शनिवार, दिसंबर 31, 2011

भिखारी की गोद में किसका लाल

संजय स्वदेश
ब्लैक एंड ह्वाइट के जमाने में एक फिल्म आई थी बूट पालिस। इस फिल्म में सौतेली मां की क्रूर निर्दयता की कहानी दिल को झकझोरती है। कैसे मासूम बच्चे न चाहते हुए भी भीख मांगने के लिए मजबूर हैं। हालांकि वे इस पेशे को छोड़ना चाहते हैं, लेकिन उन्हें कहीं से इसके लिए प्रोत्साहन नहीं है। तब समाज में ऐसे लोग थे जो ऐसे नौनिहालों को गले लगाकर अपनी संतान की तरह परवरिश करते थे। लिहाजा, फिल्म का अंत सुखांत होता है। जमाना बदला। स्लमडॉग मिलेनियर फिल्म आई। नौनिहालों का शोषण धंधे में बदल गया, मगर ऐसे बच्चों को गले लगा कर बचाने वाले नहीं बचे।
भीख मांगने का कारोबार करोड़ों में है। बच्चों को बहला-फुलसलाकर या गरीबों से खरीद कर उन्हें बड़े शहरों में भीख मंगवाने का धंधा तेजी से फलफूल रहा है। ताजा उदाहरण ऐसे शहर का है तो देश और दुनिया में आईटी हब के नाम से प्रसिद्ध बेंगलुरु है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चमक-धमक और विकास की तेज रफ्तार के बीच दूसरे का बचपन बेच मोटी कमाई के धंधा का उजागर हुआ।
दिसंबर के मध्य में बेंगलुरु पुलिस ने भिखारी माफिया के चंगुल से लगभग 3 सौ बच्चों को छुड़ाया। महानगरों की सड़कों पर गरीब मांओं की गोद में भूखे, बीमार, लाचार बच्चे और उनके द्वारा भीख मांगे जाने का दृश्य किस ने नहीं देखा होगा। यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि मासूम अपनी असली मां की गोद में है या किराए पर लाया गया है। बेंगलुरु में जिन बच्चों को पुलिस ने छुड़ाया है, उनमें से अधिकतर दूसरे राज्यों से अपहृत अथवा मां-बाप द्वारा बेच दिए गए या किराए पर दिए गए बच्चे थे। केवल गरीबी के कारण ही बच्चे इस स्थिति में नहीं पहुँच रहे हैं । क्रूरता यह है कि नशा करवाकर मासूमों से भीख मंगवाने का संगठित धंधा चलाकर कुछ अपराधी कानूनी पंजे से दूर ऐश मौज कर रहे हैं।
दो महीने से दो साल तक तक के अबोध बच्चों को नशे का आदी बनाकर फिर किराए की मांओं की गोद में डाल दिया जाता है। ताकि ये भूख से रोएं नहीं या किसी और की गोद में जाने की जिद न करे, बस अचेतन अवस्था में पड़े रहें और इनसे ऐसी स्थिति में रख कर भीख मांगने में आसानी हो। पुलिस ने अब तक सिर्फ 3 सौ बच्चे छुड़ाएं हैं, लेकिन सैकड़ों और बच्चे अभी भी ऐसे गिरोहों के चंगुल में फंसे हो सकते हैं। छुड़ाए गए बच्चों में कर्नाटक के अलावा आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के बच्चे भी थे। इन बच्चों को बेहद बुरी हालत में पुलिस ने पाया। कई घंटे बाद ये बच्चे होश में आ पाए और इनमें से अधिकतर भूखे थे।
आंकड़ों के मुताबिक सालाना साठ हजार बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट पुलिस के पास दर्ज होती है। इनमें से कितने बच्चे अपने मां-बाप के पास सुरक्षित पहुंचते होंगे, कहना कठिन है। लेकिन यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पुलिस, गैर सरकारी संगठनों व अन्य कल्याणकारी संस्थाओं की मदद जिन बच्चों तक नहीं पहुंच पाती होगी, जिन्हें आपराधिक संगठनों के चंगुल से नही बचाया जाता होगा, उनका भविष्य क्या होता होगा और इनसे बनने वाले देश का भविष्य क्या होगा?
हो सकता है राज्य सरकारों की कार्रवाई से कुछ लोग कानून के फंदे में आ जाएं। किंतु अभी कई सवालों के जवाब मिलना बाकी है। एक समाचारपत्र ने अपने संपादकीय में इस घटना पर तीन सवाल उठाया। बच्चों को नशा करवा कर उनसे भीख मंगवाने जैसे गंभीर अपराध करने वालों के लिए कितनी कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए, क्योंकि यह केवल भीख मंगवाने का अपराध और मासूमों की जिंदगी की बलि देकर अपनी जेब भरने का धंधा भर नहीं है, बल्कि उन मासूमों को नशे की दुनिया में धकेलने का क्रूर खेल भी है, जिन्होंने अभी ठीक से आंखे खोलकर दुनिया देखना भी नहीं सीखा है।
दूसरा सवाल, गरीबी के कारण समाज में पनपने वाले अपराध को समाजशास्त्रीय, राजनीतिक और आर्थिक नजरिए से परख कर उसका निदान किस तरह नीति-नियंता करेंगे? तीसरा सवाल यह है कि विकास की चमक से चौंधियाई हमारी आंखे समाज में पनप रहे इस अंधकार को कब तक अनदेखा करती रहेंगी?
बेंगलुरु में ऐसे गैंग का पर्दाफाश तब हुआ जब कुछ गैरसरकारी संस्थाओं की शिकायत पर पुलिस ने कार्रवाई की। ऐसे गैर-सरकारी संस्थाओं को कार्य समाज में सम्मान के योग्य हैं। इनसे प्रेरणा लेकर व्यक्तिगत स्तर पर भी बच्चों का बचपन बचाने के लिए हरसंभव कोशिश के संकल्प से नये साल का शुभारंभ किया जा सकता है। क्या आप ले रहे हैं बचपन को एक छांव देने के प्रयास का संकल्प ?

रविवार, सितंबर 25, 2011

छद्म नामों से सशस्त्र संघर्ष चला रहे हैं नक्सली नेता

एक नेता के हैं कई नाम
- बनावटी नामों के खुलासा करने में सुरक्षा एजेंसियों को मिली सफलता
- कई नेताओं पर लाखों का ईनाम
नई दिल्ली।
नक्सलियों के बड़े नेता तमाम छद्म नामों के सहारे सशस्त्र संघर्ष चला रहे हैं, हालांकि सुरक्षा एजेंसियों और पुलिस को काफी हद तक उनके इन बनावटी नामों का खुलासा करने में सफलता हासिल हुई है।
भाकपा-माओवादी पोलित ब्यूरो के अत्यंत महत्वपूर्ण सदस्य गणपति के कुछ अन्य नाम मुपल्ला, लक्ष्मण राव, रमन्ना, श्रीनिवास, दयानंत, चंद्रशेखर, गुडसेददा, जीएस, मलन्ना, राजन्ना, बाल रेड्डी, राधाकिशन, जीपी, शेखर और सीएस हैं। उस पर आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने 24 लाख का ईनाम घोषित कर रखा है।
पोलित ब्यूरो के ही एक अन्य सदस्य नंबला केशव राव के कुछ अन्य नाम हैं, गगन्ना, प्रकाश, कृष्णा, विजय, केशव, बसवा और राजू। वह इन्हीं नामों से नक्सल गतिविधियों का संचालन करता है।
भाकपा-माओवादी के नंबर-तीन समझे जाने वाले कमांडर मल्लोजुला कोटेश्वर राव ने भी अपने कई नाम रखे हैं। वह प्रहलाद, मुरली, रामजी, श्रीधर, किशनजी, विमल, प्रदीप और जयंत दा के नाम से भी माओवादियों की गतिविधियों का संचालन करता है।
एक अन्य दुर्दांत नक्सल नेता कट्टम सुदर्शन को भी आनंद, बीरेंदर, बिरेंदर जती, मोहन टेकम, सुदर्शन, महेश, भास्कर, रमेश और एएन के नाम से जाना जाता है।
नक्सल नेता मिशिर बेसरा को भी भास्कर, सुनिरमल, सुनील और विवेक के नाम से जाना जाता है, जबकि नक्सलियों के बीच किशन दा को प्रशांत बास, निर्भय, काजल, महेश के नाम से भी जाना जाता है।
माओवादियों का स्वयंभू कमांडर कोसा अपने साथियों के बीच गौतम, साधू, गोपन्ना, विनोद, बुचन्ना, कादरी और सत्य नारायण रेड्डी के नाम से भी मशहूर है, जबकि थिप्पारी तिरुपति को देवूजी, देवजी, संजीव, चेतन, रमेश और देवन्ना के नाम से जाना जाता है।
सरकारी सूत्रों ने बताया कि 19 लाख के ईनामी नक्सल नेता जिंगू नरसिम्हा रेड्डी को जामपन्ना, जेपी और जयपाल के नाम से भी नक्सलियों के बीच जाना जाता है, जबकि अक्की राजू हरगोपाल भी साकेत, रामकृष्णा, गोपाल, आरके, एसवी, साकेत श्रीनिवास राव, पंथालू और संतोष के नाम से मशहूर है।
खास बात यह है कि 50 साल से अधिक उम्र वाले इन सभी प्रमुख नक्सल नेताओं में से अधिकांश का निवास स्थान आंध्र प्रदेश है। कुछ नेता पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, असम और कर्नाटक के भी रहने वाले हैं।
दिल्ली पुलिस द्वारा 2009 में गिरफ्तार किये गये प्रमुख नक्सल नेता कोबाद घांडी को भी अपने साथियों के बीच राजन, महेश, कमल, सलीम और किशोर के नाम से जाना जाता था।

दवा प्रयोग का अड्डा बना देश भारत


तीन वर्ष में क्लिनिकल ट्रायल में 1,593 की मौत
नई दिल्ली। बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के लिए भारत क्लिनिकल ट्रायल का प्रमुख अड्डा बन गया है। पिछले तीन वर्षों के दौरान देश में दवाओं के परीक्षण के कारण 1,593 लोगों की मौत हुई है जबकि केवल 22 मामलोें में ही कंपनियों ने मुआवजा दिया, वह भी मामूली।
सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तरह प्राप्त जानकारी के अनुसार भारत में क्लिनिकल ट्रायल के दौरान साल 2008 में 288 लोगों की मौत हुई जबकि 2009 में 637 लोगों और 2010 में 668 लोगों की मौत हुई है । हालांकि इन तीन वर्षों में केवल पिछले साल कंपनियों की ओर से 22 मामलों में ही मुआवजा दिया गया।
सरकार के निगरानी तंत्र की कुशलता का पता इसी से चलता है कि साल 2010 में क्लिनकल ट्रायल के दौरान 668 लोगों की मौत हुई, लेकिन उसके पास 22 मामलों में ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ओर से दिये गए मुआवजे की जानकारी थी। साल 2010 में बहुराष्टÑीय कंपनियों ने महज 53 लाख 33 हजार रुपये का मुआवजा प्रदान किया। इस तरह से एक जान की औसत कीमत महज ढाई लाख रुपये आंकी गई।
इस अवधि में बहुराष्ट्रीय कंपनी लिली ने सबसे कम एक लाख आठ हजार रुपये का मुआवजा दिया, जबकि पीपीडी कंपनी ने 10 लाख रुपये मुआवजा प्रदान किये। मुआवजा देने वाली कंपनियों में मर्क, क्विनटाइल्स, बेयर, एमजेन, ब्रिस्टल मेयर्स, सानोफी और फाइजर भी शामिल है।
बहरहाल, विश्व स्वास्थ्य संगठन (ंडब्ल्यूएचओ) की ताजा रिपोर्ट में एसोसिएटेड चैम्बर्स आॅफ कामर्स एंड इंडस्ट्री का हवाला देते हुए कहा गया है कि 2010 में भारत में क्लिनिकल ट्रायल का कारोबार करीब एक अरब डालर का हो गया है और साल 2009 की तुलना में इसमें 20 करोड़ डालर की वृद्धि दर्ज की गई है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि दवा कंपनियों के भारत में क्लिनिकल ट्रायल करने के कई कारण हैं, जिसमें तकनीकी तौर पर दक्ष कार्यबल, मरीजों की उपलब्धता, कम लागत और सहयोगात्मक दवा नियंत्रण प्रणाली शामिल है।


मौत का आंकड़ा
वर्ष मौत
2008 288
2009 637
2010 668

करोबार
वर्ष कारोबार
2010 1 अरब डॉलर
2009 80 करोड़ डॉलर

शनिवार, सितंबर 24, 2011

12 करोड़ नौनिहालों का शोषण

12 करोड़ की संख्या में बाल मजदूरी में लगा भारत का भविष्य कल वयस्क होगा तो क्यों को अमीर भारत के बाराबरी का होगा? भीषण गरीबी देख कर बड़ी होने वाली यह इस आबादी के मन में निश्चय ही समाज की मुख्यधारा के प्रति कटुता होगी।

संजय स्वदेश
एक केंद्रीय दल ने 20 सितंबर को राजस्थान के जैसलमेर जिले के विजयनगर गांव से पत्थर काटने के कारखाने से नौ बाल मजदूरों को मुक्त कराया। बाल श्रम रोकने के लिए चल रही अनेक योजनाएं कागजों में ही अपना काम कर रही हैं। पत्थर काटने के काम में शोषित हो रहे मासूम बाल बाल मजदूरों की
उम्र महज तीन से दस साल की है। जरा विचार करें, तीन से दस साल की जिन हाथों में कागज और पेंसिल होनी चाहिए, उन हाथों में पत्थर काटने के कठोर हथियार थमा दिये जा रहे हैं। इसे रोक कर इन बच्चों का भविष्य संवारने की जिम्मेदारी किसकी है? निश्चित रूप से ऐसे कुकृत्यों की रोकथाम की जिम्मेदारी सरकार की ही बनती है। लेकिन इन गरीब मासूमों की भविष्य संवारने की गति इतनी सुस्त है कि आज भी देश के अनेक हिस्सों में किसी न किसी रूप में नौनिहालों का भरपूर शोषण हो रहा है। चंद रुपये में बचपन की तमाम खुशियां बिक जा रही हैं। देश में करीब 12 करोड़ नौनिहाल बाल मजदूरी की बेबसी का शिकार है। 12 करोड़ का यह आंकड़ा वर्ष 2011 की जनगणना के हैं। इसमें सभी बच्चे 14 साल के कम उम्र के हैं। सर्व शिक्षा और मिड डे मील पर अरबों रुपये खर्च के बाद जब देश से नौनिहालों की हालत नहीं सुधर रही है तो कल्पना करें कि आने वाला भारत का भविष्य कैसा होगा?
12 करोड़ की यह आबादी करीब 10 से 15 वर्ष में जब वयस्क हो कर देश की मुख्यधारा से जुड़ेगी तो क्या होगा? कागजों पर स्कूल चले अभियान खूब दिखता है। मिड डे मील से कई जगहों स्कूलों में भीड़ भी बढ़ गई। लेकिन यह शिक्षा इतनी आकर्षक नहीं हो पाई की बाल मजदूरी को रोक सके। क्योंकि कम उम्र में चंद रुपये की लत से ग्रस्त ये नौनिहाला शिक्षा का असली अर्थ नहीं जानते हैं। उन्हें नहीं मालूम की वे 10 से 50 रुपये दिहाड़ी की कीमत में किस बेशकीमती बचपन को खो रहे हैं।
शहरी बच्चों के लालन-पालन और उनकी मनोवृत्ति पर ढेरों शोध होते हैं। उनकी स्मार्टनेस, बुद्धि, लंबाई, मोटापा, सेहत आदि के ढेरों शोध रपटें प्रकाशित होती रहती हैं। लेकिन बालमजदूरी में लगे नौनिहालों की मनोवृत्ति पर शोध कहा होता है। ऐसे बच्चों पर कुछ गैर-सरकारी संस्थाएं कभी गंभीर तो कभी सतही स्तर पर शोध कर सरकार से उनके पुर्नवास की मांग करते हैं। लेकिन उनके प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हुआ है।
बाल मजदूरी की भीषण समस्या के साथ बाल कुपोषण की समस्या भी बेहद गंभीर है। एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में पांच वर्ष से कम उम्र के कुल आबादी के करीब 47 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। इस कुपोषण के कारण उन पर मौत मंडरा रही है। आदिवासी क्षेत्रों में तो स्थिति और भी भयावह है। प्रधानमंत्री ग्रामोदय और राष्टÑीय पोषाहार मिशन के अलावा राज्य सरकार की ओर से चलाई जा रही अन्य योजनाओं के करोड़ों खर्च के बाद भी परिणाम संतोषजनक नहीं हैं। गरीबी मिटाने के लिए सरकारी पहल के तामम दावे तब तक खोखले रहेंगे जब तक वयस्कों के साथ-साथ बच्चों में भी भारत और इंडिया अंतर बना रहेगा। भारत ही असली देश है। लेकिन यह भारत बदहाली के प्रतीक में बदल चुका है, इंडिया समृद्धि का। दोनों के बीच की खाई इतनी गहरी है कि वर्तमान योजनाओं की गति से निकट भविष्य में यह पटने वाली नहीं है।

