे अमरावती रोड स्थित विनोबा भावे केंद्र में जल बिरादरी की आयोजित दो दिवसीय कार्यशाला में मुख्य वक्ता के रूप में बोल रहे थे। श्री सिंह ने कहा कि नागपुर की नाग नदी पूरी तरह से नाला बन चुकी है।
राज्य के जिम्मेदार मंत्री भी इसे नदी कहने की भूल नहीं करते हैं। वे दृढ़ शब्दों में कहते हैं कि नाग नाला अब कभी नदी नहीं बन सकती है। उन्होंने कहा कि किसी भी नदी को नाला कह कर हर राज्य की सरकार अपनी जिम्मेदारियों से बच जाती है। क्योंकि सरकार जानती है कि किसी भी नदी के जमीन को कानून नहीं बदल सकता है। उन्होंने कहा कि नदी संस्कृति का अंक है। जैसे ही संस्कृति पर संभ्यता हावी होती है, नदी नाला बन जाती है। नदी के नाला होने से सरकार समेत स्थानीय निकाय की जिम्मेदारियां कम हो जाती हैं। जो शहर अपने आप को विकसित कहते हैं, उनका पैमाना यह है वे अपने यहां के बहने वाली नदी को नाला बना लेते हैं। दिल्ली युमना नदी को नाला बना कर राजनीतिक राजनधानी होने का गर्व करती है। मुंबई की भी नदी है, पर आर्थिक राजधानी होने का गर्व है। इसी तरह बराणसी में नदी नाला बन रही है और शहर सांस्कृति राजधानी होने का गर्व कर रहा है। उन्होंने कहा कि वह नदी भाग्यशाली है जिसके नाले के बदलने स्वरूप को रोकने के लिए लोग संकल्प कर रहे हैं। आज भी देश में ईमानदार लोग सक्रिय है। ऐसी लोगों के संघर्ष का ही परिणाम है कि विदर्भ में अदानी परियोजना को रद्द करना पड़ा।
श्री सिंह ने कहा कि शहरों में गांव के लोग मजबूरी में पलायन कर रहे हैं। इसे रोकना बेहद जरूरी है। मजबूरी में शहर आए ग्रामीण बेवश होकर बदहाल जिंदगी जी रहा है। मजबूरी में कच्ची और मलीन बस्तियां बन रही हैं। ज्यादा कमाने के बाद भी वह खुश नहीं है। सरकार को इन ग्रामीणों की मजबूरी समझना चाहिए। उसे रोजगार के लिए गांव में ही विकल्प उपलब्ध कराना चाहिए। उन्होंने कहा कि इस समय हिंदुस्तान में संस्कृति ओर संभ्यता का संघर्ष हो रहा है। शहरों में सभ्यता हावी है। यह गांवों में भी प्रसारित हो रही है। संस्कृति पंचतत्वों से बनी है। इसलिए संस्कृति में आत्मा है। संभ्यता की प्रवृति ठीक नहीं है। यह शोषण से विकसित हुआ है। इसमें कोई आत्मा नहीं है। इसलिए संस्कृति और संभ्यता के अंतर को समझना बेहद जरूरी है। श्रोताओं से बातचीत के दौरान राजेन्द्र सिंह ने कहा कि आकर््िटेक इंजीनियरों को जन संरक्ष्ण के लिए आगे आना चाहिए। हर नये बनने वाले मकान व भवन में प्रकृति जल के संरक्षण के उपाय करना चाहिए। मनपा के आयुक्त असीम गुप्त कार्यशाला का उद्घाटन करने वाले थे। लेकिन वे उपस्थित नहीं हो सके। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ पर्यावरण विशेषज्ञ रमेश लाडखेडकर ने किया। प्रस्ताविक भाषण जल बिरादरी के विदर्भ समन्वयक श्याम पांढरी पांडे ने दिया। जल बिरादरी के नागपुर समन्वयक स्वानंद सोनी ने अतिथियों का स्वागत किया।
भारत को बार्बाद चीन का हाईड्रोजन परियोजना
एक सवाल के जवाब में राजेंद्र सिंह ने बताया कि ब्रह्मपुत्र नदी के उपर चीन अपनी सीमा में चांग नदी के पानी से हाइड्रोजन बम बनाने की परियोजना शुरू करने वाला है। अभी परियोजना आरंभिक चरण में है। अभी वहां डैम बनाने के लिए स्थानीय निवासियों को हटाया गया है। भारत सरकार इस परियोजन पर यह कहकर विरोध नहीं कर रही है कि परियोजना चीन अपनी सीमा के अंदर शुरू कर रहा है। जबकि हकीकत यह है कि इसका पूरा नुकसान केवल भारत का है। वह बाढ़ के जरिये भारत को परेशान कर सकता है। यह स्थिति वैसे ही है जैसे कोई अपने घर के दिवाल के पास कोई बम चलाने के लिए पलीते में आग लगा दिया हो। ऐसी स्थिति में यह कह कर अपनी जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि यह काम घर की सीमा से बाहर हो रहा है।
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राज्य के जिम्मेदार मंत्री भी इसे नदी कहने की भूल नहीं करते हैं। वे दृढ़ शब्दों में कहते हैं कि नाग नाला अब कभी नदी नहीं बन सकती है। उन्होंने कहा कि किसी भी नदी को नाला कह कर हर राज्य की सरकार अपनी जिम्मेदारियों से बच जाती है। क्योंकि सरकार जानती है कि किसी भी नदी के जमीन को कानून नहीं बदल सकता है। उन्होंने कहा कि नदी संस्कृति का अंक है। जैसे ही संस्कृति पर संभ्यता हावी होती है, नदी नाला बन जाती है। नदी के नाला होने से सरकार समेत स्थानीय निकाय की जिम्मेदारियां कम हो जाती हैं। जो शहर अपने आप को विकसित कहते हैं, उनका पैमाना यह है वे अपने यहां के बहने वाली नदी को नाला बना लेते हैं। दिल्ली युमना नदी को नाला बना कर राजनीतिक राजनधानी होने का गर्व करती है। मुंबई की भी नदी है, पर आर्थिक राजधानी होने का गर्व है। इसी तरह बराणसी में नदी नाला बन रही है और शहर सांस्कृति राजधानी होने का गर्व कर रहा है। उन्होंने कहा कि वह नदी भाग्यशाली है जिसके नाले के बदलने स्वरूप को रोकने के लिए लोग संकल्प कर रहे हैं। आज भी देश में ईमानदार लोग सक्रिय है। ऐसी लोगों के संघर्ष का ही परिणाम है कि विदर्भ में अदानी परियोजना को रद्द करना पड़ा।
श्री सिंह ने कहा कि शहरों में गांव के लोग मजबूरी में पलायन कर रहे हैं। इसे रोकना बेहद जरूरी है। मजबूरी में शहर आए ग्रामीण बेवश होकर बदहाल जिंदगी जी रहा है। मजबूरी में कच्ची और मलीन बस्तियां बन रही हैं। ज्यादा कमाने के बाद भी वह खुश नहीं है। सरकार को इन ग्रामीणों की मजबूरी समझना चाहिए। उसे रोजगार के लिए गांव में ही विकल्प उपलब्ध कराना चाहिए। उन्होंने कहा कि इस समय हिंदुस्तान में संस्कृति ओर संभ्यता का संघर्ष हो रहा है। शहरों में सभ्यता हावी है। यह गांवों में भी प्रसारित हो रही है। संस्कृति पंचतत्वों से बनी है। इसलिए संस्कृति में आत्मा है। संभ्यता की प्रवृति ठीक नहीं है। यह शोषण से विकसित हुआ है। इसमें कोई आत्मा नहीं है। इसलिए संस्कृति और संभ्यता के अंतर को समझना बेहद जरूरी है। श्रोताओं से बातचीत के दौरान राजेन्द्र सिंह ने कहा कि आकर््िटेक इंजीनियरों को जन संरक्ष्ण के लिए आगे आना चाहिए। हर नये बनने वाले मकान व भवन में प्रकृति जल के संरक्षण के उपाय करना चाहिए। मनपा के आयुक्त असीम गुप्त कार्यशाला का उद्घाटन करने वाले थे। लेकिन वे उपस्थित नहीं हो सके। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ पर्यावरण विशेषज्ञ रमेश लाडखेडकर ने किया। प्रस्ताविक भाषण जल बिरादरी के विदर्भ समन्वयक श्याम पांढरी पांडे ने दिया। जल बिरादरी के नागपुर समन्वयक स्वानंद सोनी ने अतिथियों का स्वागत किया।
भारत को बार्बाद चीन का हाईड्रोजन परियोजना
एक सवाल के जवाब में राजेंद्र सिंह ने बताया कि ब्रह्मपुत्र नदी के उपर चीन अपनी सीमा में चांग नदी के पानी से हाइड्रोजन बम बनाने की परियोजना शुरू करने वाला है। अभी परियोजना आरंभिक चरण में है। अभी वहां डैम बनाने के लिए स्थानीय निवासियों को हटाया गया है। भारत सरकार इस परियोजन पर यह कहकर विरोध नहीं कर रही है कि परियोजना चीन अपनी सीमा के अंदर शुरू कर रहा है। जबकि हकीकत यह है कि इसका पूरा नुकसान केवल भारत का है। वह बाढ़ के जरिये भारत को परेशान कर सकता है। यह स्थिति वैसे ही है जैसे कोई अपने घर के दिवाल के पास कोई बम चलाने के लिए पलीते में आग लगा दिया हो। ऐसी स्थिति में यह कह कर अपनी जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि यह काम घर की सीमा से बाहर हो रहा है।
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मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते
एम.ए रफी
नागपुर। नागपुर में विधान सभा का शीतसत्र समाप्त हो गया। विधानभवन परिसर में प्रसिद्ध सूफी संत सैय्यद जलालुद्दीन बाबा का दरबार मौजूद है। वर्षों पुरानी यह मजार 'मीठा नीम दरबारÓ कहलाती है। इसी मज़ार के ठीक सामने कुछ लोग खुली सड़क पर आसमान के नीचे न केवल दिन गुजार रहे हैं बल्कि, वे रातें भी यही गुजारते हैं। इनका जीवन मस्ती में गुजर रहा है, लेकिन क्या वे लोग सही मायने में सुखी हंै?
रुखी-सुखी बासी कुछ भी मिल गया तो खा लिया। नहीं मिला तो राम-रहीम का नाम लेकर घुटने से पौरों को दबा कर सोने लगे। भूख जब तक सही जा सकी, नींद आती रही। नहीं तो उठ कर बैठ गए। घुटनों को सुकेड़ कर पेट दबाये आसमान को निहारते-निहारते रात गुजार दी। विधानसभा को शीतसत्र के दौरान भी ये लोग बाबा के दरबार के पास थे। सरकारी महकमे की चमचमाती लाल, पिली बत्तियों में चलने वाले सरकार और अधिकारियों की शायद ही इधर नजर पड़ी होगी। यहां से गुजरने वाले शायद ही कभी सोचते होंगे कि यहां कोई बंदा बिना चादर संतरानगरी की शबनमी ठंड में रात गुजारता होगा। मजार में चादर चढ़ाने के बजाय एक चादर यहां भी चढ़ा लिया जाए। जब संवाददाता ने इन लोगों से पूछा कि यहां आप लोग सरकार से क्या चाहते हैं, तो उन्होंने उलटे सवाल दाग दिया। कौन सरकार, कैसी सरकार? यहां तो हमे कोई सरकार नजर नहीं आती। गरीब, बेसहारों की यह कहानी यही खत्म नहीं होती। शहर की अधिकांश दरगाहों, मंदिरों के सामने, रेल्वे स्टेशन के करीब, चौराहों और फुटपाथों पर यह नजारा दिखाई दे रहा है। कोई एक चादर में 10 डिगी तक तापमान का ठंड गुजार रहा है, तो कोई बोरा ओठकर चैन की निंद में डूबा है। ऐसे जगहों पर कुछ लोग ऐसे भी नजर आते हैं जो एक अखबार बिछाकर रात गुजारते हैं। इस ठंड में ऐसी जगहों पर रात गुजारने वालों में अधिकतर मजदूर, भिखारी और कुछ अनाथ तथा बेसहारा शामिल होते हैं। ऐसे लोगों पर किसी शायद ने ठीक ही लिखा है:-
सो जाते है फुटपाथ पर अखबार बिछा कर, मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।
संरक्षण अधिकारी की बाट जोहता घरेलू हिंसा सुरक्षा कानून
संजय स्वदेश
नागपुर। महिलाओं के लिए घरेलू हिंसा संरक्षण कानून के लागू हुए तीन साल से भी ज्यादा का समय हो गया। पर अनेक राजयों में अभी तक संरक्षण अधिकारियों की नियुक्ति नहीं की। इसकी अतिरिक्त जिम्मेदारी राज्य में महिला बाल कल्याण अधिकारी व समाज कल्याण अधिकारियों को दी गई है। घर के भीतर अपनों से हिंसा झेल रही महिलाएं, तुरंत न्याय की उम्मीद से इस कानून के तहत मुक दमें दर्ज तो करा रही हैं, पर संरक्षण अधिकारियों की नियुक्ति नहीं होने से वे वकीलों का सहारा लेने को मजबूर हैं। कोर्ट में मामले लंबे खिंच रहे हैं। कानून का लाभ पहुंचाने के लिए सरकार ने अलग से संरक्षण अधिकारियों की नियुक्ति की बात कही थी, पर ऐसा हुआ नहीं।
पहले से काम के बोझ तले दबे महिला बाल-कल्याण विभाग या जिला समाज कल्याण अधिकारी घरेलू हिंसा संरक्षण के मामले में महत्वूपर्ण भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं। कानून में साफ कहा गया है कि राज्य सरकार जनसंचार माध्यमों का सहारा लेकर महिलाओं को इस कानून के बारे में अधिक-से अधिक जागरूक करेंगी। वहीं जब महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकायत लेकर थाने पहुंचती है, तो तो पहले उन्हें परामर्श देकर मामले को सुलझाने की सलाह दी जाती है। कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने नागपुर के प्रमुख थानों में महिला परामर्श केंद्र संचालित किए हैं, जहां थाने में आने वाले घरेलू हिंसा से जुड़े मामलों में संबंधित लोगों को परामर्श देकर समस्या का समाधान किया जाता है।
शहरी क्षेत्र में जिन थानों में ऐसे परामर्श केंद्र चल रहे हैं, वहां हर माह करीब 20-25 मामले आते हैं। यहां महिलाएं तब आती हैं जब घरेलू झगड़े में उन पर होने वाले अत्याचार बर्दास्त से बाहर हो जाता है। इन दिनों आने वाले अधिकतर मामले शराब पीकर पत्नी को पीटने के हैं। आश्चर्य की बात है कि उच्च शिक्षित और अच्छे घरों की महिलाएं ज्यादा प्रताडि़त हैं। ऐसे मामलों में थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने से पूर्व परामर्श की सुविधा है। लेकिन थाने के बाहर ऐसा कोई केंद्र नहीं होने से महिलाएं थाने में बेहिचक नहीं आ पाती हैं।
पढ़ी लिखी महिलाएं ज्यादा प्रताडि़त
समाज में यह धारणा है कि गरीब समुदाय के लोग अपनी पत्नियों को ज्यादा प्रताडि़त करते हैं, लेकिन आने वाले केसों की हकीकत यह है कि पढ़े-लिखे परिवारों में महिलाएं ज्यादा प्रताडि़त हो रही हैं। कई मामलों में यह होता है कि पति-पत्नी दोनों कामकाजी होते हैं, तो कोई किसी की नहीं सुनना चाहता है। पति की मानसिकता यह होती है कि पत्नी लोकलाज के कारण थाने नहीं पहुंचेगी, इसलिए वह जुल्म करने से नहीं डरते हैं। आजकल डॉक्टर, इंजीनियर जैसे दूसरे प्रतिष्ठिïत सेवाओं से जुड़े परिवारों की महिलाएं शिकायत लेकर थाने पहुंचने लगी हैं। संरक्षण अधिकारियों की नियुक्ति नहीं होने से गैर-सरकारी संस्थाओं की और से संचालित विभिन्न केंद्र में महिलाओं को रखने की व्यवस्था की गई है। लेकिन संरक्षण अधिकारियों की नियुक्ति नहीं होने से घरेलू हिंसा पीडि़तों के लिए स्वतंत्र पुर्नवसन केंद्र की भी व्यवस्था नहीं हो पाई है।
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वोट की कानूनी अनिवार्यता से दूर होगा राजनीति से थ्री-सी फैक्टर
संजय स्वदेश
नागपुर। भाजपा विजन 2025 नाम से एक कार्ययोजना तैयार करने जा रही है जिसमें पार्टी की भविष्य की रुपरेखा और कार्यों का वर्णन होगा। इस पर कार्य चल रहा है। फरवरी में पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक के बाद नये पदाधिकारियों की नियुक्ति होगी। फिर नये पदाधिकारियों की सहमति से विजन-2025 की नीति के अनुरूप कार्य किया जाएगा। यह कहना है कि भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का। वे मंगलवार को धंतोली स्थित तिलक
पत्रकार भवन में मिट द प्रेस कार्यक्रम में पत्रकारों से बातचीत कर रहे थे।
जनांदोलन की तैयारी
अपने विजन डाक्यूमेन्ट की झलक देते हुए नितिन गडकरी ने कहा कि जहां एक ओर भाजपा की कोशिश होगी कि मुसलमानों के मन में भाजपा को लेकर जो भय है वह दूर किया जाए वहीं दूसरी ओर देश के निचले तबकों तक पहुंचने की कोशिश की जाएगी। नितिन गडकरी का कहना है कि भाजपा की कोशिश होगी कि देश के समस्त दलितों में कम से कम 10 प्रतिशत दलित भाजपा के समर्थक हों। सबसे पहले इस नीति पर निकट भविष्य में बिहार में होने वाले चुनाव के दौरान कार्य किया जाएगा। मंहगाई और सुरक्षा को मुद्दा बनाकर भाजपा एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू करेगी। स्थानीय स्तर के मुद्दों को उठाने के लिए भी भाजपा कार्यकर्ता आंदोलन का सहारा लेगे। नितिन गडकरी ने संकेत दिया है कि अब पार्टी सड़क पर उतरकर लोगों की समस्याओं को उठायेगी। राष्ट्र की सर्वाधिक उन्नति कैसे हो, इस पर पार्टी प्रोफेशनल तरीके से कार्य करेगी।
राजनीति का थ्री-सी फैक्टर
श्री गडकरी ने कहा कि यदि मतदान को कानूनी रूप से अनिवार्य कर दिया जाए तो राजनीति को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले थ्री-सी फैक्टर (क्राइम, कैश और कास्ट) का प्रभाव काफी कम हो सकता है। गुजरात में मतदान की कानूनी अनिवार्यता के लिए नरेन्द्र मोदी की पहल अच्छी है। यह कानून राष्ट्रीय स्तर पर बननी चाहिए। यह राष्ट्रीय हित में है। भाजपा शासित प्रदेशों में यह कानून बनाया जा सकता है, लेकिन ऐसा करने पर यह कह कर शोर माचाया जाएगा कि यह भाजपा का एजेंडा है। बेहतर होगा कि इसके लिए लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसकी पहल करे। संसद में इस कानून को रखे तो इसे भारतीय जनता पार्टी पूरी तरह से समर्थन करेगी।
झारखंड में शिबू सोरेन के साथ गठबंधन की सरकार बनाने पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में श्री गडकरी ने कहा कि इसके लिए पार्टी में आम राय लेकर ही निर्णय लिया गया था। कुछ लोग इसके पक्ष में थे, कुछ लोग विपक्ष में बैठने की बात पर राजी थे। लेकिन राजनीति एक युद्ध है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसी स्थिति आती है। इन्हीं स्ििथतियों में हमें जनतहित में बेहतर मार्ग निकालना होगा।
मुस्लिमों को कांग्रेस ने क्या दिया
गडकरी ने कांग्रेस को आड़े हाथ लेते हुए कहा कि 62 साल के शासन में कांग्रेस ने मुस्लिम समुदाय को क्या दिया। आज मुस्लिम समुदाय के बहुसंख्यक लोग खोमचा लगाकर, ट्रक ड्राइवर, क्लीनर, फेरीवाले के रूप में अपना जीवन यापन कर रहे हैं। निरक्षरता आज भी है। भाजपा इस समुदाय के उन्नति के लिए पहल करेगी। इन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ेगी। वक्फ बोर्ड की जिन जमीनों ने राजनेताओं ने कब्जा कर लिया है, उसे वापस लेकर, वहां शैक्षणिक संस्थान बनाकर मुस्लिम समुदाय के लिए उन्नति की नई राह खोली जा सकती है।
स्वतंत्र विदर्भ के पक्ष में भाजपा
गडकरी ने एक सवाल के जवाब में कहा केंद्र सरकार तेलंगाना मुद्दे को आग देने का कार्य कर रही है। एनडीए के कार्यकाल में तीन पृथक राज्य- झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ असानी से बन गए थे। उन्होंने कहा कि पार्टी पृथक विदर्भ राज्य के पक्ष में है। इसके लिए पार्टी ने भुवनेश्वर में आयोजित एक बैठक में ही इसके इसे अपने एजेंडे में शामिल कर लिया था। अब केंद्र सरकार इसे संसद में रखे तो इसका भरपूर समर्थन किया जाएगा।
नागपुर। भाजपा विजन 2025 नाम से एक कार्ययोजना तैयार करने जा रही है जिसमें पार्टी की भविष्य की रुपरेखा और कार्यों का वर्णन होगा। इस पर कार्य चल रहा है। फरवरी में पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक के बाद नये पदाधिकारियों की नियुक्ति होगी। फिर नये पदाधिकारियों की सहमति से विजन-2025 की नीति के अनुरूप कार्य किया जाएगा। यह कहना है कि भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का। वे मंगलवार को धंतोली स्थित तिलक
पत्रकार भवन में मिट द प्रेस कार्यक्रम में पत्रकारों से बातचीत कर रहे थे।
जनांदोलन की तैयारी
अपने विजन डाक्यूमेन्ट की झलक देते हुए नितिन गडकरी ने कहा कि जहां एक ओर भाजपा की कोशिश होगी कि मुसलमानों के मन में भाजपा को लेकर जो भय है वह दूर किया जाए वहीं दूसरी ओर देश के निचले तबकों तक पहुंचने की कोशिश की जाएगी। नितिन गडकरी का कहना है कि भाजपा की कोशिश होगी कि देश के समस्त दलितों में कम से कम 10 प्रतिशत दलित भाजपा के समर्थक हों। सबसे पहले इस नीति पर निकट भविष्य में बिहार में होने वाले चुनाव के दौरान कार्य किया जाएगा। मंहगाई और सुरक्षा को मुद्दा बनाकर भाजपा एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू करेगी। स्थानीय स्तर के मुद्दों को उठाने के लिए भी भाजपा कार्यकर्ता आंदोलन का सहारा लेगे। नितिन गडकरी ने संकेत दिया है कि अब पार्टी सड़क पर उतरकर लोगों की समस्याओं को उठायेगी। राष्ट्र की सर्वाधिक उन्नति कैसे हो, इस पर पार्टी प्रोफेशनल तरीके से कार्य करेगी।
राजनीति का थ्री-सी फैक्टर
श्री गडकरी ने कहा कि यदि मतदान को कानूनी रूप से अनिवार्य कर दिया जाए तो राजनीति को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले थ्री-सी फैक्टर (क्राइम, कैश और कास्ट) का प्रभाव काफी कम हो सकता है। गुजरात में मतदान की कानूनी अनिवार्यता के लिए नरेन्द्र मोदी की पहल अच्छी है। यह कानून राष्ट्रीय स्तर पर बननी चाहिए। यह राष्ट्रीय हित में है। भाजपा शासित प्रदेशों में यह कानून बनाया जा सकता है, लेकिन ऐसा करने पर यह कह कर शोर माचाया जाएगा कि यह भाजपा का एजेंडा है। बेहतर होगा कि इसके लिए लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसकी पहल करे। संसद में इस कानून को रखे तो इसे भारतीय जनता पार्टी पूरी तरह से समर्थन करेगी।
झारखंड में शिबू सोरेन के साथ गठबंधन की सरकार बनाने पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में श्री गडकरी ने कहा कि इसके लिए पार्टी में आम राय लेकर ही निर्णय लिया गया था। कुछ लोग इसके पक्ष में थे, कुछ लोग विपक्ष में बैठने की बात पर राजी थे। लेकिन राजनीति एक युद्ध है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसी स्थिति आती है। इन्हीं स्ििथतियों में हमें जनतहित में बेहतर मार्ग निकालना होगा।
मुस्लिमों को कांग्रेस ने क्या दिया
गडकरी ने कांग्रेस को आड़े हाथ लेते हुए कहा कि 62 साल के शासन में कांग्रेस ने मुस्लिम समुदाय को क्या दिया। आज मुस्लिम समुदाय के बहुसंख्यक लोग खोमचा लगाकर, ट्रक ड्राइवर, क्लीनर, फेरीवाले के रूप में अपना जीवन यापन कर रहे हैं। निरक्षरता आज भी है। भाजपा इस समुदाय के उन्नति के लिए पहल करेगी। इन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ेगी। वक्फ बोर्ड की जिन जमीनों ने राजनेताओं ने कब्जा कर लिया है, उसे वापस लेकर, वहां शैक्षणिक संस्थान बनाकर मुस्लिम समुदाय के लिए उन्नति की नई राह खोली जा सकती है।
स्वतंत्र विदर्भ के पक्ष में भाजपा
गडकरी ने एक सवाल के जवाब में कहा केंद्र सरकार तेलंगाना मुद्दे को आग देने का कार्य कर रही है। एनडीए के कार्यकाल में तीन पृथक राज्य- झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ असानी से बन गए थे। उन्होंने कहा कि पार्टी पृथक विदर्भ राज्य के पक्ष में है। इसके लिए पार्टी ने भुवनेश्वर में आयोजित एक बैठक में ही इसके इसे अपने एजेंडे में शामिल कर लिया था। अब केंद्र सरकार इसे संसद में रखे तो इसका भरपूर समर्थन किया जाएगा।
