नागपुर में बाघ के पोस्टर के साथ फोटो खिंचवाता एक वन्य जीव प्रेमी
संजय स्वदेश
बाघों के गणना का कार्य जारी है। गणना कार्य के लिए जुटाये गए संकेतों के समग्र अध्ययन के आधार पर ठोस निष्कर्ष निकालने से पहले ही किसी क्षेत्र में कम तो किसी क्षेत्र में ज्यादा बाघ होने की खबर भी आ रही है। तरह-तरह के कयास हैं। कोई कह रहा है, बाघों की संख्या वर्तमान संख्या 1411 से कम होगी। कही यह संख्या बढऩे की खबर आ रही है।
अब ये आंकड़े घटे या बढ़े, एक बात तय है, बाघों की संख्या एकदम दोगुनी तो होने से रही। तमाम हो-हल्लाओं के बाद भी वन्य जीव (विशेकर बाघ) का शिकार व उनके अंगों की तस्करी नहीं रूकी। देश में कई जघन्य मानवीय अपराधों के दोषी के खिलाफ तो सजा की खबर आपने पढ़ी होगी। पर क्या आपको याद है कि आपने वन्य जीव कानून के अंतगर्त दोषी किसी अपराधी की सजा के बारे में कभी खबर पढ़ी है। इस सवाल पर शायद आप निरुत्तर हो, पर निरुत्तर होने वालों में आप अकेले होंगे। देश में लाखों लोग ऐसे होंगे जिन्होंने बाघों के बचाने की चर्चाओं को सुना होगा, लेकिन इनकी हत्या के दोषियों के सजा के बारे में शायद ही सुने हो।
आप मान या न मानें, यह हकीकत है। बाघ को हिम्मती हत्यारों में कानून का भय नहीं है। फिलहाल अभी केवल महाराष्ट्र की बात करते हैं। राज्य में वन्य जीव संरक्षण कानून-1972 के उलंघन के खिलाफ विभिन्न वन सर्कल में दर्ज मामले वर्षों से लंबित है। महाराष्ट्र में कुल 11 वन सर्कल में वन्य जीव संरक्षण कानून के तहत फिलहाल 675 मामले लंबित है। लंबित मामलों में नागपुर सर्कल में सबसे ज्यादा 200 केस लंबित है। दूसरे स्थान पर मेलघाट सर्कल है, जहां फिलहाल 158 मामले लंबित है। सबसे कम लंबित मामलों में मुंबई सर्कल है, जहां केवल 4 मामले ही लंबित है। अधिकतर मामले 10 से 15 साल पुराने हैं। मामलों के लंबित होने से ही शिकारियों व वन्य जीव तस्करों के हौसले बुलंद हैं। गत तीन वर्ष के आंकड़े कहते हैं कि महाराष्ट्र में वन्य जीव संरक्षण कानून के उल्लंघन के 123 आरोपी बरी कर दिए गए। वहीं इस अवधि में महज 55 आरोपियों पर ही दोष सिद्ध किया जा सका। मतलब कुल आरोपियों में महज 11 प्रतिशत पर ही दोष सिद्ध हो पाता है। बाकी के 89 प्रतिशत किसी न किसी तरह के दांव-पेंच लगाकर या कानून की कमजोरी या सरकारी अमले की लापरवाही के कारण साफ बच कर निकल जाते हैं। इन आंकड़ों दर्ज ज्यादातर मामले वन्य जीव शिकार, खालो की तस्करी और वन्य जीवों के विभिन्न अंगों की अवैध व्यापार के हैं।
वन विभाग के सूत्रों की मानें तो इस कानून के तहत दर्ज मामले इसलिए प्रालंबित हैं, क्योंकि इसकी जांच प्रक्रिया से जुड़े अधिकारी गंभीरता से नहीं लेते हैं। पहले तो केस दर्ज नहीं होता है, यदि किसी तरह से केस दर्ज हो भी जाता है तो जांच से जुड़े अधिकारी कुछ ले-देकर केस को कमजोर करने की कोशिश करते हैं। वन विभाग के एक अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि केस के लंबित होने की मुख्य वजह संबंधित विभाग के कर्मचारियों को आवश्यक प्रशिक्षण न होने के अलावा, स्टॉफ की कमी, प्रोत्साहन का अभाव, आवश्यक वाहनों की कमी समेत अन्य कई जरूरतों का अभाव है। सुना है कि मध्य प्रदेश सरकार ने वन्य जीव संरक्षण कानून के तहत दर्ज मामलों के जल्दी निपटारे के लिए ‘ग्रीन कोर्ट' का गठन किया है। यह कितना कारगर है, यह इसकी कोई खबर नहीं पढ़ी। पर विशेषज्ञ कहते हैं कि महाराष्ट्र में भी लंबित इन मामलों के निपटारे के लिए ऐसे कोर्ट के गठन किये जाने चाहिए। अभी तक सामान्य अदालत में ये केस होने से न्यायधिशों का ध्यान इस पर कम रहता है। इसके अलावा वन्य जीव संरक्षण कानून के तहत दर्ज केस लडऩे के लिए जो सरकारी वकील होते हैं, उन पर भी पहले से ही दूसरे कई केस का भारी बोझ होता है। इसलिए भी वे इन मामलों को अपनी रुचि कम दिखाते हैं। इसके अलावा वन विभाग के पास भी न्यायाधिक अधिकारी की व्यवस्था नहीं होने से ये मामले समान्य अदालत में ही चलते हैं। इन मामलों के निपटारे के लिए न केवल ‘ग्रीन कोर्ट' की आवश्यकता है, बल्कि वन्य जीवों से जुड़ी एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला के साथ ही इस कानून के उल्लंघन करने वालों के खिलाफ जांच पड़ताल करने वाली एक विशेष शाखा होनी चाहिए। अभी भी वन विभाग से जुड़े अधिकारी कर्मचारियों में वन्य जीव कानून से जुड़ी जानकारियों का अभाव रहता है। स्वतंत्रण प्रशिक्षित कर्मचारियों की शाखा नहीं होने से मामले की जांच पुलिस करती है। वन क्षेत्रों में तैनात वन अधिकारी भी इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं। कई बार तो उन्हें यह खुद ही नहीं पता रहता है कि मामले में अगली बार अदालत में कब पेश किया जाएगा। इस मामले में वे पूरी तरह से पुलिस पर निर्भर रहते हैं।
मामले की गंभीरता को समझते हुए इस मुद्दे को गत वर्ष लोकसभा में भी उठाया गया था। इसके बाद भी सरकार इसको लेकर दूर-दूर तक गंभीर नहीं दिख रही है। केंद्र और राज्य सरकार एक दूसरे पर दोषारोषण करते हैं। इसी बीच शिकारी-तश्कर अपना काम कर देते हैं। उन्हें कानून की कमजोरी मालूम है। समान्य समझ की बात है। निजी आंनद के लिए बाघों के शिकार के दिन लद गए। इनके अंगों की तस्करी से मोटी कमाई के उद्देश्य से इनका शिकार जारी है। संगठित गिरोह सक्रिय है। संगठित गिरोह के अपराधी कानून की कमजोरियों से खेलना अच्छी तरह से जानते हैं। तभी तो वन्य जीव संरक्षण के कानून भी बना तो अजादी के करीब ढाई दशक बाद 1972 में। पर कानून बनने के 38 साल बाद भी सरकार वन्य जीव का शिकार करने संगठित गिरोहों के मन में भय का वतावरण भी नहीं तैयार कर पाई।
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