गुरुवार, जुलाई 22, 2010
...और 'फलां बो विकास की पहरुआ बन गईं
बिहार का बेड़ा पार लगाती महिलाएं
- संजय स्वदेश
कहते हैं कि राजनीति की चाबी से हर ताले खुलते हैं, परन्तु बिहार के समाज में महिलाओं को यह चाबी वर्षों से नहीं मिली थी। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के जाते-जाते करिश्मा हुआ। वर्ष 2001 में लोकतंत्र की सबसे निचली इकाई, ग्राम पंचायत में आरक्षण के माध्यम से महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करा दी गई। वर्ष 2006 में राज्य में कुल 8471 पंचायतों में 4200 पंचायतों पर महिलाओं ने कब्जा किया। बिहार के सिकुड़े समाज ने अंगड़ाई ली और पैर पसार दिए। अति पिछड़े वर्ग के लिए जहां राजनीति से जुडऩा कभी संभव नहीं था, उसे 20 प्रतिशत आरक्षण के माध्यम से संभव बनाया गया। महिलाओं को भी लाभ मिला। अति पिछड़े, दलितों में अलग-थलग रहने वाली महिलाओं को भी ग्रासरूट स्तर पर मुख्य धारा की राजनीति से जुडऩे का मौका मिला।
बिहार में धन और बाहुबल के दम पर संपन्न होने वाले हर चुनाव में ऐसी-ऐसी महिलाएं चुन कर पंचायत में आईं जो समाज में वर्षों से उपेक्षित थीं। समस्याओं के आगे महिलाओं ने साहस दिखाया। बम-बारूद वाले चुनावी समर में महिलाएं बहादुरी दिखाने से पीछे नहीं हटीं। अपराधियों के हमलों और परिजनों की हत्या के बावजूद डटी रहीं। चुनाव जीतकर विरोधियों को धूल चटाया। 4200 आरक्षित पदों के लिए दो लाख से अधिक महिलाएं चुनावी समर में थीं। चुनावी समर में अपनी मांग और कोख को सूनी करके भी महिलाओं ने फतह हासिल की। अपराधी तत्वों के नापाक इरादों से विचलित नहीं हुईं। सर्वेक्षण से चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। जुमई जिले के ठसलाम नगर पंचायत के मुखिया पद की उम्मीदवार उमा देवी के तीन बेटों की चुनाव के दौरान सामूहिक हत्या कर दी गई थी। बच्चों को खोने का दुख किस मां को नहीं होगा? परन्तु यही दुख शायद उमा देवी को साहस दे गया। उमा देवी दिलेरी से चुनाव लड़ीं और जीतीं भी। आतंक के साये में उमा देवी की दिलेरी ने दूसरी महिलाओं को साहसी बनाया। पूर्वी चंपारण जिले में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। एक महिला उम्मीदवार की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। चुनाव में महिलाओं के हौसले पस्त करने की हर संभव कोशिश की गई, फिर भी महिलाएं डटी रहीं। करीब हर क्षेत्र में महिला उम्मीदवारों पर हिंसक हमले चुनाव के साथ-साथ बढ़ते ही गए, लेकिन अपने अधिकारों के लिए कटिबद्ध महिलाओं ने हार नहीं मानी। एक भी महिला किसी भी हिंसक घटना के कारण मैदान से नहीं हटी। हटी तभी जब खुद उन्हें जान से मार दिया गया। पूॢणया जिले में मीनपुर पंचायत की मुखिया उम्मीदवार जानकी देवी की चाकू घोंपकर हत्या कर दी गई। यही नहीं, महिला मतदाताओं पर भी दबाव डालने की कोशिश नाकाम रही। पुरुष हमलावर खदेड़ दिए गए। महिलाओं का पंचायतों पर कब्जा हुआ। पुरुषों में चर्चा हुई- भले ही 'फलां बोÓ (किसी की पत्नी) चुनाव जीत गईं, लेकिन काम कैसे करेगी? बिहार के गांवों में सुबह और शाम की तस्वीरें राजनीतिक चर्चाओं का रंग लिए हुए थीं।