शनिवार, दिसंबर 26, 2009
सुधांशु महाराज के सहयोगियों की गुंडागर्दी
विश्व जागृति मिशन के खिलाफ थाने में मामला दर्ज
संजय स्वदेश
नागपुर। आए दिन साधु संतों के कारनामों की खबरें मीडिया की सुर्खियां बनती हैं। पिछले दिनों संत आसाराम बापू पर पुलिस ने एफआईआर दर्ज किया। अभी यह मामला शांत भी नहीं हुआ था कि नागपुर के रेशिमबाग मैदान में चल रहे विश्व जागृति मिशन के आचार्य सुधांशु महाराज से जुड़ा मामला सुर्खियों में आया है। मिशन के खिलाफ तहसील थाने में मारपीट का मामला दर्ज हुआ है।
संत सुधांशु महाराज के खासमखास साथी रहे एम.पी. मानसिंगका ने उन पर गंभीर आरोपों लगाएं हैं। मानसिंगका ने 26 दिसंबर को 'दैनिक 1857Ó को दिए एक विज्ञापन के माध्यम से सुधांशु महाराज के विश्व जागृति मिशन पर गंभीर आरोप लगाए, जिसके प्रकाशित होते ही उनके भक्तों में खलबली मच गई। सुधांशु महाराज के साथ कई वर्ष बिताने वाले मानसिंगका ने सुधांशु महाराज से 22 सवाल पूछते हुए दावा किया है कि इनके सही उत्तर वे नहीं दे सकते हैं, क्योंकि सुधांशु महाराज दोषी है।
रेशिमबाग मैदान में चल रहे विराट सत्संग उत्सव में जब 'दैनिक 1857Ó को भक्तों ने पढ़ा तो खलबली बच गई। भक्तों के हाथों में 'दैनिक 1857Ó में प्रकाशित विज्ञापन को देखते ही सुधांशु महाराज के स्वयं सेवक आक्रोशित हो गए। उन्होंने खुलेआम गुंडों जैसा बर्ताव करते हुए अखबार की प्रतियों को जनता से छिनना शुरु किया। रेशिमबाग मैदान के बाहर खड़े अखबार बेचने वाले हॉकर्स धर्मदास केशव रंगारी (35), सचिन ज्ञानेश्वर वांढरे को सरेआम पीटना शुरू कर दिया। उनके मोबाइल फोन छिन लिये। अचानक हुई इस घटना से संत-संग परिसर का महौल गरमा गया। दोनों हॉकरों से मारपीट करते हुए पुलिस स्टेशन कोतवाली लाया गया। अखबार में प्रकाशित विज्ञापन से क्रोधित होकर विश्व जागृति मिशन के स्वयंसेवकों ने अपनी असभ्यता का परिचय देकर उन हॉकर्स को पीटा, जिनका इसमें कोई कुसूर नहीं है। पुलिस स्टेशन में विश्व जागृति मिशन के पदाधिकारियों द्वारा एम.पी. मानसिंगका समेत 'दैनिक 1857Ó बेचनेवाले दोनों हॉकरों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई गई। जिसकी जांच की जा रही है। अन्यायग्रस्त दोनों हॉकरों ने भी सुधांशु महाराज के स्वयंसेवकों पर मारपीट, डराने, धमकाने के बारे में रिपोर्ट दर्ज करवाई है। जिसके तहत पुलिस ने धारा 323, 506 आयपीसी का मामला दर्ज कर लिया है।
एम.पी. मानसिंगका और सुधांशु महाराज की आपसी खटपट पुरानी है। दोनों ने एक-दूसरे के खिलाफ अनेक जगहों पर रिपोर्ट दर्ज करा रखी हैं। कुछ मामले तो कोर्ट में विचाराधीन बताये जा रहे हैं। एम.पी.मानसिंगका ने खुलेआम सुंधाशु महाराज को एक सार्वजनिक मंच पर बहस की चुनौती दी है, ताकि उनके लगाये आरोपों के जवाब जनता जान सके। मानसिंगका का कहना है कि मिशन की ओर से टैक्स बचाने के नाम पर दान के रूप में झूठे और जाली कागजात बनाकर लाखों रूपये की लूट की जा रही है। सरकारी विभाग को झूठी जानकारी देकर करोड़ों, अरबों रुपयों का गबन इस संस्था द्वारा किया जा रहा है। मानसिंगका कहते हैं कि धर्म के नाम पर किया जा रहा अनैतिक व्यापार बंद होना चाहिये।
शुक्रवार, दिसंबर 25, 2009
दिनाकरन दलित ईसाई हैं, इसलिए खिलाफत हो रही है
नवभारत टाइम्स
नई दिल्ली।। अनुसूचित जाति व जनजाति संगठनों के अखिल भारतीय महासंघ के अध्यक्ष उदित राज ने कहा है कि कर्न
ाटक के चीफ जस्टिस दिनाकरन के खिलाफ महाभियोग चलाने का अभियान इसलिए शुरू किया गया है क्योंकि वह दलित ईसाई हैं। उदित राज ने कहा कि हम भ्रष्टाचार का समर्थन नहीं करेंगे लेकिन इसी आधार पर अन्य हाई कोर्टों के जजों के खिलाफ महाभियोग क्यों नहीं चलाया गया जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप लग चुके हैं। उन्होंने कहा कि अन्य आरोपी जजों के खिलाफ इसी तरह की चिंता क्यों नहीं दिखाई गई। उन्होंने कहा कि इस बारे में बीजेपी के सांसद जरूरत से अधिक चिंता दिखा रहे हैं जिससे उनकी मानसिकता का पता लगता है।
डा. उदित राज ने मिसाल दे कर बताया कि कोलकाता हाई कोर्ट के एक जज के खिलाफ महाभियोग का मामला चलाने की सिफारिश की गई और इसे सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने मंजूरी दे दी लेकिन इसके बावजूद महाभियोग नहीं चलाया गया। इसी तरह गाजियाबाद प्रविडेंट फंड मामले में कई जजों के शामिल होने की बात उजागर हुई और इनमें एक जज फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के जज बन चुके हैं लेकिन इनके खिलाफ महाभियोग जैसी बात नहीं की जाती है। उन्होंने आरोप लगाया कि इसी तरह एक और जज ने अपना झूठा जन्म प्रमाण पत्र जमा किया और अपने प्रभावों का इस्तेमाल कर एक रुपये गज की दर से प्लाट ग्वलियर में आवंटित करवा लिया। इसी तरह चंडीगढ़ की एक जज के निवास पर 15 लाख रुपये नकद पाए गए। लेकिन इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं की गई।
नई दिल्ली।। अनुसूचित जाति व जनजाति संगठनों के अखिल भारतीय महासंघ के अध्यक्ष उदित राज ने कहा है कि कर्न
ाटक के चीफ जस्टिस दिनाकरन के खिलाफ महाभियोग चलाने का अभियान इसलिए शुरू किया गया है क्योंकि वह दलित ईसाई हैं। उदित राज ने कहा कि हम भ्रष्टाचार का समर्थन नहीं करेंगे लेकिन इसी आधार पर अन्य हाई कोर्टों के जजों के खिलाफ महाभियोग क्यों नहीं चलाया गया जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप लग चुके हैं। उन्होंने कहा कि अन्य आरोपी जजों के खिलाफ इसी तरह की चिंता क्यों नहीं दिखाई गई। उन्होंने कहा कि इस बारे में बीजेपी के सांसद जरूरत से अधिक चिंता दिखा रहे हैं जिससे उनकी मानसिकता का पता लगता है।
डा. उदित राज ने मिसाल दे कर बताया कि कोलकाता हाई कोर्ट के एक जज के खिलाफ महाभियोग का मामला चलाने की सिफारिश की गई और इसे सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने मंजूरी दे दी लेकिन इसके बावजूद महाभियोग नहीं चलाया गया। इसी तरह गाजियाबाद प्रविडेंट फंड मामले में कई जजों के शामिल होने की बात उजागर हुई और इनमें एक जज फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के जज बन चुके हैं लेकिन इनके खिलाफ महाभियोग जैसी बात नहीं की जाती है। उन्होंने आरोप लगाया कि इसी तरह एक और जज ने अपना झूठा जन्म प्रमाण पत्र जमा किया और अपने प्रभावों का इस्तेमाल कर एक रुपये गज की दर से प्लाट ग्वलियर में आवंटित करवा लिया। इसी तरह चंडीगढ़ की एक जज के निवास पर 15 लाख रुपये नकद पाए गए। लेकिन इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं की गई।
गुरुवार, दिसंबर 24, 2009
हरा ही रह गया जख्म, सरकार छल कर चली गई
संजय स्वदेश
नागपुर। नागपुर के शीतसत्र में पृथक विदर्भ के मुद्दे को जोर पकड़ते देख भले ही सरकार ने विदर्भ के लिए 99 घोषणाएं कर दी हों, विदर्भ के बुद्धिजीवियों में यह चर्चा है कि ये घोषणाएं भरमाने भर के लिए हैं। विदर्भवासियों का ध्यान पृथक विदर्भ आंदोलन से हटाने के लिए है। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और उप मुख्यमंत्री छगन भुजबल ने 99 घोषणाएं करते हुए 10 हजार करोड़ के विकास पैकेज की नियमित वार्षिक बजट से अतिरिक्त राशि की बात कही है। पैकेज के नियोजन की चाबी तो महाराष्ट्र सरकार ने अपने पास ही रख ली। पहले भी विदर्भ के लिए लुभावनी घोषणाएं हुई, पर परिणाम कभी भी संतोषजनक नहीं निकल पाया। सरकार का वादा है कि अगले तीन साल में विदर्भ की तमाम सिंचाई और कृषि समेत अन्य सभी विकास की 99 योजनाओं पर यह अतिरिक्त राशि खर्च की जाएगी, पर योजनाओं को समयावधि में पूरा करने के विषय पर निगरानी की जिम्म्ेदारी के लिए कोई एजेंसी तय नहीं की गई है। विदर्भ जनआंदोलन समिति के अध्यक्ष किशोर तिवारी का कहना है कि जिन घोषणाओं को पैकेज का नाम दिया गया है, वास्तव में पैकेज है ही नहीं। सभी घोषणाएं पिछले बजट में कही गई बातों को एक साथ जोड़ कर पैकेज बनाने की कोशिश की गई है। सरकार ने जिस हाऊ सिंग योजना की बात की है, वह केंद्र सरकार की योजना है। कई क्षेत्रों में बैकलॉग है, उस पर कुछ भी नहीं कहा गया।
फिलहाल विदर्भ में सूखा पड़ा है। मवेशियों के लिए चारा नहीं है। संभावना थी कि शीतसत्र में इसके लिए सरकार कुछ खास करेगी। लेकिन ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। विपक्ष प्रभावी नहीं दिखा। विदर्भ की जनता बेहाल हो चुकी है। किसानों को अब उनकी उपज की कीमत 2011 में मिलेगी। गंभीर समस्या यह है कि अब 2010 में किसानों का गुजारा कैसे चलेगा। सरकार के सभी पहले के वादे झूठे निकले हैं।
ज्ञात हो कि पिछली बार शीतसत्र में नागपुर में जीरो लोड शेडिंग की घोषणा की गई थी लेकिन घोषणा पर आज तक अमल नहीं किया गया। अमरावती से 350 करोड़ के प्रसंस्करण संयंत्र को नांदेड स्थानांतरित कर दिया गया। विदर्भ की सिंचाई परियोजनाओं की राशि कहीं और खर्च किये जाने और विदर्भ की परियोजनाओं को अधर में छोडऩे के अनेक उदाहरण हैं।
महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव, सरकार बनने की गहमागहमी और विभागों की बंटवारे के खींचतान के बीच 13 बड़ी बिजली कंपनियां किसानों के लिए सिंचाई के पानी पर कानूनी रूप से डाका डालने में सफल हो गई। पहले महाराष्ट्र में चल रही बिजली परियोजनाओं राज्य सरकार की इकाई सिंचाई विकास महामंडल को अपने उस प्रस्ताव पर मंजूरी ले लिया है, जिसमें बिजली परियोजनाओं के लिए सिंचाई परियोजनाओं से पानी की मांग की गई थी। मंजूरी के बाद सिंचाई की विभिन्न परियोजनाओं से करीब 324.51 एमएमक्यूब पानी बिजली कंपनियों को मिलेगा। जिन बिजली कंपनियों को सिंचाई का पानी दिया जाएगा, उसमें विदर्भ की कई सिंचाई परियांजनाएं भी हैं। इसके साथ ही विदर्भ की बिजली से महाराष्ट्र के अन्य क्षेत्र प्रकाशमान हो रहे हैं। लेकिन विदर्भ के कल कारखानों और किसानों को बिजली से वंचित रहता पड़ता है। खनिज और वन संपदा के साथ जल स्रोतों की उपलब्धता विदर्भ के विकास के लिए पर्याप्त है। साफ है कि पैकेज आंकड़ों की बाजीगरी के अलावा कुछ भी नहीं है।
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नागपुर। नागपुर के शीतसत्र में पृथक विदर्भ के मुद्दे को जोर पकड़ते देख भले ही सरकार ने विदर्भ के लिए 99 घोषणाएं कर दी हों, विदर्भ के बुद्धिजीवियों में यह चर्चा है कि ये घोषणाएं भरमाने भर के लिए हैं। विदर्भवासियों का ध्यान पृथक विदर्भ आंदोलन से हटाने के लिए है। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और उप मुख्यमंत्री छगन भुजबल ने 99 घोषणाएं करते हुए 10 हजार करोड़ के विकास पैकेज की नियमित वार्षिक बजट से अतिरिक्त राशि की बात कही है। पैकेज के नियोजन की चाबी तो महाराष्ट्र सरकार ने अपने पास ही रख ली। पहले भी विदर्भ के लिए लुभावनी घोषणाएं हुई, पर परिणाम कभी भी संतोषजनक नहीं निकल पाया। सरकार का वादा है कि अगले तीन साल में विदर्भ की तमाम सिंचाई और कृषि समेत अन्य सभी विकास की 99 योजनाओं पर यह अतिरिक्त राशि खर्च की जाएगी, पर योजनाओं को समयावधि में पूरा करने के विषय पर निगरानी की जिम्म्ेदारी के लिए कोई एजेंसी तय नहीं की गई है। विदर्भ जनआंदोलन समिति के अध्यक्ष किशोर तिवारी का कहना है कि जिन घोषणाओं को पैकेज का नाम दिया गया है, वास्तव में पैकेज है ही नहीं। सभी घोषणाएं पिछले बजट में कही गई बातों को एक साथ जोड़ कर पैकेज बनाने की कोशिश की गई है। सरकार ने जिस हाऊ सिंग योजना की बात की है, वह केंद्र सरकार की योजना है। कई क्षेत्रों में बैकलॉग है, उस पर कुछ भी नहीं कहा गया।
फिलहाल विदर्भ में सूखा पड़ा है। मवेशियों के लिए चारा नहीं है। संभावना थी कि शीतसत्र में इसके लिए सरकार कुछ खास करेगी। लेकिन ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। विपक्ष प्रभावी नहीं दिखा। विदर्भ की जनता बेहाल हो चुकी है। किसानों को अब उनकी उपज की कीमत 2011 में मिलेगी। गंभीर समस्या यह है कि अब 2010 में किसानों का गुजारा कैसे चलेगा। सरकार के सभी पहले के वादे झूठे निकले हैं।
ज्ञात हो कि पिछली बार शीतसत्र में नागपुर में जीरो लोड शेडिंग की घोषणा की गई थी लेकिन घोषणा पर आज तक अमल नहीं किया गया। अमरावती से 350 करोड़ के प्रसंस्करण संयंत्र को नांदेड स्थानांतरित कर दिया गया। विदर्भ की सिंचाई परियोजनाओं की राशि कहीं और खर्च किये जाने और विदर्भ की परियोजनाओं को अधर में छोडऩे के अनेक उदाहरण हैं।
महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव, सरकार बनने की गहमागहमी और विभागों की बंटवारे के खींचतान के बीच 13 बड़ी बिजली कंपनियां किसानों के लिए सिंचाई के पानी पर कानूनी रूप से डाका डालने में सफल हो गई। पहले महाराष्ट्र में चल रही बिजली परियोजनाओं राज्य सरकार की इकाई सिंचाई विकास महामंडल को अपने उस प्रस्ताव पर मंजूरी ले लिया है, जिसमें बिजली परियोजनाओं के लिए सिंचाई परियोजनाओं से पानी की मांग की गई थी। मंजूरी के बाद सिंचाई की विभिन्न परियोजनाओं से करीब 324.51 एमएमक्यूब पानी बिजली कंपनियों को मिलेगा। जिन बिजली कंपनियों को सिंचाई का पानी दिया जाएगा, उसमें विदर्भ की कई सिंचाई परियांजनाएं भी हैं। इसके साथ ही विदर्भ की बिजली से महाराष्ट्र के अन्य क्षेत्र प्रकाशमान हो रहे हैं। लेकिन विदर्भ के कल कारखानों और किसानों को बिजली से वंचित रहता पड़ता है। खनिज और वन संपदा के साथ जल स्रोतों की उपलब्धता विदर्भ के विकास के लिए पर्याप्त है। साफ है कि पैकेज आंकड़ों की बाजीगरी के अलावा कुछ भी नहीं है।
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विदर्भ की माला जपते-जपते समाप्त हो गया शीत सत्र
नागपुर। 8 दिसंबर से शुरू हुए विधानमंडल के शीतसत्र का बुधवार 23 दिसंबर को समापन हो गया। सदन में कुल दस बैठकें हुई। विधानसभा और विधान परिषद में कुल कार्यवाही 159 घंटे चली। जिसमें 85 घण्टे विधानसभा की कार्यवाही हुई और 74 घण्टे विधान परिषद की कार्यवाही हुई. इस दौरान पूरे सदन पर विदर्भ का मुद्दा हावी बना रहा.
शीतसत्र के अंतिम दो दिनों में विधान परिषद में विदर्भ के किसानों व आम जनता की व्यथा गूंजी। महाराष्ट्र राज्य में विदर्भ शामिल होने से लेकर आज तक विदर्भ के विकास की ओर सरकार की उदासीनता के संदर्भ में विपक्षी सदस्यों द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब देते हुए कृषिमंत्री बालासाहब थोरात ने कहा कि सरकार विदर्भ के विकास के लिए कटिबद्ध है। विदर्भ में सिंचाई की समस्या है इस बात से सरकार अनभिज्ञ नहीं है। उसके लिए जलसंधारण की व्यवस्था को जरूरी मानते हुए सरकार ने विदर्भ पाणलोट मिशन शुरु किया है और उसका लाभ भी किसान बंधु उठा रहे हैं। रही बात कपास को पर्याप्त दाम न मिलने की तो प्रति एकड़ 2 क्विंटल उत्पादन प्राप्त करनेवाले किसान दाम बढ़ाने के बाद भी अपनी आर्थिक स्थिति सुधार नहीं पाएंगे, इसके लिए कृषि उत्पादन क्षमता बढ़ाने पर थोरात ने बल दिया। उन्होंने बताया कि सरकार ने विदर्भ पाणलोट प्रकल्प शुरु किया। 40 हजार कृषि तालाब बनाए, 18 हजार मोटरपंप इंजिन वितरित किए, गतिमान पाणलोट मिशन का कार्य हर तहसील में जारी है। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार ने कपास की आधारभूत कीमत 3 हजार तय की है। कृषिमंत्री ने यह भी बताया कि वर्ष 1999-2000 में फसल बीमा योजना शुरू हुई। केंद्र व राज्य पैकेज के तहत 5 हजार करोड़ रुपये का खर्च किया गया। खाद के लिए 400 करोड़ रुपये का सरकार ने कर्ज उपलब्ध कराया।
जलसंपदा, संसदीय कार्य, अतिरिक्त प्रभार वित्त, नियोजन व ऊर्जा राज्य मंत्री विजय वडेट्टीवार ने बताया कि विदर्भ का गोसीखुर्द प्रकल्प शीघ्र पूरा होकर 2015 तक 2 लाख 52 हजार हेक्टेयर भूमि की बारहमाही सिंचाई की व्यवस्था होगी। उन्होंने कहा कि विदर्भ के कई क्षेत्र सिंचाई से दूर हैं लेकिन यहां प्रभावित परियोजनाएं पूर्ण होने के कगार पर है। उन्होंने यह भी कहा कि विदर्भ में आगामी मार्च के अंत तक कृषि पंपों का बैकलॉग पूरा किया जाएगा। उद्योग मंत्री राजेंद्र दर्डा ने विधान परिषद में विपक्ष द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब में कहा कि विदर्भ में 56 मेगा उद्योगों के तहत आगामी डेड़ वर्ष में स्टील व सीमेंट समेत अन्य उद्योगों शुरू होंगे। उन्होंने बताया कि विदर्भ में 323 बड़े उद्योगों में 18 हजार 500 करोड़ का निवेश हुआ है, जिससे रोजगार निर्माण हुआ है लेकिन दर्डा ने जब प्रस्तावित संतरा प्रकल्प नांदेड में शुरू करने संबंधी बात की तो विपक्ष ने आपत्ति उठाते हुए हंगामा किया। विपक्ष ने मांग की कि बात विदर्भ के विकास की हो रही है और विदर्भ के अमरावती में प्रस्तावित संतरा प्रकल्प नांदेड ले जाने की बात की जा रही है।
इस मुद्दे पर विपक्ष ने बहिर्गमन किया। शीतसत्र के अंतिम दिन विदर्भ के मुद्दे पर विपक्ष आक्रामक दिखाई दिया। विधान परिषद में विपक्ष के नेता विधायक पांडुरंग फुंडकर, विधायक दिवाकर रावते, सैयद पाशा पटेल, अरविंद सांवत, केशवराव मानकर समेत विधान परिषद सदस्य राजेंद्र जैन ने चर्चा के दौरान सवाल उठाया कि विदर्भ के विकास पर सरकार का ध्यान नहीं है। कई प्रकल्प जैसे संतरा, स्वास्थ्य विश्वविद्यालय, टाटा स्टील, रेलवे डिब्बों की निर्माण आदि प्रकल्प विदर्भ के बाहर जाना व उसी प्रकार मिहान, बांबू विश्वविद्यालय, रिंग रेलवे, अंतरराष्ट्रीय प्राणी संग्रहालय, सिंचाई व विद्युत निर्मिती के सैकडों प्रकल्प प्रबंधित रखने के लिए वनभूमि, झुड़पी वन, प्रशासकीय मंजूरी, अपूर्ण निधि व केंद्र की अनुमति आदि समस्या का निराकरण करने में सरकार असफल रही है। विपक्ष ने यह सवाल भी उठाया कि विदर्भ में कृषि पंप, सड़क, कुएं, शाला, महाविद्यालय, अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, आश्रमशाला, औद्योगिक प्रशिक्षक संस्था, अभियांत्रिकी महाविद्यालयों का अनुशेष बढऩे, सिंचाई व कृषि पंप के बढ़ते अनुशेष से कृषि क्षेत्र की स्थिति बदतर हो रही है। पैकेज देने के बाद भी किसान आत्महत्याएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। किसानों को दिए जा रहे खाद व बीज में उनकी दिशाभूल की जा रही है। कर्ज माफी योजना का लाभ किसानों के अलावा गैर व्यवहार के कारण डूब रही बैंकों को ही अधिक मिल रहा है।
विदर्भ के मुद्दे पर पूरे सत्र के दौरान अंदर बहस होती रही तो सदन के बाहर धरने प्रदर्शन चलते रहे. 22 दिसंबर को भाजपा विधायक देवेंद्र फडणवीस ने विधान सभा में विदर्भ पर अनुशेष के मामले में हो रहे अन्याय पर सभाग्रह का ध्यान आकर्षित करते हुए मांग की कि यदि विदर्भ के साथ न्याय नहीं कर सकते तो हमें हमारा विदर्भ राज्य अलग कर सौंप दो। जवाब में राजस्व मंत्री ने कहा कि विदर्भ के साथ अन्याय के मुद्दे पर विपक्ष पृथक विदर्भ की मांग उठा रहा है. लेकिन विपक्ष ही क्यों? कांग्रेस के कई विधायक भी विदर्भ को अलग कर देने की मांग करते रहे. यह बात दीगर है कि उनकी इस मांग पर किसी ने कान नहीं दिया क्योंकि केन्द्र अभी अलग तेलंगाना के सवाल पर ही उलझा हुआ है.
मंगलवार, दिसंबर 22, 2009
दलित के हाथ में सत्ता नहीं देना चाहती कांग्रेस- अली अनवर
संजय तिवारी
अली अनवर, अध्यक्ष, पश्मांदा मुस्लिम महाज अली अनवर पश्मान्दा मुस्लिम महाज के नेशनल प्रेसीडेन्ट हैं और राज्यसभा में जद (यू) के मुख्य सचेतक हैं. रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को सदन में प्रस्तुत करवाने में अकेले अली अनवर की ही भूमिका है. पिछले दो साल से लगातार वे इस रिपोर्ट को सदन में पेश किये जाने के लिए अभियान चला रहे थे. रंगनाथ मिश्रा आयोग के सभी महत्वपूर्ण पहलुओं पर हमने उनसे लंबी बात की. प्रस्तुत है अली अनवर से पूरी बातचीत-
सवाल- रंगनाथ मिश्रा आयोग के बारे में आप क्या कहेंगे?
जवाब- रंगनाथ मिश्रा आयोग का गठन भारत सरकार के नोटिफिकेशन पर 2004 में किया गया जिसका पूरा नाम है भाषाई एवं अल्पसंख्यक धर्म आयोग. गठन के एक साल तक तो यह आयोग काम ही नहीं शुरू कर सका था. गठन के तीन साल बाद 2007 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी जिसके दो साल सात महीने बाद दिसंबर 2009 में सरकार ने इसे सदन पटल पर रखा. रिपोर्ट सदन पटल पर कैसे आयी इसे आप सब जानते हैं. वह भी तब जब मुख्य सूचना आयुक्त ने कहा कि आप रिपोर्ट सार्वजनिक कीजिए और मीडिया में रिपोर्ट के हिस्से छपने लगे. फिर भी सरकार हीला हवाली कर रही थी जिसके बाद मैंने अकेले दो बार राज्यसभा को इस मुद्दे पर नहीं चलने दिया तब जाकर सरकार ने आश्वासन दिया कि वह शीत सत्र के समापन से पहले रिपोर्ट को सदन पटल पर रखेगी. हमें इस मुद्दे पर सभी दलों से समर्थन मिला. कम से कम भाजपा ने भी यह तो कहा ही कि रिपोर्ट सदन पटल पर आनी चाहिए. लेकिन सरकार ने एक तो रिपोर्ट को सदन स्थगित होने वाले दिन इसे सदन पटल पर रखा और वह भी बिना एटीआर के. यह न सिर्फ रिपोर्ट के साथ अन्याय है बल्कि सुप्रीम कोर्ट का भी अपमान है.
