मंगलवार, जून 01, 2010

एक्लव्य कुशल तिरंजादी कर क्षत्रिय नहीं बन सका

जो जाति सदियों से एक ही कर्म को करते आ रही है। तो उसकी पीढ़ी उस कार्य को कुशलता से कर सकती है। यह बात तो ठीक है, लेकिन पहले कर्म के आधार पर जाति को बदली जा सकती थी। महाभारत काल में एक्लव्य कुशल तिरंजादी कर क्षत्रिय नहीं बन सका। जाति आधारित कर्म बदलने को समाजिक मान्यता किसे मिली है? किसी शुद्र को कर्म के अनुसार जाति या वर्ण बदलने का इतिहास बताएं। विष्णु अवतार परशुराम वर्ण बदलते हैं, तो उन्हें मान्यता जरूर मिलती है, पर शुद्र को नहीं। उत्तर रामायण का पात्र शंबुक तेली था, पर साधना के ब्राह्मण कर्म पर श्रीराम चंद्र उसका सिर धड से अलग करते हैं। इसे समाज की कथा कर बात को टाली नहीं जा सकती है, क्योंकि हर कहानी अपने समाज और परिवेश से प्रभावित होती है।
कुलिन वर्ण के युवाओं ने जब भी किसी शुद्र की संस्कारी सुयोग्य कन्या से विवाह किया है, उसे सम्मान नहीं मिला है।
अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग को आसानी से कलास मना लिया गया है। लेकिन जरा सोचिये, पिछड़ों का वर्ण क्या है?
पिछड़ा वर्ग वैश्य समुदाय में शामिल नहीं है। वह अनुसूचित कहलाना पसंद नहीं करेगा। हालत उसकी त्रिशंकु की तरह हो गई है। पिछड़ों का वर्ण अधर में लटक गया है। यदि शुद्रों को वर्ण में ही रखा और कर्म के आधार पर जाति बदलने की समाजिक मान्यता में तनिक भी लोच होता तो स्थिति गंभीर नहीं होती।
जब इस जनगणना में अनुसूचित जाति और जनजातियों की गणना के लिए कॉलम है तो पिछड़ों का कॉलम रखने में बुराई नहीं दिखती। मेरे विचार से तो इस जनगणना में ब्राöम, वैश्य और क्षत्रियों की भी जनगणना कर ली जाती तो अच्छा होता। कम से कम आरक्षण की मलाई खाने वालों को यह तो पता चलता कि गैर-आरक्षित जातियों की तुलना में उनकी संख्या कितनी है। बड़ी संख्या के बाद भी उनकी तरक्की कितनी हुई है?

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