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मंगलवार, अगस्त 30, 2011

इरोम के हमदर्द मणिपुर जाएं

संजय स्वदेश
अन्ना के आंदोलन के समय मणिपुर में एक दशक से ज्यादा समय से अनशनरत इरोम की याद आ रही है।
सबसे पहले तो हमें मणिपुर की हकीकत समझनी चाहिए। इस प्रांत की भारी उपेक्षा के बाद वहां के निवासियों में अलगाव की जो ग्रंथी अब बैठ चुकी है, उसे न सेना हटाकर खत्म किया जा सकता है, और ना ही वहां सेना लगाकर। इरोम को मुद्दा गंभीर है। इरोम के साथ होना या न होना लंबी चर्चा का विषय है।
मणिपुर की स्थानीय राजनीति में अलगाववादी तत्व पूरी तरह से हावी है। सरकार की कोई भी विकासात्मक योजना यहां सफल नहीं होने देते हैं। केंद्र सरकार के भारी-भरकम पैकेज के बाद भी वहां के लोग केंद्र सरकार पर उपेक्षा का दोष मढ़ते हैं। वहां की मीडिया पर भी अलगावादी तत्व ज्यादा हावी है। बदहाली की व्यस्था वहां के आम लोगों की नियति बन गई है।
देश-के दूसरे प्रांतों के लोगों केवल खबरों को पढ़ कर अलगाववादियों के सुर में सुर न मिलाना कर
हमदर्दी जताने वाले छुट्टियों में मणिपुर के सुरुरक्षेत्रों में भ्रमण करने जाये तो हकीकत से रू-ब-रू होंगे।
वहां तैनात सैन्य बलों पर कई बार महिला उत्पीड़न का आरोप लगाया जाता है, लेकिन वहां के महिला संगठनों का वहां के अलगाववादी तत्व कैसे उपयोग करते हैं, इसे समझना जरुरी है। करीब हर सामाजिक व अन्य संगठन अलगावादियों के प्रभाव में है। मणिपुर में पुरुषों में शराब की लत को रोकने के मीरा पाइजी नाम का महिलाओं का एक संगठन बनाया गया। कुछ समय तक तो यह संगठन अपने उद्देश्यों के लेकर जोर-शोर से सक्रिय रहा। पर धीरे-धीरे संगठन का जोश-खरोश शांत हो चुका है। अब मीरा पाइजी भी अलगावादियों से मिलकर काम करती है। एक तरह से कहें तो महिलाओं का यह संगठन पूरी तरह से उनके ही नियंत्रण में है। कई महिलाएं अब अलगावादियों के लिए मुखबीर का काम करती है। जब भी कोई अलगावादी सेना के चंगुल में फंसता है। मीरा पाइजी पूरी तरह से विरोध में उतर जाती है। सेना के वाहन के सामने लेट जाती है। कहती हैं कि वह निर्दोष और आम आदमी है।
मणिपुर के सेनापति जिले के मफाऊ में भी अंसल कंपनी एक बड़ी बांध परियोजना पर कार्य कर रही है। बांध थोबल नदी से जोड़ कर बनाया जा रहा है। इसमें राज्य की सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण विभाग डैम बनाने में सहयोग कर रहा है। इस परियोजना को शुरू हुए बीस साल हो चुके हैं। अभी तक बांध का 25 प्रतिशत कार्य भी पूरा नहीं हो पाया। सरकार की तमाम सुरक्षा के बाद भी यह परियोजना अधर में है। नगा और कुकी समुदाय के संगठन बार-बार परियोजना में वसूली के लिए टांग अड़ा देते हैं। पैसे नहीं देने पर यहां काम करने वाल कमर्चारियों का अपहरण कर लिया जाता है। बीच-बीच में जैसे ही ठेके की रकम ठेकेदार को मिलती है, अलगावादी उससे रुपये देने की मांग कर देते हैं। ठेके की मंजूरी की आधी रकम तो वसूली में ही चली जाती है।
पूर्वी इंफाल जिले में पेयजल की समस्या गंभीर है। पेयजल की स्थिति को देखते हुए मणिपुर सरकार ने 1996 में इस क्षेत्र में 90 करोड़ रुपये की लागत से एक बांध बनाने की परियोजना शुरू की थी। तेरह साल में बांध का दस प्रतिशत कार्य भी पूरा नहीं हो पाया। इसका बजट 90 करोड़ से बढ़ कर 2200 करोड़ रुपये का हो गया। कब पूरा होगा कुछ कहा नहीं जा सकता है। जैसे-जैसे ठेकेदार यूजी को अनुदान देते है कार्य की गति बढ़ती जाती है।
कहते हैं कि देशभर में हिंदी संपर्क भाषा है, लेकिन मणिपुर में हिंदी की हालत खराब है। ऐसी बात नहीं है कि वहां हिंदी बोलने-समझने वाले नहीं है, लेकिन को प्रभावशाली नहीं होने यिा जा रहा है। भले ही अलगावादी हिंदी सिनेमा के दिवाने हों, लेकिन सिनेमा हॉल में बॉलीवुड की फिल्में नहीं चलती हैं। वहां काम व व्यवसाय करने वालों से लेकर नौकरी पेशा वालों को अलगावादी संगठनों को वार्षिक चंदा देना पड़ता है। क्या शर्मिला के समर्थन की बात करने वालों इसे पर बहस करेंगे कि केंद्र सरकार के युद्ध विराम के बाद भी ऐसा क्यों हो रहा है।
शायद ही आपने मीडिया में कहीं खबर पढ़ी होगी कि वर्ष 2009 में एक मुद्दे को लेकर अलगावादी तत्वों ने वहां के स्कूलों को बंद करा दिया। तीन महीने तक स्कूल बंद रहे। पर बेवश सरकार इनके सामने कमजोर पड़ी रही। बच्चों की पढ़ाई चौपट हो हुई। एक निजी स्कूल ने चोरी-छिपे स्कूल खोल कर बच्चों को पढ़ाने की कोशिश की तो स्कूल को जला दिया गया। मणिपुर के गरीब वर्ग के बच्चों को बड़े होकर भी गरीबी देखते हुए अलगावाद से जुड़ना नियति हो चुकी है। दिल्ली और अन्न शहरों में चमक-दमक से दिखने वाले और पढ़ने वाले अधिकतर विद्यार्थी किसी न किसी अलगावादी संगठन से जुड़े सदस्य के परिवार के ही होते हैं। तभी तो हिंसा उनके चरित्र में होती है। दिल्ली में उन्हें हिंदी भाषी चिंकी बोलते हैं। चिंकी मतलब छोटें आंखों वाला। पर कभी चिंकी बोलने वालों ने यह नहीं सोचा होगा कि वे हिंदी भाषियों को क्या बोलते होंगे। अपनी भाषा में वे हिंदी भाषियों को म्यांग बोलते हैं। म्यांग मतलब-ऊंची नाक वाला।
इरोम शर्मिला के अनशन का उद्देश्य भले ही पाक साफ हो, पर इरोम अनशन में अपने राज्य की एक दशक में बदल चुकी हकीकत नहीं समझ रही है। यदि समझती तो सबसे पहले वह राज्य सरकार के खिलाफ ही धरना पर बैठ जाती, अनशनरत इरोम को क्या पता कि हर राज्य की लोकतांत्रिक सरकार है, पर मणिपुर की लोकतांत्रिक सरकार वहां की अलगाववादी तत्वों के साथ जियो और जीने दो की नीति के साथ चल रही है। युद्ध विराम के बाद भी अलगाववादियों की समानांतर सरकार चल रही है।
संजय स्वदेश
कार्यकारी संपादक
समाचार विस्फोट
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शुक्रवार, अगस्त 05, 2011

मन में न करो भ्रष्टाचार को नमन

संजय स्वदेश
सरकार के चतुर मंत्री पहले से ही किसी न किसी तरह से लोकपाल को कमजोर करने जुगत में थे। प्रधानमंत्री और जजों के इसके दायरे में नहीं आने के बाद भी यदि यह ईमानदारी से लागू हो तो कई बड़ी मछलियां पकड़ी जाएंगी। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या लोकपाल की व्यवस्था से देश से भ्रष्टाचार मिट जाएगा। देश में और भी कई एजेंसियां इस कार्य के लिए सक्रिय हैं। एक इकाई पुलिस की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा भी है। जरा इसकी कार्यप्रणाली पर गौर करें।


महीने में तीस कार्रवाई भी नहीं होती। इस विभाग में आने वाले अधिकारी आराम फरमाते हैं। यदि कोई शिकायत लेकर आ भी जाए तो पहले उससे पुलिसिया अंदाज में पूछताछ की जाती है। पूरे ठोस प्रमाण प्रार्थी के पास हो तो कार्रवाई होती है। नहीं तो शिकायत पर, यह विभाग कई बार भ्रष्टाचारी से मिल जाता है। उससे कुछ ले-देकर मामला रफा-दफा कर देता है। ऐसी शिकायतें लेकर इक्के-दुक्के लोग ही आते हैं। कई मामलों में ऐसा पाया गया है कि जब कोई कोई भ्रष्टाचार पीड़ित दुखिया एसीबी के द्वार पर जाता है तो उसकी शिकायत ले कर चुपके-चुपके संबंधित विभाग से सांठगांठ कर ली गई। कई प्रकरणों में रंगे हाथ पकड़े जाने के महीनों बाद तक भी कोर्ट में चालान पेश नहीं किया गया। इसी तरह भ्रष्टाचार पर नकेल के लिए सतर्कता आयोग भी है। पर थॉमन प्रकरण ने जाहिर कर दिया कि इस आयोग के मुखिया भ्रष्टाचार के आरोपी भी हो सकते हैं। तक क्या खाक ईमानदारी से कार्य होने की अपेक्षा होगी।

एक और बात सुनिये। आम जनता जिस सीबीआई को सबसे विश्वसनीय जांच एजेंसी मानती है, उसी सीबीआई के 55 अधिकारी भ्रष्टाचार और आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति के व अन्य आरोपों का सामना कर रहे हैं। यह कहने वाला कोई विपक्षी या सामाजिक कार्यकर्ता नहीं है। इसकी जानकारी कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मामलों के राज्य मंत्री वी नारायणसामी ने 4 अगस्त को संसद में थी। इन अधिकारियों में 20 के खिलाफ रिश्वत और आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति के आरोप हैं। जब जांच एजेंसियों की अंदरुनी हकीकत भ्रष्टाचार है, तो फिर ईमानरी के कायास कहां लगाये जायें।

भ्रष्टाचार के मामले में रंगे हाथ पकड़े जाने के बाद भी लंबी न्यायिक प्रक्रिया और उसमें से बच निकलने की संभावना भ्रष्टाचारियों के इरादे को नहीं डगमगा पाती है। यदि ऐसे मामले में एक साल के अंदर ही दोषी को सजा दे दी जाए तो जनता में विश्वास भी जगे। पर एक दूसरी हकीकत यह है कि जनता बैठे-बिठाये यह चाहती है कि देश से भ्रष्टाचार खत्म हो जाए, जो संभव नहीं है। लोकतंत्र के नस-नस में भ्रष्टाचार घुलमिल गया है। सरकारी महकमे में जिनका भी काम पड़ता है, वे भ्रष्टाचार से संघर्ष के बिना सीधे घुटने टेक देते हैं। इस हार को जनता बुद्धिमानी कहती है। यह व्यवहारिक है। कौन बाबू से लड़ने झगड़ने जाए। इस सोच ने भ्रष्टाचार की जड़ें मजबूत कर दिया है। यदि कोई लड़ने भी जाए तो उसके कागजों में तरह-तरह के नुस्क निकाल कर इतना प्रताड़ित किया जाता है कि वह घुटने टेकना मजबूरी हो जाती है। लिहाजा, जनता के लिए भ्रष्टाचार के सामने नतमस्तक की बेहतर विकल्प अच्छा लगता है। इस सोच के रहते भ्रष्टाचार के खत्म और सुशासन की कल्पना, कल्पना भर है।

हकीकत में भ्रष्टाचार मिटाना है तो जनता के मन से भ्रष्टाचार को नमन की प्रवृत्ति मिटानी ही पड़ेगी। भ्रष्टाचार के विरूद्ध क्रांति की बात करने वालों को पहले जनता के मन से इस सोच को मिटाने के लिए आंदोलन चलाना चाहिए। जब तक यह सोच खत्म नहीं होगी, भ्रष्टाचार की जड़ कमजोर नहीं होगी। यदि यह बात गलत होती तो देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध क्रांति के तमाम कारण होने के बावजूद भी किसी क्रांति की सुगबुगाहट नहीं है।

सोमवार, अगस्त 01, 2011

खनिज संपदा, प्राकृतिक गैस के लिए ‘समु्रद मंथन’

2014 तक करीब 90 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के सर्वेक्षण की योजना

नई दिल्ली। बंगाल की खाड़ी, खम्भात की खाड़ी और अंडमान क्षेत्र से लगे सागर
में मौजूद अमूल्य खनिज संपदाओं, प्राकृतिक गैस, परतों की बनावट एवं धातु
तत्वों की मौजूदगी आदि का पता लगाने के लिए सरकार ने अपतटीय एवं समु्रदी
सर्वेक्षण शुरू किया है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव शैलेश नायक ने
कहा कि इस योजना के तहत 2014 तक करीब 90 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के
सर्वेक्षण की योजना बनाई गई है। यह काम भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण (जीएसआई)
के सहयोग से किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि सर्वेक्षण के तहत पश्चिमी
बंगाल की खाड़ी में ‘गैस सर्वेक्षण’ की अहम योजना को आगे बढ़ाया जा रहा है।
राष्ट्रीय अंटार्कटिक एवं समुंद्र अनुसंधान केंद्र (एनसीएओआर) गोवा भी
शामिल है। समुद्र सर्वेक्षण की योजना के तहत पूर्वी और पश्चिमी अपतटीय
क्षेत्र में हाइड्रोकार्बन के भूगर्भ रसायन के आकलन के लिए जीएसआई के साथ
तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग की भी मदद ली जा रही है।
इस योजना के तहत 2013-14 के लिए जिन योजनाओं को रेखांकित किया गया है,
उनमें बंगाल की खाड़ी में समु्रद तल में ढांचागत बदलाव और चुंबकीय पैटर्न
में परिवर्तन का अध्ययन शामिल है। इसमें सुमात्रा में आए भूकंप के
मद्देनजर ग्रेट निकोबार द्वीप पर पड़ने वाले प्रभाव और पश्चिमी तटीय
क्षेत्र में फास्फोरस तत्वों का पता लगाया जाएगा।
अपतटीय एवं समु्रदी सर्वेक्षण योजना के तहत, तमिलनाडु और उड़ीसा से लगे
समु्रदी क्षेत्रों में खनिज संसाधनों का मूल्यांकन किया जाएगा। अधिकारी
ने बताया कि हिंद महासागर में एक ऐसे उपकरण का भी परीक्षण किया जा रहा है
जो समुद्र की गहराई में संसाधनों का पता लगाने में सक्षम होगा।
कई राज्यों में लागू होगी योजना
समु्रद सर्वेक्षण की इस योजना में केरल, गुजरात, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु
जैसे राज्यों ने जीएसआई के साथ मिलकर काम करने में काफी रुचि दिखाई है।
इसके तरह बहु धातु तत्वोें, हाइड्रोकार्बन और सल्फाइड के भंडार का पता
लगाया जाएगा।
योजना के तहत 2013-14 में आंध्रप्रदेश के भिमुनिपट्टनम के समुद्री इलाकों
में खनिज संपदा का मूल्यांकन किया जाएगा। इसके अलावा ओखा क्षेत्र में
केरल और कर्नाटक के समु्रदी क्षेत्र में खनिज युक्त बालू का मूल्यांकन
किया जाएगा।
केंद्रीय अंडमान क्षेत्र में समुद्री क्षेत्र में जलउष्मीय गतिविधियों का
भी अध्ययन किया जाएगा। हिन्द महासागर में कोबाल्ट बहुल क्षेत्रों में भी
यह अध्ययन किया जाएगा, जबकि अंडमान सागर में सल्फाइड खनिज की तलाश के
अलावा समुद्र के भीतर ‘ टेक्टोनिक ’ परतों की संरचना का भी अध्ययन होगा।
दूसरे देशों से ली जाएगी मदद
अधिकारी ने बताया कि इस वृहद समु्रदी सर्वेक्षण में कनाडा, आस्ट्रेलिया,
श्रीलंका, इंडोनेशिया और नामिबिया से भी मदद ली जाएगी, क्योंकि इसके लिए
तकनीकी दक्षता एवं नये पोतों की जरूरत है।
लंबी अवधि की योजना
जीएसआई ने इस उद्देश्य के लिए 30 से 35 वर्ष की योजना तैयार की है जिसके
तहत पोतों और अत्याधुनिक उपकरणों की खरीद की जायेगी ताकि क्षमता का
विस्तार किया जा सके।

मैं दिल्ली हूं....