सवाल- क्या सरकार जानबूझकर ऐसा कर रही है?
जवाब- बिल्कुल। सरकार की शुरू से ही इस रिपोर्ट को दबाने की मंशा साफ दिख रही है. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आयी तो सरकार ने उसे अल्पसंख्यकों का वोट बटोरने के लिए खूब इस्तेमाल किया. लेकिन रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के लिए तैयार नहीं थे. आयोग की रिपोर्ट को लेकर सरकार कितनी बेपरवाह थी वह आप इसी से समझ सकते हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने रिपोर्ट को स्वीकार करने के लिए प्रधानमंत्री का समय दिया ही नहीं जिसके बाद आयोग के कुछ लोग प्रधानमंत्री कार्यालय में रिपोर्ट रिसीव करवा आये. इससे ज्यादा कुछ और अनादर हो सकता है इस आयोग का?
हमें मुसलमान होने के नाम पर 10 प्रतिशत आरक्षण नहीं चाहिए. रंगनाथ मिश्रा आयोग की इस सिफारिश का हम भी विरोध कर रहे हैं. लेकिन दूसरी सिफारिशें जरूर मान्य की जानी चाहिए.सवाल- इस आयोग में ऐसा क्या है जो सरकार इस रिपोर्ट को लेकर इतनी उदासीन है?
जवाब- असल में आयोग के काम काज में सुप्रीम कोर्ट के कहने पर एक क्लाज जोड़ा था. उस वक्त सुप्रीम कोर्ट में दलित ईसाईयों के आरक्षण को लेकर एक केस की सुनवाई हो रही थी. इसी वक्त सुप्रीम कोर्ट ने आयोग के काम काज में एक और टर्म्स आफ रिफरेन्स जुड़वाया कि यह आयोग अन्य धर्मों में भी दलितों की पहचान करेगा. सुप्रीम कोर्ट के इसी निर्देश के बाद सरकार ने आयोग के काम काज में इसे जोड़ दिया. बस यहीं से सरकार इस आयोग को लेकर उदासीन हो गयी.
भारत में अभी सिर्फ हिन्दू, सिख और बौद्ध के अलावा अन्य किसी धर्म में दलित को मान्यता नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने जब यह कह दिया कि अन्य धर्मों में दलित की पहचान का काम भी यह आयोग करे तो सरकार इस आयोग को लेकर उदासीन हो गयी. इसीलिए रिपोर्ट को ढाई साल तक रिपोर्ट को दबाकर रखा और अब बिना एटीआर के रिपोर्ट को सदन में प्रस्तुत कर दिया. यह एक तरह से सुप्रीम कोर्ट और संसद दोनों का अपमान है.
सवाल- रंगनाथ मिश्रा आयोग ने क्या अन्य धर्मों में दलित की पहचान की है?
जवाब- बिल्कुल. 1950 के प्रेसिडेन्सियल आर्डर के तहत जो व्यवस्था कायम की गयी है कि सिर्फ हिन्दुओं में ही दलित हैं उसे रंगनाथ मिश्रा आयोग ने असंवैधानिक माना है. रंगनाथ मिश्रा आयोग ने इसे उतना ही गलत माना है जितना धर्म के आधार पर भेदभाव करना. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इसे वापस लेने की सिफारिश की है.
सवाल- इसका व्यावहारिक परिणाम क्या होगा?
जवाब- अगर रंगनाथ मिश्रा आयोग की इस सिफारिश को मान लिया जाता है तो दूसरे धर्म के दलितों को एससी कोटे में जगह मिलेगी जिससे वह उन्हीं दलितों के समान अवसर पा सकेंगे जैसे हिन्दू, सिख और बौद्धों को मिला हुआ है.
सवाल- आयोग और कौन सी मुख्य सिफारिशें हैं?
जवाब- देखिए, रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट दो खण्डों में और चार सौ पृष्ठों की है. लेकिन मुख्यरूप से आयोग ने तीन सिफारिशें की हैं. पहली सिफारिश तो यही है कि 1950 का प्रेसिडेन्सियल आर्डर वापस लिया जाए, दूसरी, अल्पसंख्यकों को 15 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए. लेकिन आयोग अपनी इस दूसरी सिफारिश करते समय एक और महत्वपूर्ण सिफारिश करता है. आयोग कहता है कि अगर अल्पसंख्यकों के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था में कोई पहाड़ जैसी समस्या हो तो 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण में अल्पसंख्यकों के लिए 8.4 प्रतिशत जो सीटें आरक्षित हैं उसमें मुस्लिम ओबीसी के लिए आरक्षित 6 प्रतिशत मार्क को अलग से चिन्हित कर दिया जाए.
सवाल- इसे थोड़ा और स्पष्ट करिए?
जवाब- देखिए रंगनाथ मिश्रा आयोग भी जानता है कि धर्म के नाम पर आरक्षण असंवैधानिक है इसलिए वह जब धर्म के नाम पर 15 प्रतिशत के आरक्षण की संभावना बतायी है तो आयोग एक वैकल्पिक व्यवस्था भी देता है. देश में धर्म के नाम पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता. यह जानते भी आयोग ने 15 प्रतिशत आरक्षण धार्मिक आधार पर देने की वकालत करना गलत है. हम इसका विरोध करते हैं. इस्लाम और ईसाई कभी इसका समर्थन नहीं करेंगे.
सवाल- इसाई और मुसलमान इसका विरोध क्यों करेंगे?
जवाब- अगर रंगनाथ मिश्रा आयोग की इस सिफारिश को मान लें कि धर्म के नाम पर आरक्षण होगा तो इसमें सबसे अधिक नुकसान ईसाईयों और मुसलमानों को ही होगा. हम क्या चाहते हैं? हम सिर्फ यह चाहते हैं कि आयोग ने जिस 1950 के प्रेसिडेन्सियल आर्डर को समाप्त करने की सलाह दी है उसे मान लिया जाना चाहिए. इससे मुसलमान और ईसाई दलितों को एसएसी केटेगरी में जगह मिल जाएगी और उसकी समस्या का समाधान भी हो जाएगा और सांप्रदायिक सद्भाव नहीं बिगड़ेगा. अगर धर्म के नाम पर आरक्षण दिया जाएगा तो देश में सांप्रदायिक तनाव बढ़ेगा. इसका विरोध तो हम सब कर रहे हैं. और अभी ईसाईयों और मुसलमानों को विभिन्न वर्गों में जो सुविधाएं मिली हुई हैं वे सब धर्म के नाम पर आरक्षण मिलने पर खत्म हो जाएगा. आप ही बताइये हम भला धर्म के नाम पर आरक्षण को कैसे मान सकते हैं?
सवाल- भाजपा का इस पूरे मसले पर क्या रुख है?
जवाब- भाजपा इस पूरे मामले में गंदा खेल खेल रही है. उनके लोग तरह तरह की बातें कर रहे हैं. वे वास्तविक स्थिति को सामने रखने की बजाय इसे राजनीतिक रंग दे रहे हैं. हम भी तो यही कह रहे हैं कि धर्म के नाम पर आरक्षण नहीं होना चाहिए. हम सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के नाम पर आरक्षण मांग रहे हैं. इसमें गलत क्या है? हम खुद मुसलमान होने के नाते आरक्षण की मांग नहीं कर रहे हैं. लेकिन भाजपा और कांग्रेस दोनों ही बात को बिगाड़ रहे हैं और इसे सांप्रदायिक रंग दे रहे हैं. इससे असल बात पीछे छूट जाएगी और राजनीति हावी हो जाएगी.
सवाल- और कांग्रेस क्या कहती है?
जवाब- कांग्रेस भी ड्रामेबाजी कर रही है. वह दलितों का भला नहीं चाहती है. वे दलितों के हाथ में सत्ता नहीं देना चाहते. दलितों के नाम पर राहुल गांधी ड्रामेबाजी कर रहे हैं. मुसलमान और ईसाई दलितों को आरक्षण राजनीतिक एजेण्डा है जिसे कांग्रेस पूरा नहीं करना चाहती. दलित मुसलमानों की आज भी कोई नुमाइंदगी नहीं है हमारे संसद में. रंगनाथ मिश्रा आयोग इस दिशा में रास्ता खोल रहा है लेकिन कांग्रेस जानबूझकर इसमें अडंगा लगा रही है.
सवाल- आप चाहते क्या हैं?
जवाब- धर्म चाहे कोई भी हो लेकिन भारत में जाति व्यवस्था वास्तविकता है. कोई भी धर्म जाति व्यवस्था के गुण-दुर्गुण से मुक्त नहीं है. अगर हिन्दू दलितों को आगे बढ़ने का मौका है तो फिर मुसलमान दलित और ईसाई दलित को आगे बढ़ने का मौका क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? भारतीय संसद में कुल तीस मुसलमान सांसद हैं लेकिन उसमें दलित मुसलमान कितने हैं? एक भी नहीं. बीस इसाई सांसद हैं जिसमें एक भी दलित वर्ग से नहीं है. क्या इसकी चिंता नहीं होनी चाहिए? क्या सिर्फ हिन्दू दलितों की ही चिंता होगी? दूसरे धर्मों के दलितों की चिंता क्यों नहीं होनी चाहिए?
सवाल- तो क्या आप बड़ी राजनीति की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं?
जवाब- देखिए हम सिर्फ यह चाहते हैं कि मजहब के आधार पर हम दलितों को बांटने की कोशिश बंद होनी चाहिए। हिन्दू हो या मुसलमान दलित सब जगह दलित एक समान है. इसलिए हम चाहते हैं कि सभी धर्मों के दलितों में एकता हो. धर्म के नाम पर दलितों को बांटने का खेल बंद होना चाहिए. सभी दलित एक समान हैं फिर चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान या फिर ईसाई. इसलिए इनकी पहचान सिर्फ दलित के तौर पर होनी चाहिए. इसे आप बड़ी राजनीति कह सकते हैं क्योंकि हम मजहब के नाम पर होनेवाली राजनीति हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहते हैं. हमारी मांग पूरी तरह से सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर आरक्षण पाने की है जिसकी मंजूरी हमारा संविधान भी देता है और अब रंगनाथ मिश्रा आयोग भी विकल्प रूप में जो सुझाव दे रहा है उसे मांनने के अलावा और कोई चारा नहीं है. यह देश और समाज दोनों के हित में है. सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है गरीबी को दूर करने के िलए सरकार उपाय तो करे ही लेकिन आरक्षण जाति के आधार पर गलत नहीं है. धर्म बदलने से भी अगर व्यक्ति की सामाजिक स्थिति में बदलाव नहीं है तो क्या उन्हें आरक्षण नहीं मिलना चाहिए? मैं खुद अंसारी हूं लेकिन मैं यह आरक्षण मुसलमान होने के नाते अपने लिए नहीं मांग रहा हूं. मैं मुसलमान दलितों के लिए आरक्षण की मांग कर रहा हूं. यह उनकी जरूरत है.
हम ऐवान (संसद) में अकेले थे लेकिन आवाम में हम अकेले नहीं होंगे. हम इंसानियत के इस सवाल को लेकर आवाम के बीच जाएंगे.सवाल- धर्म के आधार पर आरक्षण गलत तो जाति के नाम पर आरक्षण सही कैसे है?
जवाब- धर्म के नाम पर आरक्षण पहले तो असंवैधानिक है और यह कभी हो नहीं सकता. और हर धर्म में ऊंच नीच है. मैं कह रहा हूं कि जाति के नाम पर आरक्षण होना चाहिए और आरक्षण का लाभ सिर्फ जरूरतमंदों को मिलना चाहिए. हम तो कहते हैं कि हम अल्पसंख्यक नहीं है. हम बहुसंख्यक है. हम दलितों की एकता चाहते हैं फिर वे किसी भी धर्म हों. यही नैसर्गिक, स्वाभाविक और मूल बात है. सांप्रदायिकता नामक बीमारी की यह अचूक दवा है.
सवाल- तो क्या ऊंची जाति के मुसलमान आपका विरोध नहीं कर रहे हैं?
जवाब- ऊंची जाति के मुसलमान तो हमारे दुश्मन हैं ही क्योंकि इससे उनको नुकसान होता है. आपको क्या लगता है कि कोई अब्दुल्ला बुखारी और शहाबुद्दीन इस मसले पर हमारा समर्थन करेंगे. उनका वश चले तो न जाने मेरे साथ क्या करें. लेकिन इस सवाल पर मैंने संसद में भी कहा कि भले ही यहां मेरा साथ कोई नहीं दे रहा है मैं इस मसले को आवाम के बीच लेकर जाऊंगा और वहां मैं अकेला नहीं रहूंगा. आप देखिए सदन में अल्पसंख्यक सांसदों की संख्या पचास के करीब है लेकिन इस मसले पर कोई सांसद आगे नहीं आया. ये सारे सांसद ऊंची जाति के हैं. रसूखवाले लोग हैं. उन्हें दलित मुसलमानों से कोई हमदर्दी आखिर क्यों होगी?
सवाल- आगे आप अपनी मांग के समर्थन में क्या करेंगे?
जवाब- मैंने पहले ही कह दिया है लोगों के बीच जाऊंगा. सरकार को मजबूर कर दूंगा कि वह रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिश को माने और दलितों को उसका वाजिब हक दे. जब तक यह नहीं हो जाता तब तक न हम चैन से बैठेंगे न तो सरकार को चैन से बैठने देंगे.
अली अनवर, अध्यक्ष, पश्मांदा मुस्लिम महाज अली अनवर पश्मान्दा मुस्लिम महाज के नेशनल प्रेसीडेन्ट हैं और राज्यसभा में जद (यू) के मुख्य सचेतक हैं. रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को सदन में प्रस्तुत करवाने में अकेले अली अनवर की ही भूमिका है. पिछले दो साल से लगातार वे इस रिपोर्ट को सदन में पेश किये जाने के लिए अभियान चला रहे थे. रंगनाथ मिश्रा आयोग के सभी महत्वपूर्ण पहलुओं पर हमने उनसे लंबी बात की. प्रस्तुत है अली अनवर से पूरी बातचीत-
सवाल- रंगनाथ मिश्रा आयोग के बारे में आप क्या कहेंगे?
जवाब- रंगनाथ मिश्रा आयोग का गठन भारत सरकार के नोटिफिकेशन पर 2004 में किया गया जिसका पूरा नाम है भाषाई एवं अल्पसंख्यक धर्म आयोग. गठन के एक साल तक तो यह आयोग काम ही नहीं शुरू कर सका था. गठन के तीन साल बाद 2007 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी जिसके दो साल सात महीने बाद दिसंबर 2009 में सरकार ने इसे सदन पटल पर रखा. रिपोर्ट सदन पटल पर कैसे आयी इसे आप सब जानते हैं. वह भी तब जब मुख्य सूचना आयुक्त ने कहा कि आप रिपोर्ट सार्वजनिक कीजिए और मीडिया में रिपोर्ट के हिस्से छपने लगे. फिर भी सरकार हीला हवाली कर रही थी जिसके बाद मैंने अकेले दो बार राज्यसभा को इस मुद्दे पर नहीं चलने दिया तब जाकर सरकार ने आश्वासन दिया कि वह शीत सत्र के समापन से पहले रिपोर्ट को सदन पटल पर रखेगी. हमें इस मुद्दे पर सभी दलों से समर्थन मिला. कम से कम भाजपा ने भी यह तो कहा ही कि रिपोर्ट सदन पटल पर आनी चाहिए. लेकिन सरकार ने एक तो रिपोर्ट को सदन स्थगित होने वाले दिन इसे सदन पटल पर रखा और वह भी बिना एटीआर के. यह न सिर्फ रिपोर्ट के साथ अन्याय है बल्कि सुप्रीम कोर्ट का भी अपमान है.
सवाल- क्या सरकार जानबूझकर ऐसा कर रही है?
जवाब- बिल्कुल। सरकार की शुरू से ही इस रिपोर्ट को दबाने की मंशा साफ दिख रही है. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आयी तो सरकार ने उसे अल्पसंख्यकों का वोट बटोरने के लिए खूब इस्तेमाल किया. लेकिन रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के लिए तैयार नहीं थे. आयोग की रिपोर्ट को लेकर सरकार कितनी बेपरवाह थी वह आप इसी से समझ सकते हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने रिपोर्ट को स्वीकार करने के लिए प्रधानमंत्री का समय दिया ही नहीं जिसके बाद आयोग के कुछ लोग प्रधानमंत्री कार्यालय में रिपोर्ट रिसीव करवा आये. इससे ज्यादा कुछ और अनादर हो सकता है इस आयोग का?
हमें मुसलमान होने के नाम पर 10 प्रतिशत आरक्षण नहीं चाहिए. रंगनाथ मिश्रा आयोग की इस सिफारिश का हम भी विरोध कर रहे हैं. लेकिन दूसरी सिफारिशें जरूर मान्य की जानी चाहिए.सवाल- इस आयोग में ऐसा क्या है जो सरकार इस रिपोर्ट को लेकर इतनी उदासीन है?
जवाब- असल में आयोग के काम काज में सुप्रीम कोर्ट के कहने पर एक क्लाज जोड़ा था. उस वक्त सुप्रीम कोर्ट में दलित ईसाईयों के आरक्षण को लेकर एक केस की सुनवाई हो रही थी. इसी वक्त सुप्रीम कोर्ट ने आयोग के काम काज में एक और टर्म्स आफ रिफरेन्स जुड़वाया कि यह आयोग अन्य धर्मों में भी दलितों की पहचान करेगा. सुप्रीम कोर्ट के इसी निर्देश के बाद सरकार ने आयोग के काम काज में इसे जोड़ दिया. बस यहीं से सरकार इस आयोग को लेकर उदासीन हो गयी.
भारत में अभी सिर्फ हिन्दू, सिख और बौद्ध के अलावा अन्य किसी धर्म में दलित को मान्यता नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने जब यह कह दिया कि अन्य धर्मों में दलित की पहचान का काम भी यह आयोग करे तो सरकार इस आयोग को लेकर उदासीन हो गयी. इसीलिए रिपोर्ट को ढाई साल तक रिपोर्ट को दबाकर रखा और अब बिना एटीआर के रिपोर्ट को सदन में प्रस्तुत कर दिया. यह एक तरह से सुप्रीम कोर्ट और संसद दोनों का अपमान है.
सवाल- रंगनाथ मिश्रा आयोग ने क्या अन्य धर्मों में दलित की पहचान की है?
जवाब- बिल्कुल. 1950 के प्रेसिडेन्सियल आर्डर के तहत जो व्यवस्था कायम की गयी है कि सिर्फ हिन्दुओं में ही दलित हैं उसे रंगनाथ मिश्रा आयोग ने असंवैधानिक माना है. रंगनाथ मिश्रा आयोग ने इसे उतना ही गलत माना है जितना धर्म के आधार पर भेदभाव करना. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इसे वापस लेने की सिफारिश की है.
सवाल- इसका व्यावहारिक परिणाम क्या होगा?
जवाब- अगर रंगनाथ मिश्रा आयोग की इस सिफारिश को मान लिया जाता है तो दूसरे धर्म के दलितों को एससी कोटे में जगह मिलेगी जिससे वह उन्हीं दलितों के समान अवसर पा सकेंगे जैसे हिन्दू, सिख और बौद्धों को मिला हुआ है.
सवाल- आयोग और कौन सी मुख्य सिफारिशें हैं?
जवाब- देखिए, रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट दो खण्डों में और चार सौ पृष्ठों की है. लेकिन मुख्यरूप से आयोग ने तीन सिफारिशें की हैं. पहली सिफारिश तो यही है कि 1950 का प्रेसिडेन्सियल आर्डर वापस लिया जाए, दूसरी, अल्पसंख्यकों को 15 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए. लेकिन आयोग अपनी इस दूसरी सिफारिश करते समय एक और महत्वपूर्ण सिफारिश करता है. आयोग कहता है कि अगर अल्पसंख्यकों के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था में कोई पहाड़ जैसी समस्या हो तो 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण में अल्पसंख्यकों के लिए 8.4 प्रतिशत जो सीटें आरक्षित हैं उसमें मुस्लिम ओबीसी के लिए आरक्षित 6 प्रतिशत मार्क को अलग से चिन्हित कर दिया जाए.
सवाल- इसे थोड़ा और स्पष्ट करिए?
जवाब- देखिए रंगनाथ मिश्रा आयोग भी जानता है कि धर्म के नाम पर आरक्षण असंवैधानिक है इसलिए वह जब धर्म के नाम पर 15 प्रतिशत के आरक्षण की संभावना बतायी है तो आयोग एक वैकल्पिक व्यवस्था भी देता है. देश में धर्म के नाम पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता. यह जानते भी आयोग ने 15 प्रतिशत आरक्षण धार्मिक आधार पर देने की वकालत करना गलत है. हम इसका विरोध करते हैं. इस्लाम और ईसाई कभी इसका समर्थन नहीं करेंगे.
सवाल- इसाई और मुसलमान इसका विरोध क्यों करेंगे?
जवाब- अगर रंगनाथ मिश्रा आयोग की इस सिफारिश को मान लें कि धर्म के नाम पर आरक्षण होगा तो इसमें सबसे अधिक नुकसान ईसाईयों और मुसलमानों को ही होगा. हम क्या चाहते हैं? हम सिर्फ यह चाहते हैं कि आयोग ने जिस 1950 के प्रेसिडेन्सियल आर्डर को समाप्त करने की सलाह दी है उसे मान लिया जाना चाहिए. इससे मुसलमान और ईसाई दलितों को एसएसी केटेगरी में जगह मिल जाएगी और उसकी समस्या का समाधान भी हो जाएगा और सांप्रदायिक सद्भाव नहीं बिगड़ेगा. अगर धर्म के नाम पर आरक्षण दिया जाएगा तो देश में सांप्रदायिक तनाव बढ़ेगा. इसका विरोध तो हम सब कर रहे हैं. और अभी ईसाईयों और मुसलमानों को विभिन्न वर्गों में जो सुविधाएं मिली हुई हैं वे सब धर्म के नाम पर आरक्षण मिलने पर खत्म हो जाएगा. आप ही बताइये हम भला धर्म के नाम पर आरक्षण को कैसे मान सकते हैं?
सवाल- भाजपा का इस पूरे मसले पर क्या रुख है?
जवाब- भाजपा इस पूरे मामले में गंदा खेल खेल रही है. उनके लोग तरह तरह की बातें कर रहे हैं. वे वास्तविक स्थिति को सामने रखने की बजाय इसे राजनीतिक रंग दे रहे हैं. हम भी तो यही कह रहे हैं कि धर्म के नाम पर आरक्षण नहीं होना चाहिए. हम सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के नाम पर आरक्षण मांग रहे हैं. इसमें गलत क्या है? हम खुद मुसलमान होने के नाते आरक्षण की मांग नहीं कर रहे हैं. लेकिन भाजपा और कांग्रेस दोनों ही बात को बिगाड़ रहे हैं और इसे सांप्रदायिक रंग दे रहे हैं. इससे असल बात पीछे छूट जाएगी और राजनीति हावी हो जाएगी.
सवाल- और कांग्रेस क्या कहती है?
जवाब- कांग्रेस भी ड्रामेबाजी कर रही है. वह दलितों का भला नहीं चाहती है. वे दलितों के हाथ में सत्ता नहीं देना चाहते. दलितों के नाम पर राहुल गांधी ड्रामेबाजी कर रहे हैं. मुसलमान और ईसाई दलितों को आरक्षण राजनीतिक एजेण्डा है जिसे कांग्रेस पूरा नहीं करना चाहती. दलित मुसलमानों की आज भी कोई नुमाइंदगी नहीं है हमारे संसद में. रंगनाथ मिश्रा आयोग इस दिशा में रास्ता खोल रहा है लेकिन कांग्रेस जानबूझकर इसमें अडंगा लगा रही है.
सवाल- आप चाहते क्या हैं?
जवाब- धर्म चाहे कोई भी हो लेकिन भारत में जाति व्यवस्था वास्तविकता है. कोई भी धर्म जाति व्यवस्था के गुण-दुर्गुण से मुक्त नहीं है. अगर हिन्दू दलितों को आगे बढ़ने का मौका है तो फिर मुसलमान दलित और ईसाई दलित को आगे बढ़ने का मौका क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? भारतीय संसद में कुल तीस मुसलमान सांसद हैं लेकिन उसमें दलित मुसलमान कितने हैं? एक भी नहीं. बीस इसाई सांसद हैं जिसमें एक भी दलित वर्ग से नहीं है. क्या इसकी चिंता नहीं होनी चाहिए? क्या सिर्फ हिन्दू दलितों की ही चिंता होगी? दूसरे धर्मों के दलितों की चिंता क्यों नहीं होनी चाहिए?
सवाल- तो क्या आप बड़ी राजनीति की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं?
जवाब- देखिए हम सिर्फ यह चाहते हैं कि मजहब के आधार पर हम दलितों को बांटने की कोशिश बंद होनी चाहिए। हिन्दू हो या मुसलमान दलित सब जगह दलित एक समान है. इसलिए हम चाहते हैं कि सभी धर्मों के दलितों में एकता हो. धर्म के नाम पर दलितों को बांटने का खेल बंद होना चाहिए. सभी दलित एक समान हैं फिर चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान या फिर ईसाई. इसलिए इनकी पहचान सिर्फ दलित के तौर पर होनी चाहिए. इसे आप बड़ी राजनीति कह सकते हैं क्योंकि हम मजहब के नाम पर होनेवाली राजनीति हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहते हैं. हमारी मांग पूरी तरह से सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर आरक्षण पाने की है जिसकी मंजूरी हमारा संविधान भी देता है और अब रंगनाथ मिश्रा आयोग भी विकल्प रूप में जो सुझाव दे रहा है उसे मांनने के अलावा और कोई चारा नहीं है. यह देश और समाज दोनों के हित में है. सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है गरीबी को दूर करने के िलए सरकार उपाय तो करे ही लेकिन आरक्षण जाति के आधार पर गलत नहीं है. धर्म बदलने से भी अगर व्यक्ति की सामाजिक स्थिति में बदलाव नहीं है तो क्या उन्हें आरक्षण नहीं मिलना चाहिए? मैं खुद अंसारी हूं लेकिन मैं यह आरक्षण मुसलमान होने के नाते अपने लिए नहीं मांग रहा हूं. मैं मुसलमान दलितों के लिए आरक्षण की मांग कर रहा हूं. यह उनकी जरूरत है.
