शनिवार, मार्च 13, 2010

...तो किसानों के खून से कब लाल होगी काली मिट्टी

विदर्भ की याद आखिरकार आई। महिला आरक्षण विधेयक ने सारे मुद्दे गौण कर दिए थे। किसान आत्महत्या की घटनाओं को तो जैसे भूला ही दिया गया। लेकिन देर आए, दुरुस्त आए। विपक्ष ने शुक्रवार को राज्यसभा में महाराष्ट्र में किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने का मुद्दा उठाया और सरकार से इस संबंध में तुरंत ध्यान देने और प्रभावित क्षेत्र के लिए पैकेज देने की मांग की। इस दौरान एक बात अपने आप में काफी महत्वपूर्ण रही कि दलभगत भावना को मानवता चीरती हुई आगे बढ़ी। शिवसेना के मनोहर जोशी ने शून्यकाल के दौरान विदर्भ में किसानों की आत्महत्याएं जारी रहने का मुद्दा उठाया और कहा कि सरकार को इस ओर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। उन्होंने तो सवाल भी किया कि किसानों की समस्याओं को दूर करने के लिए सरकार ने क्या कदम उठाए हैं या उन्हें क्या मदद दी जा रही है। एकदम जायज। उनकी बातें दो-टूक रहीं। उन्होंने इस मामले में केन्द्र एवं राज्य सरकार को प्रभावित किसानों को मदद देने के लिए तुरंत उपाय करने की भी सलाह दी। अब बारी भाजपा के प्रकाश जावडेकर की। उन्होंने भी इस समस्या को काफी ज्वलंत बताते हुए कहा कि पिछले कुछ महीनों में एक हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। प्रधानमंत्री के पैकेज के बावजूद आत्महत्या की घटनाओं पर रोक नहीं लग सकी है। प्रधानमंत्री का पैकेज विफल रहने का आरोप लगाते हुए उन्होंने मांग की कि वहां के किसानों को राहत देने के लिए एक और पैकेज की आवश्यकता है। जावडेकर ने तो बकायदा आरोप लगाया कि बड़ी संख्या में किसान ऊंची ब्याज दर पर निजी क्षेत्र से ऋण लेते हैं। उन्हें किसानों की ऋणमाफी योजना का लाभ नहीं मिला और वे अब भी ऋण के जाल में फंसे हुए हैं। उन्होंने कहा कि जिन किसानों को ऋण माफी योजना का लाभ मिला है, उन्हें दोबारा ऋण नहीं मिल रहा है। इससे उन्हें भी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। शिवसेना के भरत कुमार राउत ने यवतमाल जिले में एक महिला किसान द्वारा आत्महत्या किए जाने का जिक्र करते हुए कहा कि पिछले कुछ वर्षों में हजारों किसानों ने वहां आत्महत्याएं की हैं। सरकार के आश्वासन के बावजूद वहां ऐसी घटनाएं रूकी नहीं हैं। राउत ने कहा कि वहां के कई क्षेत्र सूखे की चपेट में हैं और सरकार को इस संबंध में ध्यान देना चाहिए। उन्होंने किसानों की समस्याओं की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाए जाने की मांग की। लोग भूले नहीं हैं। इससे पहेल भी राहत पैकेज से होने वाले राजनीतिक लाभ की फसल काटी जा चुकी है। इसके बावजूद आज भी विदर्भ में औसतन पहले जितनी ही आत्महत्याएं हो रही हैं। प्रधानमंत्री राहत पैकेज में भी तमाम तरह की गड़बडिय़ों और भ्रष्टाचार के मामले देखने को मिले थे। पीडि़त परिवारों का फायदा विधायक और तमाम दूसरे नेता उठा ले गए। सीधे विदर्भ के लिए न सही पर वाम दलों ने आज राज्यसभा में खाद्यान्न सहित आवश्यकत वस्तुओं की बढ़ती कीमतों के कारण आम लोगों को होने वाली भारी परेशानी का मुद्दा उठाकर दिल जीत लिया। कीमतों पर लगाम कसने के लिए तुरंत सुरक्षित खाद्यान्न भंडार से अनाज जारी कर अनाज के वायदा कारोबार पर रोक लगाने की उनकी मांगों पर अगर अमल किया गया तो सच में विदर्भ को भी काफी राहत मिलेगी। यहां कर्ज के कब्रगाह में हजारों किसान दफन हैं। काली मिट्टी तमाम मौतों के बाद भी लाल नहीं हुई। आंकड़ों के अनुसार, विदर्भ में किसानों की मौत मुख्य रूप से बैंकों और सूदखोरों से लिये गये कर्ज को न चुका पाने की असंभव स्थिति के चलते हो रही है। सूदखोरों के यंगुल में फंसे किसान तड़प रहे हैं और सरकार घोषणाओं से काम चला रही है। गरीब किसान अपनी छोटी-मोटी खेती छोड़ कोई नया धंधा शुरू करना चाहते हैं तो पुराने कर्ज जानलेवा साबित हो रहे हैं। आत्महत्या करने वाली महिलाओं की बड़ी संख्या जहां कुंए में कूदकर मरती है, वहीं तीस साल से कम के युवा आमतौर पर गले में फांसी लगाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर रहे हैं। मरने के लिए जहर खरीदना नहीं पड़ता बल्कि कपास और सोयाबीन के खेतों में डाला जाने वाला कीटनाशक, खरपतवार नाशक ही मौत का काम आसान कर देता है जो विदर्भ के हर किसान के घर में सहज उपलब्ध है। आत्महत्या रोकने के सरकारी प्रयासों में एक है सब्सिडी का प्रावधान। सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी के बावजूद किसानों को सरकारी खरीद महंगी पड़ रही है, जो कि सरकारी नीतियों की पोल खोलती है। अव्वल तो सारा ध्यान जिन्हें आना चाहिए था, उनका ध्यान पता नहीं किस और हैं। कृषि मंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार द्वारा बनाई नई नीतियों के बाद भी यहां के किसानों के हालात नहीं बदले हैं। मानो यहां के किसानों की किस्मत में जिंदगी भर कर्ज में डूबे रहना ही लिखा है। अब जब बात निकल ही आई है तो अच्छा होगा इसे दूर तक ले जाया जाए , ताकि मांग हक में बदल जाए।

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