जहां पहले नुक्कड़ों और दुकानों पर सिर्फ आदमी ही पान चबाते, चाय-पीते और बहस करते हुए दिखाई देते थे, अब औरतें राजनीति पर चर्चा करने लगीं। देखते-देखते चार साल पूरे हो चुके हैं। पंचायत की महिलाएं पुरुषों के हर बिछाए जाल से निकल चुकी हैं। सूझ-बूझ से हर निर्णय ले रही हैं। देखते-देखते 'फलां बोÓ सरकार के विकास योजनाओं के क्रियान्वयन की पहरुआ बन गईं। गोपालगंज जिले के हथुआ पंचायत की मुखिया प्रमिला देवी कहती हैं- जब चुन कर आई थीं तब शुरू-शुरू में पुरुष सदस्यों ने काफी भ्रम में डालने की कोशिश की। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दुकानदार केरोसिन, राशन आदि के वितरण में जमकर धांधली करते थे। बस कुछ ही महीनों में पंचायत का हर कार्य समझ लिया। महिलाओं को एकजुट कर जिलाधिकारी से इस मामले में बात की। परिणाम अच्छा आया। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तीन लाइसेंस स्थगित कर दिये गए। उसके बाद से हर किसी को नियमित केरोसिन, अनाज आदि का वितरण हो रहा है। प्रमिला देवी कहती हैं कि ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं, तो क्या हुआ। हर बात तो समझ में आती ही है। अब डर नहीं लगता है कि कोई उल्टी-सीधी बातें कह कर पंचायत में गलत काम करा लेगा।
कुछ इसी तरह की बात मधुबनी जिले के देवधा पंचायत की सरपंच सीता देवी करती हैं। सीता देवी का कहना है आरक्षण के कारण महिलाओं को पंचायत में आने का मौका मिला। नहीं तो पुरुष को ही पंचायत का चुनाव लडऩे का अधिकार था। शुरू में पंचायती कामकाज में पति का मार्गदर्शन मिला। अब हर निर्णय खुद लेती हैं। सीता देवी कहती हैं कि एक महिला, महिला की बात अच्छी तरह समझ सकती है। पहले पुरुष प्रधान पंचायत में महिलाएं किसी मामले में अपने पक्ष की बात संकोचवश ठीक से नहीं रख पाती थीं। महिलाओं की भागीदारी बढऩे से झगड़े के आपसी विवाद की जड़ तक जाने और असलियत को समझने के लिए महिला होने के नाते बात करना आसान होता है। समस्याएं जल्दी सुलझ जाती हैं।
राज्य के सबसे पिछड़े जिले मधेपुरा के खुरहान पंचायत की स्नातक पूर्व उप मुखिया गायत्री सिंह कहती हैं कि पटना में पढ़ाई की। गांव में शादी हुई तो लगा जिंदगी खत्म हो गई। लेकिन महिला आरक्षण से पंचायत में महिलाओं की सुनिश्चित भागीदारी की गई तो, लगा कुछ किया जा सकता है। पढ़ाई का उपयोग निर्धन महिलाओं के कल्याण में किया जा सकता है। सच में उप मुखिया का कार्यकाल बेहतरीन रहा। पुरुषों की तिकड़म समझ में आ चुकी है। अब कोई महिलाओं को पछाड़ नहीं सकता है।
अक्सर देखा गया है कि जिस घर में महिला मुखिया होती है, वहां बेटियों का हित ज्यादा सुरक्षित रहता है। उदाहरण के तौर पर पूर्वोत्तर के आदिवासी समुदाय को देख सकते हैं। इ स लिहाज से महिला आरक्षण बेटियों में एक खास तरह के स्वाभिमान को जगाने का काम करने लगा है।
फिलहाल सबकी नजरें राज्य के आगामी विधानसभा चुनाव में हैं। तैयारी शुरू है। महिलाएं भी सक्रिय हो चुकी हैं। उन्हें विधानसभा चुनाव के बाद अगले वर्ष स्वयं पंचायत चुनाव के मैदान में उतरना है। जिन्हें विधानसभा में उतरना है, वे भी पंचायत स्तर पर सक्रिय महिलाओं से संपर्क साधने लगे हैं। उन्हें मालूम है अब वे दिन गए जब केवल धन और बाहुबल से विधानसभा पहुंचा जाता था। पंचायत में सक्रिय भागीदारी दिखा रही महिलाओं ने सूझ-बूझ से कार्य कर साबित कर दिया है कि उन्हें नकार कर अब कोई विधानसभा नहीं पहुंच सकता है। महिलाएं बिहार की विकास की योजनाओं पर निगरानी रख रही हैं। ढेरों उदाहरण हैं जिनसे साबित हो चुका है कि महिलाएं हाथ पकड़कर भ्रष्टाचारियों को रोककर फैसले अपने हक में करवा सकती हैं।
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