शुक्रवार, अप्रैल 16, 2010


कल कहीं मायूस भालू न मर जाए

संजय स्वदेश
कभी नागपुर का 'मिनी चिडिय़ाघरÓ महाराजबाग को देखने की ललक लिए दूर-दराज के लोग आते थे। यहां चार दशक की उम्र पार कर चुके लोग कहते हैं, नागपुर में पहली बार आने वाले हर किसी के मन में महाराजबाग जाने की ललक होती थी। जमाना बदला, तो ललक कम हो गई। किसे फुर्सत है, पिंजड़े में कैद वन्य जीवों को निहारने की। धीरे-धीरे यहां के वन्य जीव भी कम होने लगे, तो लोगों में इसके प्रति आकर्षण कम हो गया। लेकिन अभी भी इतवार और अन्य छुट्टियों के दिन लोग बच्चों को यहां लेकर आते हैं। शहर की आबादी बढऩे से प्रेमी युगलों के लिए यह जगह डेटिंग के लिए अच्छी लगी। अब महाराजबाग प्रशासन ने यहां प्रवेश लिए निजी हाथों में टिकट का ठेका दे दिया है। इससे हर वर्ष महाराजबाग को ठेके से मोटी कमाई हो जाती है। ठेकेदार प्रेमी युगलों से दोगुने दाम में टिकट बेचकर मुनाफा कमाते हैं। पर यहां आने वाले वयस्क बच्चों बच्चों को वन्य जीवों को दिखाते हुए शायद की उनकी आंखों में झांक कर उसकी पीड़ा समझने की कोशिश करते होंगे। फिलहाल, विदर्भ सूखे के साथ भीषण गर्मी की चपेट में है। दिल्ली में 40 डिग्री तापमान से बेहाली की खबर देश देखता है। ऐसी गर्मी को सहन करने वाले और अनुमान करने वाले जरा यह सोचे की 45 डिग्री के तापमान में क्या होता होगा। आग बरसाते आसमान ने गत तीन दिनों में ही महाराज बाग के तीन वन्य जीवों को मौत के मुंह में सुला दिया।
सतही स्तर पर इसकी खबरें तो यहां के समाचारपत्रों की सुर्खियां बनीं। पर हकीकत यह है एक मंत्री की गलती से यहां की पूरी व्यवस्था ठप्प हो गई। खबरिया चैनलों को देखने वालों को याद होगा कि गत वर्ष नागपुर में एक मंत्री ने जिद में आकर महाराजब बाग के बाघ के पिंजरे में अपने सुरक्षाकर्मी और प्रेस के साथ घुस गए। बाघ को पुचकार कर वाहवाही लूटी। 'बाघ बहादुर मंत्रीÓ शीर्षक से सुर्खियों में आई यह खबर मंत्री के लिए गले की हड्डी बन गई। लिहाजा मामले की लिपापोती के लिए यहां के प्रभारी डा. सुनील बावस्कर को अकोला हस्तांरण कर दिया गया। अकोला के प्रभारी को यहां भेज दिया गया। लेकिन पूर्व प्रभारी डा. सुनील बावस्कर कोर्ट की शरण में चले गए। कोर्ट ने स्थांतरण पर तत्काल रोक लगा दी। मामला लंबित है। पर असल में इससे महाराजबाग की सुचारु रूप से चल रही व्यवस्था लंबित पड़ गई। एक ही जगह दो-दो प्रभारी ड्यूटी पर। प्रभारी पद को लेकर अंदरूनी विवाद इतना गंभीर हो गया है कि यहां के प्राणी भीषण गर्मी में राम भरोसे हो गए हैं। इनकी हालत देखकर लगता है कि अब इनका कोई मां-बाप नहीं रहा। इसी सब का परिणाम यह निकला कि पिछले सप्ताह यहां इलाज के लिए लाया गया राष्ट्रीय पशु मोर ने भी दम तो दिया। मोर के मरने की गम अभी महाराज बाग भूला भी नहीं पाया था कि गुरुवार को एक और मोर और एक हिरण भीषण गर्मी को सहन नहीं कर पाये। गुरुवार की शाम छह बजे जहां एक मोर ने दम तोड़ा, वहीं रात करीब आठ बजे एक हिरण ने दम तोड़ दिया। सुबह 11 बजे मृत हिरण और मोर को पशु चिकित्सा अस्पताल में पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया। मोर करीब एक वर्ष का था। इसकी आयु 5 वर्ष की मानी जाती है। वहीं हिरण की आयु 6 से 7 वर्ष की बताई जा रही है, जिसकी औसत आयु 15 से 20 वर्ष की होती है।
