गुरुवार, जून 03, 2010

आ रहा है मानसून, पर कहा जाएगा पानी?


sanjay swadesh

नागपुर। भीषण गर्मी में से परेशान नागपुरवासी मानसून आने की उल्टी गिनती गिन रहे हैं। अमूमन जून के मध्य में मानसून विदर्भ की धरती की प्यास बुझाता है। हर साल मानसून विदर्भ की जमीं पर करोड़ों लीटर पानी बरसा कर चला जाता है। फिर भी हर साल गर्मी में पानी की परेशानी होती है। किसान हो या सरकारी महकमा हर कोई किसी न किसी कारण मानसून के इंतजार में रहता है। इस मानसून से किसान खरीफ की फसल की बुआई शुरू करते हैं। लिहाजा बीज बाजार में किस्म-किस्म के बीज व खाद आ जाते हैं। महानगर पालिका सक्रिय होकर नदी नालों की साफ-सफाई करती है, जिससे पानी का बहाव सुचारु हो सके। भूजल संरक्षण बोर्ड इस पानी को संरक्षण के लिए विशेष योजनाएं बनाता है। इस वर्ष भी मानसून आने से पूर्व कुछ ऐसी ही स्थिति है। बरसात के शुद्ध जल संरक्षण के लिए सरकारी अभियान तो अनेक हैं, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है। विभिन्न सरकारी योजनाओं की पोल तब खुलती है जब गर्मी आती है और पीने के पानी की कमी पड़ जाती है।
राज्य सरकार के भूजल सर्वे व विकास विभाग का दावा है कि विदर्भ क्षेत्र के कुओं में बरसाती पानी जमा करने का उनका अभियान शुरू है। इस साल करोड़ों लीटर पानी इन कुओं में जमा करके यहां के भूजल स्तर को ऊपर उठाना है। वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार की एजेंसी केंद्रीय भूजल बोर्ड के नागपुर स्थित कार्यालय का कहना है कि पानी का मामला राज्य सरकार के खाते में आता है, उनकी जिम्मेदारी विभिन्न इलाकों में भूजल की स्थिति पर अध्ययन कर उसकी रिपोर्ट देने तक है। इसके अलावा जरूरत पडऩे पर तकनीकी परामर्श के साथ ही जागरुकता अभियान चलाना है। बोर्ड के एक वरिष्ठï वैज्ञानिक ने बताया कि जल संधारण आपले राष्टï्रीय अभियान यानी जल संरक्षण का अपना राष्टï्रीय अभियान विदर्भ क्षेत्र में जारी है।
जमीन से लिया जल वापस कौन करेगा?राज्य के भूजल सर्वेक्षण एवं विकास विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि विभाग बोरवेल, कुओं व खेतों में कुएं के लिए उचित जगह बताने के अलावा हर गांव में भूजल सर्वेक्षण आदि करता है। ग्रामिणों को यह बताया जाता है कि गर्मी और ठंड के मौसम में भूजल का स्तर में कितना अंतर रहता है। इसके अलावा भूजल की दृष्टिï से राज्य के हर गांव का अध्ययन किया गया है। साथ ही साथ पीने का पानी कहां किस तरह से उपलब्ध है, यह देखा जाता है। राज्य में 2 लाख 50 हजार बोरवेल हैं। लेकिन इसमें लोगों की सहभागिता नहीं रही। जब तक पानी उपलब्ध होता है, लोग पानी लेते रहे। जब घर में नल आया तो, इनका उपयोग बंद कर दिया। बोरबेल सूखते गए। किसानों ने खेती के लिए इनका दोहन तो किया, लेकिन इसमें वापस पानी पहुंचाने की जिम्मेदारी अपनी नहीं समझी। दरअसल इनका दोहन बैंक की तरह है। बैंक में रुपये तभी बार-बार निकाले जा सकते हंै, जब निकालने लायक रुपये उसमें डाले गए हों। वैसे ही जमीन के अंदर से निकाले गए पानी के बदले पानी निकालने का काम भी जरूरी है। नीचे जाते भूजल को रोकने के लिए राज्य सरकार की जो योजनाएं हैं, उसके मुताबिक हर गांव में पानी संबंधी चार 4 योजनाएं लागू होती है। इन योजनााओं के तहत हर गांव में हैंडपंप, कुएं और सामुदायिक कुए होना आवश्यक है। इस हिसाब से राज्य के औसतन हर गांव में 3.9 योजनाएं लागू हैं। अफसोस की बात यह है कि इनका रख-रखाव सुचारु नहीं होने से गर्मी के दिनों में लोगों को पानी की समस्या से दो-चार होना पड़ता है। जनता समझती है कि इसकी जिम्मेदारी केवल सरकार की है। इसी कारण सरकार ने 193 में संविधान संशोधन कर ग्रामीण क्षेत्रों में जल की आपूर्ति में जन सहभागिता को अनिवार्य कर दिया। इससे करीब दो दशकों से जनता की थोड़ी-सी रुचि इसमें बढ़ी है। 