दिल्ली : इंदप्रस्थ से ढिल्लिका तक का सफर/ दिल्ली को देश की राजधानी बनाए जाने के सौ बरस पूरे होने पर विशेष
नई दिल्ली। अगर पुराने जमाने के नगर देवता की परिकल्पना सच है तो दिल्ली का नगर देवता जरूर कोई अलबेला कलाकार रहा होगा। तभी तो सात बार उजड़ने और बसने के बाद भी इस शहर में गजब की रवानगी है। कनॉट प्लेस से शांतिपथ तक फैला लुटियंस जोन क्षेत्र पश्चिम के सुव्यवस्थित नगर जैसा प्रतीत होता है, वहीं पुरानी दिल्ली की संकरी गलियां ‘बनारस’ की याद ताजा कर देती हैं। अंग्रेजों ने 1911 में कलकत्ता के स्थान पर नई दिल्ली को एकीकृत भारत की राजधानी बनाया, जिस स्थिति को आजादी के बाद भी बदला नहीं गया।
इतिहासकारों के मुताबिक, देश में बहुत कम नगर है, जो दिल्ली की तरह अपने दीर्घकालीन अविच्छिन्न अस्तित्व एवं प्रतिष्ठा को बनाये रखने का दावा कर सकेंं। दिल्ली के प्रथम मध्यकालीन नगर की स्थापना तोमर शासकों ने की थी, जो ढिल्ली या ढिल्लिका कहलाती थी। इतिहासकार वाई डी शर्मा के अनुसार, ढिल्लिका नाम का प्रथम उल्लेख उदयपुर के बिजोलिया के 1170 ईसवी के अभिलेख में आता है, जिसमें दिल्ली पर चह्वानों (चौहानों) द्वारा अधिकार किए जाने के उल्लेख है। गयासुद्दीन तुगलक के 1276 के पालम बावली अभिलेख मेंं इसका नाम ढिल्ली लिखा है, जो हरियानक प्रदेश में स्थित है। उनके अनुसार, लाल किला संग्रहालय में रखे मुहम्मद बिन तुगलक के 1328 के अभिलेख में हरियाना में ढिल्लिका नगर के होेने का उल्लेख है। इसी प्रकार डिडवाना के लाडनू के 1316 के अभिलेख में हरीतान प्रदेश में धिल्ली नगर का जिक्र है।
शर्मा ने स्पष्ट लिखा है कि अंग्रेजी शब्द डेल्ही या दिहली या दिल्ली इसी से निकला है, जो अभिलेखों में ढिल्ली का साम्य है। इसको हिन्दी शब्द ‘देहरी’ से जोड़कर देखना केवल कल्पना मात्र है। दिल्ली पर तोमर, चौहान, गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी, सूर, मुगल वंश के शासकों ने राज किया और 1911 मेें अंग्रेजों ने कलकत्ता के स्थान पर इसे एकीकृत भारत की राजधानी बनाया, जिस स्थिति को आजादी के बाद भी बदला नहीं गया।
महाभारत के अनुसार, कुरू देश की राजधानी गंगा के किनारे हस्तिनापुर में स्थित थी और कौरवों एवं पांडवों के बीच संबंध बिगड़ने के बाद धृतराष्ट्र ने उन्हें यमुना के किनारे खांडवप्रस्थ का क्षेत्र दे दिया। यहां बसाये गये नगर का नाम इं्रदपस्थ था। शर्मा के अनुसार, सोलहवीं शताब्दी में बने पुराने किले के स्थल पर ही संभवत इंदप्रस्थ बसा हुआ था, जो महाभारत महाकाव्य के योद्धाओं की राजधानी थी। इस स्थान पर पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने खुदाई भी की, जिसमें प्रारंभिक ऐतिहासिक काल से लेकर मध्यकाल तक के आवास होने के प्रमाण मिले हैं। यहां उत्तर गुप्तकाल, शक, कुषाण और मौर्यकाल तक के घरों, सोख-कुओं और गलियों के प्रमाण मिले हैं। 1966 में मौर्य सम्राट अशोक के 273-236 ईसा पूर्व के अभिलेख की खोज 1966 में हुई, जो श्रीनिवासपुरी पर अरावली पर्वत श्रृंखला के एक छोर पर खुरदुरी चट्टान पर खुदा हुआ है। शर्मा के मुताबिक, सात नगरों में सबसे पहला दसवीं शताब्दी के अंतिम समय का है, लेकिन यह दिल्ली के अतीत का प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए काफी नहीं है और यह यहां के दीर्घकालीन और महत्वपूर्ण इतिहास के सम्पूर्ण काल का प्रतिनिधित्व करता है।
ऐसा लगता है कि दिल्ली के आसपास पहली बस्ती लगभग तीन हजार साल पहले बसी थी और पुराने किले की खुदाई में मिले भूरे रंग के मिट्टी के बर्तन मिले हैं, जो एक हजार साल से अधिक पुराने है। इतिहास में उल्लेखित दिल्ली के सात नगरों में बारहवीं सदी में चौहान शासक पृथ्वीराज तृतीय का किला राय पिथौरा, 1303 में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा बसायी गई सीरी, गयासुद्दीन तुगलक द्वारा बसाया गया तुगलकाबाद, मुहम्मद बिन तुगलक का जहांपनाह शहर, फिरोजशाह तुगलक द्वारा बसाया गया फिरोजाबाद (कोटला फिरोजशाह) शेर शाह सूरी का पुराना किला और 1638-1648 के बीच मुगल शासक शाहजहां द्वारा बसाया गया] शाहजहांबाद शामिल है। इसके बाद अंग्रेजों ने 1911 में अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित कर दी और रायसीना हिल्स में अंग्रेज वास्तुकार लुटियंस ने नई दिल्ली की योजना तैयार की और इसके बाद 1920 के दशक में पुरानी दिल्ली के दक्षिण में नयी दिल्ली यानी लुटियंस की दिल्ली बसाई गई।
1947 में भारत आजाद हो गया और नयी दिल्ली देश की राजधानी बनी। 1991 में संविधान में 69वां संशोधन हुआ और इसके तहत कें्रद शासित प्रदेश दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा।
वर्तमान नई दिल्ली क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा महानगर और भारत का दूसरा सर्वाधिक आबादी वाला शहर है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, यहां की आबादी 1,67,53,235 है और यह दुनिया का आठवां सबसे बड़ा शहर है।

शनिवार, जून 25, 2011

स्वरोजगार में लगा है देश का आधा श्रम बल

नई दिल्ली, एजेंसी : कामकाज करने योग्य देश की आधी से अधिक आबादी स्वरोजगार में लगी है। इसी तरह श्रम बाजार में एक ही तरह के काम के लिए महिला कर्मचारियों को अपने पुरुष सहकर्मियों के मुकाबले कम वेतन मिलता है। यह खुलासा एक सरकारी सर्वे में हुआ है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के 66वें सर्वे के मुताबिक देश के कुल श्रम बल का 51 प्रतिशत स्वरोजगार में लगा है। केवल 15.6 प्रतिशत लोग ही नियमित नौकरी करते हैं। जबकि श्रम योग्य आबादी का 33.5 प्रतिशत अस्थायी मजदूरी करता है। ग्रामीण क्षेत्रों के 54.2 प्रतिशत कामकाजी लोग स्वरोजगार में लगे हैं। जबकि नगरों में 41.4 प्रतिशत कामगार स्वरोजगार में लगे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में मात्र 7.3 प्रतिशत कामगार ही नियमित वेतन पाते हैं। वहीं नगरों में यह अनुपात 41.4 प्रतिशत है। श्रम बाजार में महिलाओं की स्थिति के बारे में यह निष्कर्ष निकला है कि उन्हें शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में कम दर पर पारिश्रमिक मिलता है। नगरीय क्षेत्रों में पुरुषों का औसत दैनिक वेतन 365 रुपये और ग्रामीण क्षेत्रों में यह 232 रुपये प्रति दिन है। सर्वे में कहा गया है कि गांवों में पुरुष कामगारों का औसत प्रतिदिन आय 249 रुपये व महिलाओं की 156 रुपये ही है। इस प्रकार गांवों में महिला और पुरुष के आय का अनुपात 63-100 है। इसी तरह शहरी क्षेत्र में पुरुष कामगार प्रतिदिन 377 रुपये कमाते हैं, जबकि महिला कामगारों की आय 309 रुपये ही है। यह रिपोर्ट 1,00,957 परिवारों पर किए गए सर्वे पर आधारित है। सर्वे में शामिल परिवारों में ग्रामीण क्षेत्र और नगरीय क्षेत्र के क्रमश: 59,129 और 41,828 परिवार थे। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने एक बयान में कहा है कि नमूने का संग्रह जुलाई 2009 से जून 2010 के बीच देशभर के 7402 गांवों और 5252 शहरों से किया गया। सर्वे में पाया गया कि सार्वजनिक कार्यो से इतर अनियमित मजदूरों को पारिश्रमिक के तौर पर प्रतिदिन 93 रुपये दिया जाता है। जबकि नगरीय क्षेत्रों में यह राशि 122 रुपये है। अगर इसे लिंग के हिसाब से देखें तो ग्रामीण क्षेत्रों में अनियमित पुरुष कामगार को 102 रुपये और महिला कामगार को मात्र 69 रुपये मिलते हैं। सार्वजनिक कार्यो से इतर नगरीय क्षेत्रों में अनियमित पुरुष कामगार को 132 रुपये और महिला कामगार को मात्र 77 रुपये मिलते हैं। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) के तहत कराए जाने वाले कार्यो में भी महिला और पुरुष कामगारों के वेतन में अंतर है। मनरेगा के तहत अनियमित पुरुष कामगारों को 91 रुपये जबकि महिला कामगार को 87 रुपये पारिश्रमिक दिया जाता है। एनएसएसओ के सर्वे के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों के करीब 63 प्रतिशत पुरुष कामगार कृषि कार्य में लगे हैं, जबकि 19 प्रतिशत और 18 प्रतिशत लोग क्रमश: द्वितीयक (विनिर्माण) और तृतीयक (सेवा) क्षेत्र के कार्यो में लगे हैं। कृषि क्षेत्र बहुत हद तक महिला कामगारों पर आश्रित है। 79 प्रतिशत महिला कामगार कृषि कार्य में लगी हुई हैं, जबकि 13 प्रतिशत और 8 प्रतिशत महिला श्रमिक क्रमश: द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र के कार्यो में लगी हैं। ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों के लोगों के कार्यो पर नजर डालने पर स्पष्ट होता है कि नगरों के अधिकांश लोग सेवा क्षेत्र के कार्यो में लगे हुए हैं। नगरीय क्षेत्रों में करीब 59 प्रतिशत पुरुष कामगार और 53 प्रतिशत महिला कामगार सेवा क्षेत्र में लगे हुए हैं। वहीं करीब 35 प्रतिशत पुरुष कामगार और 33 प्रतिशत महिला कामगार विनिर्माण क्षेत्र में लगे हैं। नगरीय कामगारों में 6 प्रतिशत पुरुष कामगार और 14 प्रतिशत महिला कामगार कृषि क्षेत्र से जुड़े हैं। from jagran.com

शनिवार, अप्रैल 02, 2011

बिटिया को कब मिलेगी हिंसा से मुक्ति

संजय स्वदेश
दिल्ली विश्वविद्यालय में हमारे प्राध्यापक प्रो. नित्यानंद तिवारी ने एक बार मध्यकाल में नारी की दशा एक प्रसंग सुनाया था। वर्षों बाद एक भाई बहन के ससुराल जाता है। ससुराल में पीड़ित बहन की व्यथा जब वह अपने घर माता-पिता को सुनाता है। कहता है कि सुसराल वालों की मार से बहन का पीठ धोबी के पाट की तरह हो गया है। गुरुजी के प्रसंग को सुनाते हुए सिसक पढ़े। कक्षा में भी संवेदनशीलता छा गई। वर्षों बीत गई। बात आई-गई हो गई। लेकिन आए दिन महिला उत्पीड़न की खबरे बार-बार जेहन में उस प्रसंग का उभार देता है। मन व्यस्थित हो उठता है। ऐसा लगता है कि इक्सवी सदी में भी मध्ययुगीन दास्तां चारो ओर हैं।
मार्च में देश भर में आयोजित होन वाले महिला दिवस के कार्यक्रम नारी सशक्तिकरण के मजबूत पक्ष का उभारते हैं। इस बार मार्च शुरू होते ही तीन ऐसे समाचार पढ़ने को मिले, जिन्होंने मन को रुला दिया। पहली खबर फेसबुक पर एक मित्र के वॉल से मिली कि बिहार में एक बाप ने स्नातक में अध्ययनरत बेटी का चेहरा सिगरेट से इसलिए दागा क्योंकि वह कॉलेज के पिकनिक ट्रिप पर जाने वाली थी।
दूसरी खबर चंडीगढ़ से थी। यहां एक महिला को उसके पति ने दो वर्षीय बेटे के के साथ घर से बाहर निकाल दिया। महिला बेटे के साथ घर में अंदर घुसने की गुहार लगती रही। पुलिस ने भी हस्तक्षेप किया। लेकिन महिला को तत्तकाल घर में प्रवेश नहीं मिला। उसे नारी निकेतन भेजना पड़ा।
तीसरी खबर छत्तीसगढ़ से आई कि एक भाई ने 18 वर्षीय बहन इतना पीटा कि उसने अस्पताल में दम तोड़ दिया। कारण सिर्फ इतना था कि बहन ने भाई को नहाने में देरी होने की बात पर झल्लाने पर जवाब दे दिया था।
अजीत ट्रेजड़ी है। जितनी तेजी से महिलाओं का एक वर्ग सफलता के शिखर को चूमते जा रहा है, वहीं दूसरा वर्ग आज भी घर परिवार में मध्ययुगीन सामंती, समाजिक व्यवस्था की तरह अत्याचार से ग्रस्त है।
विषम परिस्थितियों में सफलता का तानाबाना बुनने वाली महिलाओं ने कई बार अग्नि परीक्षा की तरह यह सिद्ध किया है कि वे अनेक मामलों में पुरुषों से आगे हैं। यदि घर परिवार से सकारात्मक सहयोग मिलता तो निसंदेह उनकी सफलता की शिखर और ऊंची होती है। नारी उत्पीड़न की कहानी केवल छत्तीसगढ़ और चंडीगढ़ बिहार तक नहीं समिति है। देश के हर राज्य कमोबेश कहानी ऐसे ही है। नारी उत्पीड़न की दु:खद पहलुओं में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि पढ़े लिखे वाले समाज में उत्पीड़ने की घटनाएं सबसे ज्यादा है। प्रताड़ित करने वाला परिवार और पीड़िता उच्च शिक्षित भी हैं। लेकिन शिक्षा से भी ऐसी पीड़िताओं का आत्चार के विरुद्ध लड़ने का आत्मविश्वास नहीं बढ़ाया है। इसी कारण शहरी परिवारों में पीड़ित होने वाली शिक्षित महिलाओं में बहुत कम ही घर से निकल न्याय के लिए गुहार लगाती हैं। इस विषय को दहेज उत्पीड़न के मामलों के आंकड़े देखकर अनदेखा नहीं किया जा सकता है। शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना के बाद भी महिलाएं घर की चौखट में घुट-घुट कर कभी बच्चे के लालन-पालन को देख कर जुल्मों-सितम सह रही है तो कभी बाप के नाम समाज में बदनाम होने के भय से सब कुछ सहन कर दोयम दर्ज से भी बदतर जिंदगी जी रही है। कामकाजी महिलाओं की संख्या में दिल्ली अव्वल सूची में है। यहां महिलाएं घरेलू कार्यों के साथ दफ्तर के काम काज के साथ-साथ परिवार की आर्थिम मजबूती में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। फिर भी घर की चाहरदिवारी में किसी न किसी तरह से प्रताड़ना झेलती है। उत्पीड़न के मामले में राजधानी दिल्ली की कोई सानी नहीं है। लेकिन यहां एक अच्छी बात यह है कि यहां मामले थाने तक पहुंच रहे हैं। हालांकि कई प्रकरणों में राजधानी में भी मामले दर्ज नहीं होने के प्रकरण सुर्खियों में आते हैं। दूसरे राज्यों के छोटे-बड़े शहरों के अलावा गांव देहात में तो थाने तक ऐसी घटनाएं पहुंच ही नहीं पाती है। सरकार ने महिला उत्पीड़न रोनके के लिए अभियान चलाया। घरेलू हिंसा संरक्षण कानून बनाया। इसके बाद भी पीड़ित नारी की व्यस्था उसके अंदर ही घुट रही है।
दर असल विकास के नाम पर हम इक्कसवी सदी में प्रवेश तो कर गये। लेकिन घर परिवार में नारी को दोयज दर्जे और मानसिकता अभी टूटी नहीं है। अनेक शहरी परिवारों में भले ही पढ़ाई लिखाई के मामले में बेटियों को बेटे की तरह दर्जा मिलने लगा है, लेकिन समाजिक बंदिश अभी भी कायम है। इक्कसवी सदी में नारी उत्पीड़न को खत्म किये देश के उज्ज्वल भविष्य की सपना कोरा है और महिला दिवस औपचारिक मात्र।
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गुरुवार, मार्च 31, 2011