मोर और हिरण की मौत होने की खबर महाराजबाग के अधिकारियों को मिलते ही वे सुबह वहां निरीक्षण के लिए पहुंचे। निरीक्षण की औपचारिक भर था। दो मृत्य वन्य जीव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया। घास पर चलने वाले हिरण, सांभर और चितल यहां पत्थरिले जमीन पर कुलांचे मारते हैं। हर पिंजड़ा गंदा है। 45 डिग्री की के तापमान में जब सभी पशु बचैन होकर छाये में खड़े दिखते हैं, तो वहीं भालू पिजड़े के लोहे से सिर टिकाये दिखा। ऐसा लगता है कि वह यहां से आजाद होने के सपने में इतना मशगूल है कि आसमान से बरस रहे आग की परवाह ही नहीं है। निश्चय ही वह बीमार होगा। शायद आने वाले दिनों में ऐसी भी गर्मी पड़ी और प्रशासन लापरवाह रहा तो, वह भी भगवान को प्यारा हो जाएगा। पर इससे किसी को क्या फर्क पड़ता है। दो-दशकों से गांव में मदारी कोई भालू लेकर नहीं आता है। इसलिए इन दो दशकों में बड़ी हुई पीढ़ी भालू के प्रति लागव कैसे रखेगा। आज कौन रामायण पढ़ता है जो श्रीराम की सेना में भालू की प्रजाति 'जामुवंतÓ की महत्ता समझे।
'वनराजÓ बाघ पिंजड़े में कूलर लगा है। पर दोपहर के समय वे भीषण गर्मी में वे छोटे पिंजड़े से निकल कर बड़े पिजड़े के परिसर में घुमते हैं। बेचैनी से इधर-अधर भटकते हैं। पता चला कि बाघ के पिजड़े में रखे कूलर में पानी ही नहीं डाला जाता है। फिर कूलर से ठंडी हवा कहां से आएगी। वनराज समझते होंगे कि इस कूलर निकलती लू से बाहर की गर्मी अच्छी।
सरकार को तनिक भी इस बात का ख्यान नहीं है कि पिछली बार मंत्री की एक भूल ने यहां की पूरी व्यवस्था को लचर कर दी। दो-दो प्रभारी आ जाने से यहां की कर्मचारियों की तो चांदी हो गई है। वे किसी की सुनें। कौन-असली और प्रभावी प्रभारी है, इसको लेकर दोनों प्रभारी दुविधा में है। इसलिए वे भी सुस्त पड़ गए हैं। इसका सीधा असर यहां की व्यवस्था पर पड़ है। एक तो महाराज बाग पहले से ही कर्मचारियों की कमी से जूझ रहा है, उपर से प्रभारी पद के झगड़े से पशुओं की देखरेख की व्यवस्था पूरी तरह से बदहाल हो चुकी है। प्राप्त जानकारी के अनुसार महाराज बाग में करीब 80 वन्य जीव हैं। इनकी देखरेख के लिए 20 कर्मचारियों का पद है। फिलहाल 10 कर्मचारी ही कार्यरत हैं। प्रभारियों के झगड़े के कारण यहां के अन्य कर्मचारी भी खूब आराम फरमा रहे हैं। पशुओं के वाड़े में रखा पानी कई दिनों तक बदला नहीं जाता है। धूप के कारण वाडे का पानी भी उबल जाता है। इससे प्यासे जीव प्यासे ही रह जाते हैं। यहां के वन्य जीवों की बेचैनी का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जैसे की कोई चीतल, सांभर और हिरण के वाडे के पास आता है, वे दौड़ के इस उत्सुकता से आते हैं कि कोई उन्हें कुछ खिला दे। पर कोई चिडिय़ा घर में इन्हें खिलाने के लिए कुछ लेकर तो नहीं आता है। संयोग से मेरी जेब में भुने हुए चन्ने का छोटा सा पॉकेट था। जैसे ही चने का पॉकेट हाथ में लिया। पांच-छह चीतल और हिरण यह समझ गए कि वह खाने की चीज है। पिजड़े के छोटे तारों से मुंह का छोटा-हिस्सा बाहर निकाल दिया। मुश्किल से ही सही मेरी हथेली को स्पर्श करते हुए उनके जीभ ने दो-चार दाने अपने मुंह में खींच लिये। यह देख चीतल, सांभर और हिरण का पूरा झुड़ मेरी ओर बड़ा। पर उन सबके पेट भरने भर के लिए चने कहा थे। पूरे चन्ने उनके वाड़े में फेंक दिया। सभी लपके। मिनट भर में चन्ने चट कर गए। फिर उत्सुकता से खड़े होकर हमें निहारने लगे। भले ही ये चीतल, सांभर और हिरण हमारी भाषा नहीं बोलते हों, पर दो-चार चने के दाने खाने वाले हिरणों ने अपने कृतज्ञता भरे आंखों की भाषा से हमें एहसास करा दिया कि यहां वे भूखे रहते हैं। भूखे पेट से शरीर जल्दी गर्मी की चपेट में आता है। यह लिखते वक्त बार-बार उन व्याकुल हिरणों की आंखे मेरी आंखों के सामने आ रहा है। मन में डर लग रहा है कहीं कल कोई दूसरा हिरण या वह मायूस भालू न मर जाए।
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