हम ऐवान (संसद) में अकेले थे लेकिन आवाम में हम अकेले नहीं होंगे. हम इंसानियत के इस सवाल को लेकर आवाम के बीच जाएंगे.सवाल- धर्म के आधार पर आरक्षण गलत तो जाति के नाम पर आरक्षण सही कैसे है?
जवाब- धर्म के नाम पर आरक्षण पहले तो असंवैधानिक है और यह कभी हो नहीं सकता. और हर धर्म में ऊंच नीच है. मैं कह रहा हूं कि जाति के नाम पर आरक्षण होना चाहिए और आरक्षण का लाभ सिर्फ जरूरतमंदों को मिलना चाहिए. हम तो कहते हैं कि हम अल्पसंख्यक नहीं है. हम बहुसंख्यक है. हम दलितों की एकता चाहते हैं फिर वे किसी भी धर्म हों. यही नैसर्गिक, स्वाभाविक और मूल बात है. सांप्रदायिकता नामक बीमारी की यह अचूक दवा है.
सवाल- तो क्या ऊंची जाति के मुसलमान आपका विरोध नहीं कर रहे हैं?
जवाब- ऊंची जाति के मुसलमान तो हमारे दुश्मन हैं ही क्योंकि इससे उनको नुकसान होता है. आपको क्या लगता है कि कोई अब्दुल्ला बुखारी और शहाबुद्दीन इस मसले पर हमारा समर्थन करेंगे. उनका वश चले तो न जाने मेरे साथ क्या करें. लेकिन इस सवाल पर मैंने संसद में भी कहा कि भले ही यहां मेरा साथ कोई नहीं दे रहा है मैं इस मसले को आवाम के बीच लेकर जाऊंगा और वहां मैं अकेला नहीं रहूंगा. आप देखिए सदन में अल्पसंख्यक सांसदों की संख्या पचास के करीब है लेकिन इस मसले पर कोई सांसद आगे नहीं आया. ये सारे सांसद ऊंची जाति के हैं. रसूखवाले लोग हैं. उन्हें दलित मुसलमानों से कोई हमदर्दी आखिर क्यों होगी?
सवाल- आगे आप अपनी मांग के समर्थन में क्या करेंगे?
जवाब- मैंने पहले ही कह दिया है लोगों के बीच जाऊंगा. सरकार को मजबूर कर दूंगा कि वह रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिश को माने और दलितों को उसका वाजिब हक दे. जब तक यह नहीं हो जाता तब तक न हम चैन से बैठेंगे न तो सरकार को चैन से बैठने देंगे.
गढ़ तो चढ़ गये गड़करी लेकिन...
प्रेम शुक्ल
गडकरी निश्चित तौर पर महाराष्ट्र के लोक निर्माण विभाग में क्रांतिकारी परिवर्तन करने में कामयाब हुए थे। उन्होंने विदर्भ में भाजपा के विस्तार की कमान भी संभाले रखी। लेकिन पिछले पांच वर्षों के कार्यकाल में वे महाराष्ट्र में भाजपा को पुनर्संगठित करने में कामयाब नहीं हुए। महाराष्ट्र में भाजपा को सफलता दिलाने में उन्हें किसी प्रकार की बाधा नहीं थी। क्या राष्ट्रीय स्तर पर वही गडकरी भाजपा को नए सिरे से सुसंगठित करने में कामयाब हो पाएंगे?
हिंदुत्ववादी विचारधारा के किसी भी महाराष्ट्रवासी के लिए यह गौरवपूर्ण है कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कमान महाराष्ट्रीयों के हाथ में सौंपी गई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार मराठी थे। उनके उत्तराधिकारी माधव सदाशिव गोलवलकर उर्फ श्रीगुरूजी थे। बीच के दिनों में सरसंघचालक राजेंद्र सिंह रज्जू भैया और कुप् सुदर्शन गैर महाराष्ट्रीय थे। मोहन भागवत जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नये सरसंघचालक बने तो किसी को आश्रर्य नहीं हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में महाराष्ट्रवासियों में विशेषकर देशस्थ ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है। जब राजनाथ सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में महाराष्ट्र भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी का नाम लिया गया तो राजनीतिक विश्लेषकों को निश्चित तौर पर आश्चर्य हुआ है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वरिष्ठता क्रम में नितिन गडकरी का काफी नीचे होना, आश्चर्य का विषय नहीं था। भारतीय जनसंघ के जमाने से राष्ट्राय स्वयंसेवक संघ ने अपनी राजनीतिक इकाई का नेतृत्व वरिष्ठता के बजाय सक्रियता और प्रभाव को मापदंड माना है। 1970 के दशक में जब लालकृष्ण आडवाणी को भारतीय जनसंघ की कमान सौंपी गई थी तब वे जनसंघ के वरिष्ठता क्रम में अटल बिहारी वाजपेयी के उत्तराधिकारी होने की स्थिति में कदापि नहीं थे। भारतीय जनता पार्टी में भी अध्यक्ष पद के लिए कभी वरिष्ठता को मापदंड नहीं माना गया। यदि वरिष्ठता को मापदंड माना जाता तो बंगारू लक्ष्मण, वेंकया नायडू और राजनाथ सिंह भाजपा के अध्यक्ष कैसे बनते? इसलिए गडकरी का नाम प्रस्तावित होने पर कोई राजनीतिक विश्लेषक आश्चर्यचकित नहीं हुआ। आश्चर्य इस बात का था कि क्या राष्टीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा दोनों का नेतृत्व महाराष्ट्रीय, देशस्थ ब्राहा्रणों को इकट्ठे सौंपा जा सकता है? मोहनराव भागवत और नितिन गडकरी न केवल महाराष्ट्र के बल्कि विदर्भ से आते हैं। दोनों देशस्थ ब्राहा्रण हैं। जिस देश में राजनीतिक निर्णयों के पहले जाति के जनेऊ को रगड़े जाने की परंपरा हो क्या वहां इस तरह का निर्णय सहज स्वीकार्य होगा? खैर, यह खुशी की बात है कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस तरह की क्षेत्रीय और जातीय समीकरण में उलझने की बजाय योग्यता को मापदंड माना है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में नया खून संचरित करने में मोहनराव भागवत से बेहतर कोई अन्य व्यक्ति नहीं हो सकता था।
क्या भारतीय जनता पार्टी सचमुच राजनीतिक दुर्दशा की कगार पर है? जो भाजपा 1980 के दशक में किसी भी राज्य में सत्ता तो दूर मुख्य विपक्षी दल के रूप में भी स्थान पान योग्य नहीं थी। क्या वह भाजपा 8 राज्यों में सत्ता भोगने की स्थिति में होने के बावजूद दुर्दशा में है? जिस भारतीय जनाता पार्टी के पास लोकसभा में केवल दो सांसद हुआ करते थे उसके 116 निर्वाचित सदस्यों के होने के बावजूद यदि वह स्वयं को कमजोर पाती हो तो इसे विपक्ष का दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए। क्या भारतीय जनता पार्टी में आमूल-चूल परिवर्तन अकेले अध्यक्ष के बूते की बात है? क्या भाजपा में अध्यक्ष सर्वशक्तिमान व्यक्ति होता है? अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के अलावा पिछले 29 वर्षों में भाजपा का कोई भी अध्यक्ष सर्वोच्च नेता की हैसियत को नहीं पा सका है? वाजपेयी और आडवाणी के बाद पहली बार अध्यक्ष की कुर्सी पानेवाले मुरली मनोहर जोशी वरिष्ठता, अनुभव, वक्तृत्व, विद्वता आदि मापदंडों पर सुषमा स्वराज या अरूण जेटली की तुलना में बहुत आगे हैं। फिर मुरली मनोहर जोशी को वाजपेयी और आडवाणी के बाद पार्टी में कभी तीसरे क्रमांक का भी व्यक्ति क्यों नहीं बनाया गया? वाजपेयी, आडवाडी और जोशी के बाद अध्यक्ष पद कुशाभाऊ ठाकरे और जना कृष्णमूर्ति के पास रहा। जना कृष्णमूर्ति और कुशाभाऊ ठाकरे कभी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के हिस्से बनते नजर नहीं आए। उनकी शक्ति जसंवत सिंह जितनी भी नहीं रही। बंगारू लक्ष्मण और वेंकया नायडू अध्यक्ष पद पर भले बने रहे किंतु उनकी औकात आडवाणी के पालतू प्राणियों से अधिक कभी नहीं रही। राजनाथ सिंह आडवाणी के विरोध के बावजूद अध्यक्ष पद पर बैठने में कामयाब हो गए। राजनाथ सिंह को संघ के साथ-साथ ‘बापजी’ अटल बिहारी वाजपेयी का अखंड आर्शीवाद प्राप्त था। जिन्ना के जिन्न से घायल आडवाणी को राजनाथ सिंह के लिए कुर्सी खाली करनी पड़ी। राजनाथ सिंह के कार्यकाल में भारतीय जनता पार्टी भले ही केन्द्र की सरकार पाने में नाकामयाब रही किंतु कई राज्यों में भाजपा को सत्ता हासिल करने में सफलता हासिल हुई।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में महाराष्ट्रवासियों में विशेषकर देशस्थ ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है। जब राजनाथ सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में महाराष्ट्र भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी का नाम लिया गया तो राजनीतिक विश्लेषकों को निश्चित तौर पर आश्चर्य हुआ है।
केंद्र की सत्ता में भाजपा को लाना अकेले राजनाथ सिंह का उत्तरदायित्व नहीं था। राजनाथ सिंह की तुलना में लोकसभा चुनाव का संचालन आडवाणी और उनके अंतःपुर के अगंओं ने किया था। इसलिए लोकसभा चुनाव के पराजय का दोष भी आडवाणी के अंतःपुर के लोगों को दिया जाना चाहिए। हुआ उल्टा है, राजनाथ सिंह की विदाई इस अंदाज में की गई है मानो वे भाजपा के सबसे विफलतम अध्यक्ष रहे हों। जबकि सच्चाई यह है कि राजनाथ सिंह के नेतृत्व में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, पंजाब, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में पार्टी को सफलता हासिल हुई। यदि केंद्र में सरकार न बनाने की विफलता राजनाथ सिंह के खाते में दर्ज होती है तो राज्यों की सफलता भी उनके खातों में क्यों नहीं दर्ज की जाती? मतलब साफ है जो लोग ये समझते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भाजपा से आडवाणी के खेमे को हाशिए पर फेंक दिया है वे भाजपा की अंतर्दशा का त्रटिपूर्ण विश्लेषण कर रहे हैं। संघ की एक बड़ी लाॅबी जिसमें दूसरी पंक्ति से लेकर पैदल सेना तक के कार्यकर्ताओं का समावेश है, आडवाणी के नाम पर आग बबूला हो जाया करते हैं। आडवाणी के खिलाफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह आक्रोश पांच वर्ष पुराना है। जिस दिन आडवाणी जिन्ना की मजार पर फातिया पढ़ आए थे उसी दिन से हिंदुत्व की हुंकार भरने वाले सामान्य कार्यकर्ताओं को उन्होंने अपने खिलाफ कर लिया था। भाजपा में आडवाणी जो कुछ कर गए वैसा अगर कोई और करता तो वह राजनीति से रपट दिया जाता। उदाहरणस्परूप जसवंत सिंह का जिन्ना के समर्थन में पुस्तक लिखना उनको पार्टी से निष्कासित करने का कारण बन गया। यह फार्मूला चाहकर भी संघ के लोग आडवाणी पर नहीं चला पाए। राजनाथ सिंह को अध्यक्ष की कुर्सी पर कभी चैन से नहीं बैठने दिया गया। राजनाथ के खिलाफ जिन लोगों ने मुहिम जारी रखी वे सारे नेता आडवाणी के अंतःपुर के अगुवा थे। अरूण जेटली भाजपा कार्यालय बैठकर प्रेस की अनौपचारिक ब्रीफिंग करते रहे। वेंकया नायडू, सुषमा स्वराज कुछ दिनों तक खुल्लम-खुल्ला राजनाथ सिंह के खिलाफ प्रचार करते रहे। आखिरी दिनों में एक कॉरपोरेट कंपनी की मध्यस्थता के चलते सुषमा स्वराज और राजनाथ सिंह के बीच पटरी बैठी। अनंत कुमार से भी राजनाथ सिंह किसी तरह पटरी बैठाए रहे। पार्टी विरोधी कार्रवाइयों को जब अध्यक्ष के खिलाफ शीर्ष नेतृत्व हवा दे रहा हो तो क्यों कोई अध्यक्ष पार्टी को सफलता दिला सकता है? फिर राजनाथ सिंह से सफलता की उम्मीद किस खातिर? नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाने में निश्चित तौर पर संघ की भूमिका निर्णायक रही है। सवाल पैदा होता है कि क्या नितिन गडकरी अरूण जेटली और सुषमा स्वराज से काम करा पाएंगे? अरूण जेटली चुनावी पराजय के सबसे जिम्मेदार व्यक्ति हैं। उन्हें आडवाणी की कृपा के चलते राज्यसभा में विपक्ष का नेता बनाए रखा गया है। चुनाव के समय सुषमा स्वराज की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए थे।
लोकसभा में सुषमा स्वराज की तुलना में भाजपा के कई नेता वरिष्ठ एंव योग्य हैं। क्या सुषमा स्वराज लालकृष्ण आडवाणी की छत्रछाया से मुक्त होकर काम करने की स्थिति में है? आडवाणी को संसदीय दल का नेता बनाकर और भविष्य में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का अध्यक्ष बनाए रखने की योजना के चलते राजनीतिक रूप से पदोन्नत किया गया है कि क्या गडकरी 2014 में इन्हीं लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर भाजपा को सफलता दिला सकते हैं? यदि आडवाणी रिटायर किए जाते हैं तो उनकी जगह 2014 में भाजपा प्रधानमंत्री के रूप में किसका चेहरा पेश करने वाली है? क्या वह चेहरा लोकसभा में विपक्ष का नेता होने के चलते सुषमा स्वराज का है? क्या सुषमा स्वराज को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गैर भाजपाई आनुषांगिक संगठन स्वीकार कर पाएंगे? क्या नितिन गडकरी को भाजपा भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करेगी? क्या नितिन गडकरी, नरेंद्र मोदी, प्रेमकुमार धूमल, शिवराज सिंह चैहान, रमण सिंह, सुशील कुमार मोदी आदि क्षेत्रीय क्षत्रपों पर अपनी पकड़ बना पाएंगे? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गलियारे से एक खबर उठती रही है कि जेटली, अनंत कुमार, वेंकैया नायडू, सुषमा स्वराज, आदि को संगठन के कामकाज से बेदखल कर दिया जाएगा।
नितिन गडकरी को सांगठनिक सफलता तभी प्राप्त होगी जब उन्हें जेटली की केटली को फोड़ने का अधिकार प्राप्त रहे। सुषमा स्वराज उनके इशारे पर चलने के लिए मजबूर की जाएं। आडवाणी के चेले-चपाटों को जब भाजपा कार्यलय से दूर कर दिया जाए। यदि नितिन गडकरी को भी भाजपा का अध्यक्ष पद राजनाथ सिंह की तरह ही दिया जाएगा तो गडकरी तीन वर्षों में कोई क्रांति कर देंगे ऐसी अपेक्षा पालना सरासर अन्याय होगा।
क्या संगठन संसदीय दल से अलग होकर पार्टी की क्षमता को बढ़ा पाएगा? जब भी भाजपा में किसी प्रांत के नए नेता को बढ़वा दिया जाता है तो उस प्रांत से पहले से ही स्थापित नेतृत्व को किनारे लगा दिया जाता है। मसलन, राजनाथ सिंह बढ़े तो कल्याण सिंह खात्मा हो गया। नरेंद्र मोदी के उदय ने केशुभाई पटेल को किनारे कर दिया। शिवराज सिंह चैहान ने उमा भारती को पार्टी से बाहर करा दिया। प्रेम कुमार धूमल उदित हुए तो शांताकुमार को शांत हो जाना पडा। वसुंधरा राजे सिंधिया ने भैरो सिंह की पकड़ को खत्म कर दिया। हर्षबर्धन के आगे बढ़ने से मदनलाल खुराना खत्म हो गए। क्या नितिन गडकरी का राष्ट्रीय क्षितिज पर उदय, मुंडे-महाजन युग का अवसान है? वैसे भी महाराष्ट्र भाजपा का कमान संभालने के बाद गडकरी और गोपीनाथ मुंडे के बीच शीतयुद्ध की खबरें आती रही हैं। गडकरी का अध्यक्ष बनना क्या मुंडे पूरी तरह से स्वीकार पाएंगे? कहीं मुंडे भी केशुभाई पटेल और कल्याण सिंह की तरह किनारे न हो जाएं?
भाजपा का उदय सांगठिनक क्षमता की बजाय राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के अल्पसंख्यकवाद की प्रतिक्रिया के चलते हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के सबसे अधिक प्रभावोत्पादक नेता रहे। वे 1980 से 1986 तक भाजपा के अध्यक्ष थे। इस काल में भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव डालनेवाली शक्ति नहीं बन पाई थी। लालाकृष्ण आडवाणी का पहला कार्यकाल भी भाजपा को विपक्ष की सशक्ततम पार्टी नहीं बना पाया था। भाजपा जिस आंदोलन के चलते सत्ता के समीकरण में अपरिहार्य बनी, वह उसका अपना आंदोलन होने की बजाय विश्व हिंदू परिषद का आंदोलन था। भाजपा का राष्ट्रीय विकास 1989 से 1996 के बीच हुआ। इन सात वर्षों में तीन वर्ष मुरली मनोहर जोशी अध्यक्ष रहे। उन्होंने भी आडवाणी की तरह राष्ट्रीय स्तर पर रथयात्रा की। वे कश्मीर के लाल चैक तक भाजपा का रथ लेकर गए। बावजूद इसके जब कोई भाजपाई आडवाणी और जोशी की तुलना करता है तो वह जोशी को कभी आडवाणी की बराबरी का सम्मान नहीं देता, क्यों? भाजपा सत्ता में आते ही राम जन्मभूमि, धारा 370, समान नागरिक संहिता जैसे अपने मूलभूत मुद्वों को किनारे कर बैठी। भाजपा के संगठन को भी सरकार के समक्ष बौना करने का सुनियोजित प्रयास भी आडवाणी और वाजपेयी के इशारे पर हुआ। जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तब बंगारू लक्ष्मण को अध्यक्ष बनाया जाना उसी तरह की गतिविधि थी जैसे मालिक के सामने दिहाड़ी मजदूर को धर का उत्तरदायित्व सौंप दिया जाए। बंगारू लक्ष्मण, वेंकया नायडू जैसे दिहाड़ियों ने ही भाजपा की सांगठनिक शक्ति को नष्ट कर दिया। अब गड़करी भले गढ़ चढ़ने में कामयाब हो गये हैं लेकिन फतेह कर पायेंगे? इस सवाल का जवाब समय के साथ ही मिलेगा.
गडकरी निश्चित तौर पर महाराष्ट्र के लोक निर्माण विभाग में क्रांतिकारी परिवर्तन करने में कामयाब हुए थे। उन्होंने विदर्भ में भाजपा के विस्तार की कमान भी संभाले रखी। लेकिन पिछले पांच वर्षों के कार्यकाल में वे महाराष्ट्र में भाजपा को पुनर्संगठित करने में कामयाब नहीं हुए। महाराष्ट्र में भाजपा को सफलता दिलाने में उन्हें किसी प्रकार की बाधा नहीं थी। क्या राष्ट्रीय स्तर पर वही गडकरी भाजपा को नए सिरे से सुसंगठित करने में कामयाब हो पाएंगे?
हिंदुत्ववादी विचारधारा के किसी भी महाराष्ट्रवासी के लिए यह गौरवपूर्ण है कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कमान महाराष्ट्रीयों के हाथ में सौंपी गई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार मराठी थे। उनके उत्तराधिकारी माधव सदाशिव गोलवलकर उर्फ श्रीगुरूजी थे। बीच के दिनों में सरसंघचालक राजेंद्र सिंह रज्जू भैया और कुप् सुदर्शन गैर महाराष्ट्रीय थे। मोहन भागवत जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नये सरसंघचालक बने तो किसी को आश्रर्य नहीं हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में महाराष्ट्रवासियों में विशेषकर देशस्थ ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है। जब राजनाथ सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में महाराष्ट्र भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी का नाम लिया गया तो राजनीतिक विश्लेषकों को निश्चित तौर पर आश्चर्य हुआ है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वरिष्ठता क्रम में नितिन गडकरी का काफी नीचे होना, आश्चर्य का विषय नहीं था। भारतीय जनसंघ के जमाने से राष्ट्राय स्वयंसेवक संघ ने अपनी राजनीतिक इकाई का नेतृत्व वरिष्ठता के बजाय सक्रियता और प्रभाव को मापदंड माना है। 1970 के दशक में जब लालकृष्ण आडवाणी को भारतीय जनसंघ की कमान सौंपी गई थी तब वे जनसंघ के वरिष्ठता क्रम में अटल बिहारी वाजपेयी के उत्तराधिकारी होने की स्थिति में कदापि नहीं थे। भारतीय जनता पार्टी में भी अध्यक्ष पद के लिए कभी वरिष्ठता को मापदंड नहीं माना गया। यदि वरिष्ठता को मापदंड माना जाता तो बंगारू लक्ष्मण, वेंकया नायडू और राजनाथ सिंह भाजपा के अध्यक्ष कैसे बनते? इसलिए गडकरी का नाम प्रस्तावित होने पर कोई राजनीतिक विश्लेषक आश्चर्यचकित नहीं हुआ। आश्चर्य इस बात का था कि क्या राष्टीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा दोनों का नेतृत्व महाराष्ट्रीय, देशस्थ ब्राहा्रणों को इकट्ठे सौंपा जा सकता है? मोहनराव भागवत और नितिन गडकरी न केवल महाराष्ट्र के बल्कि विदर्भ से आते हैं। दोनों देशस्थ ब्राहा्रण हैं। जिस देश में राजनीतिक निर्णयों के पहले जाति के जनेऊ को रगड़े जाने की परंपरा हो क्या वहां इस तरह का निर्णय सहज स्वीकार्य होगा? खैर, यह खुशी की बात है कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस तरह की क्षेत्रीय और जातीय समीकरण में उलझने की बजाय योग्यता को मापदंड माना है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में नया खून संचरित करने में मोहनराव भागवत से बेहतर कोई अन्य व्यक्ति नहीं हो सकता था।
क्या भारतीय जनता पार्टी सचमुच राजनीतिक दुर्दशा की कगार पर है? जो भाजपा 1980 के दशक में किसी भी राज्य में सत्ता तो दूर मुख्य विपक्षी दल के रूप में भी स्थान पान योग्य नहीं थी। क्या वह भाजपा 8 राज्यों में सत्ता भोगने की स्थिति में होने के बावजूद दुर्दशा में है? जिस भारतीय जनाता पार्टी के पास लोकसभा में केवल दो सांसद हुआ करते थे उसके 116 निर्वाचित सदस्यों के होने के बावजूद यदि वह स्वयं को कमजोर पाती हो तो इसे विपक्ष का दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए। क्या भारतीय जनता पार्टी में आमूल-चूल परिवर्तन अकेले अध्यक्ष के बूते की बात है? क्या भाजपा में अध्यक्ष सर्वशक्तिमान व्यक्ति होता है? अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के अलावा पिछले 29 वर्षों में भाजपा का कोई भी अध्यक्ष सर्वोच्च नेता की हैसियत को नहीं पा सका है? वाजपेयी और आडवाणी के बाद पहली बार अध्यक्ष की कुर्सी पानेवाले मुरली मनोहर जोशी वरिष्ठता, अनुभव, वक्तृत्व, विद्वता आदि मापदंडों पर सुषमा स्वराज या अरूण जेटली की तुलना में बहुत आगे हैं। फिर मुरली मनोहर जोशी को वाजपेयी और आडवाणी के बाद पार्टी में कभी तीसरे क्रमांक का भी व्यक्ति क्यों नहीं बनाया गया? वाजपेयी, आडवाडी और जोशी के बाद अध्यक्ष पद कुशाभाऊ ठाकरे और जना कृष्णमूर्ति के पास रहा। जना कृष्णमूर्ति और कुशाभाऊ ठाकरे कभी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के हिस्से बनते नजर नहीं आए। उनकी शक्ति जसंवत सिंह जितनी भी नहीं रही। बंगारू लक्ष्मण और वेंकया नायडू अध्यक्ष पद पर भले बने रहे किंतु उनकी औकात आडवाणी के पालतू प्राणियों से अधिक कभी नहीं रही। राजनाथ सिंह आडवाणी के विरोध के बावजूद अध्यक्ष पद पर बैठने में कामयाब हो गए। राजनाथ सिंह को संघ के साथ-साथ ‘बापजी’ अटल बिहारी वाजपेयी का अखंड आर्शीवाद प्राप्त था। जिन्ना के जिन्न से घायल आडवाणी को राजनाथ सिंह के लिए कुर्सी खाली करनी पड़ी। राजनाथ सिंह के कार्यकाल में भारतीय जनता पार्टी भले ही केन्द्र की सरकार पाने में नाकामयाब रही किंतु कई राज्यों में भाजपा को सत्ता हासिल करने में सफलता हासिल हुई।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में महाराष्ट्रवासियों में विशेषकर देशस्थ ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है। जब राजनाथ सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में महाराष्ट्र भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी का नाम लिया गया तो राजनीतिक विश्लेषकों को निश्चित तौर पर आश्चर्य हुआ है।
केंद्र की सत्ता में भाजपा को लाना अकेले राजनाथ सिंह का उत्तरदायित्व नहीं था। राजनाथ सिंह की तुलना में लोकसभा चुनाव का संचालन आडवाणी और उनके अंतःपुर के अगंओं ने किया था। इसलिए लोकसभा चुनाव के पराजय का दोष भी आडवाणी के अंतःपुर के लोगों को दिया जाना चाहिए। हुआ उल्टा है, राजनाथ सिंह की विदाई इस अंदाज में की गई है मानो वे भाजपा के सबसे विफलतम अध्यक्ष रहे हों। जबकि सच्चाई यह है कि राजनाथ सिंह के नेतृत्व में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, पंजाब, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में पार्टी को सफलता हासिल हुई। यदि केंद्र में सरकार न बनाने की विफलता राजनाथ सिंह के खाते में दर्ज होती है तो राज्यों की सफलता भी उनके खातों में क्यों नहीं दर्ज की जाती? मतलब साफ है जो लोग ये समझते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भाजपा से आडवाणी के खेमे को हाशिए पर फेंक दिया है वे भाजपा की अंतर्दशा का त्रटिपूर्ण विश्लेषण कर रहे हैं। संघ की एक बड़ी लाॅबी जिसमें दूसरी पंक्ति से लेकर पैदल सेना तक के कार्यकर्ताओं का समावेश है, आडवाणी के नाम पर आग बबूला हो जाया करते हैं। आडवाणी के खिलाफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह आक्रोश पांच वर्ष पुराना है। जिस दिन आडवाणी जिन्ना की मजार पर फातिया पढ़ आए थे उसी दिन से हिंदुत्व की हुंकार भरने वाले सामान्य कार्यकर्ताओं को उन्होंने अपने खिलाफ कर लिया था। भाजपा में आडवाणी जो कुछ कर गए वैसा अगर कोई और करता तो वह राजनीति से रपट दिया जाता। उदाहरणस्परूप जसवंत सिंह का जिन्ना के समर्थन में पुस्तक लिखना उनको पार्टी से निष्कासित करने का कारण बन गया। यह फार्मूला चाहकर भी संघ के लोग आडवाणी पर नहीं चला पाए। राजनाथ सिंह को अध्यक्ष की कुर्सी पर कभी चैन से नहीं बैठने दिया गया। राजनाथ के खिलाफ जिन लोगों ने मुहिम जारी रखी वे सारे नेता आडवाणी के अंतःपुर के अगुवा थे। अरूण जेटली भाजपा कार्यालय बैठकर प्रेस की अनौपचारिक ब्रीफिंग करते रहे। वेंकया नायडू, सुषमा स्वराज कुछ दिनों तक खुल्लम-खुल्ला राजनाथ सिंह के खिलाफ प्रचार करते रहे। आखिरी दिनों में एक कॉरपोरेट कंपनी की मध्यस्थता के चलते सुषमा स्वराज और राजनाथ सिंह के बीच पटरी बैठी। अनंत कुमार से भी राजनाथ सिंह किसी तरह पटरी बैठाए रहे। पार्टी विरोधी कार्रवाइयों को जब अध्यक्ष के खिलाफ शीर्ष नेतृत्व हवा दे रहा हो तो क्यों कोई अध्यक्ष पार्टी को सफलता दिला सकता है? फिर राजनाथ सिंह से सफलता की उम्मीद किस खातिर? नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाने में निश्चित तौर पर संघ की भूमिका निर्णायक रही है। सवाल पैदा होता है कि क्या नितिन गडकरी अरूण जेटली और सुषमा स्वराज से काम करा पाएंगे? अरूण जेटली चुनावी पराजय के सबसे जिम्मेदार व्यक्ति हैं। उन्हें आडवाणी की कृपा के चलते राज्यसभा में विपक्ष का नेता बनाए रखा गया है। चुनाव के समय सुषमा स्वराज की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए थे।
लोकसभा में सुषमा स्वराज की तुलना में भाजपा के कई नेता वरिष्ठ एंव योग्य हैं। क्या सुषमा स्वराज लालकृष्ण आडवाणी की छत्रछाया से मुक्त होकर काम करने की स्थिति में है? आडवाणी को संसदीय दल का नेता बनाकर और भविष्य में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का अध्यक्ष बनाए रखने की योजना के चलते राजनीतिक रूप से पदोन्नत किया गया है कि क्या गडकरी 2014 में इन्हीं लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर भाजपा को सफलता दिला सकते हैं? यदि आडवाणी रिटायर किए जाते हैं तो उनकी जगह 2014 में भाजपा प्रधानमंत्री के रूप में किसका चेहरा पेश करने वाली है? क्या वह चेहरा लोकसभा में विपक्ष का नेता होने के चलते सुषमा स्वराज का है? क्या सुषमा स्वराज को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गैर भाजपाई आनुषांगिक संगठन स्वीकार कर पाएंगे? क्या नितिन गडकरी को भाजपा भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करेगी? क्या नितिन गडकरी, नरेंद्र मोदी, प्रेमकुमार धूमल, शिवराज सिंह चैहान, रमण सिंह, सुशील कुमार मोदी आदि क्षेत्रीय क्षत्रपों पर अपनी पकड़ बना पाएंगे? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गलियारे से एक खबर उठती रही है कि जेटली, अनंत कुमार, वेंकैया नायडू, सुषमा स्वराज, आदि को संगठन के कामकाज से बेदखल कर दिया जाएगा।
नितिन गडकरी को सांगठनिक सफलता तभी प्राप्त होगी जब उन्हें जेटली की केटली को फोड़ने का अधिकार प्राप्त रहे। सुषमा स्वराज उनके इशारे पर चलने के लिए मजबूर की जाएं। आडवाणी के चेले-चपाटों को जब भाजपा कार्यलय से दूर कर दिया जाए। यदि नितिन गडकरी को भी भाजपा का अध्यक्ष पद राजनाथ सिंह की तरह ही दिया जाएगा तो गडकरी तीन वर्षों में कोई क्रांति कर देंगे ऐसी अपेक्षा पालना सरासर अन्याय होगा।
क्या संगठन संसदीय दल से अलग होकर पार्टी की क्षमता को बढ़ा पाएगा? जब भी भाजपा में किसी प्रांत के नए नेता को बढ़वा दिया जाता है तो उस प्रांत से पहले से ही स्थापित नेतृत्व को किनारे लगा दिया जाता है। मसलन, राजनाथ सिंह बढ़े तो कल्याण सिंह खात्मा हो गया। नरेंद्र मोदी के उदय ने केशुभाई पटेल को किनारे कर दिया। शिवराज सिंह चैहान ने उमा भारती को पार्टी से बाहर करा दिया। प्रेम कुमार धूमल उदित हुए तो शांताकुमार को शांत हो जाना पडा। वसुंधरा राजे सिंधिया ने भैरो सिंह की पकड़ को खत्म कर दिया। हर्षबर्धन के आगे बढ़ने से मदनलाल खुराना खत्म हो गए। क्या नितिन गडकरी का राष्ट्रीय क्षितिज पर उदय, मुंडे-महाजन युग का अवसान है? वैसे भी महाराष्ट्र भाजपा का कमान संभालने के बाद गडकरी और गोपीनाथ मुंडे के बीच शीतयुद्ध की खबरें आती रही हैं। गडकरी का अध्यक्ष बनना क्या मुंडे पूरी तरह से स्वीकार पाएंगे? कहीं मुंडे भी केशुभाई पटेल और कल्याण सिंह की तरह किनारे न हो जाएं?