सरकार यूं ही दिखाती रही उच्च शिक्षा के हसीन सपने

राजकेश्वर सिंह, नई दिल्ली सरकार सपना तो देख रही है नॉलेज इकोनॉमी में भारत को विश्व का केंद्र बनाने का, लेकिन वह खुद बालू के ढेर पर खड़ी है। हकीकत यह है कि उच्च शिक्षा के जिन आंकड़ों की बुनियाद पर अब तक वह आगे के सपने देख रही थी, उसे पता चला कि वही सही ही नहीं हैं। बदतर स्थिति यह है कि उसके पास उच्च शिक्षा में मौजूदा छात्रों, संस्थानों, शिक्षकों तक का प्रामाणिक आंकड़ा नहीं है। सरकार खुद मानती है कि उच्च शिक्षा में सकल दाखिला दर (जीईआर) का उसका मौजूदा आंकड़ा आधा-अधूरा है। वह उच्च स्तर की पढ़ाई-लिखाई की सही तस्वीर नहीं पेश करता। जबकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने उन्हीं आंकड़ों पर एतबार करके उच्च शिक्षा में 12 प्रतिशत की सकल दाखिला दर को 11वीं योजना के अंत तक 15 प्रतिशत और 2020 तक 30 प्रतिशत करने का लक्ष्य भी तय कर दिया है। उच्च शिक्षा में हम कहां खड़े हैं? यह सवाल माथे पर बल डालने वाला है। विकसित देशों में 18 से 24 आयु वर्ग के 40 प्रतिशत बच्चे विश्वविद्यालयों में दाखिला लेते हैं। दुनिया में इसकी औसत दर 23 प्रतिशत है और भारत अभी 15 प्रतिशत जीईआर के लिए जूझ रहा है। भविष्य में ज्यादा बेहतर योजनाएं व नीतियां बन सकें। क्षमता विकास के साथ ही संसाधनों का ज्यादा अच्छा उपयोग हो सके। मानव संसाधन विकास मंत्रालय को इसके लिए अब एक प्रामाणिक डाटा की जरूरत है। लिहाजा अब वह सर्वे कराना चाहती है। इसके लिए उसने एक टास्क फोर्स भी गठित कर दिया है। जबकि सर्वे की जिम्मेदारी राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय (न्यूपा) को दी गयी है। सर्वे में उच्च शिक्षा के सभी संस्थान, केंद्रीय, राज्य व डीम्ड विश्वविद्यालय, विश्वविद्यालयों से जुड़े कॉलेज, राष्ट्रीय महत्व के संस्थान, पॉलिटेक्निक और शोध संस्थान शामिल होंगे। आगामी 16 अप्रैल तक परीक्षण के तौर पर यह सर्वे होने भी जा रहा है। जिसमें फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय और उसके कुछ कॉलेज, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, आइआइटी दिल्ली व अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) दिल्ली जैसे संस्थान शामिल हैं। गौरतलब है कि इस सर्वे को लेकर इनोवेशन, बुनियादी ढांचा और जन सूचना मामलों के लिए प्रधानमंत्री के सलाहकार सैम पित्रोदा ने बीते दिनों सरकार को आड़े हाथों लिया था। उनका आरोप था कि योजनाओं पर अमल के बजाय सरकार सर्वे व बहस-मुबाहिसों में फंसी है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय का तर्क है कि प्रामाणिक आंकड़ों के लिए यह जानना जरूरी है कि सही मायने में कितने लोग उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं और कितनों के लिए इंतजाम करना है। किस स्ट्रीम में कितने शिक्षक हैं, कितनी कमी है। पढ़ाई का कौन सा क्षेत्र ज्यादा लोकप्रिय है? किसमें कितने संस्थानों की जरूरत होगी। समाज के किस तबके को ज्यादा तवज्जो की दरकार है। सरकारी, गैर सरकारी किन संस्थानों को कितने धन की जरूरत है। from dainik jagran.

यहां कन्या का विवाह करने से डरते हैं अभिभावक

जलपाईगुड़ी, जागरण संवाददाता : जिले का सिपाहीपाड़ा, बांगालपाड़ा और खुदीपाड़ा ऐसे गांव हैं जहां अपनी बेटियों का ब्याह करने से अभिभावक घबराते हैं। यदि किसी भी सूरत से शादी हो भी गई तो उसे कन्या को वरपक्ष स्वीकार नहीं करते। इससे विवाहिता कन्या को सारी उम्र अपने मायके में ही गुजार देनी पड़ती है। सुनने में यह अविश्र्वनीय लगता है लेकिन है यह सोलहों आने सच। कई साल से नगर बेरुबाड़ी अंचल में शादी ब्याह पर जैसे अघोषित रोक लग गई हो। विवाह का हर प्रस्ताव खारिज हो जाता है। उक्त गांवों की करीब डेढ़ सौ कुंवारी युवतियां शादी का नाम सुनकर ही भयभीत हो जाती हैं। स्थानीय ग्रामीणों से बातचीत करने पर पता चला कि सीमा सुरक्षा बल की कड़ाई के चलते ही शादियां नहीं हो पाती हैं। आरोप है कि बीएसएफ के अत्याचार से यहां लोग अपनी कन्या का विवाह करने से घबराते हैं। इन ग्रामीणों का कहना है कि जब कोई कन्या पक्ष का व्यक्ति इन गांवों में शादी के प्रस्ताव लेकर पहुंचता है तो सीमा सुरक्षा बल वाले उन्हें उल्टी सीधी बात समझा कर गेट के बाहर ही भेज देते हैं। विदित हो कि भारत बांग्लादेश सीमा के जीरो प्वाइंट के भीतर ही ये गांव स्थित हैं जिसके चलते लोगों को इन गांवों तक पहुंचने के लिए गेट से होकर गुजरना पड़ता है। इन गेटों से जाने के लिए निर्धारित समय पर जाना होता है अन्यथा गेटें सुरक्षा कारणों से बंद हो जाती हैं। शादी के लिए पहुंचने वालों से बीएसएफ वाले सीमावर्ती गांव होने के चलते गहन पूछताछ करते हैं जिससे आजिज आकर ये लोग वापस लौट जाते हैं। आरोप है कि सीमा सुरक्षा बल के जवान पूछताछ के क्रम में कन्या पक्ष वालों को शादी के खिलाफ भड़काते हैं। स्थानीय स्वनिर्भर दल की सदस्य मांतिजनेस्सा ने कहा कि सीमा सुरक्षा बल जवानों के असहयोग के चलते यहां की युवतियों की शादी नहीं हो पा रही है। कहा जाता है कि भारत में क्या लड़कियों की कमी है कि बांग्लादेश में शादी कर रहे हो। सैयद रहमान और एनामुल नामक दो युवकों की शादी इसी तरह के व्यवहार के चलते टूट गई। अब्दुल कादिर ने बताया कि उसकी शादी तय हो गई थी। लेकिन जब वह शादी के लिए सीमावर्ती गांव गया तो उसे वहां काफी देर तक रोक कर रखा गया जिससे शादी का वक्त गुजर गया। बहु भात की रस्म के दौरान उसके यहां आने वाले कन्या पक्ष वालों को आने नहीं दिया गया। स्थानीय पंचायत सदस्य नतिबर रहमान ने माना कि इस बारे में कई बार सीमा सुरक्षा बल के उच्च अधिकारियों से शिकायत की गई लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। इन गांवों के निवासियों की इस व्यथा कथा पर स्थानीय ग्रामीण माजिर अली ने गीत भी लिखे हैं। इनका कहना है कि देश के आजाद होने के बावजूद हम आजाद नागरिक की तरह नहीं जी पा रहे हैं। इसी दुख भरी दास्तान को बयान करने के लिए उन्होंने गीत लिखे हैं। कविताओं की कुछ बानगी इस तरह से है : बाड़ के भीतर रहते हैं मजबूर, गहरी है हमारी तकलीफ, मेहमान व रिश्तेदार घर आएं तो साहब होते हैं मगरूर। जलपाईगुड़ी के सांसद महेंद्र कुमार राय ने कहा कि यह समस्या काफी पुरानी है। बीएसएफ को सीमा की निगरानी करने का काम है। लेकिन उसे शादी ब्याह में रूकावट नहीं डालनी चाहिए। यह तो सरासर अनुचित है। उन्होंने बताया कि सिपाहीपाड़ा, मुदीपाड़ा, अंडूपाड़ा, हिदूपाड़ा, खेखिरडांगा, बांगालपाड़ा के अलावा कुकुरजान, सुखानी और मेखलीगंज महकमा के सीमावर्ती इलाकों की एक ही समस्या है। यदि यहां के लोग उनके पास शिकायत लेकर आते हैं तो वे सीमा सुरक्षा बल के उच्च अधिकारियों से बात कर सकते हैं। सीमा सुरक्षा बल के अधिकारियों ने हालांकि आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है। इनका कहना है कि वे ग्रामीणों के शादी ब्याह के मामले में सहयोग करने के लिए हमेशा तैयार हैं। उधर, ग्रामीणों के अनुसार इलाके में 48 नंबर सीमा सुरक्षा बल की बटालियन तैनात होने वाली है। उम्मीद है कि नई बटालियन ग्रामीणों के दुख-दर्द को समझेगी। आने वाला दिन हमारे लिए नई सुबह लेकर आएगा।

बुधवार, मार्च 23, 2011

कौन पैदा करेगा इंसानियत की रूह में हरकत

संजय स्वदेश
आज भगत सिंह का बलिदान दिवस है। हर साल की तरह इस बार भी एकाद संगठन के प्रेस नोट से अखबार के किसी कोने में भगत सिंह के को श्रद्धांजलि की खबर दिख जाएगी। शहर में कही धूल खाती भगत सिंह की मूर्ति पर माल्यपर्ण होगा। कहीं संगोष्ठि होगी तो भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता बता कर उनसे प्रेरणा लेने की बात कही जाएगी। फिर सब कुछ पहले जैसे समान्य हो जाएगा और अगले वर्ष फिर बलिदास दिवस पर यही सिलसिला दोहराया जाएगा। भगत सिंह के विचारों से न किसी को लेना न देना। यदि लेना-देना होता तो आज युवा दिलों में भ्रष्टाचार के खिलाफ धधकने वाली ज्वाला केवल धधकती हुई घुटती नहीं। यह ज्वाला बाहर आती। सड़कों पर आती। सरकार की चूले हिला देती। फिर दिखती कोई मिश्र की तरह क्रांति। भ्रष्टाचारी सत्ता के गलियारे से भाग जाते। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है। युवाओं का मन किसी न किसी रूप में पूरी तरह से गतिरोध की स्थिति में जकड़ चुका है।
वह भगत सिंह को क्यों याद करें। उस क्या लेना-देना क्रांति से। आजाद भारत में क्रांति की बात करने वाले पागल करार दिये गये हैं। छोटे-मोटे अनेक उदहारण है। एक-दो उदाहरण को छोड़ दे तो अधिकर कहां खो गये, किसी को पता नहीं।
गुलाम भारत में भगत सिंह ने कहा था- जब गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंज में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरुरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रांति की स्पिरिट ताजा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो
शहीद भगत सिंह के नाम भर से केवल कुछ युवा मन ही रोमांचित होते हैं। करीब तीन साल पहले नागपुर में भगत सिंह के शहीद दिवस पर वहां के युवाओं से बातचीत कर स्टोरी की। केवल इतना ही पूछा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को जानते हो, ये कौन थे। अधिकर युवाओं के केवल इतना ही बनाया कि उन्होंने भगत सिंह का नाम सुना है। उनके बाकी साथियों के नाम पता नहीं था। वह भी भगत सिंह को शहीद के रूप में इस लिए जानते थे, क्योंकि उन्होंने भगत सिंह पर अधारित फिल्में देखी थी या उस पर चर्चा की थी।
देश के अन्य शहरों में भी यदि ऐसी स्टोरी करा ली जाए तो भी शत प्रतिशत यही जवाब मिलेंगे। लिहाजा सवाल है कि आजाद भारत में इंसानियत की रूह में हरकत पैदा करने की जहमत कौन उठाये। वह जमाना कुछ और था जो भगत सिंह जैसे ने देश के बारे में सोचा। आज भी हर कोई चाहता है कि समाज में एक और भगत सिंह आए। लेकिन वह पड़ोसी के कोख से पैदा हो। जिससे बलिदान वह दे और राज भोगे कोई और।
भगत सिंह ने अपने समय के लिए कहा था कि गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंजा में कसे हुए है। लेकिन आज गतिरोध की स्थितियां वैसी है। बस अंतर इतना भर है कि स्थितियों का रूप बदला हुआ है। मुर्दे इंसानों की भरमार आज भी है और क्रांतिकारी स्पिरिट की बात करने वाले हम जैसे पालग कहलाते हैं।