2003 में राज्य के शिवकालीन पानी साठवालीन योजना चलाई गई। योजना को लागू करते समय हर गांव के पानी के विविन्न स्रोतों की गणना की गई।
कुओं में जाएगा करोड़ों लीटर पानी
राज्य के भूजल सर्वेक्षण एवं विकास विभाग से प्राप्त जानकारी के मुताबिक शिवकालीन योजना के तहत गांव के लोगों के हर वर्ग और जाति के प्रतिनिधियों की पानी समिति बनाई गई। तब से स्थिति में सुधार आ रहा है। गांव में बनाये कुयें में बरसात में बहते पानी को फिल्टर कर इसमे डाला जाता है। इससे भूजल स्तर बढ़ा है। लोगों ने बोरवेल बंद कर दिए हैं। हर साल इन कुओं मे करोड़ों लीटर बरसात का पानी डाला जाता है। इस साल भी मानसून से पूर्व विभाग मुस्तैद हो चुका है। बहते पानी को बचाना है और भूजल को उपर उठाना है। विभाग का कहना है कि पानी की कहीं भी कमी नहीं है। कमी है तो इसके नियोजन की। इसके अलावा वर्तमान में जितना पानी आवश्यक है, वह उपलब्ध है। यदि जनता पानी संचित भी करती है, तो उसका उपयोग कहां करेंगी? सरकार बहुत जल्दी ग्रामीणों के लिए पानी बजट की योजना ला रही है। इसमें ग्रामीण यह तय करेंगे कि उनके गांव में हर साल कितना पानी खेती, पीने, पशु व दूसरे कार्यों आदि में खर्च होता है। उनके पास कितना पानी उपलब्ध है। यदि पानी कम है तो अतिरिक्त जल की आपूर्ति कहां से होगी? इसका सब कुछ हिसाब जनता करेगी। भूजल विकास विकास केवल उनका मार्गदर्शन करेगा।
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केंद्रीय भूजल बोर्डकेंद्रीय भूजल बोर्ड का क्षेत्रीय मुख्यालय नागपुर में स्थित है। इस पर आसपास के 14 तालुकों का दायित्व है। बोर्ड का कहना है कि नागपुर का मौसम सूखी गर्मी वाला है। इसलिए दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान यहां अच्छी वर्षा होती है। विभाग ने सन् 1901 से 1999 तक के मानसून के अध्ययन के बाद जो रिपोर्ट जारी की है, उसके मुताबिक यहां हर साल 1000 से 1200 मि.मी. वर्षा होती है। नगर के पश्चिमी क्षेत्र विशेषकर काटोल क्षेत्र में यह औसतन 985.4 मि.मी. है।
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महाराष्टï्र में भूजल की स्थिति
क्षेत्र : 3,0,13 वर्ग किलोमीटर
वर्षा : 1433 मि.मी.
भूजल के स्रोत
वार्षिक स्रोत : 32.96 बीसीएम
वार्षिक उपलब्धता : 31.21 बीसीम
वार्षिक संरचना : 15.09 बीसीम
भूजल विकास का प्रतिशत : 48
कृत्रिम भूजल भराई क्षेत्र : 6526 वर्ग किलोमीटर
भूजल गुणवत्ता की समस्या : अमरावती और अकोला में भूजल में लवण की मात्रा ज्यादा है। इसके अलावा भंडारा, चंद्रपुर, नांदेड तथा औरंगाबाद के भूजल में फ्लोराइड नामक हानिकारक तत्व मिलता है।
31 मार्च, 200 तक राज्य में कुल 1 भूजल जनजागृति अभियान और 15 जल प्रबंधन प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाये
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