भाजपा का उदय सांगठिनक क्षमता की बजाय राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के अल्पसंख्यकवाद की प्रतिक्रिया के चलते हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के सबसे अधिक प्रभावोत्पादक नेता रहे। वे 1980 से 1986 तक भाजपा के अध्यक्ष थे। इस काल में भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव डालनेवाली शक्ति नहीं बन पाई थी। लालाकृष्ण आडवाणी का पहला कार्यकाल भी भाजपा को विपक्ष की सशक्ततम पार्टी नहीं बना पाया था। भाजपा जिस आंदोलन के चलते सत्ता के समीकरण में अपरिहार्य बनी, वह उसका अपना आंदोलन होने की बजाय विश्व हिंदू परिषद का आंदोलन था। भाजपा का राष्ट्रीय विकास 1989 से 1996 के बीच हुआ। इन सात वर्षों में तीन वर्ष मुरली मनोहर जोशी अध्यक्ष रहे। उन्होंने भी आडवाणी की तरह राष्ट्रीय स्तर पर रथयात्रा की। वे कश्मीर के लाल चैक तक भाजपा का रथ लेकर गए। बावजूद इसके जब कोई भाजपाई आडवाणी और जोशी की तुलना करता है तो वह जोशी को कभी आडवाणी की बराबरी का सम्मान नहीं देता, क्यों? भाजपा सत्ता में आते ही राम जन्मभूमि, धारा 370, समान नागरिक संहिता जैसे अपने मूलभूत मुद्वों को किनारे कर बैठी। भाजपा के संगठन को भी सरकार के समक्ष बौना करने का सुनियोजित प्रयास भी आडवाणी और वाजपेयी के इशारे पर हुआ। जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तब बंगारू लक्ष्मण को अध्यक्ष बनाया जाना उसी तरह की गतिविधि थी जैसे मालिक के सामने दिहाड़ी मजदूर को धर का उत्तरदायित्व सौंप दिया जाए। बंगारू लक्ष्मण, वेंकया नायडू जैसे दिहाड़ियों ने ही भाजपा की सांगठनिक शक्ति को नष्ट कर दिया। अब गड़करी भले गढ़ चढ़ने में कामयाब हो गये हैं लेकिन फतेह कर पायेंगे? इस सवाल का जवाब समय के साथ ही मिलेगा.
हसन गफूर दोषी, मुंबई पुलिस निर्दोष
संजय स्वदेश
नागपुर। मुंबई पर पिछले वर्ष हुए आतंकवादी हमले की जांच करने वाली राम प्रधान समिति की रिपोर्ट में तत्कालीन पुलिस आयुक्त हसन गफूर की खिंचाई की गयी है जबकि कई पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों को शाबाशी देते हुए मुंबई पुलिस को निर्दोष साबित किया गया है।
सोमवार को विधानमंडल में पेश 85 पेज की रिपोर्ट के अनुसार श्री गफूर हमले के बाद समूचे वक्त आतंकवादी हमले का निशाना बने एक स्थल ट्राइडेंट होटल के निकट बने रहे। पुलिस आयुक्त कार्यालय में नेतृत्व और नियंत्रण की दर्शनीयता न होने के कारण लोगों में यह संकेत गया कि पुलिस ने स्थिति ठीक से नहीं संभाली।
रिपोर्ट के अनुसार श्री गफूर वायरलेस और मोबाइल के जरिये कुछ अधिकारियों के संपर्क में बने रहे पर कई अधिकारियों ने महसूस किया कि वह टीम का हिस्सा नहीं थे। रिपोर्ट के अनुसार कई वरिष्ठ अधिकारियों ने उन्हें बताया कि तीन दिनों में श्री गफूर ने उन्हें कोई निर्देश नहीं दिया अथवा चल रहे ऑपरेशन के बारे में नहीं पूछा। कई जगहों पर एक साथ हुए हमले से निबटने में जिस तरह के कौशल प्रदर्शन की जरूरत थी, वह नहीं दिखा। हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि नेतृत्व की दर्शनीयता नदारद थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि किसी संकट से निबटने के लिए मुंबई पुलिस के बनाये स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रैक्टिस का पालन नहीं किया गया था। इसके अनुसार संकट प्रबंधन नियंत्रण संयुक्त पुलिस आयुक्त (कानून एवं व्यवस्था) के पास होना चाहिये जो सभी नियंत्रण कक्षों का प्रभारी होता लेकिन तत्कालीन पुलिस आयुक्त ने संयुक्त पुलिस आयुक्त को ऑपरेशन का प्रभारी बनाया।
राम प्रधान कमेटी की रिपोर्ट ने पाया है कि आतंकियों से निपटने के दौरान गफूर मुंबई पुलिस से अलग थलग नजर आये और टीम भावना से काम नहीं किया.
दूसरी तरफ रिपोर्ट में मुंबई पुलिस को किसी गंभीर भूल के आरोप से बरी किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार कुछ अधिकारियों और पुलिसकर्मियों ने खासकर युवाओं ने त्वरित कार्रवाई की। रिपोर्ट में तत्कालीन संयुक्त पुलिस आयुक्त राकेश मारिया की भूमिका की तारीफ की गयी है। रिपोर्ट में इस बात को लेकर असंतोष व्यक्त किया गया है कि पुलिस अथवा मंत्रालय की ओर से हमलों को लेकर मीडिया को जानकारी देने की सही व्यवस्था नहीं थी। पुलिस आयुक्त अथवा पुलिस प्रवक्ता को मीडिया को जानकारी देने के कार्य को अंजाम देना था। रिपोर्ट में माना गया है कि युद्ध जैसे हमले से मुंबई पुलिस क्या किसी भी पुलिस इकाई का निबटना आसान नहीं था। इससे राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड जैसे विशेषज्ञ बलों की मदद से ही निबटा जा सकता था।
हालांकि इस रिपोर्ट के सदन में प्रस्तुत होने से बहुत पहले ही जून में राज्य सरकार ने मुंबई पुलिस कमिश्नर पद से पदमुक्त कर दिया था और राज्य पुलिस हाउसिंग कारपोरेशन का प्रमुख बना दिया था.
रामप्रधान समिति रिपोर्ट मामले से विदर्भ मुद्दे की चर्चा खंडित हुई
विदर्भ के विभिन्न प्रश्रों पर विधान सभा में चल रही गंभीर चर्चा को रामप्रधान समिति रिपोर्ट ने खंडित किया, लेकिन इतने अवरोध के बावजूद चंद्रपुर के भाजपा विधायक सुधीर मुनगंटीवार अपने मुद्दे पर डटे रहे। सीबीबाई जांच की मांग पर विपक्ष के बहिर्गमन की विधी पूर्ण होने के पहले ही मुनगंटीवार ने अपना भाषण शुरू किया। जिसपर सरकार की ओर से आक्षेप उठाया गया। मुनगंटीवार बिल्कुल भी डगमगाए नहीं और इन्होंने बताया कि हमने विपक्ष नेता से अनुमति ली है।
गढ़ में हारे गडकरी
संजय स्वदेश
nagpur स्थानिक स्वराज्य संस्था से विधान परिषद में भेजे जाने के लिए हुए 7 स्थानों के चुनाव में एक बार फिर कांग्रेस-राकांपा आघाड़ी ने बाजी मार ली है। कुल 7 स्थानों में से 3 पर कांग्रेस, 2 पर शिवसेना, 1 पर राकांपा और 1 सीट पर राकांपा का बागी विजयी हुआ है।
मुंबई - शिवसेना के कदम और कांग्रेस के जगताप विजयी : मुंबई स्थानिक स्वराज्य संस्था से विधान परिषद के दो स्थानों के लिए हुए चुनाव में शिवसेना के रामदास कदम 85, कांग्रेस के भाई जगताप 97 मतों से विजयी हुए। कुल 227 में से 223 पार्षदों ने मतदान किया। इस चुनाव में भाजपा के मधु चव्हाण को पराजय का सामना करना पड़ा।
कोल्हापुर - महाडिक की तिकड़ी : कोल्हापुर स्थानिक स्वराज्य संस्था चुनाव क्षेत्र के कांग्रेस के प्रत्याशी महादेवराव महाडिक ने तिकड़ी (हेटट्रिक) बनाई। उन्होंने जन सुराज्य शक्ति केउम्मीदवार जयंत पाटील को 42 मतों से हराया। 356 में से आठ मत अवैध हुए।
सोलापुर- राकांपा के दीपक सालुंखे विजयी : सोलापुर क्षेत्र से विधान परिषद चुनाव में राष्ट्रवादी कांग्रेस-कांग्रेस आघाडी के दीपक सालुंखे 79 मतों से विजयी हुए। कांग्रेस के बागी कल्याणराव काले हार गए।
अहमदनगर- राकांपा बागी जगताप जीते : अहमदनगर से राष्ट्रवादी कांग्रेस के बागी उम्मीदवार अरुण जगताप विजयी हुए। उन्हें 186 मत मिले। कांग्रेस के जयंत ससाणे को 148 मत मिले ।
अकोला - शिवसेना के बाजोरिया विजयी: अकोला, बुलढाणा व वाशिम जिला चुनाव क्षेत्र से शिवसेना के विधायक गोपीकिशन बाजोरिया 10 मतों से विजयी हुए। बाजोरिया व कांग्रेस आघाडी के राधेश्याम चांडक में सीधा संघर्ष था। चुनाव मैदान में नांदुरा के मोहम्मद इरफान भी उम्मीदवार थे। बाजोरिया को 347, चांडक 337 को मत मिले।
नागपुर से कांग्रेस के राजेंद्र मुलक विजयी
विधान परिषद चुनाव में कांग्रेस के राजेंद्र मुलक ने भाजपा के अशोक मानकर को सिर्फ चार मतों से पराजित किया। मुलक को 202, मानकर को 198 मत मिले। 14 मत अवैध ठहराए गए। कुल 414 मतदाताओं ने मतदान किया था। एक पार्षद अनुपस्थित थी, वहीं एक मतपत्रिका सील की गई।
nagpur स्थानिक स्वराज्य संस्था से विधान परिषद में भेजे जाने के लिए हुए 7 स्थानों के चुनाव में एक बार फिर कांग्रेस-राकांपा आघाड़ी ने बाजी मार ली है। कुल 7 स्थानों में से 3 पर कांग्रेस, 2 पर शिवसेना, 1 पर राकांपा और 1 सीट पर राकांपा का बागी विजयी हुआ है।
मुंबई - शिवसेना के कदम और कांग्रेस के जगताप विजयी : मुंबई स्थानिक स्वराज्य संस्था से विधान परिषद के दो स्थानों के लिए हुए चुनाव में शिवसेना के रामदास कदम 85, कांग्रेस के भाई जगताप 97 मतों से विजयी हुए। कुल 227 में से 223 पार्षदों ने मतदान किया। इस चुनाव में भाजपा के मधु चव्हाण को पराजय का सामना करना पड़ा।
कोल्हापुर - महाडिक की तिकड़ी : कोल्हापुर स्थानिक स्वराज्य संस्था चुनाव क्षेत्र के कांग्रेस के प्रत्याशी महादेवराव महाडिक ने तिकड़ी (हेटट्रिक) बनाई। उन्होंने जन सुराज्य शक्ति केउम्मीदवार जयंत पाटील को 42 मतों से हराया। 356 में से आठ मत अवैध हुए।
सोलापुर- राकांपा के दीपक सालुंखे विजयी : सोलापुर क्षेत्र से विधान परिषद चुनाव में राष्ट्रवादी कांग्रेस-कांग्रेस आघाडी के दीपक सालुंखे 79 मतों से विजयी हुए। कांग्रेस के बागी कल्याणराव काले हार गए।
अहमदनगर- राकांपा बागी जगताप जीते : अहमदनगर से राष्ट्रवादी कांग्रेस के बागी उम्मीदवार अरुण जगताप विजयी हुए। उन्हें 186 मत मिले। कांग्रेस के जयंत ससाणे को 148 मत मिले ।
अकोला - शिवसेना के बाजोरिया विजयी: अकोला, बुलढाणा व वाशिम जिला चुनाव क्षेत्र से शिवसेना के विधायक गोपीकिशन बाजोरिया 10 मतों से विजयी हुए। बाजोरिया व कांग्रेस आघाडी के राधेश्याम चांडक में सीधा संघर्ष था। चुनाव मैदान में नांदुरा के मोहम्मद इरफान भी उम्मीदवार थे। बाजोरिया को 347, चांडक 337 को मत मिले।
नागपुर से कांग्रेस के राजेंद्र मुलक विजयी
विधान परिषद चुनाव में कांग्रेस के राजेंद्र मुलक ने भाजपा के अशोक मानकर को सिर्फ चार मतों से पराजित किया। मुलक को 202, मानकर को 198 मत मिले। 14 मत अवैध ठहराए गए। कुल 414 मतदाताओं ने मतदान किया था। एक पार्षद अनुपस्थित थी, वहीं एक मतपत्रिका सील की गई।
सोमवार, दिसंबर 21, 2009
दिग्गजों की घर वापसी चाहते हैं गडकरी
संजय स्वदेश
नागपुर। भारतीय जनता पार्टी के नये राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में नितिन गडकरी की ताजपोशी के बाद पार्टी के पुराने दिग्गज गोविंदाचार्य, उमा भारती और कल्याण सिंह को घर वापसी की संभावनाएं बढ़ गई है। इसको लेकर श्री गडकरी ने रविवार को ही नागपुर आगमन पर पत्रकारों को संकेत देते हुए कहा था पार्टी की मजबूती के लिए पुराने दिग्गज नेताओं को वापस पार्टी में शामिल कर लिया जाएगा। लेकिन साथ ही शर्त रखी कि यदि वे अपने पिछले किए को सार्वजनिक रूप से मांफी मांगे तब ही पार्टी में वापसी संभव होगी। पार्टी सूत्रों का कहना है कि आरएसएस कैडर के पार्टी के पुराने दिग्गजों की घर वापसी के पीछे संघ प्रमुख मोहन भागवत की रुचि है। हालांकि पिछले दिनों अबराहम कमीशन की रिपोर्ट पर नागपुर में पत्रकारों से बातचीत करते हुए पूर्व भाजपा नेता व भारतीय जनशक्ति की प्रमुख उमा भारती ने कहा था कि वे वापस भाजपा ने नहीं जाएंगी। पार्टी की नीतियों के अनुसार जनशक्ति का समर्थन हमेशा देती रहेंगी। लेकिन विश्वस्त सूत्रों का कहना है कि नागपुर में प्रेस-कान्फ्रेंस होने से से पूर्व उमा भारती आर.एस.एस. कार्यालय जाकर संघ प्रमुख से गुपचुप मुलाकात कर चुकी थीं। उमा भारती स्वयं यह चाहती हैं कि अब भाजपा की शरण में आ जाएं क्योंकि उनकी पार्टी के साथ अन्य कोई मजबूत नेता नहीं है। प्रह्लाद पटेल कि स्थिति कमजोर हो चुकी है। लिहाजा उमा के सामने पार्टी चलाने के लिए गंभीर वितिय संकट है। वहीं उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को भी समाजवादी पार्टी से निकलने के बाद उनका आसरा नहीं बचा है। राजनाथ सिंह के विदाई के बाद भाजपा में आने की आस देख रहे हैं। इसके साथ ही पार्टी के कभी थींक टैंक के रूप में लोकप्रिय गोविन्दाचार्य की भी जल्द ही भाजपा में वापसी हो सकती है।
गत दिनों नागपुर में संपन्न संघ की बैठक में आरएसएस प्रमुख नये साल में नये पार्टी अध्यक्ष के नेतृत्व में भाजपा का कायाकल्प करने का निर्णय लिया गया था। इसके लिए पार्टी से बाहर गए आरएसएस के पुराने कैडर के नेताओं को भी जोडऩे की नीति पर सहमती बनाई गई। सूत्रों का कहना है कि सरसंघचालक के निर्देश पर पार्टी के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी के साथ गोविन्दाचार्य की एक गुप्त बैठक पहले ही संपन्न हो चुकी है।
पुराने दिग्गजों के पार्टी में वापसी के नीति के मद्दे नजर ही भाजपा के नये अध्यक्ष नितिन गडकरी ने रविवार को यह संकेत दिया कि पार्टी छोड़ कर जाने वाले पुराने दिग्गज घर लौंटे। श्री गडकरी का कहना है कि इनमें से हर एक नेता ने संगठन के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, इसलिए उनकी पार्टी में वापस लाने का विचार होता है तो यह कोई गलत नहीं है। हालांकि गडकरी यह भी कहते हैं कि इन नेताओं की पार्टी में वापसी इतनी आसान नहीं होगी। अगर ये नेता अपने किये पर पछतावा करते हैं तथा हमारे सभी राज्यों के भाजपा प्रमुख इस पर सहमति जताते हैं तो हम जरूर इन नेताओं को भाजपा में वापस लाएंगे। ज्ञात हो कि नितिन गड़करी का यह बयान संघ की पूर्व निर्धारित नीति का ही एक हिस्सा है। फिलहाल उमा भारती भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाकर काम कर रही हैं जबकि गोविन्दाचार्य विभिन्न सामाजिक गतिविधियों से जुड़े हैं और कल्याण सिंह ने भी सपा छोडऩे के बाद अपनी अलग पार्टी का ऐलान किया है। पर राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता में आने के लिए इन तीनों प्रमुख नेताओं की राह अकेले पार होते नहीं दिख रही है।
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नागपुर। भारतीय जनता पार्टी के नये राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में नितिन गडकरी की ताजपोशी के बाद पार्टी के पुराने दिग्गज गोविंदाचार्य, उमा भारती और कल्याण सिंह को घर वापसी की संभावनाएं बढ़ गई है। इसको लेकर श्री गडकरी ने रविवार को ही नागपुर आगमन पर पत्रकारों को संकेत देते हुए कहा था पार्टी की मजबूती के लिए पुराने दिग्गज नेताओं को वापस पार्टी में शामिल कर लिया जाएगा। लेकिन साथ ही शर्त रखी कि यदि वे अपने पिछले किए को सार्वजनिक रूप से मांफी मांगे तब ही पार्टी में वापसी संभव होगी। पार्टी सूत्रों का कहना है कि आरएसएस कैडर के पार्टी के पुराने दिग्गजों की घर वापसी के पीछे संघ प्रमुख मोहन भागवत की रुचि है। हालांकि पिछले दिनों अबराहम कमीशन की रिपोर्ट पर नागपुर में पत्रकारों से बातचीत करते हुए पूर्व भाजपा नेता व भारतीय जनशक्ति की प्रमुख उमा भारती ने कहा था कि वे वापस भाजपा ने नहीं जाएंगी। पार्टी की नीतियों के अनुसार जनशक्ति का समर्थन हमेशा देती रहेंगी। लेकिन विश्वस्त सूत्रों का कहना है कि नागपुर में प्रेस-कान्फ्रेंस होने से से पूर्व उमा भारती आर.एस.एस. कार्यालय जाकर संघ प्रमुख से गुपचुप मुलाकात कर चुकी थीं। उमा भारती स्वयं यह चाहती हैं कि अब भाजपा की शरण में आ जाएं क्योंकि उनकी पार्टी के साथ अन्य कोई मजबूत नेता नहीं है। प्रह्लाद पटेल कि स्थिति कमजोर हो चुकी है। लिहाजा उमा के सामने पार्टी चलाने के लिए गंभीर वितिय संकट है। वहीं उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को भी समाजवादी पार्टी से निकलने के बाद उनका आसरा नहीं बचा है। राजनाथ सिंह के विदाई के बाद भाजपा में आने की आस देख रहे हैं। इसके साथ ही पार्टी के कभी थींक टैंक के रूप में लोकप्रिय गोविन्दाचार्य की भी जल्द ही भाजपा में वापसी हो सकती है।
गत दिनों नागपुर में संपन्न संघ की बैठक में आरएसएस प्रमुख नये साल में नये पार्टी अध्यक्ष के नेतृत्व में भाजपा का कायाकल्प करने का निर्णय लिया गया था। इसके लिए पार्टी से बाहर गए आरएसएस के पुराने कैडर के नेताओं को भी जोडऩे की नीति पर सहमती बनाई गई। सूत्रों का कहना है कि सरसंघचालक के निर्देश पर पार्टी के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी के साथ गोविन्दाचार्य की एक गुप्त बैठक पहले ही संपन्न हो चुकी है।
पुराने दिग्गजों के पार्टी में वापसी के नीति के मद्दे नजर ही भाजपा के नये अध्यक्ष नितिन गडकरी ने रविवार को यह संकेत दिया कि पार्टी छोड़ कर जाने वाले पुराने दिग्गज घर लौंटे। श्री गडकरी का कहना है कि इनमें से हर एक नेता ने संगठन के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, इसलिए उनकी पार्टी में वापस लाने का विचार होता है तो यह कोई गलत नहीं है। हालांकि गडकरी यह भी कहते हैं कि इन नेताओं की पार्टी में वापसी इतनी आसान नहीं होगी। अगर ये नेता अपने किये पर पछतावा करते हैं तथा हमारे सभी राज्यों के भाजपा प्रमुख इस पर सहमति जताते हैं तो हम जरूर इन नेताओं को भाजपा में वापस लाएंगे। ज्ञात हो कि नितिन गड़करी का यह बयान संघ की पूर्व निर्धारित नीति का ही एक हिस्सा है। फिलहाल उमा भारती भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाकर काम कर रही हैं जबकि गोविन्दाचार्य विभिन्न सामाजिक गतिविधियों से जुड़े हैं और कल्याण सिंह ने भी सपा छोडऩे के बाद अपनी अलग पार्टी का ऐलान किया है। पर राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता में आने के लिए इन तीनों प्रमुख नेताओं की राह अकेले पार होते नहीं दिख रही है।
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रविवार, दिसंबर 20, 2009
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में धरने पर बैठे है दलित छात्र
राष्ट्रपति महात्मा गांधी के नाम पर यहां स्थापित अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में दलित छात्रों के साथ कथित रूप से भेदभाव बरते जाने की शिकायतों को लेकर एक आंदोलन शुरू हो गया है। छात्रों का अरोप है कि योग्यता के बावजूद विश्वविद्यालय प्रशासन ने पीएचडी पाठयक्रम में प्रवेश देने से इनकार कर दिया है।
प्राप्त जानकारी के मुताबिक आंबेडकर स्टुडेंट फोरम के बैनर तले आंदोलनकारी विद्यार्थी छात्रगण विश्वविद्यालय परिसर में पिछले 12 दिन से अनशन पर बैठे हैं। उन्हें विश्वविद्यालय के गैरदलित छात्रों और विदर्भ क्षेत्र के अन्य दलित संगठनों का भी समर्थन प्राप्त है। आंदोलन के दौरान अनशन पर बैठे राहुल कांबले को जब स्वाथ्य बिगडऩे लगा तो उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। फिर उसकी जगह दूसरी छात्र ओम प्रकाश बैरागी अनशन पर बैठ गए। बैरागी को भी जब उनके खराब स्वास्थ्य के कारण अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा तो क्रमिक अनशन शुरू हो गया जिसमें 20 से भी अधिक छात्रों ने शिरकत की। छात्रों का कहना है कि इस आंदोलन के बारे में विश्वविद्यालय प्रशासन को पूरी जानकारी है। इसके बाद भी उनकी समस्या के हल के लिए कोई ठोस पहल नहीं हो रहा है। इसके बार में विश्वविद्यालय प्रशासन ने आधिकारिक रूप से टिप्पणी करने से इनकार कर दिया है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष सुखदेव थोरात गत 9 दिसंबर को विश्वविद्यालय के द्वितीय दीक्षांत समारोह में भाग लेने यहां आए थे, तब उन्होंने अनशन स्थल पर जाकर आंदोलनरत छात्रों से जाकर बातचीत की थी। पर उनके चले जाने के बाद स्थिति जस की तस बनी हुई है। केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति प्रख्यात हिंदी समालोचक नामवर सिंह तथा कुलपति, चर्चित हिंदी साहित्यकार एवं भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे विभूति नारायण राय हैं। आंबेडकर स्टुडेंट फोरम की केन्द्रीय समिति के सदस्य देवानन्द कुम्हारे का कहना है कि कुलपति छात्र समस्या का निवारण करने के बजाए वर्धा से बाहर चले गए हैं। विश्वविद्यालय के अन्य अधिकारी अनशन के बारे में कुछ बातचीत करने से हिचकते हैं।