कौन पैदा करेगा इंसानियत की रूह में हरकत

संजय स्वदेश
आज भगत सिंह का बलिदान दिवस है। हर साल की तरह इस बार भी एकाद संगठन के प्रेस नोट से अखबार के किसी कोने में भगत सिंह के को श्रद्धांजलि की खबर दिख जाएगी। शहर में कही धूल खाती भगत सिंह की मूर्ति पर माल्यपर्ण होगा। कहीं संगोष्ठि होगी तो भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता बता कर उनसे प्रेरणा लेने की बात कही जाएगी। फिर सब कुछ पहले जैसे समान्य हो जाएगा और अगले वर्ष फिर बलिदास दिवस पर यही सिलसिला दोहराया जाएगा। भगत सिंह के विचारों से न किसी को लेना न देना। यदि लेना-देना होता तो आज युवा दिलों में भ्रष्टाचार के खिलाफ धधकने वाली ज्वाला केवल धधकती हुई घुटती नहीं। यह ज्वाला बाहर आती। सड़कों पर आती। सरकार की चूले हिला देती। फिर दिखती कोई मिश्र की तरह क्रांति। भ्रष्टाचारी सत्ता के गलियारे से भाग जाते। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है। युवाओं का मन किसी न किसी रूप में पूरी तरह से गतिरोध की स्थिति में जकड़ चुका है।
वह भगत सिंह को क्यों याद करें। उस क्या लेना-देना क्रांति से। आजाद भारत में क्रांति की बात करने वाले पागल करार दिये गये हैं। छोटे-मोटे अनेक उदहारण है। एक-दो उदाहरण को छोड़ दे तो अधिकर कहां खो गये, किसी को पता नहीं।
गुलाम भारत में भगत सिंह ने कहा था- जब गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंज में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरुरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रांति की स्पिरिट ताजा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो
शहीद भगत सिंह के नाम भर से केवल कुछ युवा मन ही रोमांचित होते हैं। करीब तीन साल पहले नागपुर में भगत सिंह के शहीद दिवस पर वहां के युवाओं से बातचीत कर स्टोरी की। केवल इतना ही पूछा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को जानते हो, ये कौन थे। अधिकर युवाओं के केवल इतना ही बनाया कि उन्होंने भगत सिंह का नाम सुना है। उनके बाकी साथियों के नाम पता नहीं था। वह भी भगत सिंह को शहीद के रूप में इस लिए जानते थे, क्योंकि उन्होंने भगत सिंह पर अधारित फिल्में देखी थी या उस पर चर्चा की थी।
देश के अन्य शहरों में भी यदि ऐसी स्टोरी करा ली जाए तो भी शत प्रतिशत यही जवाब मिलेंगे। लिहाजा सवाल है कि आजाद भारत में इंसानियत की रूह में हरकत पैदा करने की जहमत कौन उठाये। वह जमाना कुछ और था जो भगत सिंह जैसे ने देश के बारे में सोचा। आज भी हर कोई चाहता है कि समाज में एक और भगत सिंह आए। लेकिन वह पड़ोसी के कोख से पैदा हो। जिससे बलिदान वह दे और राज भोगे कोई और।
भगत सिंह ने अपने समय के लिए कहा था कि गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंजा में कसे हुए है। लेकिन आज गतिरोध की स्थितियां वैसी है। बस अंतर इतना भर है कि स्थितियों का रूप बदला हुआ है। मुर्दे इंसानों की भरमार आज भी है और क्रांतिकारी स्पिरिट की बात करने वाले हम जैसे पालग कहलाते हैं।

कौन पैदा करेगा इंसानियत की रूह में हरकत

संजय स्वदेश
आज भगत सिंह का बलिदान दिवस है। हर साल की तरह इस बार भी एकाद संगठन के प्रेस नोट से अखबार के किसी कोने में भगत सिंह के को श्रद्धांजलि की खबर दिख जाएगी। शहर में कही धूल खाती भगत सिंह की मूर्ति पर माल्यपर्ण होगा। कहीं संगोष्ठि होगी तो भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता बता कर उनसे प्रेरणा लेने की बात कही जाएगी। फिर सब कुछ पहले जैसे समान्य हो जाएगा और अगले वर्ष फिर बलिदास दिवस पर यही सिलसिला दोहराया जाएगा। भगत सिंह के विचारों से न किसी को लेना न देना। यदि लेना-देना होता तो आज युवा दिलों में भ्रष्टाचार के खिलाफ धधकने वाली ज्वाला केवल धधकती हुई घुटती नहीं। यह ज्वाला बाहर आती। सड़कों पर आती। सरकार की चूले हिला देती। फिर दिखती कोई मिश्र की तरह क्रांति। भ्रष्टाचारी सत्ता के गलियारे से भाग जाते। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है। युवाओं का मन किसी न किसी रूप में पूरी तरह से गतिरोध की स्थिति में जकड़ चुका है।
वह भगत सिंह को क्यों याद करें। उस क्या लेना-देना क्रांति से। आजाद भारत में क्रांति की बात करने वाले पागल करार दिये गये हैं। छोटे-मोटे अनेक उदहारण है। एक-दो उदाहरण को छोड़ दे तो अधिकर कहां खो गये, किसी को पता नहीं।
गुलाम भारत में भगत सिंह ने कहा था- जब गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंज में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरुरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रांति की स्पिरिट ताजा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो
शहीद भगत सिंह के नाम भर से केवल कुछ युवा मन ही रोमांचित होते हैं। करीब तीन साल पहले नागपुर में भगत सिंह के शहीद दिवस पर वहां के युवाओं से बातचीत कर स्टोरी की। केवल इतना ही पूछा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को जानते हो, ये कौन थे। अधिकर युवाओं के केवल इतना ही बनाया कि उन्होंने भगत सिंह का नाम सुना है। उनके बाकी साथियों के नाम पता नहीं था। वह भी भगत सिंह को शहीद के रूप में इस लिए जानते थे, क्योंकि उन्होंने भगत सिंह पर अधारित फिल्में देखी थी या उस पर चर्चा की थी।
देश के अन्य शहरों में भी यदि ऐसी स्टोरी करा ली जाए तो भी शत प्रतिशत यही जवाब मिलेंगे। लिहाजा सवाल है कि आजाद भारत में इंसानियत की रूह में हरकत पैदा करने की जहमत कौन उठाये। वह जमाना कुछ और था जो भगत सिंह जैसे ने देश के बारे में सोचा। आज भी हर कोई चाहता है कि समाज में एक और भगत सिंह आए। लेकिन वह पड़ोसी के कोख से पैदा हो। जिससे बलिदान वह दे और राज भोगे कोई और।
भगत सिंह ने अपने समय के लिए कहा था कि गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंजा में कसे हुए है। लेकिन आज गतिरोध की स्थितियां वैसी है। बस अंतर इतना भर है कि स्थितियों का रूप बदला हुआ है। मुर्दे इंसानों की भरमार आज भी है और क्रांतिकारी स्पिरिट की बात करने वाले हम जैसे पालग कहलाते हैं।

मंगलवार, मार्च 22, 2011

तोमरजी जैसा सच लिखने का कीड़ा दूसरों में भी कुलबुलाये

संजय स्वदेश
होली की शुभकामनाओं के लिए जैसे ही मोबाइल में उठाकर शुभकामनाओं का एसएमएस टाइप शुरू किया था, कि एक वह मनहूस एसएमएस आया। एसएमएस दिल्ली के मित्र सुभाषचंद जी का था। उसकी एमएमएस को पढ़ कर होली की सारी खुशियां उड़ गई। काफी देर तक सोचता रहा। आखिर ऐसा क्यों होता है। जो लोग साहस के साथ सच को जोरदार आवाज में उठाते हैं, उन्हें ईश्वर प्रेम क्यों नहीं करता है। दुराचारी, भ्रष्टÑों की आयु हमेशा लंबी रही है।
बिना जाने-पहचाने पहली बार तोमर जी के नाम पर एक मित्र से चर्चा तब हुई थी, जब सीनियर इंडिया में दानिश कार्टून को प्रकाशित मामले में तिहाड़ गए थे। तब सीनियर इंडिया में काम करने वाले मनोज कृष्णा से पूछा था कि आखिर यह सब हुआ कैसे? उन्होंने बताया कि सीनियर इंडिया का मालिक उनसे बार-बार सहसिक स्टोरी छापने के लिए कहता था जिससे सीनियर इंडिया सुर्खियों में आए। उन्होंने सच का छापा। मुसीबत आई। मालिक ने हाथ खड़े कर लिये। खैर मामला, चर्चा आई गई रह गई।
उसके बाद विभिन्न पोर्टलों पर एक के बाद महत्वपूर्ण मुद्दों पर साहसिक लेखन ने मुझे इनका फैन बना दिया था। नागपुर से प्रकाशित दैनिक 1857 में इनका नियमित कॉलम प्रतिदिन प्रकाशित होता था। जब भी पढ़ता। मन में में यह विचार जरुर आता था कि आखिर विविध मुद्दों की गहराई तक की बात इन्हें कैसे मालूम। कितना अध्ययन है। किताबी और दुनियादारी की। मन में यही ख्याल आता कि काश, मैं भी इसी तरह दमादार शैली में लिखू पाता। लेकिन अल्प अनुभव में ऐसा बेवाक लेखन कहां संभव है। लेकिन पढ़ कर लिखने की हिम्मत जरुर बढ़ती रही। इनकी बीमारी के समाचार सुन कर कई बार सोचा दिल्ली जाऊंगा तो जरुर मिलूंगा। ऐसे पत्रकार कहां, जो ठाठ से फीचर एजेंसी चलाए और बिना किसी दबाव में सच को साहस के साथ उठाये। दिल्ली दूर रही और दर्शन की आस अधूरी।
आज एक वेबसाइट पर दिल्ली में उनकी अंत्येष्ठी के दौरान उनके पिताजी का फोटो देख कर मन की व्यथा और बढ़ गई। एक पिता के लिए सबसे दु:खद इससे बड़ा और क्या हो सकता है कि वह अपने ही दुलारे लाल की अंतिम यात्रा में शामिल हो। हे, प्रभु, दबंग पत्रकार के पिता और उनके परिवार को सहनशक्ति दें। सच लिखने की जो कीड़ा तोमरजी में थी, वैसा ही कीड़ा अन्य पत्रकारों में भी कुलबुलाये। जिससे कि साहस के साथ सच को लिखने की परंपरा कायम रहे।

सीआई की करतूत : दहेज नहीं दिया तो पत्नी को घर से निकाला

जयपुर, 21 मार्च। शादी के करीब डेढ़ साल बाद पत्नी से मारपीट व दस लाख रुपए दहेज मांगने वाले सीआई के खिलाफ पीड़िता ने महिला थाना पूर्व में मामला दर्ज कराया है। आरोपी मामला दर्ज होने के बाद ही थाने से छुट्टी लेकर फरार हो गया।
पीड़िता अंजु मेहरा (30) बापूनगर की रहने वाली है। पीड़िता ने रिपोर्ट में बताया कि उसकी शादी तीन जुलाई सन् 2009 को अनिता कॉलोनी प्रतापनगर निवासी नरेश बंशीवाल के साथ हुई थी। आरोपी टोंक जिले के पीपलू थाने में सीआई के पद पर कार्यरत है। पीड़िता ने रिपोर्ट में बताया कि शादी के बाद से ही आरोपी पति, सास, ससुर, ननद व ननदोई उसको दहेज लाने के लिए परेशान व मारपीट करते हैं। आरोपियों ने कुछ दिन पहले पीड़िता को मारपीट कर घर से बाहर भी निकाल दिया। पीड़िता का आरोपी है कि वह दहेज में दस लाख रुपए मांगता है।
कई जगह छोड़ी सगाई
जांच अधिकारी थानेदार मुनिंदर ने बताया कि आरोपी ने कुछ दिन पहले चंडीगढ़ निवासी युवती से भी सगाई हुई थी। बाद में आरोपी ने शादी के तीन दिन पहले दहेज की अतिरिक्त मांग करते हुए शादी से इनकार कर दिया। इसकी रिपोर्ट पीड़िता ने चंडीगढ़ के सेक्टर 31 थाने में दो साल पूर्व सीआई के खिलाफ मामला दर्ज कराया था। उस मामले में दोनों के राजीनामा हो गया। पीड़िता ने पुलिस को बताया कि आरोपी सीआई ने कुछ दिन पहले रावतभाटा में भी एक युवती से सगाई की थी। शादी की तारीख तय हो जाने व कार्ड छपवाने के बाद आरोपी ने उसके साथ सगाई तोड़ दी।

शुक्रवार, मार्च 18, 2011

विकीलीस का दावे पर एक दुविधा

संजय स्वदेश
भारतीय मामले में विकीलीस एक के बाद एक दावे कर भारतीय राजनीति में सुनामी की लहर छोड़ रहा है। पर इस पत्राकरिय सुनामी से कुछ नष्ट नहीं होने वाला है। ताला खुलासे से मन में एक दुविधा है। विकीलीस की मिशन पत्रकारिता की चर्चा अरसे से हो रही है। पर सवाल यह है कि आखिर ऐसे खुलासों का पुख्ता आधार क्या है। विकीलीस की मिशन पत्रकारिता ऐसे सनसनीखेज राजनीतिक खुलासे अब क्यों कर रही है? 2008 के प्रकरण का खुलासा इन दिनों होने से इनकी मिशन पत्रकारिता पर से विश्वास डगमगाने लगा है।
यूं ना करे इनकार
ताजा खुलाशा है कि मनमोहन सिंह सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 22 जुलाई, 2008 को भारत-अमेरिका न्यूलियर डील पर संसद में विश्वासमत जीतने के लिए घूस दी। विश्वास मत प्रस्ताव के पांच दिन पहले कांग्रेस नेता सतीश शर्मा के सहयोगी नचिकेता कपूर ने एक अमेरिकी अधिकारी को रुपयों भरे दो बैग दिखाए और कहा- एटमी डील पर सांसदों का समर्थन हासिल करने के लिए 50-60 करोड़ रुपये जुटाए हैं। नचिकेता ने कहा कि अजीत सिंह की रालोद के चार सांसदों को 10- 10 करोड़ रु. दिए गए हैं। अमेरिकी दूतावास द्वारा 17 जुलाई, 08 को यह गुह्रश्वत संदेश अमेरिका भेजा गया। यह खबर एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित हुई। फिर संसद में मामला गूंजा। उसके बाद हिंदी अखबरों ने शोर शुरू किया है। दुविधा वाली बात यह है कि आखिर वर्ष 2008 में जुलाई माह की घटना का खुलासा अब क्यों हो रहा है। इस सवाल को केवल यह तर्क देकर नहीं इनकार किया जा सकता है कि जब जागा तब सवेरा।
विदेसी मीडिया को देशहीत से मतलब नहीं
भारतीय जनमानस में दूर की विदेसी मीडिया पर भारतीय मीडिया से कुछ ज्यादा ही भरोसा है। विदेशी मीडिया पर विश्वास का सबसे बड़ा उदाहरण बीबीसी हिंदी समाचार सेवा है। हमारे दूर के एक ग्रामीण रिश्तेदार ने बचपन में हमें बताया था कि बीबीसी ने सबसे पहले इंदिरा गांधी की मौत की खबर सुनाई थी। आॅल इंडिया रेड़ियों के पास यह खबर ही नहीं पहुंची। इसके अलावा अन्य कई ऐसी खबरे हैं जिसे स्पष्ट रूप से बीबीसी ने ही प्रसारित किया। देसी मीडिया पर वह खबर बाद में आई। मीडिया शिक्षण काल के दौरान यही सवाल प्राध्यापक से पूछा - इंदिरा गांधी की मौत की खबर सुनाने में आॅल इंडिया रेडियो क्यों पिछड़ गया? उन्होंने अच्छे से समझाया। संतुष्ट किया। उनका कहना था कि देसी मीडिया पर देशहीत की जिम्मेदारी है। उसकी सनसनी वाली खबरों से राष्टÑ पर आपत्ति आ सकती है। इसलिए इंदिरा गांधी की मौत की खबर में देरी हुई। इसके साथ ही उन्होंने दो-चार उदाहरण दिये। एक उदाहरण याद आ रहा है।
बीबीसी ने सुनाई पुरानी खबर
बीबीसी के पत्रकार असम के सुरुर इलाके में नहीं हैं। मुख्य शहरों में संवाददाता है। एक सपताह भर पुरानी स्थानीय घटना की खबर बीबीसी पर प्रसारित हुई। देश ने सुना और जाना कि सुरुर इलाके में क्या हो रहा है। जबकि वहीं खबर करीब सप्ताह भर पहले स्थानीय सप्ताहिक समाचार पत्र में प्रकाशित हो चुकी थी। बीबीसी के संवाददाता ने उस खबर को वहीं से उठाया था। दरअसल देश के कोने-कोने में अनेक सनसनीखेज घटनाएं होती है। राष्टÑीय मीडिया उठाये तो सनसनी, नहीं तो स्थानीय समाचार पत्र में ही उस खबर की मौत हो जाती है। एक और उदाहरण लें।
टाइम का हीरो भ्रष्ट निकला
अमेरिका के जिस टाइम पत्रिका ने बिहार के एक आईएएस अधिकारी को हिरो बनाया, बाद में वही सबसे बड़ा भ्रष्ट निकला। विदेशी मीडिया खासकर अमेरिकी मीडिया के संदर्भ इस उदहारण के बाद और किसी तरह के तर्क की जरुरत नहीं पड़ती है।
कहीं दाल में काला तो नहीं
सरकार बचाने के लिए संसद की खरीद फरोख्त को लेकर विकीलीस का दावे पर एक दुविधा क्यों न हो। यदि यही दावा वर्ष 2008 में ही आता तो विश्वास होता। लेकिन इतने दिन बाद इसका खुलासा ऐसा लता है कि जैसे दाल में काला नहीं बल्कि दाल ही काली है। इस विषय दिल्ली के अपने मित्र सुभाष चंद से पूछा कि विकीलीस के दावे पर क्या कहना है- उनका यह कहना था- हो सकता है कि इस मामले को लेकर कोई बड़ा डील हो रहा हो। मामला पटा नहीं, तो खुलासा हो गया हो। यदि मिशन पत्रकारिता की दृढ़ता होती तो खुलासा पहले ही होता। फिलहाल मुझे भी ऐसा ही लगता है।

