शनिवार, मार्च 27, 2010

एशियाई देशों में फिर से बढऩे लगी अमेरीकी दखलअंदाजी

अमेरिका-पाकिस्तान के बीच उसका फिर से पनपता मैत्री भाव भारत के लिए खतरे की घंटी है। पाकिस्तान के कलुषित अतीत और वर्तमान की अनदेखी कर उसके प्रति जैसी दरियादिली अमेरिका दिखा रहा है वह अस्वाभाविक भी है और चिंताजनक भी। अमेरिकी उतावलापन से केवल भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया और साथ ही विश्व समुदाय को भी चिंतित होना चाहिए। अमेरिका या तो पाकिस्तान का अंध समर्थन करने पर आमादा हो गया है या फिर वह इस अराजक एवं गैर जिम्मेदार राष्ट्र के प्रति किसी आसक्ति का शिकार है। लेकिन यह न तो अचानक हुआ है और न ही उसके दोगलेपन का इकलौता मामला है। दोनों हाथों में लड्डू रखना अमेरिका की पुरानी नीति है। वहां का कोई भी राष्ट्रपति चाहे वह जॉर्ज बुश हों, या ओबामा, इससे अलग नहीं हो सकता। जिस तरह से पाकिस्तान में वही शासन कर सकता है, जिसके होठों पर भारत के नाम पर कोफ्त ही कोफ्त हो, ठीक उसी प्रकार अमेरिकी इतिहास का वही सफल राष्ट्रपति हो सकता है, जिसे एक-दूसरे को लड़ाना जानता हो। फूट-डालो शासन करो की कलात्मकता को उसने आत्मसात कर लिया है। पर हमारे नीति नियंताओं को भी अमेरिका से कोई समझौता सिर्फ राजनीतिक आकांक्षाओं व तात्कालिक जरूरतों की पूर्ति की दृष्टि से नहीं करना चाहिए। अतीत में अनेक मामले रहे हैं जब अमेरिका ने प्रलोभन पैदा कर हमें जाल में फंसाया और बाद में संतुलन बनाने के नाम पर हमारे चिर प्रतिद्वंद्वी को भी अपने कथित न्याय-तराजू के दूसरे पल्ले पर रख दिया। परमाणु सहयोग के मामले में भी अब यही किया जा रहा है। भारत चाहे लाख आपत्तियां करे, हिलेरी कह रही हैं कि वह पाकिस्तान की तात्कालिक और दीर्घकालिक ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए उसकी मदद करने की इच्छुक हैं। इस्लामाबाद ने भारत के साथ बराबरी के लिए अमेरिका से परमाणु सहयोग तथा सैन्य उपकरण चाहा है। भारत ने अमेरिका से परमाणु करार करते वक्त उससे ऐसी कोई वचनबद्धता नहीं हासिल की थी कि वह पाकिस्तान या किसी और देश को ऐसी मदद नहीं करेगा। इस नजरिये से भारत के विरोधों का कोई अर्थ नहीं है बल्कि यह कहा जाना चाहिए कि हमने अपना गला अमेरिकी खूंटे से बंधी रस्सी में खुद डाल दिया है। इसके लिए किसी और को कैसे दोषी ठहराया जा सकता है? अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा है कि हम उस बलिदान का सम्मान करते हैं, जो पाकिस्तान ने उसकी स्थिरता और विकास के लिए खतरा बने आतंकियों के खिलाफ संघर्ष में दिया है। हम उन सैनिकों और असैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, जो इस संघर्ष में मारे गए अथवा घायल हुए। क्या भारत को याद है कि किसी भी प्रसंग पर अमेरिका ने उसके साथ ऐसी मृदु वाणी का उपयोग किया हो। अगर नहीं तो शर्म न अमेरिका को, न पाकिस्तान को आना चाहिए, चुल्लू भर पानी में हमारे उन सरमाएदारों को मर जाना चाहिए जो हर बार लहूलुहान पीठ लेकर अमेरिका के सामने हाथ बांधे जा खड़े होते हैं। ज्यादा दिन की नहीं हाल की बात। 26/11 आतंकी हमले और हेडली की गिरफ्तारी से लेकर आरोपों को कबूल करने तक अमेरिका की भूमिका का स्पष्ट पता नहीं चल पा रहा है। हेडली ही नहीं बल्कि आतंकवाद के मसले पर भी अमेरिका का रुख स्पष्ट नजर नहीं आता। अपने ताजा बयान में अमेरिका ने कह दिया है कि उसने हेडली से पूछताछ करने के लिए भारत को इजाजत देने के बारे में अभी कुछ भी विचार नहीं किया है। दुनिया के चप्पे-चप्पे पर पैनी नजर रखने वाले इस देश को क्या नहीं पता कि मुंबई हमले में पाकिस्तान के पूर्व मेजर (पाशा) की भूमिका अहम थी, सेवानिवृत्त मेजर अब्दुर रहमान हाशिम सईद, डेविड कोलमैन हेडली और हमले को निर्देशित कर रहे आतंकियों के बीच की कड़ी था। अमेरिका को सब पता है, इसलिए सात समंदर पार की जमीन पर वह लय और ताल में खतरनाक खेल खेल रहा है। लिहाजा इस पर जरा भी आश्चर्य नहीं कि भारत की आपत्तियों के बावजूद हिलेरी ने यह स्पष्ट किया कि असैन्य परमाणु समझौते के पाकिस्तान के अनुरोध पर विचार किया जाएगा, क्योंकि अमेरिका ने खुद को ऐसी स्थिति में ला खड़ा किया है कि पाकिस्तान उसे आसानी से ब्लैकमेल कर सके। यह लगभग तय है कि पाकिस्तान को अमेरिका से सैन्य-असैन्य सहायता की एक नई किश्त मिलने जा रही है। यह भी तय है कि वह इस सहायता का दुरुपयोग करेगा और वह भी भारत के खिलाफ। कम से कम अब तो भारत को यह एहसास हो जाना चाहिए कि अमेरिका अपने संकीर्ण हितों को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। भारत की कहीं कोई सुनवाई नहीं, आगे भी नहीं होने वाली। भारत अपने हितों की रक्षा को लेकर ढिलाई का परिचय देगा तो फिर उसकी कठिनाई और बढऩा तय है।
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