राहुल कांबले को इसी विश्वविद्यालय में अनुवाद और निर्वचन विद्यापीठ के एमफिल पाठ्यक्रम में स्वर्ण पदक मिला था। उन्होंने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर जब यह जानना चाहा के उन्हें प्रवेश क्यों नहीं दिया गया तो विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से जवाब मिला कि वह प्रवेश परीक्षा में तीसरे स्थान पर आए थे, लेकिन विभाग ने इस वर्ष दो ही सीटों पर नामांकन करने का निर्णय किया है।
प्रवेश परीक्षा में दूसरे स्थान पर आयी एक छात्रा ने जब प्रवेश नहीं लिया तो कांबले ने उनकी जगह नामांकन दिए जाने की मांग की लेकिन विभाग इसके लिए तैयार नहीं हुआ। विश्वविद्यालय प्रशासन काम्बले के सूचना के अधिकार का उपयोग करने की बात के कारण उनसे खफा है। छात्रों का अरोप है कि विश्वविद्यालय प्रशासन के अधिकतर अधिकारी दलित विरोधी हैं और उसने आम्बेडकर परिनिर्वाण दिवस के अवसर पर गत 6 दिसम्बर को यहां दलित छात्रों द्वारा निकाले मोमबत्ती मार्च में शामिल एक प्रोफेसर, कारूण्यकारा तक को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया। उसी दिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने एक कविता पाठ का आयोजन किया था जिसमें वह प्रोफेसर नहीं गए थे।
पिछले वर्ष भी विश्वविद्यालय में नामांकन से वंचित कुछ दलित छात्रों ने आन्दोलन किया था। बाद में दलित संगठनों आदि के हस्तक्षेप के बाद आरक्षण अधिनियम के तहत उन्हें नामांकन दिए जाने के बाद आन्दोलन समाप्त हो सका था।
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प्राप्त जानकारी के मुताबिक आंबेडकर स्टुडेंट फोरम के बैनर तले आंदोलनकारी विद्यार्थी छात्रगण विश्वविद्यालय परिसर में पिछले 12 दिन से अनशन पर बैठे हैं। उन्हें विश्वविद्यालय के गैरदलित छात्रों और विदर्भ क्षेत्र के अन्य दलित संगठनों का भी समर्थन प्राप्त है। आंदोलन के दौरान अनशन पर बैठे राहुल कांबले को जब स्वाथ्य बिगडऩे लगा तो उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। फिर उसकी जगह दूसरी छात्र ओम प्रकाश बैरागी अनशन पर बैठ गए। बैरागी को भी जब उनके खराब स्वास्थ्य के कारण अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा तो क्रमिक अनशन शुरू हो गया जिसमें 20 से भी अधिक छात्रों ने शिरकत की। छात्रों का कहना है कि इस आंदोलन के बारे में विश्वविद्यालय प्रशासन को पूरी जानकारी है। इसके बाद भी उनकी समस्या के हल के लिए कोई ठोस पहल नहीं हो रहा है। इसके बार में विश्वविद्यालय प्रशासन ने आधिकारिक रूप से टिप्पणी करने से इनकार कर दिया है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष सुखदेव थोरात गत 9 दिसंबर को विश्वविद्यालय के द्वितीय दीक्षांत समारोह में भाग लेने यहां आए थे, तब उन्होंने अनशन स्थल पर जाकर आंदोलनरत छात्रों से जाकर बातचीत की थी। पर उनके चले जाने के बाद स्थिति जस की तस बनी हुई है। केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति प्रख्यात हिंदी समालोचक नामवर सिंह तथा कुलपति, चर्चित हिंदी साहित्यकार एवं भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे विभूति नारायण राय हैं। आंबेडकर स्टुडेंट फोरम की केन्द्रीय समिति के सदस्य देवानन्द कुम्हारे का कहना है कि कुलपति छात्र समस्या का निवारण करने के बजाए वर्धा से बाहर चले गए हैं। विश्वविद्यालय के अन्य अधिकारी अनशन के बारे में कुछ बातचीत करने से हिचकते हैं।
राहुल कांबले को इसी विश्वविद्यालय में अनुवाद और निर्वचन विद्यापीठ के एमफिल पाठ्यक्रम में स्वर्ण पदक मिला था। उन्होंने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर जब यह जानना चाहा के उन्हें प्रवेश क्यों नहीं दिया गया तो विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से जवाब मिला कि वह प्रवेश परीक्षा में तीसरे स्थान पर आए थे, लेकिन विभाग ने इस वर्ष दो ही सीटों पर नामांकन करने का निर्णय किया है।
प्रवेश परीक्षा में दूसरे स्थान पर आयी एक छात्रा ने जब प्रवेश नहीं लिया तो कांबले ने उनकी जगह नामांकन दिए जाने की मांग की लेकिन विभाग इसके लिए तैयार नहीं हुआ। विश्वविद्यालय प्रशासन काम्बले के सूचना के अधिकार का उपयोग करने की बात के कारण उनसे खफा है। छात्रों का अरोप है कि विश्वविद्यालय प्रशासन के अधिकतर अधिकारी दलित विरोधी हैं और उसने आम्बेडकर परिनिर्वाण दिवस के अवसर पर गत 6 दिसम्बर को यहां दलित छात्रों द्वारा निकाले मोमबत्ती मार्च में शामिल एक प्रोफेसर, कारूण्यकारा तक को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया। उसी दिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने एक कविता पाठ का आयोजन किया था जिसमें वह प्रोफेसर नहीं गए थे।
पिछले वर्ष भी विश्वविद्यालय में नामांकन से वंचित कुछ दलित छात्रों ने आन्दोलन किया था। बाद में दलित संगठनों आदि के हस्तक्षेप के बाद आरक्षण अधिनियम के तहत उन्हें नामांकन दिए जाने के बाद आन्दोलन समाप्त हो सका था।
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राजनीति का समाजिकीकरण करेंगे गडकरी
संजय स्वदेश
नागपुर। एयरपोर्ट से भव्य रैली के साथ महाल स्थित अपने विवास गडकरी वाडा पहुंचने पर नितिन गडकरी ने पत्रकारों से अनौचारिका बातचीत में कहा कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान कोई संसदीय चुनाव नहीं लड़ेंगे। उन्होंने स्पष्ट कहा कि मेरा एजेंडा विकास की राजनीति पर आधारित होगा। उन्होंने कहा कि राजनीतिक का समाजिकीकरण को वे प्राथमिकता देंगे। वर्तमान राजनीति में सत्ताकरण हावी है। लेकिन उसमें समाजिक उत्थान की बात गौण हो गई है। इसलिए राजनीति के सामाजिकीकरण और विचार आवश्यक है। इसलिए अब भाजपा के नीतियों व विचारों को राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करनी है।
श्री गडकरी ने कहा कि इसको लेकर पार्टी की नीतियों का खुलासा, 24 दिसंबर को नई दिल्ली में आयोजित प्रेस कान्फ्रेन्स में करेंगे। उन्होंने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने पर सभी कार्यकर्ताओं को धन्यवाद देते हुए कहा - मुझे उस कुर्सी पर बैठाया गया है जिसपर अटल बिहार वाजपेयी, और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता पदासीन रहे हैं। मैं पार्टी में पोस्टर और बैनर लगाने वाला कार्यकार्ता था। ये नेता मेरे लिए हमेशा से ही बहुत बड़े रहे हैं। आज उन्होंने मुझे जो जिम्मेदारी दी है, उसकी जवाबदारी बहुत बड़ी है। उन्होंने कहा कि इस पद पर पहुंचने का मतलब है कि कार्यकर्ताओं की मेहनत रंग लाई है। इसके लिए उन्होंने सभी उन्होंने सभी कार्यकर्ताओं के प्रति प्रति आभार व्यक्त किया।
नागपुर। एयरपोर्ट से भव्य रैली के साथ महाल स्थित अपने विवास गडकरी वाडा पहुंचने पर नितिन गडकरी ने पत्रकारों से अनौचारिका बातचीत में कहा कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान कोई संसदीय चुनाव नहीं लड़ेंगे। उन्होंने स्पष्ट कहा कि मेरा एजेंडा विकास की राजनीति पर आधारित होगा। उन्होंने कहा कि राजनीतिक का समाजिकीकरण को वे प्राथमिकता देंगे। वर्तमान राजनीति में सत्ताकरण हावी है। लेकिन उसमें समाजिक उत्थान की बात गौण हो गई है। इसलिए राजनीति के सामाजिकीकरण और विचार आवश्यक है। इसलिए अब भाजपा के नीतियों व विचारों को राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करनी है।
श्री गडकरी ने कहा कि इसको लेकर पार्टी की नीतियों का खुलासा, 24 दिसंबर को नई दिल्ली में आयोजित प्रेस कान्फ्रेन्स में करेंगे। उन्होंने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने पर सभी कार्यकर्ताओं को धन्यवाद देते हुए कहा - मुझे उस कुर्सी पर बैठाया गया है जिसपर अटल बिहार वाजपेयी, और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता पदासीन रहे हैं। मैं पार्टी में पोस्टर और बैनर लगाने वाला कार्यकार्ता था। ये नेता मेरे लिए हमेशा से ही बहुत बड़े रहे हैं। आज उन्होंने मुझे जो जिम्मेदारी दी है, उसकी जवाबदारी बहुत बड़ी है। उन्होंने कहा कि इस पद पर पहुंचने का मतलब है कि कार्यकर्ताओं की मेहनत रंग लाई है। इसके लिए उन्होंने सभी उन्होंने सभी कार्यकर्ताओं के प्रति प्रति आभार व्यक्त किया।
नागपुर आगमन पर गडकरी का भव्य स्वागत
नागपुर। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की तापोशी के बाद नई दिल्ली से नागपुर आगमन पर नितिन गड़करी का भव्य स्वागत रैली निकली एयरपोर्ट पर से निकली। अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के स्वागत के लिए सुबह 9 बजे से ही सैकड़ों कार्यकर्ताओं को हुजूम एयरपोर्ट पर उमड़ पड़ा। पार्टी शहर अध्यक्ष सुधाकर देखमुख, विधायक देवेन्द्र फडणवीस, विधायक कृष्णा खोपड़े, निवर्तमान विधायक अशोक मानकर, मनपा के सत्ता पक्ष के नेता अनील सोले गिरीष व्यास, संजय भेंडे, कल्पाना पांडे समेत नगर के अनेक भाजपा पाषर्द व पूर्व पार्षद समेत सैकड़ों कार्यकओं ने श्री गडकरी का एयरपोर्ट पर सत्कार किया। वर्धा रोड़ से रानी झांसी चौक और महल स्थित वाडे तक कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय अध्यक्ष के स्वागत कि लिए पूरी तैयारी कर रखी थी। विठ्ल-विठ्ल विठला... की धुन पर गड़करी की स्वागत रैली धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। रास्ते भर में सैकड़ों कार्यकताटों का उत्साह रहा। बीच रास्ते में कई जगह सक्रिय कार्यकर्ताओं ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष की बधाई के लिए बैनर और पोस्टर लगा रखे थे। जगह-जगह कार्यकर्ताओं का हुजूम उनके स्वागत के लिए तत्पर दिखा। फूल माला पहनाये। चारों ओर कार्यकर्ताओं में उत्साह ही उत्साह था।
110 किलो लड्डू से तौले गए गडकरी
सीताबडी्र चौक पर करीब 1 बजे गडकरी की का जोरदार स्वागत करने के लिए नागरिक व व्यापारियों की भीड़ ताशे, संदल के साथ पहले से ही मौजूद थी। चौक पर नाग विदर्भ चैंबर ऑफ कॉमर्स ने यहां उन्हें पहले से ही लड्डुओं से तौलने की योजना बना रखी थी। व्यापारियों के अनुरोध पर गडकरी अपने रथ से उतरकर व्यापारियों की ओर से लगाए गए तराजू पर बैठे। उन्हें 110 किलो के लड्डुओं से तौला गया। फिर सारे लड्डुओं को उपस्थित लोगों में वितररित किया गया।
फटाका शो रहा जोरदार
नागपुर फायरवर्कस डीलर्स एसोसिएशन की ओर से इस मौके पर जोनदार फटाका शो किया गया। फटाखे के बाद सड़कों पर कागज ही कागज बिछे दिखे। नागरिकों व व्यापारियों ने उनका पुष्पगुच्छ, हार व मिठाइयों से स्वागत किया। रैली के रास्ते भर में विभिन्न संगठन के कार्यकर्ताओं ने भाजपाध्यक्ष गडकरी को पुप्पमाला पहनाकर स्वागत किया।
वाडा के सामने भव्य नजारा
करीब 3 बजे के करीब गडकरी का राथ महाल स्थित उनके निवास गडकरी वाडा पहुंचा। यहां पहले से ही हजारों कार्यकर्ताओं की भीड़ पहले से मौजूद थी। बधाई देने वालों का देर शाम तक तांता लगा रहा। भाजपा का झंडा उठाये कार्यकर्ता, संदल, तोशे आदि की घ्वनी और बीच बीच में गडकरी की जयजयकार के साथ वाडे के सामने का नजारा भव्य दिख रहा था।
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गुरुवार, दिसंबर 17, 2009
होटल से गायब हुए धोनी
संजय स्वदेश नागपुर। भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी गुरुवार की शाम होटल प्राईड से अचानक फरार हो गए। धोनी के गायब होने से होटल प्रबंधन में खलबली मच गई। धोनी कहां गए? इसके बारे में होटल के किसी व्यक्ति को जानकारी नहीं थी। होटल पर तैनात पुलिसकर्मियों से पूछे जाने पर उन्होंने इस बारे में अनभिज्ञता दर्शायी।
बताया जाता है कि धोनी बिना किसी को बताये नागपुर में अपने किसी खास मित्र के घर चले गए। रात 10:30 बजे तक होटल में नहीं लौटे थे। बताया जाता है कि होटल प्रबंधन द्वारा धोनी के खाने के लिए लिट्टी का प्रबंध किया गया था। लेकिन खाने के लिए धोनी देर रात तक होटल में उपलब्ध नहीं हुए। इसके अलावा श्रीलंका के जादुई स्पीनर अजंता मेंडिस भी शाम के समय होटल से गायब हो गए। जानकारी मिली है कि मेंडिस का मोबाइल राजकोट में कहीं खो गया। मेंडिस मोबाइल खरीदने के लिए नागपुर के मार्केट में गए। उनके साथ दो सुरक्षाकर्मी भी भेजे गए। ज्ञात हो कि मोहाली में भी धोनी इसी तरह रात में होटल से बिना बताये गायब हो गए थे। पिछली बार नागपुर में हुए 20-20 के दौरान भी धोनी पुलिस को बिना बताये फिल्म देखने चले गए थे।
एडहॉक पर होगी भाजपा अध्यक्ष पद पर गडकरी की नियुक्ति
संघ की चिंतन बैठक में विपक्ष नेता पद के लिए सुषमा स्वराज के नाम पर मुहर, पार्टी के संगठनात्मक ढांचे के चुनाव के बाद नितिन गडकरी का पद होगा पूर्णकालीन
संजय स्वदेश
नागपुर। 19 दिसंबर को भाजपा के पार्टी अध्यक्ष पद के लिए नितिन गडकरी के नाम की घोषणा होगी। संघ मुख्यालय बैठक में भाजपा के भावी अध्यक्ष नितिन गडकरी की टीम में पदाधिकारियों के नाम करीब-करीब तय हो चुके हैं। हालांकि नाम तय करने से पहले पार्टी के संगठनात्मक ढांचे की तकनीकी समस्या पर भी विचार हुआ। सूत्रों को कहना है कि भाजपा के संविधान के मुताबिक जब तक पार्टी के संगठनात्मक ढांचे के 50 प्रतिशत चुनाव नहीं हो जाते हैं, तब तक अध्यक्ष का चुनाव नहीं किया जा सकता है। इसलिए भाजपा के राष्ट्रीय परिषद की एक बैठक बुलाकर नितिन गडकरी के नाम पार्टी के तदर्थ (एडहॉक) नियुक्ति को मंजूरी दी जाएगी। इसके बाद अगले साल फरवरी तक पार्टी के विभिन्न संगठनों के चुनाव कर गडकरी को पूर्णकालीन अध्यक्ष पद के लिए पार्टी के राष्ट्रीय परिषद से मुहर लगेगी। वहीं संसद में नेता प्रतिपक्ष पद से हटने के लिए लालकृष्ण आडवाणी के पेशकश के बाद भाजपा के अगले नेता प्रतिपक्ष पद के लिए संघ ने आडवानी के इस्तीफे के बाद सुषमा स्वराज के नाम पर मुहर लगा दी है। संभावना है कि इसकी भी घोषणा 19 दिसंबर को की जाएगी। सूत्रों का कहना है कि आज शुक्रवार की शाम 5.30 बजे नई दिल्ली में पार्टी संसदीय दल की बैठक आयोजित की जाएगी, जिसमें श्री आडवाणी अपने इस्तीफे की पेशकश कर सकते हैं।
नेता प्रतिपक्ष पद के लिए विशेष कर दो नाम थे - मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज्य। संघ सूत्रों का कहना है कि सरसंघचालक मोहन भागवत मुरली मनोहर जोशी को अध्यक्ष बनाये जाने के पक्ष में हैं, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी की पसंद सुषमा स्वराज हंै। इनके पक्ष में आडवाणी के समर्थक नेता पहले से ही लाबिंग कर रहे थे। वहीं डा. मुरली मनोहर जोशी के लिए राजनाथ सिंह पहल कर रहे थे।
भाजपा सूत्रों के अनुसार आडवाणी इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं। उन्होंने इसकी सूचना पार्टी के पिछले संसदीय दल की बैठक में दे दिया था कि वे पार्टी की ओर से अब नेता विपक्ष का पद नहीं संभालेंगे। लेकिन जब तक संसद का सत्र चल रहा है तब तक वे नेता विपक्ष के पद पर कायम रहेंगे। संसद का वर्तमान शीतकालीन सत्र सोमवार तक है लेकिन जिस तरह से आखिरी वक्त में महंगाई के मुद्दे पर संसद में गतिरोध बना हुआ है, उसे देखते हुए शुक्रवार को संसद के शीतकालीन सत्र के समापन की घोषणा होने की संभावना है। वैसे भी प्रधानमंत्री कोपेनहेगन के लिए रवाना हो चुके हैं। इसलिए शुक्रवार को संसद के शीतकालीन सत्र को समेट दिया जाएगा। तो शुक्रवार को ही भाजपा के संसदीय बोर्ड की बैठक होगी। जिसमें लालकृष्ण आडवाणी नेता प्रतिपक्ष पद से अपने इस्तीफे की घोषणा कर सकते हैं। उसके बाद 19 दिसंबर को पार्टी अध्यक्ष पद के लिए नितिन गडकरी और प्रतिपक्ष नेता के लिए सुषमा स्वराज के नामों की घोषणा होगी। पार्टी में आडवाणी का कद बनाये रखने के लिए उन्हें संसदीय दल के नेता तथा एनडीए का अध्यक्ष पद दिया जाएगा।
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गडकरी की टीम पर संघ का मंथन
संजय स्वदेश
नागपुर। संघ मुख्यालय में चल रही तीन दिवसीय बैठम में भाजपा के भावी अध्यक्ष नितिन गडकरी की टीम में कौन-कौन पदाधिकारी शामिल होंगे, इसको लेकर गंभीर चर्चा चल रही है। आरएसएस सूत्रों का कहना है कि संघ नये साल में नये अध्यक्ष के नेतृत्व में पार्टी का कायाकल्प करना चाहता है। टीम में शामिल होने वाले नेताओं के पद आदि की स्थिति 18-19 दिसंबर तक स्पष्ट हो जाएंगी। वर्तमान भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह का कार्यकाल 31 दिसंबर को समाप्त हो रहा है। संभावना है कि पार्टी के नये अध्यक्ष की औपचारिक घोषणा 24 दिसंबर को की जाएगी। ज्ञात हो कि संघ मुख्यालय में आरएसएस के पदाधिकारियों की एक बैठक मंगलवार से शुरू है। संघ मुख्याल से संपर्क करने पर सूचना दी जाती है कि बैठक पर संघ के कार्यक्रमों की चर्चा हो रही है। संघ के शीर्ष पदाधिकारियों का कहना है कि आरएसएस भाजपा के किसी भी मामले में दखल नहीं देती हैं। वहीं सूत्रों का कहना है कि पार्टी अध्यक्ष के रूप में संघ ने नितिन गडकरी का नाम अंतिम रूप तय कर लिया है। नये साल में पार्टी की एक नई शुरूआत होगी। इसके लिए हर तरह की पहलुओं पर चर्चा करते हुए नितिन गडकरी की टीम में शामिल होने वाले पार्टी के अन्य पदाधिकारियों के लिए नाम पर विचार किया जा रहा है। ज्ञाता हो कि संघ की स्थापना में मराठी मूल के ब्राह्मण समुदाय की भूमिका ज्यादा था। वहीं अभी पार्टी अध्यक्ष के रूप में गैर मराठी नेता पदस्थ रहे। लिहाजा, संघ ने इस बार पार्टी को मराठी नेतृत्व देकर ऐसी टीम बनाना चाहता है जो पूरी तरह से संतुलित हो।
नागपुर। संघ मुख्यालय में चल रही तीन दिवसीय बैठम में भाजपा के भावी अध्यक्ष नितिन गडकरी की टीम में कौन-कौन पदाधिकारी शामिल होंगे, इसको लेकर गंभीर चर्चा चल रही है। आरएसएस सूत्रों का कहना है कि संघ नये साल में नये अध्यक्ष के नेतृत्व में पार्टी का कायाकल्प करना चाहता है। टीम में शामिल होने वाले नेताओं के पद आदि की स्थिति 18-19 दिसंबर तक स्पष्ट हो जाएंगी। वर्तमान भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह का कार्यकाल 31 दिसंबर को समाप्त हो रहा है। संभावना है कि पार्टी के नये अध्यक्ष की औपचारिक घोषणा 24 दिसंबर को की जाएगी। ज्ञात हो कि संघ मुख्यालय में आरएसएस के पदाधिकारियों की एक बैठक मंगलवार से शुरू है। संघ मुख्याल से संपर्क करने पर सूचना दी जाती है कि बैठक पर संघ के कार्यक्रमों की चर्चा हो रही है। संघ के शीर्ष पदाधिकारियों का कहना है कि आरएसएस भाजपा के किसी भी मामले में दखल नहीं देती हैं। वहीं सूत्रों का कहना है कि पार्टी अध्यक्ष के रूप में संघ ने नितिन गडकरी का नाम अंतिम रूप तय कर लिया है। नये साल में पार्टी की एक नई शुरूआत होगी। इसके लिए हर तरह की पहलुओं पर चर्चा करते हुए नितिन गडकरी की टीम में शामिल होने वाले पार्टी के अन्य पदाधिकारियों के लिए नाम पर विचार किया जा रहा है। ज्ञाता हो कि संघ की स्थापना में मराठी मूल के ब्राह्मण समुदाय की भूमिका ज्यादा था। वहीं अभी पार्टी अध्यक्ष के रूप में गैर मराठी नेता पदस्थ रहे। लिहाजा, संघ ने इस बार पार्टी को मराठी नेतृत्व देकर ऐसी टीम बनाना चाहता है जो पूरी तरह से संतुलित हो।
बिहार पर छाया दुबई का संकट
देश ही दुनिया के किसी भी हिस्से में बिहार का मजदूर सबसे सस्ते श्रम के साथ हाजिर हो जाता है. दुबई में भी बिहार से गये मजदूरों की बड़ी तादात है. लेकिन बिहार से गये मजदूरों से अलग दुबई ने सस्ते में अपना काम निपटाता है तो दुबई की कमाई से बिहार के कई जिले अपनी माली हालत को भी सुधारते हैं. दुबई के रियल एस्टेट सेक्टर में आये भूचाल की खबरें तो गायब हो गयीं लेकिन बिहार के इन जिलों में संकट की छाया साफ नजर आ रही है. गोपालगंज और सीवान से लौटकर संजय स्वदेश की रिपोर्ट-