बुधवार, मार्च 02, 2011

जनता से अपेक्षा

गोधरा कांड में सर्जा मुकरर्र हो चुकी। सजा से पहले और सजा के बाद देश के माहौल पर कोई फर्क नहीं पड़ा। क्या देश की जनता प्रबुद्ध हो चली है। क्या वह समझ चुकी है कि दंगे और फसाद का परिणाम केवल रक्तपात है। यदि समझ चुकी है तो फिर क्या जनता से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे दंगों पर राजनीति करने वालों को सबक सिखाएंगी।

सिनेमा में दलित

http://dastak-ekpehel.blogspot.com/2011/02/blog-post_27.html

भारतीय परिवेश के तमाम क्षेत्रों के समान ही सिनेमा के क्षेत्र में भी दलितों की स्थिति निरीह एवं लाचार हैं. भारतीय सिनेमा का नजरिया भी दलितों के प्रति कुछ खास भिन्न नहीं है. दलितों के प्रति करूणा दिखाकर भारतीय फिल्म निर्माता एवं निर्देशक अछूत कन्या, आदमी, अछूत, सुजाता, बूटपालिश, अंकुर,सदगति, वेलकम तो सज्जनपुर, पीपली लाइव, आक्रोश, भीम गर्जना, और राजनीति जैसी फिल्मों का निर्माण तो किया हैं और इनमे से कुछ फिल्मो में दलितों को केंद्र में और कुछ में सहयोगी भूमिका में दलित के चरित्र को दर्शाया भी गया हैं परन्तु जिस गंभीरता और शिद्दत से दलित जाति के प्रश्न को उठाए जाने की जरूरत है, उस तरह से इन फिल्मो ने उसको नहीं उठाया गया हैं.

हिन्दी सिनेमा के कुछ ठोस यथार्थ हैं- नौकर का नाम दीनु या रामू ही होगा, बहुत होगा तो उसके नाम के साथ काका भी जोड़ दिया जाएगा. बेशक दलित यथार्थ हिन्दी सिनेमा में पर्याप्त जगह प्राप्त नहीं कर पाया है. भारत में प्रतिरोध का सिनेमा अनुपस्थित है, फिल्मों में असली भारत कम ही दिखता है, फिल्मों में काम करने वालों में भारत की विविधता नहीं दिखती.फिल्मों में दलित हमेशा लाचार ही होता है, जबकि पिछले तीन-चार दशक भारत के दलितों के लिए प्रतिरोध के दशक रहे हैं. दलित लगान में कचरा क्यों होता है, दलित दिल्ली-6 की जमादारिन क्यों हैं, जिससे दुधमुंहे बच्चे कहते हैं कि तुम सबको बड़ा बनाती हो, हमें भी बड़ा बना दो. यह मजाक किसी पुजारिन के साथ भी तो किया जा सकता था, लेकिन नहीं, यह नहीं हो सकता. इसके साथ ही हम सुजाता फिल्म की अछूत-दलित कन्या सुजाता की दयनीय चित्रण को कैसे भूल सकते हैं.फिल्म में सुजाता नाम की दलित कन्या चुप रहनेवाली, गुनी, सुशील और त्यागी ‘मैरिज-मैरिटल’ यानी सेविका बनी है जबकि उसी परिवार-परिवेश की असली बेटी एक प्रतिभावान मंचीय नर्तकी, आधुनिका, वाचाल और अपनी मर्जी की इज्जत करनेवाली शख्सियत बनती है. हमारी फिल्मे दलितों को सबल दिखाने में हमेशा ही परहेज करती आई हैं और उसका एक सशक्त उदाहरण प्रकाश झा की नयी फिल्म राजनीति में देखा जा सकता हैं. दलितों का नेता ‘सूरज’ (अजय देवगन), जो भरी सभा में सवर्णों और ऊंचे लोगों से लोहा लेता दिखाई देता है, आखिर वह भी उसी सवर्ण परिवार में जन्मा हुआ साबित होता है. अंततः फिल्म इसी परिपाटी पर लौट आती है कि दलितों का वह मसीहा इसी कारण से इतनी घाघ राजनीति कर सका क्यूंकि उसके अन्दर उसी राजनीतिक खानदान का खून था. फिल्म की कहानी का आधार कुछ भी रहा हो, लेकिन यह सत्य है कि फिल्म समाज की दलितों के प्रति इसी तस्वीर को पुष्ट करती है किसी दलित में स्वाभाविक रूप से वर्चस्ववादी लोगों का सामना करने का साहस ही नहीं है. हमारी फिल्मो में दलितों को सबल दिखाने से परहेज क्यों किया जाता हैं? भारतीय सवर्ण दलितों से जितनी नफरत करते हैं, उतनी नफरत अमेरिका में अश्वेतों से भी नहीं की जाती.

सवाल दलितों पर फ़िल्में बनाने का नहीं है, सवाल ये है की वे जब परदे पर उतारे जाते हैं तो किस तरह का चरित्र उनमें उभारा जाता है. ज़रा सोचिये कि आत्म-बोध, आत्म-सम्मान, मनुष्यगत-अस्मिता, स्वाभिमान जैसे गुण उसमें क्यूँ नहीं होते? वह अपने तिरस्कार पर ख़ुद क्यों चीत्कार करता नहीं दिखता? वह अपने प्रति हर ज़्यादती-अत्याचार को आत्मसात करनेवाला ही क्यों है? उसकी ये छवि उसके असल जीवन में अत्याचारों के विरुद्ध उठाए प्रतिकारों-चीत्कारों को ख़ारिज करती है. उसके आत्म-सम्मान के संघर्ष को नकारती है.

जातिगत दृष्टिकोण और अन्याय का प्रतिकार करने वाली अभी तक की सबसे सशक्त फिल्म बेंडिट क्वीन ही दिखाई देती हैं जो साधारण दलित स्त्री से दस्यु सुंदरी और फिर फिर सांसद बनी फूलन देवी पर आधारित थी. इसके अलावा शायद ही कोई ऐसी फिल्म हैं जिसने दलित प्रश्न को ठीक ढंग से छुआ तक हो.

खैर..सिनेमा में दलित की स्थिति का वर्णन करने के बाद बस इतना ही कहना चाहूंगी की सिनेमा में दलित बहस का मुद्दा ना होकर सामाजिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग हैं और इसके लिए किसी बहस की ज़रुरत नहीं बल्कि सही मायनों में इसके उत्थान, विकास और सशक्तिकरण के लिए कुछ करने की ज़रुरत हैं. वैश्वीकरण और आधुनिकता की इस बयार में हम सबको यही कोशिश करनी चाहिए की समाज में दलित समुदाय की पहचान की नयी चेतना जागृत कर सके और इनको हर क्षेत्र में सशक्त पहचान दिलाई जा सके.

( विभिन्न वेबसाइट्स पर मिली जानकारी से ये पोस्ट संभव हो पायी हैं.)

गुरुवार, फ़रवरी 24, 2011

लोगों में भ्रम का भय

ऐसा कई बार होता है, जब सड़क पर कोई दुर्घटना ho जाती है। घायल अचेत या कराहता रहता है। लोगों की भीड़ जमा हो जाती है। लेकिन कोई जल्दी उसे अस्पताल पहुंचाने की जहमत नहीं उठाता है। लोगों में इस भ्रम का भय है कि यदि उन्होंने घायल को अस्पताल पहुंचाया तो पुलिस कारवाई में उन्हें भी घसीटेगी। पुलिस कार्रवाई का इतना डर कि सामने में तपड़ते हुये व्यक्ति के प्राण पखेरू उड़ जाते हैं।
bhaskar ki khabar hain ki चंडीगढ इंडस्ट्रियल एरिया फेज-1 में बुधवार दोपहर हादसे के बाद चौथी क्लास का मुन्ना सड़क पर तड़पता रहा। भीड़ इकट्ठा हुई, लेकिन उसे अस्पताल पहुंचाने के बजाय हंगामा करती रही। भीड़ नाराज थी कि वक्त पर पीसीआर नहीं पहुंची, लेकिन भीड़ में से किसी ने भी मुन्ना को अस्पताल पुहंचाने की जहमत नहीं उठाई। 3 मिनट में स्पॉट पर पहुंचने का दावा करने वाली पीसीआर जिप्सी 30 मिनट बाद पहुंची और मुन्ना को अस्पताल पहुंचाया, लेकिन तब तक उसकी मौत हो चुकी थी।

सोमवार, फ़रवरी 21, 2011

बाहर से लड़ाई लड़े बिहार के ईमानदार पत्रकार

संजय स्वदेश
जीमेल पर चैट के दौरान पटना के एक विद्यार्थी अभिषेक आनंद से कहा - बिहार के मीडिया के बारे में बतायें।
अभिषेक का जवाब था।
क्या बताऊँ..पेपर पढ़ना छोड़ दिया कुछ दिनों से आॅनलाइन अखबार पढता हूँ नितीश जी भगवान हो गए हैं.. हर सुबह बड़ी बड़ी तस्वीरों से दर्शन होता हैं..
.... और अंदर कहीं भी किसी भी पेज पर अगर कहू कि सरकार के खिलाफ कोई आलोचना नहीं होती, तो आश्चर्य नहीं..
लालू कहां गए पता नहीं। कोई नया विपक्ष कब आएगा पता नहीं बिना विपक्ष के लोकतंत्र कि कल्पना आप कीजिये... मीडिया और सत्ता, खास कर बिहार में खेल जारी हैं.. ऐसा बाहर के लोग ही नहीं, कई बिहारी भी ऐसा ही मानते हैं..।
इधर फेसबुकर पर पत्रकार साथी पुष्पकर ने अपने वॉल पर लिखा : - बिहार में सबकुछ ठीक नहीं है .। बिहार की पत्रकारिता को नया रोग लग गया है। खबरें सिरे से गायब हो रही है। कुछ खबरों को लेकर एकदम खामोशी। पिछले कुछ समय की खबरों पर नजÞर डालिए, कई ऐसे उदहारण मिल जायेंगे। ऐसा तो लालू राज में भी नहीं हुआ था। लालू के दवाब के बावजूद बिहार की पत्रकारिता को जंक नहीं लगा था। माना नितीश राज में बिहार में बहुत सुधार हुए हैं लेकिन खबरों का यूँ लापता हो जाना।
इसके साथ ही दिल्ली के एक पत्रकार मित्र रितेश जी बेतियां गये। फोन पर बात हुई। नितिश राज में बिहार कैसा लग रहा है। उन्होंने जो कुछ बताया दिल पसीज उठा। उन्होंने बताया कि उन्हें पिता जी से जुड़ी कुछ प्रशासनिक कार्य के लिए तहसील के चक्कर लगाये पड़े तो उन्हें अहसास हुआ कि बिहार की प्रशासनिक व्यवस्था पर अफसरशाही और टालमटोल कितना हावी है। रितेश जी ने बताया कि वे अपने कार्य के सिलसिलम में उपमुखमंत्री सुशील कुमार मोदी से भी मिले, लेकिन काम नहीं बना। रिश्वत के बिना कोई काम नहीं हो सकता है। उन्होंने बताया कि दिल्ली या दूसरे प्रांतों में बैठ कर जो हम बिहार की हकीकत जान रहे हैं, दरअसल वह हकीकत नहीं है। हकीकत देखना है तो बिहार आकर देख लें। इन सबके अलावा पिछले दिनों अन्य ऐसी कई खबरे आई, जिससे यह साबित हुआ कि सुशासन बाबु के राज में मीडिया पत्रकारिता नहीं कर रही है, बल्कि चारे के लिए मेमने की तरह मिमिया रही है।
किसी जमाने में बिहार में खाटी पत्रकारिता का दौर रहा। मीडिया ने कई मामलों उजागर किये। पत्रकार की रिपोर्ट पर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक भी गई। पर आज पूरा का पूरा माहौल बदला हुआ है। जैसे लालू-राबड़ी राज में बिहार की हकीकत निकल कर राष्टÑीय समाचार पत्रों तक पहुंचती थी, कई मायनों में वैसे हालात आज भी है, लेकिन अब खबरे नहीं आती है। लालू यादव मीडियाकर्मियों से दुर्वयवहार जरुर करते थे। लेकिन मीडिया की आवाज को नीतीश की शासन की तरह नहीं दबाया गया।
लोकतंत्र में जब मजबूत विपक्ष न हो तो यह भूमिका स्वत: मीडिया की बन जाती है। लेकिन खबरें कह रही है कि कमजोर विपक्ष के साथ ही बिहार की मीडिया भी पूरी तरह से कमजोर हो चली है। यदि ऐसा नहीं होता तो 10 फरवरी को पत्रकार/संपादकों के खिलाफ नागरिक सड़कों पर नहीं उतरते। आश्चर्य की बात है कि नागरिकों के इस जनआंदोलनों की खबर को बिहार की मीडिया में स्थान नहीं मिला। हिंदू ने इस आंदोलन एक फोटो प्रकाशित किया। फोटो बिहार की मीडिया की सारी हकीकत बताती है। ... http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-newdelhi/article1329542.ece?sms_ss=facebook&at_xt=4d558bdc4cce7081%2C0 ...