तकनीकी जानकारी रखने वालों के लिए बिहार में रोजगार नहीं है। अच्छा वेतन तो दूर की बात है। काम के साथ अच्छे रोजगार के लालच में देश के लाखों लोग विदेश जाते हैं। देश के कोने-कोने में बिहार के लोग किसी न किसी काम में जरूर मिल जाएंगे। समुद्र पार के देश भी अछूते नहीं हैं। पर इन दिन दुबई पर आए आर्थिक मंदी की काली छाया बिहार पर पड़ गई है। करीब एक लाख से भी ज्यादा लोग खाड़ी देशों में काम करते हैं। गत एक दशक में रोजगार की लालच में खाड़ी देशों की ओर बिहार के लोगों का बड़ी संख्या में पालायान हुआ है। राज्य के सीवान, गोपलगंज और छपरा जिले के हजारों लोग खाड़ी देशों में कार्यरत हैं। काम के साथ वहां जीवन कैसे जीते हैं, वे ही जानें। पर जब एक दो साल बाद वापस बिहार आते हैं तो एक साधारण मजदूर का काम करने वाला भी दो-तीन लाख की पूंजी जुटा लेता है। इस स्थिति को देखकर बिहार के अनपढ़ से लेकर पढ़े लिखे नौवजवानों में अरब देशों में जाने की ललक ज्यादा है। बिहार में सिवान और गोपलगंज ऐसे जिले है। जहां देशभर में सबसे ज्यादा विदेशी धन आता है। कई लोगों तो विदेश से आने वाले धन को मनी ट्राॅस्फर एजेंट के रूप में काम कर जीविका चला रहे हैं। पासपोर्ट बनवाने के और विदेश भेजने के लिए सैकड़ों गिरोह सक्रिय हैं। पासपोर्ट के लिए होने वाली पुलिस की औपचारिकताओं में पुलिसवालों की अच्छी-खासी कमाई हो जाती है।
दो दशक पहले तक जहां मुंबई और दिल्ली में ही विदेश भेजने वाले एजेंट सक्रिय थे, वे अब बिहार के तहसील स्तर तक पहुंच चुके हैं। इसमें कई लोगों के साथ धोखाधड़ी भी होती है। तीन-साल साल पहले एक साधारण मजदूर के लिए एजेंट करीब 30 हजार रूपये लेकख विदेश में जाॅब दिलवाते थे, आज यह रेट 50 हजार से एक लाख का रेट चल रहा है। इसके बाद जैसा वेतन और दाम। सिवान, छपरा और गोपालगंज में तो कई परिवार ऐसे हैं जिनके पास छत तक नहीं थी, उन्होंने गांव में मटरगश्ती करने वाले लाड़लों को यहां भेज कर अपनी बदहाली को खुशहाली में बदल लिया है। यहां विदेश जाने का क्रेज इतना है कि यदि एजेंट को देने के लिए रूपये नहीं है तो कर्ज देने के लिए कई गिरोह सक्रिय हैं। गहने गिरवी रखकर 5 प्रतिशत प्रतिमाह यानी 60 प्रतिशत सलाना और बिना गिरवी रखने पर 10 प्रतिशत प्रतिमहा यानी 120 प्रतिशत सालाना ब्याज दर पर आसानी से कर्ज मिल जाता है। विदेश जाने के छह माह बाद ही ये सारे कर्ज उतर जाते है। इस तरह के कर्ज लेने वाले अधिक लोग संकट में तब पड़ते हैं जब एजेंट पैसे लेकर गायब हो जाते है।
एक डेढ़ दशक पहले तक अरब देशों में काम के लिए जाने वालों में मुस्लिम समुदाय के लोग ज्यादा थे। पर अब बदहाली में हर समुदाय के युवक वहां जाते है। अरब देश में ही काम करने वाले सिवान के हैदरअली कहते हैं कि दुबई समेत अरब देशों के प्रमख शहरों में मिनी बिहार है। कदम-कदम पर भोजपुरी बोलने वाले लोग मिल जाएंगे। अब तोलगता ही नहंी कि वह विदेश है।
गोपलगंज के हरीलाल को विदेश जाने की ललक बचपन से ही थी। कहते है दस साल पहले एक एजेंट इस नाम पर बीस हजार रूपया लेकर भाग गया। बाद में उन्होंने प्रधानमंत्री रोजगार योजना के तहत एक लाख रूपये का कर्ज लेकर किराने की दुकान चालू की। पर मुनाफा क्या हो, बैंक के एजेंट और अधिकारी की कमीशन के नाम पर कर्ज की अच्छी-खासी रकम खा गए। व्यवसाय नहीं चला। तो एक दो माह में एयरकंडीशन मैकेनिक का काम सीखा। बीबी के गहने गिरवी रखकर बयाज पर रूपये लिए। रूपया कम पड़ा तो अधिक बयाज पर और रूपया उठाया। करीब 50 हजार रूपया भरकर 12 हजार के वेतन पर दुबई गए। हालांकि छह माह में कर्ज उतार लिया। पर कंपनी का काम खत्म हो गया तो वापस गांव आना पड़ा। हरीलाल कहते हैं गलत एजेंट के चक्कर में पड़ गया। अब दूसरे किसी अच्छे एजेंट से पास फिर से विदेश जाने का नंबर लगाना है। ऐसी कहानी केवल हरीलाल की ही नहीं है। सैकड़ों ऐसे हरीलाल बिहार में हैं, जो कर्ज लेकर भी विदेश गए ओर अपनी बदहाली दूर कि वहीं कई ऐसे हैं जिन्होंने कर्ज लेकर एजेंट से धोखा खाकर अपनी बाबार्द पर मातम मना रहे हैं।
अब आर्थिक संकट में इन तीनो जिलों में मायूसी का माहौल बना दिया है। इसके बाद भी एजेंट दुबई के अलावा दूसरे खाड़ी देश में अच्छे वेतन पर रोजगार दिलाने का दावा कर रहे हंै। दुबई से काफी संख्या में लोग घर लौट आए हैं। लौअने का सिलसिला अभी जारी है। जानकार कहते हैं कि सिवान जिले के करीब 50 हजार से अधिक लोग खाड़ में काम करते हैं। पर मंदी की मार उन पर पड़ने से सहमे हुए हैं। छपरा के मोरु नसीम कहते हंै। वे दुबई में वेंडिंग का काम करते थे। तीन माह पहले ही कंपनी ने उन्हें यह कहर वापस भेज दिया कि काम का कंट्रक्ट समाप्त हो गया। जब कंपनी को नया काम मिलेगा तो फिर बुलाएंगे, पर नया काम कब मिलेगा, यह तय नहीं है। शादी-बिहार में छुट्टी पर आए लोगों को यह संदेश मिल रहे हैं कि वे दुबारा काम पर अभी नहीं आएं। बाद में सूचना भेजने पर ही वे आएंगे। संकेत सब समझते हैं। अनुमान है कि बिहार के इन तीनों प्रमुख जिलसे से हर माह करीब पांच हजार लोग खाड़ी देशों में जाते है। पिछले दिनों समाचार आई थी कि उतर बिहार के 18 जिलों में हर माह आने वाले लगभग 75 करोड़ की रकम नवंबर माह में आधी थी। बैंक में मनी ट्रांसफर करवाने वालों की संख्या घटती जा रही है। बिहार में करीब 35 हजार लोगों के घर वापसी की खबर भी आई है।
मंगलवार, दिसंबर 15, 2009
विदर्भ राज्य की मांग को राज का ठेंगा
मस्तिष्क में खूनी की आपूर्ति नहीं हो रही है तो सिर को धड़ से अलग नहीं किया जा सकता।
नागपुर। मनसे सुप्रीमों राज ठाकरे ने विदर्भ राज्य की मांग को ठेंगा दिखा दिया है। नागपुर में प्रेस से मिलिए कार्यक्रम में राज ठाकरे पत्रकारों से बातचीत में कहा कि पृथक विदर्भ की मांग पर उन्होंने साफ कहा, नहीं। पृथक विदर्भ राज्य नहीं। मेरा मत स्पष्ट है। संयुक्त महाराष्ट्र की स्वर्ण जयंती के अवसर पर 'डायवोर्सÓ की बात करना ठीक नहीं है। उन्होंने कहा, मस्तिष्क में रक्त की आपूर्ति नहीं हो रही है तो सिर को धड़ से अलग नहीं किया जा सकता। महाराष्ट्र से अलग होकर विदर्भ स्वतंत्र राज्य बन जाए, तब भी विदर्भ की समस्याएं हल नहीं होंगी। विदर्भ के लिए ठोस उपाययोजना (कांक्रीट प्लान) पर अमल किया जाना चाहिए।
राज ने स्पष्ट किया कि वे इन दिनों खामोश हैं। विदर्भ के लिए ठोस उपाय योजना पर कोंकण, मराठवाड़ा, उत्तर महाराष्ट्र को भी शामिल कर लिया। विदर्भ की उपेक्षा पर मस्तिष्क में रक्त पहुंचाने की बजाए सिर काटने की बात कही। विदर्भ की जनता के अन्याय तो हुआ है लेकिन अभी राज इसका अध्ययन कर रहे हैं। राज इस बात का भी अध्ययन कर रहे हैं कि जिस पार्टी ने पृथक विदर्भ की खिलाफत की उसके विधायक कैसे यहां से चुन कर आते हैं। किसानों की आत्महत्या पर भी अध्ययन जारी है। डा. आंबेडकर ने जब तीन मराठीभाषी राज्य की बात की थी उस समय की परिस्थिति और आज की परिस्थिति के बीच अध्ययन जारी है। अधिवेशन के बाद स्थिति स्पष्ट करुंगा। जनमत का मामला है। नाजुक प्रश्न है। विदर्भ पर मतदान कराया जाना चाहिए।
जब राज ठाकरे को यह याद दिलाया गया कि परप्रांतियों के मसले पर जिस पुस्तक के आधार पर वे बाबासाहब की भूमिका स्पष्ट करते हैं, उसमें डा. आंबेडकर ने महाराष्ट्र के त्रिविभाजन की बात कही है, राज ने साफ-साफ कहा कि इस समय उन्हें कुछ नहीं कहना है। उन्होंने इस संबंध में प्रश्न पूछने को भी मना किया। इतना जरूर कहा कि बाबासाहब ने जब यह कहा था कि उस समय की परिस्थिति और आज की परिस्थिति में फर्क है।
सांसद विलास मुत्तेमवार के स्वतंत्र विदर्भ की मांग पर उन्होंने तल्ख टिप्पणी की। राज ने कहा, इस राज्य में गत 50 वर्षों से कांग्रेस का शासन है। विदर्भ को महाराष्ट्र में शामिल कांग्रेस ने किया। अन्याय भी उसी ने किया। मुत्तेमवार भी कांग्रेस के ही सांसद हैं। राज ने कहा, मुत्तेमवार पहले अपनी पार्टी के नेताओं से पूछ लें, फिर पृथक विदर्भ की मांग करें।
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सदन में नहीं उठ रहा है पृथक विदर्भ का मुद्दा
संजय स्वदेश
नागपुर। विदर्भ के नेता और विभिन्न संगठन पृथक विदर्भ की मांग पर एक मंच पर आने की बातें भले ही कर रहे हों पर विधानमंडल में जनप्रतिनिधियों के रुख को देखकर लगता है कि विदर्भ का मुद्दा हवा बन कर ही रह जाएगा और पूर्व की भांति इस बार भी शीतसत्र तुरंत समाप्त हो जाएगा। सरकार मुंबई चली जाएगी। मुद्दा फिर शांत हो जाएगा। सदन के बाहर विदर्भ के विभिन्न क्षेत्रों के जनप्रतिनिधियों के पृथक विदर्भ पर बयान सुन कर भले यह लगे कि वे ही इसके सबसे बड़े हिमायती हैं। पर सदन के अंदर पृथक विदर्भ का मुद्दा नहीं उठाया जा रहा है और न ही शीतसत्र के निकट दिनों में चर्चा की संभावना दिख रही है। वहीं दूसरी ओर शीतसत्र के दूसरे सप्ताह तक ही विधायक बोरियत महसूस करने लगे हैं। विधानमंडल के दोनों सदनों की स्थिति यह है कि हर चर्चा सत्र में आधी सीटें खाली रहती हैं। पर दोनों पक्षों के नये विधायक सदन के कामकाज को समझने में खासी रुची दिखा रहे हैं। सत्र में उनकी उपस्थिति ही नजर आती है।
सदन से गायब रहने वालों में सत्ता पक्ष को साथ-साथ विपक्ष के विधायक भी शामिल हैं। हालांकि शीतसत्र के शुरूआत में इसको लेकर राजस्वमंत्री नारायण राणे ने विपक्ष की कम उपस्थिति पर चुटकी भी ली थी। सदन में पूछे जाने वाले पहले से निर्धारित अधिकतर प्रश्नों की सूची में पांच से ज्यादा विधायकों के नाम होते हैं, पर सवाल पूछते वक्त उस सूची में से एक या दो ही विधायक सदन में उपस्थित रहते हैं। वहीं शीत सत्र शुरू होने से पहले विपक्ष ने सत्ता पक्ष को सदन में घेरने का दावा किया था। पर हल्के-फुल्के विरोध के अलावा विपक्ष कुछ खास आक्रमण नहीं दिखा। सत्र के अंत में सदन में प्रस्तुत किए जाने वाले नियोजन विधेयक के आज प्रस्तुत होने की संभावना है।
ज्ञात हो कि नई सरकार के गठन के बाद पहला अधिवेशन नागपुर में हो रहा है। सरकार ने 23 दिसंबर तक अधिवेशन के चलने की घोषणा की है। लेकिन अब विधायकों को यह तीन सप्ताह पहाड़ लगने लगे हैं। पहले सप्ताह में ही 12 और 13 को अवकाश था, तो दूसरे सप्ताह में 17 से 20 दिसंबर तक विधि मंडल के कार्य बंद रहेंगे जो 21 से 23 दिसंबर तक चलेंगे। इसी कारण जल्दी कार्य निपटाने के लिए सोमवार और मंगलवार को दोनों सदन देर तक चलते रहें। पहले और दूसरे सप्ताह में चार दिनों के अवकाश और सदन में विधायकों की कम उपस्थिति से अधिवेशन का जोश ठंडा पड़ता दिख रहा है। लिहाजा, आज 16 दिसंबर को सदन में नियोजन विधेयक प्रस्तुत होने की संभावना बढ़ती दिख रही है। जानकारों का कहना है कि 18 दिसंबर को होने वाले विधानपरिषद के चुनावों के मद्देनजर सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी चुनावी रणनीति में लगे हुए हैं।
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नागपुर। विदर्भ के नेता और विभिन्न संगठन पृथक विदर्भ की मांग पर एक मंच पर आने की बातें भले ही कर रहे हों पर विधानमंडल में जनप्रतिनिधियों के रुख को देखकर लगता है कि विदर्भ का मुद्दा हवा बन कर ही रह जाएगा और पूर्व की भांति इस बार भी शीतसत्र तुरंत समाप्त हो जाएगा। सरकार मुंबई चली जाएगी। मुद्दा फिर शांत हो जाएगा। सदन के बाहर विदर्भ के विभिन्न क्षेत्रों के जनप्रतिनिधियों के पृथक विदर्भ पर बयान सुन कर भले यह लगे कि वे ही इसके सबसे बड़े हिमायती हैं। पर सदन के अंदर पृथक विदर्भ का मुद्दा नहीं उठाया जा रहा है और न ही शीतसत्र के निकट दिनों में चर्चा की संभावना दिख रही है। वहीं दूसरी ओर शीतसत्र के दूसरे सप्ताह तक ही विधायक बोरियत महसूस करने लगे हैं। विधानमंडल के दोनों सदनों की स्थिति यह है कि हर चर्चा सत्र में आधी सीटें खाली रहती हैं। पर दोनों पक्षों के नये विधायक सदन के कामकाज को समझने में खासी रुची दिखा रहे हैं। सत्र में उनकी उपस्थिति ही नजर आती है।
सदन से गायब रहने वालों में सत्ता पक्ष को साथ-साथ विपक्ष के विधायक भी शामिल हैं। हालांकि शीतसत्र के शुरूआत में इसको लेकर राजस्वमंत्री नारायण राणे ने विपक्ष की कम उपस्थिति पर चुटकी भी ली थी। सदन में पूछे जाने वाले पहले से निर्धारित अधिकतर प्रश्नों की सूची में पांच से ज्यादा विधायकों के नाम होते हैं, पर सवाल पूछते वक्त उस सूची में से एक या दो ही विधायक सदन में उपस्थित रहते हैं। वहीं शीत सत्र शुरू होने से पहले विपक्ष ने सत्ता पक्ष को सदन में घेरने का दावा किया था। पर हल्के-फुल्के विरोध के अलावा विपक्ष कुछ खास आक्रमण नहीं दिखा। सत्र के अंत में सदन में प्रस्तुत किए जाने वाले नियोजन विधेयक के आज प्रस्तुत होने की संभावना है।
ज्ञात हो कि नई सरकार के गठन के बाद पहला अधिवेशन नागपुर में हो रहा है। सरकार ने 23 दिसंबर तक अधिवेशन के चलने की घोषणा की है। लेकिन अब विधायकों को यह तीन सप्ताह पहाड़ लगने लगे हैं। पहले सप्ताह में ही 12 और 13 को अवकाश था, तो दूसरे सप्ताह में 17 से 20 दिसंबर तक विधि मंडल के कार्य बंद रहेंगे जो 21 से 23 दिसंबर तक चलेंगे। इसी कारण जल्दी कार्य निपटाने के लिए सोमवार और मंगलवार को दोनों सदन देर तक चलते रहें। पहले और दूसरे सप्ताह में चार दिनों के अवकाश और सदन में विधायकों की कम उपस्थिति से अधिवेशन का जोश ठंडा पड़ता दिख रहा है। लिहाजा, आज 16 दिसंबर को सदन में नियोजन विधेयक प्रस्तुत होने की संभावना बढ़ती दिख रही है। जानकारों का कहना है कि 18 दिसंबर को होने वाले विधानपरिषद के चुनावों के मद्देनजर सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी चुनावी रणनीति में लगे हुए हैं।
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सदन में नहीं उठ रहा है पृथक विदर्भ का मुद्दा
संजय स्वदेश
नागपुर। विदर्भ के नेता और विभिन्न संगठन पृथक विदर्भ की मांग पर एक मंच पर आने की बातें भले ही कर रहे हों पर विधानमंडल में जनप्रतिनिधियों के रुख को देखकर लगता है कि विदर्भ का मुद्दा हवा बन कर ही रह जाएगा और पूर्व की भांति इस बार भी शीतसत्र तुरंत समाप्त हो जाएगा। सरकार मुंबई चली जाएगी। मुद्दा फिर शांत हो जाएगा। सदन के बाहर विदर्भ के विभिन्न क्षेत्रों के जनप्रतिनिधियों के पृथक विदर्भ पर बयान सुन कर भले यह लगे कि वे ही इसके सबसे बड़े हिमायती हैं। पर सदन के अंदर पृथक विदर्भ का मुद्दा नहीं उठाया जा रहा है और न ही शीतसत्र के निकट दिनों में चर्चा की संभावना दिख रही है। वहीं दूसरी ओर शीतसत्र के दूसरे सप्ताह तक ही विधायक बोरियत महसूस करने लगे हैं। विधानमंडल के दोनों सदनों की स्थिति यह है कि हर चर्चा सत्र में आधी सीटें खाली रहती हैं। पर दोनों पक्षों के नये विधायक सदन के कामकाज को समझने में खासी रुची दिखा रहे हैं। सत्र में उनकी उपस्थिति ही नजर आती है।
सदन से गायब रहने वालों में सत्ता पक्ष को साथ-साथ विपक्ष के विधायक भी शामिल हैं। हालांकि शीतसत्र के शुरूआत में इसको लेकर राजस्वमंत्री नारायण राणे ने विपक्ष की कम उपस्थिति पर चुटकी भी ली थी। सदन में पूछे जाने वाले पहले से निर्धारित अधिकतर प्रश्नों की सूची में पांच से ज्यादा विधायकों के नाम होते हैं, पर सवाल पूछते वक्त उस सूची में से एक या दो ही विधायक सदन में उपस्थित रहते हैं। वहीं शीत सत्र शुरू होने से पहले विपक्ष ने सत्ता पक्ष को सदन में घेरने का दावा किया था। पर हल्के-फुल्के विरोध के अलावा विपक्ष कुछ खास आक्रमण नहीं दिखा। सत्र के अंत में सदन में प्रस्तुत किए जाने वाले नियोजन विधेयक के आज प्रस्तुत होने की संभावना है।
ज्ञात हो कि नई सरकार के गठन के बाद पहला अधिवेशन नागपुर में हो रहा है। सरकार ने 23 दिसंबर तक अधिवेशन के चलने की घोषणा की है। लेकिन अब विधायकों को यह तीन सप्ताह पहाड़ लगने लगे हैं। पहले सप्ताह में ही 12 और 13 को अवकाश था, तो दूसरे सप्ताह में 17 से 20 दिसंबर तक विधि मंडल के कार्य बंद रहेंगे जो 21 से 23 दिसंबर तक चलेंगे। इसी कारण जल्दी कार्य निपटाने के लिए सोमवार और मंगलवार को दोनों सदन देर तक चलते रहें। पहले और दूसरे सप्ताह में चार दिनों के अवकाश और सदन में विधायकों की कम उपस्थिति से अधिवेशन का जोश ठंडा पड़ता दिख रहा है। लिहाजा, आज 16 दिसंबर को सदन में नियोजन विधेयक प्रस्तुत होने की संभावना बढ़ती दिख रही है। जानकारों का कहना है कि 18 दिसंबर को होने वाले विधानपरिषद के चुनावों के मद्देनजर सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी चुनावी रणनीति में लगे हुए हैं।
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नागपुर। विदर्भ के नेता और विभिन्न संगठन पृथक विदर्भ की मांग पर एक मंच पर आने की बातें भले ही कर रहे हों पर विधानमंडल में जनप्रतिनिधियों के रुख को देखकर लगता है कि विदर्भ का मुद्दा हवा बन कर ही रह जाएगा और पूर्व की भांति इस बार भी शीतसत्र तुरंत समाप्त हो जाएगा। सरकार मुंबई चली जाएगी। मुद्दा फिर शांत हो जाएगा। सदन के बाहर विदर्भ के विभिन्न क्षेत्रों के जनप्रतिनिधियों के पृथक विदर्भ पर बयान सुन कर भले यह लगे कि वे ही इसके सबसे बड़े हिमायती हैं। पर सदन के अंदर पृथक विदर्भ का मुद्दा नहीं उठाया जा रहा है और न ही शीतसत्र के निकट दिनों में चर्चा की संभावना दिख रही है। वहीं दूसरी ओर शीतसत्र के दूसरे सप्ताह तक ही विधायक बोरियत महसूस करने लगे हैं। विधानमंडल के दोनों सदनों की स्थिति यह है कि हर चर्चा सत्र में आधी सीटें खाली रहती हैं। पर दोनों पक्षों के नये विधायक सदन के कामकाज को समझने में खासी रुची दिखा रहे हैं। सत्र में उनकी उपस्थिति ही नजर आती है।
सदन से गायब रहने वालों में सत्ता पक्ष को साथ-साथ विपक्ष के विधायक भी शामिल हैं। हालांकि शीतसत्र के शुरूआत में इसको लेकर राजस्वमंत्री नारायण राणे ने विपक्ष की कम उपस्थिति पर चुटकी भी ली थी। सदन में पूछे जाने वाले पहले से निर्धारित अधिकतर प्रश्नों की सूची में पांच से ज्यादा विधायकों के नाम होते हैं, पर सवाल पूछते वक्त उस सूची में से एक या दो ही विधायक सदन में उपस्थित रहते हैं। वहीं शीत सत्र शुरू होने से पहले विपक्ष ने सत्ता पक्ष को सदन में घेरने का दावा किया था। पर हल्के-फुल्के विरोध के अलावा विपक्ष कुछ खास आक्रमण नहीं दिखा। सत्र के अंत में सदन में प्रस्तुत किए जाने वाले नियोजन विधेयक के आज प्रस्तुत होने की संभावना है।
ज्ञात हो कि नई सरकार के गठन के बाद पहला अधिवेशन नागपुर में हो रहा है। सरकार ने 23 दिसंबर तक अधिवेशन के चलने की घोषणा की है। लेकिन अब विधायकों को यह तीन सप्ताह पहाड़ लगने लगे हैं। पहले सप्ताह में ही 12 और 13 को अवकाश था, तो दूसरे सप्ताह में 17 से 20 दिसंबर तक विधि मंडल के कार्य बंद रहेंगे जो 21 से 23 दिसंबर तक चलेंगे। इसी कारण जल्दी कार्य निपटाने के लिए सोमवार और मंगलवार को दोनों सदन देर तक चलते रहें। पहले और दूसरे सप्ताह में चार दिनों के अवकाश और सदन में विधायकों की कम उपस्थिति से अधिवेशन का जोश ठंडा पड़ता दिख रहा है। लिहाजा, आज 16 दिसंबर को सदन में नियोजन विधेयक प्रस्तुत होने की संभावना बढ़ती दिख रही है। जानकारों का कहना है कि 18 दिसंबर को होने वाले विधानपरिषद के चुनावों के मद्देनजर सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी चुनावी रणनीति में लगे हुए हैं।
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सोमवार, दिसंबर 14, 2009
जनता मांगे पृथक विदर्भ
विदर्भ बंटवारे के मुद्दे पर मुख्यमंत्री के बयान की हुई आलोचना
संजय