बिहार के पत्रकार मित्र कहते हैं कि कुछ खिलाफ प्रकाशित करने पर धमकी मिलती है। समाचारपत्र का विज्ञापन बंद हो जाता है। मुख्यमंत्री संपादक को हटवा देते हैं। विज्ञापन के दम पर नीतीश सरकार ने विज्ञापन के दम पर मीडिया को पूरी तरह से अपने गिरफ्त में ले लिया है। मीडिया प्रबंधक का लक्ष्य पूरा हो रहा है, तो फिर भला, उनकी नौकरी करने वाले पत्रकार क्या करे। पत्रकार मित्रों की मजबूरी समझ में आती है। लेकिन चुपचाप चैन से बैठना समस्या का समाधान नहीं। बिहार के पत्रकार बिहार की मीडिया में सरकार की खिलाफत नहीं कर सकते है, तो कम से कम राज्य के पेशे के प्रति ईमानदार पत्रकार बाहर की मीडिया के लिए स्वतंत्र लेखन करें। भले ही बिहार की मीडिया नीतीश का नियंत्रण है। इसका मतलब यह नहीं कि देश की मीडिया भी नीतीश के पक्ष में कुछ नहीं बोले, लिखे। बाहर से लड़ाई भी धीरे-धीरे रंग जरूर लाएगी।
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संजय स्वदेश
बिहार के गोपालगंज के मूल निवासी संजय स्वदेश दिल्ली, नागपुर में पत्रकारिता के बाद इन दिनों दैनिक नवज्योति के कोटा संस्करण से जुड़े हैं। इनका मनना है कि पत्रकारिता के लिए चाहे माहौल कैसा भी हो, आज भी मिशन की पत्रकारिता संभव है। देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व पोटर्ल से लिए स्वतंत्र लेखन के साथ जन सरोकारों से भी जुड़े हैं। संपर्क : sanjayinmedia@rediffmail.com

शनिवार, फ़रवरी 19, 2011

त्वरित न्याय की संदेहीत प्रतिबद्धता

न्याय के लिए कितना बजट

संजय स्वदेश

केंद्रीय बजट आने वाला है। मीडिया अपेक्षित बजट पर चर्चा करा रही है। पर इन चर्चाओं में अन्य कई मुद्दों की तरह न्यायापालिका पर खर्च की जाने वाली राशि पर कोई हो-हल्ला नहीं है। एक अकेले न्यायापालिका ही है जिसने कई मौके पर सरकार की जन अनदेखी कदम पर अंकुश लगाने की दिशा में पहल की। न्यायपालिका के दामन पर कई बार भ्रष्टाचार के दाग लगे। इसके बाद भी आम आदमी उच्च और उच्चतम न्यायालय के प्रति विश्वसनीयता बनी हुई है। पर किसी सरकार ने न्यायपालिका को मजबूत करने के लिए कभी अच्छी खासी बजट की व्यवस्था नहीं की। इसका दर्द भी पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय के एक खंडपीठ के बयान में उभरा। खंडपीढ़ ने साफ कहा कि कोई भी सरकार नहीं चाहती कि न्यायपालिका मजबूत हो। यह सही है। देश महंगाई और भ्रष्टाचार की आग में जल रहा है। भ्रष्टारियों के मामले में अदालत में लंबित पड़ रहे हैं। हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा माइली ने भी बयान दिया था कि केंद्र ने न्यायिक सुधार की दिशा में पहल कर दिया है, जिससे मामलों का जल्द निपटारा होगा। कोई भी केस कोर्ट में तीन साल से ज्यादा नहीं चलेगा। भ्रष्टाचार के मामले में एक साल के अंदर न्याय मिलेगा। यदि ऐसा हो जाए तो तो निश्चय ही भ्रष्टाचारियों में खौफ बढ़ेगा। वर्तमान कानून में भ्रष्टाचारियों को कठोर सजा का प्रावधान नहीं है। त्वरित न्याय की दिशा में फास्ट ट्रैक्क अदालतों के गठन हुए थे। इन पर भी धीरे-धीरे मामलों का बोझ बढ़ता गया। न्याय में देरी की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। मामलों के लंबे खिंचने से उनके हौसले बुलंद है। सरकार बार-बार देश में न्यायायिक सुधार को लेकर अपनी प्रतिबद्धता की बात दोहरा चुकी है। लेकिन सारा का सारा मामला बजट में आकर अटक जाता है। जिसको लेकर कभी देश में गंभीर बहस नहीं हुई। स्वतंत्र कृषि बजट, दलित बजट आदि की तो खूब मांग उठती है, पर अदालत की मजबूती के लिए गंभीर चर्चा नहीं होती है। इस ओर ध्यान उच्चतम न्यायालय के खंडपीठ के दर्द भरे बयान के बाद ही गया।
भारी भरकम बजट देकर यदि सरकार न्यायपालिका को मजबूत कर दे तो देश में कई समस्याओं का समाधान सहज ही हो जाएगा। देशभर के अदालतों के लाखों मामलों में तारिख पर तारिक मिलती जाती है। जनसंख्या और मामलों के अनुपात में देश में अदालतों की संख्या ऊंट के मुंह में जीरा साबित होती रही है। दरअसल मामलों की बढ़ती संख्या और सरकार की उदासिनता के कारण ही न्यायपालिका का आधारभूत ढांचा ही चरमराने लगा है। रिक्त पद व अदालतों की कम संख्या न्यायापालिका की वर्तमान व्यवस्था में निर्धारित अविध में सरकार त्वरित न्याय की गारंटी नहीं दे सकती है। जिन प्रकरणों से मीडिया ने जोरशोर से उठाया वे भी वर्षों तक सुनवाई में झूलती रही है। दूर-दराज में होने वाले अनेक सनसनीखेज प्रकरणों में पीड़ित दशकों से न्याय की आशा लगाये हैं। प्रकरणों के लंबित होने से तो लोगों के जेहन से यह बात ही निकल जाती है कि कभी कोई वैसा प्रकरण भी हुआ था। अनेक लोग तो न्याय की आश लगाये दुनिया से चल बसे। मामला बंद हो गया। कई लोगों को जवानी में लगाई गई गुहार का न्याय बुढ़ापे तक नहीं मिला। लिहाजा, त्वरित न्याय की मांग हमेशा होती रही है।
पिछले दिनों सरकार ने भी त्वरित न्याय आश्वासन तब दिया जब जब देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन की सुगबुगाहट हुई। प्रमुख शहरों में भ्रष्टाचार के खिलाफ रैली निकली, सीबीसी थॉमस को लेकर सरकार कटघरे में आई। आदर्श सोसायटी घोटाले को लेकर हो हल्ला हुआ। काले धन को स्वदेश वापसी को लेकर सरकार की फजीहत हुई। फिलहाल देश की नजरे वर्ल्ड कप क्रिकेट और आने वाले बजट पर टिकी है। बहुत कम लोगों के जेहन में बजट में न्यायपालिका उपेक्षा को लेकर टिस उभर रही होगी। यदि सरकार ने बजट में न्यायपालिका के लिए खजाना खोला तो निश्चय ही न्यायपालिका को मजबूती मिलेगी। लेकिन पिछली सरकार की परंपरा को देखते हुए ऐसा लगता नहीं कि सरकार न्यायापालिका पर मेहरबान होगी। क्योंकि उसे पता है न्यायपालिका की मजबूती सरकार की मनमानी का अंकुश साबित होगा।
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खैराबादी की याद में सिक्का जारी करे सरकार : मिस्बाही

अल्लामा फÞज़ले हक खैराबादी देश के पहले ऐसे मुस्लिम धर्मगुरु थे, जिन्होंने पहली बार देश में अंग्रेजों के खिलाफा फतवा जारी किया था। इनकी याद में सरकार से सिक्का जारी करने की मांग आजमगढ़ के अलजैयातुल अशर्फिया के अल्लामा मुबारक हुसैन मिस्बाही ने की है। वे शुक्रवार को विज्ञान नगर स्थित जमा मस्जिद में बारावफात के मौके पर पत्रकारों से बातचीत कर रहे थे।
उन्होंने बताया कि करीब 150 साल पहले जन्मे फÞज़ले हक खैराबादी ने उस समय अंग्रेजी हुकूमत की दमनकारी नीतियों से देश की रक्षा करने के लिए सभी मुसलमानों को फिरंगी हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने के आह्वान के साथ ही अंग्रेजों के खिलाफ फतवा जारी किया था। वतनपरस्ती की भावना फÞज़ले हक खैराबादी में कूट-कूट कर भरी हुई थी। वतन के प्रति प्यार का ये आलम था कि खुद खैराबादी का जीवन भी अंग्रेजों से संघर्ष करने बीत गया। अपनी जिंदगी के आखरी पलों को कालापानी की सजा में काटते हुए भी देशप्रेम की भावना को जिन्दा रखा। जीवन भर उन्होंने लोगों में देश प्रेम के जज्Þबा फूंका मगर आज देश के आज्Þााद होने के बाद ऐसे देशभक्तों को कोई नामोंनिशान बाकी नहीं है। सरकार भी ऐसे विभू्तियों के सम्मान में कुछ नहीं कर रही है। मिस्बाही ने अल्लामा फÞज़ले हक खैराबादी के जीवन और जीवन दर्शन के बारे में चर्चा करतेर हुए कहा कि वे एक सच्चे मुजाहिद थे।

गुरुवार, फ़रवरी 17, 2011

मीडिया में हल्की गरीब की मौत

संजय स्वदेश

शिक्षण नगरी से प्रसिद्ध राजस्थान के कोटा में के आर.के.पुरम क्षेत्र में 15 फरवरी को एक निमार्णाधिन स्कूल में कार्यरत मजदूर की दो साल की बिटिया पर जेसीबी का पहिया चढ़ गया। काम करते वक्त मजदूर ने मासूम को एक किनारे पर सुलाया हुआ था। उस पर शॉल ओढ़ाया हुआ था। जेसीबी पीछे हो रही थी। ड्राइवर ने समझा यू ही शॉल रखा होगा। अनदेखी की। पहिया मासूम के ऊपर चढ़ा। एक करुण चिख निकली। बिटिया सदा के लिए मौत के आगोश में समा गई। इस दर्दनान खबर को सुनकर मन विचलित हो उठा।
अगले दिन इस समाचार को लेकर समाचार पत्रों का विश्लेषण किया। दो प्रमुख हिंदी दैनिक राजस्थान पत्रिका और दैनिक भास्कर में यह समाचार प्रकाशित हुई। लेकिन इन खबरों के प्लेसमेंट पर दूसरी खबरे भारी थी। अजीब ट्रेजड़ी है। हालात की तरह मजदूरों की मौत भी मीडिया के लिए हल्की हो चली है। जबकि ये दोनों समाचारपत्र सप्ताह भर से रात में खुले में खड़ी कार के कांच फोड़ने वाले किसी कत्थित सिरफिरों की खबर बढ़ा-चढ़ा कर प्रकाशित कर रहे थे। जिस दिन यह समाचार प्रकाशित हुई, उस दिन भी कार की कांच फोड़ने की खबर मजदूर की बेटी की दर्दनाक मौत की खबर पर भारी थी।
इस पर एक मित्र से चर्चा की। उन्होंने बड़े ही बेवाकी से कहा कि यदि इस खबर को अखबार में अच्छे से जगह मिल जाती तो क्या होता मजदूर की बिटिया वापस तो नहीं आती। सही है। पर इस इस बहाने से मजदूरों के हित में एक शानदार मुद्दा को ठाया जा सकता था। आपकों याद हो तो बता दे कि समय-समय पर ऐसी खबरे आती है कि सरकार से कहा जाता है कि विदेशों की तरह अपने देश की सरकार भी उन जगहों पर के्रच या पालना घर की व्यवस्था करें, जहां कामकाजी महिलाएं नौकरी करती हैं। पर इस मांग मे कामकाजी महिलाओं के दायरे में मजदूर महिलाएं नहीं आती है। आए दिन इस पर फीचर आलेख आत हैं। पर भी मजदूर महिलाओं के कार्यस्थल पर इस तरह की अल्पकालीन सुरक्षित व्यवस्था चर्चा तक नहीं होती है।
मीडिया में मौत से जुड़ी खबरों को सनसनी बनाकर परोसना नई बात नहीं। किसी अपराधी की हत्या हो या मौत में अवैध यौन संबंध के ट्विीस्ट हो तो फिर क्या कहने। खबरों के खूब फालोअप आते हैं। पर एक बात यह है कि ऐसी खबरों में दोषियों को दंड देने तक ही फालोआप समाचार आते हैं। लेकिन मीडिया की ओर से ऐसे मामलों के तह में जाकर समस्या के स्थायी समाधान के लिए प्रशासन को निंद से जगाने के प्रयास बहुत ही कम दिखते हैं।
कार्यस्थल पर गरीब मजदूर की बिटिया की दर्दनाक मौत केवल राजस्थान के कोटा में नहीं होती है। जहां मजदूर महिलाएं काम करती हैं और उनके मासूम लाड़ले या लाड़ली वहीं खेलते हैं। जहां उन पर जान का खतरा हमेशा मंडराता रहता है। यदा कदा कभी घटनाएं भी होती है तो प्रशासनिक महकमा छोटी-मोटी कार्रवाईयों की खानापूर्ति कर अपनी जिम्मेदारियों का बोझ हल्का कर लेता है। आम दिनों में मीडिया में मजदूरों के महकमें को लेकर कभी संवेदनशीलता दिखती ही नहीं है। अंतरराष्टÑीय महिला दिवस के मौके पर महिला सशक्तिकरण के नाम पर खूब पेज भरे जाते हैं। ऐसे मौके पर ही मिशन पत्रकारिता के नाम पर महिला मजदूरों के चित्र और उनसे बातचीत पर आधारित कोई खबर प्रकाशित होती है। फिर साल भर के लिए मीडिया इन मजदूर महिलाओं से मुंह मोड़ लेती है।
एक प्रिंस बोरवेल में गिरा, मीडिया ने हल्ला किया। युद्ध स्तर पर बचाव कार्य हुये। प्रिंस सैभाग्यशाली था। मीडिया ने उसकी जान बचा ली। उसके बाद भी कई प्रिंस गड्ढÞे में गिरे। पर पहले प्रिंस के समय की तरह मीडिया शोर नहीं मचाता। विशेष मौके पर प्रिंस की घटना में मीडिया की भूमिका की चर्चा कर वाहवाही ले ली जाती है। लेकिन मजदूरों के बच्चों को कार्यस्थल पर सुरक्षित वतावरण पहुंचाने को लेकर महिला हमेशा शांत ही रहा।
सवाल है कि कोई प्रिंस ऐसे गड्डे में फिर न गिरे, किसी मासूम पर जेसीबी चढ़ कर उसे दर्दनाक मौत के आगोश में न भेजे, इसकों लेकर स्थायी समाधान के लिए सरकार को जगाने की जिम्मेदारी किसकी है? मीडिया यह कह कर अपनी जिम्मेदारियों का पल्ला नहीं झाड़ सकती कि है कि उस पर बजार का दवाब है। यह सही है कि बाजार के दवाब में खबरो का चयन आज की मीडिया की मजबूरी हो गई है। लेकिन बाजार के भूखी खबरों के अलावा भी प्रर्याप्त जगह और समय है, जिसमें लाखों के हित की बात बेवाबी से उठाई जा सके। मजदूरों के हीत की बात करने न किसी मीडिया हाऊस के विज्ञापन बंद होंगे और न ही किसी का दामन दागदार होगा। मजदूरों के हीत के मुद्दे उलूल-जूलूल की खबरों से निश्चय ही गंभीर होंगे। बस इनके मुद्दों को गंभीरता से देखने-समझने की जरुरत भर है।

गुरुवार, फ़रवरी 10, 2011

तो थोड़ा सुकून मिलेगा

खबर है कि मोबाइल पर बात करना महंगा हो सकता है....
जब से मोबाइल पर बातचीत की दर सस्ती हुई है। जिंदगी तेज हो गई है। लोगों को सुकून छिन गया है। अचानक मोबाइल की घंटी दो पल के सुकून में खलल डाल देती है। जब कॉल महत्वपूर्ण और अनावश्यक या सामान्य होता है, तो झुंझलाहट होती है।
क्या यह संभव है कि कॉल दर महंगा होने से आनावश्यक कॉल में कमी आएगी और लोगों को थोड़ा सुकून मिलेगा।