नागपुर। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण द्वारा रविवार को रांची में किए गए पृथक विदर्भ विरोधी बयान की तिखी प्रतिक्रिया हुई है। रविवार को मुख्यमंत्री श्री चव्हाण ने कहा था कि विदर्भ की जनता महाराष्ट्र का बंटवारा नहीं चाहती। राज्य का किसी भी सूरत में बंटवारा नहीं होगा। मुख्यमंत्री के इस बयान से पृथक विदर्भ राज्य की मांग करने वाले जनप्रतिनिधियों और व्यापारी वर्ग ने कड़ी आलोचना की है। वहीं कांग्रेस नेताओं ने अपनी प्रतिक्रिया में मुख्यमंत्री के बयान से अनजान होने की बात कह कर बात टाल दिया लेकिन उन्होंन विदर्भ का पुरजोर समर्थन किया। भाजपा नेता और व्यापारी वर्ग के कई लोगों का कहना है कि मुख्यमंत्री के कथन से यह साबित हो गया है कि उनका ध्यान विदर्भ की जनता की ओर नहीं है, यदि ध्यान होता तो ऐसा बयान नहीं देते।
यही है सही समय
भाजपा विधायक देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री के बयान की आलोचना करते हुए कहा कि मानते हैं कि विदर्भ राज्य बनाने का सही वक्त आ गया है। इस मुद्दे को ध्यान में लाने के बजाय अब स्वरुप देने की दिशा में पहल करना जरुरी हो गया है। भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में अनेक छोटे राज्यों को बनाया गया, छोटे-छोटे राज्य अगर होगे तो समुचे क्षेत्र का विकास मे आसानी हो जाती है। साथ ही हर आम इंसान को इससे न्याय मिल जाता है। बड़े राज्य में कई क्षेत्र विकास से वंचित रह जाते हैं।
अब उपेक्षा का दर्द सहा नहीं जाता
पूर्व सांसद बनवारीलाल पुरोहित ने कहा कि विर्दभ राज्य बनाने की दिशा में मैंने अनेक आंदोलन किये। इतने वर्षो में भी विर्दभ का विकास जैसा होना चाहीए था, नहीं हो पाया, मैं तो शुरु से ही अलग विर्दभराज्य बनाने के पक्ष में हूं। आजादी के 50 साल से ज्यादा समय होने के बाद भी विर्दभ का विकास नहीं हो पाया, पश्चिम महाराष्ट्र के नेताओं ने हमेशा ही विदर्भ के साथ सौतेला व्यवहार किया है। विकास कार्य भी उन्हीं के क्षेत्रों में ज्यादा हुए हैं। अब यह दर्द सहा नहीं जाता। अगर विर्दभ का सही मायनों में विकास करना है तो अलग राज्य का गठन अब हो जाना चाहिए।
नेता नहीं आम जनता की मांग
कांग्रेस के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष रणजीत देशमुख ने कहा कि अलग विर्दभ राज्य बनाने के लिए मैंने अनेक आंदोलन किये। जनता की आवाज केंद्र तक पहुंचाई। आज जनता खुद चाहती है की पृथक विदर्भ का गठन हो। कांग्रेस ही हमें न्याय दे सकती है। मैंने इस मांग के लिए अनेक प्रयास किए हैं। विदर्भ के सभी विधायकों, सांसदों को इसके लिए एक हो जाना चाहिए। विदर्भ राज्य की मांग तो तेलंगाना राज्य की मांग से भी पुरानी है, अब तेलंगाना की तर्ज पर पृथक विर्दभ राज्य की घोषणा भी हो जानी चाहीए, क्योकि अब यह मांग नेताओ की ना होकर आम विर्दभवासी की हो गई है।
पहले ही लिखा जा चुका है केंद्र को पत्र
कांग्रेस विधायक दीनानाथ पडोले भी पृथक विदर्भ के समर्थन में हैं। उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि हम सभी कांगे्रसी नेताओ को इसकी पहल शुरु करनी चाहिए। सांसद विलास मुत्तेमवार ने तो केंद्र सरकार को पत्र लिखकर हम विर्दभवासियों की भावनाओं से अवगत भी करवा दिया है। छोटे राज्य बनने से विकास कार्यो में गति आ जाती है। हम हर क्षेत्र का विकास कर सकते हैं। सरकार की सभी योजनाएं आम आदमी तक पहुंच जाती है। सभी पार्टी के नेताओ ने इस दिशा में एकजूट होकर पहल करनी चाहिए।
जनता मिला रही है सुर-से सुर
भाजपा विधायक सुधाकर देशमुख ने कहा कि पृथक विदर्भ बनाने के बारे में भाजपा ने हमेशा अपनी खुली सोच का परिचय दिया है। हम हमेशा की अलग विदर्भ राज्य बनाने के पक्ष में कहते आये हैं। सही मायनो में विकास होने के लिए पृथक विर्दभ जरुरी हो गया है। इसके लिए व्यापक स्तर पर एक अभियान छेडऩे की आवश्यता है। छोटे राज्यों के गठऩ से ही विकास कार्य पूरे होगे, अब जनता भी विदर्भ राज्य के पक्ष मे सुर मिला रही है।
जनता कर रही है भरपूर समर्थन
विधायक सुनिल केदार ने मानते हैं कि विदर्भ की मांग पुरानी है। अलग राज्य बनाने के लिए इसके पहले भी अनेक आंदोलन किये गए। छोटे राज्य बनाने से हम विकास कार्यो को जल्द ही साकार कर सकते हैं। आम इंसान तक विकास कार्य तेजी से पहुंच जाते हैं। आज विदर्भ के युवा बेरोजगार हैं। उद्योग धंधे नहीं के बराबर है। सभी पार्टियों के नेताओं को इस मुद्दे पर आपसी सहमति बनानी चाहिए। कांग्रेस पार्टी जब अलग तेलंगाना राज्य बना सकती है, तो विर्दभ को भी पृथक विर्दभ राज्य बना सकती है। यह मांग तो काफी पुरानी है, अब जनता भी इसके समर्थन में कुद पड़ी है।
तेलंगाना से पुरानी विदर्भ की मांग
भाजपा के विधायक कृष्णा खोपडे कहते हैं कि विदर्भ को तो वर्षों पहले ही पृथक राज्य का दर्जा दे दिया जाना चाहिए। वर्षों से इसकी मांग जारी है। अब समय आ गया है कि सभी दलों के नेता इसके लिए एकजुट होकर एक मंच पर आएं। विदर्भ की मांग तेलांगना से पहले की है। इसलिए पहले पृथक विदर्भ का प्रस्ताव स्वीकार करना चाहिए। स्वतंत्र विदर्भ के कारण ही विदर्भवासियों को न्याय मिलेगा। भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में ही छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड जैसे राज्यों की घोषणा की गयी थी और वहां विकास की रफ्तार तेज हुई।
कांग्रेसी नेताओं ने किए हैं आंदोलन
कांग्रेस के पूर्व विधायक अनीस अहमद कहते हैं कि विदर्भ के अनेक इलाकों में अभी तक विकास नहीं पहुंच पाया है। युवा बेरोजगारी की गर्त में गिरते जा रहे हैं। हम सभी पार्टी के नेताओं को अलग से विदर्भ राज्य बनाने का प्रस्ताव तैयार करना चाहिए। कांग्रेस पार्टी भी विदर्भ राज्य बनाने के बारे में सोच सकती है। मगर इसके लिए हमें और कोशिश करनी पड़ेगी। विदर्भ के अनेक इलाके आज भी विकास कार्यां से कोसों दूर दिखाई देते हैं। पृथक विदर्भ के लिए पहले भी कांग्रेसी नेताओं ने कई आंदोलन किये हैं।
शर्म की बात
चंद्रशेखर बावनकुळे कहते है कि- पृथक विर्दभ राज्य का गठऩ अब हो जाना चाहिए। भाजपा तो इस मुद्दे पर लामबंद हो गई है। हर दिन कोई न कोई किसान मर रहा है। हम उन्हें बचा नहीं पा रहे हैं। पश्चिम महाराष्ट्र के नेता हमसे सौंतेला व्यवहार करते हैं। इतने वर्ष बीत गए मगर हम विर्दभ का ठीक ढंग से विकास नहीं कर पाये, यह हमारे लिए शर्म की बात है।
भाजपा के विधायक एकनाथराव खडसे ने कहा कि हम तो शुरु से ही पृथक विर्दभराज्य बनाने के पक्ष में हंै, अब इसे अमलीजामा पहना दिया जाना चाहिए। भाजपा के शासनकाल में हमने हमेशा छोटे राज्यों के गठऩ में सकारात्मक सोच दिखाई है। छोटे राज्यों में प्रगति और उन्नति जल्दी होती है। आज विर्दभ का किसान भूखमरी की कगार पर खड़ा दिखाई दे रहा है। सरकार द्वारा शुरु की गई योजनाओं का लाभ उसे नहीं मिल पाया है। उसका लगातार शोषण किया जा रहा है, उनके मन में घोर निराशा है। अलग विर्दभ राज्य बनाने से ही सही मायनो में विर्दभवासीयों को न्याय मिल पायगा। अब यह मांग जनता की मांग बन चुकी है।
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व्यापारियों की प्रतिक्रिया
अशोक राव का बयान गलत
व्यापारी हरगोविंद सारडा ने कहा कि मुख्यमंत्री का बयान पूरी तरह से गलत है। अंग्रेशी शासनकाल में नागपुर पहले सी.पी.एंड बेरार की राजधानी थी। तब यहां खूब तरक्की हुई। तबकी हुई तरक्की का आनंद आज लिया जा रहा है। महाराष्ट्र में जुडऩे के कारण विदर्भ क्षेत्र विकास कार्यों से पूरी तरह से उपेक्षित हो गया है। इसलिए यह समय की मांग है कि विदर्भ के समग्र विकास के लिए इस अलग राज्य का दर्जा दिया जाए।
मुख्यमंत्री को जानकारी नहीं
वेद के पूर्व अध्यक्ष प्रकाश बासवानी ने बताया कि मुख्यमंत्री यदि विदर्भ के विकास की ओर ध्यान देते तो उन्हें ऐसा बयान देने की नौबत नहीं आती। यदि ऐसा विदर्भ की जनता अलग विदर्भ नहीं चाहती है, तो फिर जनता आंदोलन क्यों कर रही है। लगता है मुख्यमंत्री को विदर्भ की जनता के आंदोलन के बारे में जानकारी नहीं है।
कांग्रेस विधायक भी कर रहे है विदर्भ की मांग
नागपुर इतनवारी किराना मार्चेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष हस्तीमल कटारिया का कहना है कि मुंख्यमंत्री अशोक चव्हाण विदर्भ के पहले से ही खिलाफ रहे हैं। वे भला विदर्भ के पक्ष में बयान क्यों देंगे। इसलिए राज्य से बाहर विरोध में बयान दे रहे हैं। उन्होंने शिवसेना के बयानों को विदर्भ की जनता का आधार बनाकर विरोधी विरोधी बयान दे दिया। स्वतंत्र विदर्भ की मांग तो स्वयं कांग्रेस के विधायक भी कर रहे हैं, लेकिन मुख्यमंत्री को इस मामले में अब शिवसेना के विधायकों का पक्ष अच्छा लगने लगा है।
...तो होगी विदर्भ की चांदी ही चांदी
कपड़ा व्यावसायी अजय कुमार मदान ने कहा कि जिस दिन अलग विदर्भ का अस्तित्व आ जाएगा, विदर्भ की चांदी-ही चांदी होगी। विदर्भ के पास क्या नहीं है? यहां के संसाधनों के दम पर मराठवाड़ा के और राज्य के दूसरे क्षेत्रों का विकास हो रहा है। पृथक विदर्भ होने पर नागपुर राजधानी होगी और एक राजधानी के लिए आवश्यक हर चीज यहां पहले से मौजूद है। मुख्यमंत्री का विदर्भ विरोधी बयान पूरी तरह से गलत है। यही मौका है विदर्भ के जनप्रतिनिधियों को एकजुट होकर अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए।
नहीं जानते विदर्भ का इतिहास
व्यावसायी निलेश सूचक का कहना है कि मुख्यमंत्री को शायद विदर्भ का इंतिहास नहीं पता है, तभी उन्होंने ऐसा बयान दिया है। स्वतंत्र विदर्भ के पक्ष में जामंतराव धोटे और नासिकराव तिरपुड़े ने वर्षों पहले आंदोलन किया था। वर्तमान में हालत यह है कि विदर्भ में बैकलॉग बढ़ता जा रहा है। यदि अभी के अभी पृथक विदर्भ की घोषणा कर दी जाए तो विदर्भ के पास इतना सामर्थ है कि वह अपने पांव पर मजबूती के साथ खड़ा रहे।
संजय
नागपुर। मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण द्वारा रविवार को रांची में किए गए पृथक विदर्भ विरोधी बयान की तिखी प्रतिक्रिया हुई है। रविवार को मुख्यमंत्री श्री चव्हाण ने कहा था कि विदर्भ की जनता महाराष्ट्र का बंटवारा नहीं चाहती। राज्य का किसी भी सूरत में बंटवारा नहीं होगा। मुख्यमंत्री के इस बयान से पृथक विदर्भ राज्य की मांग करने वाले जनप्रतिनिधियों और व्यापारी वर्ग ने कड़ी आलोचना की है। वहीं कांग्रेस नेताओं ने अपनी प्रतिक्रिया में मुख्यमंत्री के बयान से अनजान होने की बात कह कर बात टाल दिया लेकिन उन्होंन विदर्भ का पुरजोर समर्थन किया। भाजपा नेता और व्यापारी वर्ग के कई लोगों का कहना है कि मुख्यमंत्री के कथन से यह साबित हो गया है कि उनका ध्यान विदर्भ की जनता की ओर नहीं है, यदि ध्यान होता तो ऐसा बयान नहीं देते।
यही है सही समय
भाजपा विधायक देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री के बयान की आलोचना करते हुए कहा कि मानते हैं कि विदर्भ राज्य बनाने का सही वक्त आ गया है। इस मुद्दे को ध्यान में लाने के बजाय अब स्वरुप देने की दिशा में पहल करना जरुरी हो गया है। भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में अनेक छोटे राज्यों को बनाया गया, छोटे-छोटे राज्य अगर होगे तो समुचे क्षेत्र का विकास मे आसानी हो जाती है। साथ ही हर आम इंसान को इससे न्याय मिल जाता है। बड़े राज्य में कई क्षेत्र विकास से वंचित रह जाते हैं।
अब उपेक्षा का दर्द सहा नहीं जाता
पूर्व सांसद बनवारीलाल पुरोहित ने कहा कि विर्दभ राज्य बनाने की दिशा में मैंने अनेक आंदोलन किये। इतने वर्षो में भी विर्दभ का विकास जैसा होना चाहीए था, नहीं हो पाया, मैं तो शुरु से ही अलग विर्दभराज्य बनाने के पक्ष में हूं। आजादी के 50 साल से ज्यादा समय होने के बाद भी विर्दभ का विकास नहीं हो पाया, पश्चिम महाराष्ट्र के नेताओं ने हमेशा ही विदर्भ के साथ सौतेला व्यवहार किया है। विकास कार्य भी उन्हीं के क्षेत्रों में ज्यादा हुए हैं। अब यह दर्द सहा नहीं जाता। अगर विर्दभ का सही मायनों में विकास करना है तो अलग राज्य का गठन अब हो जाना चाहिए।
नेता नहीं आम जनता की मांग
कांग्रेस के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष रणजीत देशमुख ने कहा कि अलग विर्दभ राज्य बनाने के लिए मैंने अनेक आंदोलन किये। जनता की आवाज केंद्र तक पहुंचाई। आज जनता खुद चाहती है की पृथक विदर्भ का गठन हो। कांग्रेस ही हमें न्याय दे सकती है। मैंने इस मांग के लिए अनेक प्रयास किए हैं। विदर्भ के सभी विधायकों, सांसदों को इसके लिए एक हो जाना चाहिए। विदर्भ राज्य की मांग तो तेलंगाना राज्य की मांग से भी पुरानी है, अब तेलंगाना की तर्ज पर पृथक विर्दभ राज्य की घोषणा भी हो जानी चाहीए, क्योकि अब यह मांग नेताओ की ना होकर आम विर्दभवासी की हो गई है।
पहले ही लिखा जा चुका है केंद्र को पत्र
कांग्रेस विधायक दीनानाथ पडोले भी पृथक विदर्भ के समर्थन में हैं। उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि हम सभी कांगे्रसी नेताओ को इसकी पहल शुरु करनी चाहिए। सांसद विलास मुत्तेमवार ने तो केंद्र सरकार को पत्र लिखकर हम विर्दभवासियों की भावनाओं से अवगत भी करवा दिया है। छोटे राज्य बनने से विकास कार्यो में गति आ जाती है। हम हर क्षेत्र का विकास कर सकते हैं। सरकार की सभी योजनाएं आम आदमी तक पहुंच जाती है। सभी पार्टी के नेताओ ने इस दिशा में एकजूट होकर पहल करनी चाहिए।
जनता मिला रही है सुर-से सुर
भाजपा विधायक सुधाकर देशमुख ने कहा कि पृथक विदर्भ बनाने के बारे में भाजपा ने हमेशा अपनी खुली सोच का परिचय दिया है। हम हमेशा की अलग विदर्भ राज्य बनाने के पक्ष में कहते आये हैं। सही मायनो में विकास होने के लिए पृथक विर्दभ जरुरी हो गया है। इसके लिए व्यापक स्तर पर एक अभियान छेडऩे की आवश्यता है। छोटे राज्यों के गठऩ से ही विकास कार्य पूरे होगे, अब जनता भी विदर्भ राज्य के पक्ष मे सुर मिला रही है।
जनता कर रही है भरपूर समर्थन
विधायक सुनिल केदार ने मानते हैं कि विदर्भ की मांग पुरानी है। अलग राज्य बनाने के लिए इसके पहले भी अनेक आंदोलन किये गए। छोटे राज्य बनाने से हम विकास कार्यो को जल्द ही साकार कर सकते हैं। आम इंसान तक विकास कार्य तेजी से पहुंच जाते हैं। आज विदर्भ के युवा बेरोजगार हैं। उद्योग धंधे नहीं के बराबर है। सभी पार्टियों के नेताओं को इस मुद्दे पर आपसी सहमति बनानी चाहिए। कांग्रेस पार्टी जब अलग तेलंगाना राज्य बना सकती है, तो विर्दभ को भी पृथक विर्दभ राज्य बना सकती है। यह मांग तो काफी पुरानी है, अब जनता भी इसके समर्थन में कुद पड़ी है।
तेलंगाना से पुरानी विदर्भ की मांग
भाजपा के विधायक कृष्णा खोपडे कहते हैं कि विदर्भ को तो वर्षों पहले ही पृथक राज्य का दर्जा दे दिया जाना चाहिए। वर्षों से इसकी मांग जारी है। अब समय आ गया है कि सभी दलों के नेता इसके लिए एकजुट होकर एक मंच पर आएं। विदर्भ की मांग तेलांगना से पहले की है। इसलिए पहले पृथक विदर्भ का प्रस्ताव स्वीकार करना चाहिए। स्वतंत्र विदर्भ के कारण ही विदर्भवासियों को न्याय मिलेगा। भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में ही छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड जैसे राज्यों की घोषणा की गयी थी और वहां विकास की रफ्तार तेज हुई।
कांग्रेसी नेताओं ने किए हैं आंदोलन
कांग्रेस के पूर्व विधायक अनीस अहमद कहते हैं कि विदर्भ के अनेक इलाकों में अभी तक विकास नहीं पहुंच पाया है। युवा बेरोजगारी की गर्त में गिरते जा रहे हैं। हम सभी पार्टी के नेताओं को अलग से विदर्भ राज्य बनाने का प्रस्ताव तैयार करना चाहिए। कांग्रेस पार्टी भी विदर्भ राज्य बनाने के बारे में सोच सकती है। मगर इसके लिए हमें और कोशिश करनी पड़ेगी। विदर्भ के अनेक इलाके आज भी विकास कार्यां से कोसों दूर दिखाई देते हैं। पृथक विदर्भ के लिए पहले भी कांग्रेसी नेताओं ने कई आंदोलन किये हैं।
शर्म की बात
चंद्रशेखर बावनकुळे कहते है कि- पृथक विर्दभ राज्य का गठऩ अब हो जाना चाहिए। भाजपा तो इस मुद्दे पर लामबंद हो गई है। हर दिन कोई न कोई किसान मर रहा है। हम उन्हें बचा नहीं पा रहे हैं। पश्चिम महाराष्ट्र के नेता हमसे सौंतेला व्यवहार करते हैं। इतने वर्ष बीत गए मगर हम विर्दभ का ठीक ढंग से विकास नहीं कर पाये, यह हमारे लिए शर्म की बात है।
भाजपा के विधायक एकनाथराव खडसे ने कहा कि हम तो शुरु से ही पृथक विर्दभराज्य बनाने के पक्ष में हंै, अब इसे अमलीजामा पहना दिया जाना चाहिए। भाजपा के शासनकाल में हमने हमेशा छोटे राज्यों के गठऩ में सकारात्मक सोच दिखाई है। छोटे राज्यों में प्रगति और उन्नति जल्दी होती है। आज विर्दभ का किसान भूखमरी की कगार पर खड़ा दिखाई दे रहा है। सरकार द्वारा शुरु की गई योजनाओं का लाभ उसे नहीं मिल पाया है। उसका लगातार शोषण किया जा रहा है, उनके मन में घोर निराशा है। अलग विर्दभ राज्य बनाने से ही सही मायनो में विर्दभवासीयों को न्याय मिल पायगा। अब यह मांग जनता की मांग बन चुकी है।
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व्यापारियों की प्रतिक्रिया
अशोक राव का बयान गलत
व्यापारी हरगोविंद सारडा ने कहा कि मुख्यमंत्री का बयान पूरी तरह से गलत है। अंग्रेशी शासनकाल में नागपुर पहले सी.पी.एंड बेरार की राजधानी थी। तब यहां खूब तरक्की हुई। तबकी हुई तरक्की का आनंद आज लिया जा रहा है। महाराष्ट्र में जुडऩे के कारण विदर्भ क्षेत्र विकास कार्यों से पूरी तरह से उपेक्षित हो गया है। इसलिए यह समय की मांग है कि विदर्भ के समग्र विकास के लिए इस अलग राज्य का दर्जा दिया जाए।
मुख्यमंत्री को जानकारी नहीं
वेद के पूर्व अध्यक्ष प्रकाश बासवानी ने बताया कि मुख्यमंत्री यदि विदर्भ के विकास की ओर ध्यान देते तो उन्हें ऐसा बयान देने की नौबत नहीं आती। यदि ऐसा विदर्भ की जनता अलग विदर्भ नहीं चाहती है, तो फिर जनता आंदोलन क्यों कर रही है। लगता है मुख्यमंत्री को विदर्भ की जनता के आंदोलन के बारे में जानकारी नहीं है।
कांग्रेस विधायक भी कर रहे है विदर्भ की मांग
नागपुर इतनवारी किराना मार्चेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष हस्तीमल कटारिया का कहना है कि मुंख्यमंत्री अशोक चव्हाण विदर्भ के पहले से ही खिलाफ रहे हैं। वे भला विदर्भ के पक्ष में बयान क्यों देंगे। इसलिए राज्य से बाहर विरोध में बयान दे रहे हैं। उन्होंने शिवसेना के बयानों को विदर्भ की जनता का आधार बनाकर विरोधी विरोधी बयान दे दिया। स्वतंत्र विदर्भ की मांग तो स्वयं कांग्रेस के विधायक भी कर रहे हैं, लेकिन मुख्यमंत्री को इस मामले में अब शिवसेना के विधायकों का पक्ष अच्छा लगने लगा है।
...तो होगी विदर्भ की चांदी ही चांदी
कपड़ा व्यावसायी अजय कुमार मदान ने कहा कि जिस दिन अलग विदर्भ का अस्तित्व आ जाएगा, विदर्भ की चांदी-ही चांदी होगी। विदर्भ के पास क्या नहीं है? यहां के संसाधनों के दम पर मराठवाड़ा के और राज्य के दूसरे क्षेत्रों का विकास हो रहा है। पृथक विदर्भ होने पर नागपुर राजधानी होगी और एक राजधानी के लिए आवश्यक हर चीज यहां पहले से मौजूद है। मुख्यमंत्री का विदर्भ विरोधी बयान पूरी तरह से गलत है। यही मौका है विदर्भ के जनप्रतिनिधियों को एकजुट होकर अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए।
नहीं जानते विदर्भ का इतिहास
व्यावसायी निलेश सूचक का कहना है कि मुख्यमंत्री को शायद विदर्भ का इंतिहास नहीं पता है, तभी उन्होंने ऐसा बयान दिया है। स्वतंत्र विदर्भ के पक्ष में जामंतराव धोटे और नासिकराव तिरपुड़े ने वर्षों पहले आंदोलन किया था। वर्तमान में हालत यह है कि विदर्भ में बैकलॉग बढ़ता जा रहा है। यदि अभी के अभी पृथक विदर्भ की घोषणा कर दी जाए तो विदर्भ के पास इतना सामर्थ है कि वह अपने पांव पर मजबूती के साथ खड़ा रहे।
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