मंगलवार, फ़रवरी 08, 2011

अन्नदाता का ादाता अर्थशास्त्र

अन्नदाता का ादाता अर्थशास्त्र

खेती-किसानी की दुर्दशा ने छोटे किसानों तक को खेती का अर्थशास्त्र समङाा दिया है। आ वह जमाना नहीं रहा, जा किसानों के दरवाजे पर ौाो की जोड़ी जुगााी करती नजर आती थी। ौा की जोड़ी रखना मताा कुछ महीने के काम के एवज में साा भर उन्हें भरपूर भोजन देना। जुताई का यह सौदा किसानों के ािए भारी पड़ चुका है। ौाजोड़ी साा में सिर्फ ६० दिन भी जुताई के काम में नहीं आ रहे हैं। जाकि उसके भरण-पोषण पर साा भर में हजारों रुपए खर्च हो जाता है। पहो ौागाड़ी का उपयोग ज्यादा था, तो यातायात के साधन या वस्तुओं को ढोने का उपयोग करने में होने वााी आमदनी से ौाों के खिााने का खर्च निकाा आता था। किसानों को भी कुछ रुपये ाच जाते थे। ोकिन आ ौागाड़ी का उपयोग कही-कहीं ही नजर आता है। ािहाजा, अधिकर किसानों ने ौाों से मुंह मोड़ ािया। उन्होंने ौा की जगह गाय, भैंस पााना शुरू कर दिया है। गाय, भैंस किसान को साा में करीा ३०० दिन दूध देती है। इसके ााान-पाान पर होने वाा इसके दूध से पूरा होने के ााद किसानों को कुछ ाचत भी हो जाती है। होशियार छोटे किसानों खेतों में जुताई के समय दो-तीन दिन के ािए ट्रैक्टर किराये से ोते हैं। सााभर ौाजोड़ी को पााने की ाजाय यह दो दिन का ट्रैक्टर किराये पर ोना फायदेमंद सााित हुआ है। इसका एक ााभ यह भी देखने को मिाा है कि कई छोटे किसान तो ऐसे हैं, जो खुद खेती नहीं करते हैं, खेती को किराये (ाीज) पर छोड़ देते हैं और खुद नरेगा में मजदूरी करते हैं। इसके साथ ही जिन किसानों के पास ट्रैक्टर है, वे खुद के खेतों में जुताई करते ही हैं और दूसरों की खेती का भी ऑर्डर ोते हैं। ऐसे किसानों का अर्थशास्त्र ादाने ागा है। फिाहाा किसानों का यह अर्थशास्त्र उत्तर भारत में ज्यादा देखने का मिा सकता है। अनेक संगठन और कार्यकर्ता खेतों में ौाों के उपयोग नहीं करने का विरोध कर रहे हैं। ोकिन किसानों ने ट्रैक्टर और ौाों के उपयोग के ााभ-हानि को समङा ािया है। इस अर्थशास्त्र को देशभर के किसानों को भी समङााने की जरुरत है। महाराष्ट्र में विदर्भ किसान आत्महत्या को ोकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहा है। ोकिन अभी भी यहां किसानों का ौाों के प्रति मोह नहीं छूटा है। यहीं कारण है कि जा गर्मी के दिनोंं में विदर्भ में सूखा पड़ता है तो चारे का संकट गंभीर हो जाता है। हजारों ौाों को कसाई सस्ते में खरीद ोते हैं। खेती में उपयोग होने वाो ौंा ाूचड़खाने में चो जाते हैं। हााांकि विदर्भ में भी धीरे-धीरे किसान गाय और भैंसों का ााभ समङाने ागे हैं। ोकिन अभी भी ाड़े पैमाने पर गाय का पाान नहीं हो पा रहा है।
महंगाई में ौाों का महत्व
किसानों को तकनीक अधारित खेती कराई जाए। वे ट्रैक्टर का उपयोग करे, ोकिन इसका मताा यह नहीं ौाों उपेक्षा की जाए। गुजरे ज्+ामाने में जा ट्रैक्टर नहीं थे, तो ौाों ने ही अपने खेती का भारी ाोङा उठाने में किसानों का कदम से कदम मिााकर साथ दिया है। भो ही आज यातायात के नये और तेज साधन विकसित हो चुके हों, ोकिन पेट्रोाियम पदार्थों में ागी महंगाई की आग में छोटी दूरी के यातायात में ौागाड़ी के उपयोग को फिर से सुगम किया जा सकता है। इससे न केवा ौा ाूचड़खाने जाने से ाचेंगे, ाकि ोकार हो रहे किसानों की ौा जोड़ी कमाई में ाग जाएगा। वे किसानों को आमदनी कराने के आर्थिक रूप से संाा का कार्य कर सकते हैं। हााांकि उत्तर भारत में किसानों ने ाड़ी तेजी से ट्रैक्टर का उपयोग अपनाया है। ोकिन पेट्रोाियम पदार्थों की ाढ़ी हुई किमतों के कारण आ छोटे किसानों के ािए टै्रक्टर किराये से ोना महंगा पडऩे ागा है। महंगाई की इस मार को देखते हुए आ यह जरूरी हो गया है कि किसान खेती की अर्थशास्त्र में आ गाय-भैंसों के साथ ौाों को फिर से शामिा करें। ोकिन इसके ािए उन ाोगों का सहयोग अपेक्षित है जो छोटी दूरी की समान ढुााई में वाहनों का प्रयोग करते हैं। वे तेज गति की ााचा छोड़ यदि ौागाड़ी को ही तरहजीह देने ागे तो इससे न केवा किसानों के दिन फिरेंगे, ाकि ौा भी ाूचड़खाने में जोन से ाचेंगे।
हर राज्य में स्वतंत्र कृषि अभियांत्रिकी विभाग जरूरी
वर्षों से चाी आ रही है राज्य और केंद्र सरकार की कृषि ईकाइ किसानों को ाहुत ज्यादा भाा नहीं कर पाई। इसािए हर राज्य में आधुनिक और हानि रहीत खेती को प्रोत्सहन के ािए हर राज्य में स्वतंत्र कृषि अभियांत्रिकी विभाग का गठन जरूर हो गया है। जो समय-समय किसानों को खेती से संांधित जानकारी उपाध कराये। मौसम की वैज्ञानिकता को ाताये। जिससे कि किसान मानसून पूर्व ाारिश को मानसून का पानी समङा कर ङाांसे में न आये। उसे सटीम जानकारी मिो। हााांकि तमिानाडु सरकार ने स्वतंत्र रूप से कृषि अभियांत्रिकी विभाग का गठन किया है। इसके परिणाम भी अच्छे आए हैं। इससे किसानों को ााभ मिाा है। मध्यप्रदेश, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश में भी इसे स्वतंत्र विभाग ानाने की कवायद चा रही है। यदि हर राज्य इस तरह का स्वतंत्र विभाग गठित करें, तो किसानों का अर्थशात्र और मजाूत होगा। -संजय स्वदेश

शुक्रवार, जनवरी 28, 2011

परेड के पीछे लीद उठाने वाले नागरिक

बाल मुकुंद
हर साल दिल्ली में मैं गणतंत्र दिवस की परेड देखता हूं। फौजियों की बूटों की ताल से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। झांकियों में प्रगति की बानगी देख कर सीना गर्व से फूल जाता है। लेकिन परेड की कुछ बातें समझ में नहीं आतीं। उन भव्य टुकडि़यों में जब हाथी , घोड़े और ऊंटों वाला दस्ता निकलता है , तो उनके पीछे - पीछे कुछ लोग भी दौड़ते हुए चलते हैं।

हालांकि वे भी ठीकठाक यूनिफॉर्म में होते हैं , पर उनका मुख्य काम होता है उन जानवरों की लीद उठाना। आखिर गणतंत्र दिवस की उस भव्य परेड से इन लोगों का क्या वास्ता है ? क्या राजपथ से गुजरते हुए ये लोग भी उसी तरह गर्व महसूस करते होंगे , जिस तरह शक्तिमान टैंक या एलसीए एयरक्राफ्ट पर तन कर खड़ा सलामी देता हुआ सैन्य अधिकारी महसूस करता है ? या राष्ट्रपति के सामने से गुजरती हुई झांकियों में अपनी कला का प्रदर्शन करने वाले कलाकार महसूस करते होंगे ?

लेकिन लीद उठाने वालों के बिना काम भी नहीं चल सकता। आखिर सड़क पर से लीद नहीं उठाई गई तो बाकी टुकडि़यां परेड कैसे करेंगी ? पर कुछ तो ऐसा किया जा सकता है , जिससे वे भी गर्व महसूस करें। यानी एक जोड़ी यूनिफॉर्म , पुलिस वेरिफिकेशन के बाद मिले पहचान पत्र और उस दिन के सफाई भत्ते के अलावा। और कुछ नहीं तो आयोजन समिति उनके लिए कृतज्ञता के दो - चार शब्द ही कह दे।

आपने कभी सोचा है कि हमने सड़क पर से लीद हटाने वाली कोई मशीन क्यों नहीं बनाई ? हमने परमाणु बम बनाने की तकनीक पा ली है , चांद का चक्कर लगा चुके। सड़क पर से धूल - कचरा हटाने वाली मशीनों का भी इंपोर्ट किया गया है। लेकिन इस काम के लिए हमने कोई उपाय नहीं सोचा , क्योंकि अपने कुछ नागरिकों का यह प्रोफाइल और उनका यह काम हमारे गणतंत्र को बेचैन नहीं करता।

परेड की एक और बात समझ में नहीं आती। जब सीमा पर शहीद होने वाले किसी सैनिक की मां या युवा पत्नी को अलंकरण प्रदान करने के लिए राष्ट्रपति के सामने लाया जाता है तो ऐसा मान लिया जाता है कि उस विशेष क्षण में वह स्त्री सिर्फ गर्व का अनुभव करेगी। इसलिए उसके भावुक हो उठने या रो पड़ने की स्थिति में उसे संभालने के लिए उसके साथ कोई परिजन नहीं होता। सिर्फ अकड़ कर चलते हुए वर्दीधारी सजीले एस्कॉर्ट्स होते हैं।

वहां स्टेज पर जाते समय उस असहाय औरत को क्या इस बात की घबराहट नहीं सताती होगी कि उसकी आगे की जिंदगी कैसे कटेगी ? क्या वह अखबारों में आदर्श घोटाले , पीएफ के गबन और मुआवजे के चेक बाउंस होने की खबरें नहीं पढ़ती होगी। वहां स्टेज पर दिए जाने वाले सम्मान से उसका क्या होगा , यदि गांव के सरपंच ने उसका जीना हराम कर रखा हो। यह हमारे गणतंत्र का दूसरा चेहरा है , जो मानता है कि गणतंत्र के उत्सव का अर्थ है स्टेज पर प्रायोजित सम्मान और मशीनी उत्सव। उसमें व्यक्ति और उसकी मानवीय भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं है।

सुना है ताड़देव के विक्टोरिया मेमोरियल ब्लाइंड स्कूल और दादर के कमला मेहता ब्लाइंड स्कूल के बच्चे भी इस बार राज्य गणतंत्र दिवस की परेड में भाग लेने के लिए प्रयास कर रहे हैं। यह सुन कर मन में सवाल उठा कि हमने आज तक गणतंत्र दिवस परेड में विकलांग नागरिकों और बच्चों को क्यों नहीं शामिल कर रखा था। आखिर रिटायर सैन्यकर्मियों को जीप पर और छोटे बहादुर बच्चों को हाथी पर लेकर तो चलते ही हैं। कोई कह सकता है कि गणतंत्र दिवस पर हम अपनी सुंदर चीजें पेश करते हैं। और विकलांग नागरिकों को सुंदर कह कर तो नहीं प्रस्तुत कर सकते। यह व्यक्ति के दिल की ओछी सोच हो सकती है , कोई राष्ट्र ऐसा कैसे सोच सकता है ?

उत्सव का सौंदर्य , यथार्थ को दरकिनार कर नहीं पैदा किया जा सकता। शायद इसी मानसिकता की वजह से एक तरफ जीडीपी बढ़ती है , तो दूसरी ओर भूख से मौतें। हर तरह के लोगों को गणतंत्र के उत्सव में शामिल कर हम दिखा सकते हैं कि यह राष्ट्र अपने प्रत्येक नागरिक को समान महत्व और स्नेह देता है। और हमने उनके लिए कितने तरह के इंतजाम किए हैं।
sabhar : navbharattimes, delhi

रविवार, जनवरी 16, 2011

कुपोषण से बचाने के लिए नौ तरह की योजनाएं

संजय स्वदेश
एक समाचार पत्र में प्रकाशित खबर के मुताबिक देश की जनता को भुखमरी और कुपोषण से बचाने के लिए सरकार नौ तरह की योजनाएं चला रही है। पर बहुसंख्यक गरीबों को इन योजनाओं के बारे में पता नहीं है। गरीब ही क्यों पढ़े-लिखों को भी पता नहीं होगा कि पांच मंत्रालयों पर देश की भुखमरी और कुपोषण से लड़ने की अलग-अलग जिम्मेदारी है। हर साल हजारों करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। इसके जो भी परिणाम आ रहे हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं। जिस सरकार की एजेंसियां इन योजनाओं को चला रही है, उसी सरकार की अन्य एजेसियां इसे धत्ता साबित करती है। निजी एजेंसियां तो हमेशा साबित करती रही हैं।

पिछले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ कि देश के करीब 46 प्रतिशत नौनिहाल कुपोषण की चपेट में हैं। 49 प्रतिशत माताएं खून की कमी से जूझ रही है। इसके अलावा अन्य कई एजेंसियों के सर्वेक्षणों से आए आंकड़ों ने साबित किया कि सरकार देश की जनता को भुखमरी और नौनिहालों को कुपोषण से बचाने के लिए जो प्रयास कर रही है, वह नाकाफी है। मतलब सरकार पूरी तरह से असफल है। आखिर सरकार की पांच मंत्रालयों की नौ योजनाएं कहां चल रही हैं। मीडिया की तमाम खबरों के बाद भी विभिन्न योजनाएं भुखमरी और कुपोषण का मुकाबला करने के बजाय मुंह की खा रही हैं।

वर्ष 2001 में उच्चतम न्यायालय ने भूख और कुपोषण से लड़ाई के लिए 60 दिशा-निर्देश दिये थे। इस निर्देश के एक दशक पूरे होने वाले हैं, पर सब धरे-के धरे रह गये। सरकार न्यायालय के दिशा-निर्देशों को पालन करने में नाकाम रही है। कमजोर आदमी न्यायालय की अवमानना किया होता तो जेल में होता। लेकिन सरकार जब ऐसी लापरवाही दिखाती है तो उच्चतम अदालत विवश होकर तल्ख टिप्पणियों से खीझ निकालती है। कम आश्चर्य की बात नहीं कि सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायाल की तिखी टिप्पणी के बाद भी सरकार बेसुध है। जनता तो बेसुध है ही। नहीं तो सड़ते अनाज पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी एक राष्ट्रव्यापी जनआंदोलन को उकसाने के लिए प्रयाप्त थी। गोदामों में हजारो क्विंटल अनाज सड़ने की खबर फिर आ रही है। भूख से बेसुध रियाया को सरकार पर भरोसा भी नहीं है। इस रियाया ने कई आंदोलन और विरोध की गति देखी है। उसे मालूम है कि आंदोलित होने तक उसके पेट में सड़ा अनाज भी नहीं मिलने वाला।
कुछ दिन पहले एक मामले में महिला बाल कल्याण विकास विभाग ने उच्चतम न्यायालय से कहा था कि देश में करीब 59 प्रतिशत बच्चे 11 लाख आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से पोषाहार प्राप्त कर रहे हैं। जबकि मंत्रालय की ही एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के करीब अस्सी प्रतिशत हिस्सों के नौनिहालों को आंगनबाड़ी केंद्रों का लाभ मिल रहा है। महज 20 प्रतिशत बच्चे ही इस सुविधा से वंचित है।

सरकारी और अन्य एजेंसियों के आंकड़ों के खेल में ऐसे अंतर भी सामान्य हो चुके हैं। सर्वे के आंकड़े हमेशा ही यथार्थ के धरातल पर झूठे साबित हो चुके हैं। मध्यप्रदेश के एक सर्वे में यह बात सामने आई कि एक वर्ष में 130 दिन बच्चों को पोषाहार उपलब्ध कराया जा रहा है, वहीं बिहार में असम में 180 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की बात कही गई। उड़ीसा में तो एक वर्ष में 240 और 242 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने का दावा किया गया। जबकि सरकार वर्ष में आवश्यक रूप से 300 दिन पोषाहार उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता जताती है। हकीकत यह है कि पोषाहार की योजना में नियमित अन्यों की आपूर्ति ही नहीं होती है। किसी जिले में कर्मचारियों की कमी की बात कही जाती है तो कहीं से पोषाहार के कच्चे वस्तुओं की आपूर्ति नहीं होने की बात कह जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया जाता है। जब पोषाहार की सामग्री आती है तो नौनिहालों में वितरण कर इतिश्री कर लिया जाता है। सप्ताह भर के पोषाहार की आपूर्ति एक दिन में नहीं की जा सकती है। नियमित संतुलित भोजन से ही नौनिहाल शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनेंगे। पढ़ाई में मन लगेगा।

असम, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के दूर-दराज के क्षेत्रों में कुपोषण और भुखमरी से होने वाली मौतों की खबर तो कई बार मीडिया में आ ही नहीं पाती। जो खबरें आ रही हैं उसे पढ़ते-देखते संवेदनशील मन भी सहज हो चुका है। ऐसी खबरे अब इतनी समान्य हो गई कि बस मन में चंद पल के लिए टिस जरूर उठती है। मुंह से सरकार के विरोध में दो-चार भले बुरे शब्द निकलते हैं। फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है। सब भूल जाते हैं। कहां-क्यों हो रहा है, कोई मतलब नहीं रहता। यह और भी गंभीर चिंता की बात है। फिलहाल सरकारी आंकड़ों के बीच एक हकीकत यह भी है कि आंगनवाड़ी केंद्रों से मिलने वाले भोजन कागजों पर ही ज्यादा पोष्टिक होते हैं। जिनके मन में तनिक भी संवदेनशीलता है, उन्हें हकीकत जानकर यह चिंता होती है कि सूखी रोटी, पतली दाल खाकर गुदड़ी के लालों का कल कैसा होगा?