असंयमित भाषा के बहाने असली मुद्दे टालने की राजनीति
संजय स्वदेश
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के बयान पर राष्ट्रीय राजनीति में संयत भाषा को लेकर बवाल मचा हुआ है। आम आदमी का लहू बहाने वाले आतंकियों को फांसी की सर्जा मुकरर्र होने के बाद आखिर सरकार उन्हें क्यों पाल रही है। गड़करी ने जो सवाल उठाया, वह उनका निजी सवाल नहीं, देश की जनता का है। बयान की बहसबाजी में असंयमित भाषा का नाम लेकर असली मुद्दे को दरकिनार किया जा रहा है। सवाल है कि क्या सरकार सयंमित भाषा में किसी जायज सवाल का जवाब देती है।
यदि संयमित और संस्कारों की भाषा में जनता की लगाई गई गुहार सरकार सुनने लगे तो किसी की जुबान भला संस्कार और सयंम की पटरी से क्यों उतरेगी। पर संयम की भाषा में जनता की भावनाओं का समझने की परंपरा किसी भी सरकार ने नहीं निभाई।
ताजा उदाहरण सामने है। 5 जुलाई विपक्षी दलों ने महंगाई के खिलाफ भारत बंद कराया। कुछ छिटपुट घटनाओं को छोड़ दिया जाए, देश भर में बंद शांतिपूर्ण ढंग से सफल रहा। यह संयमित तरीके से बंद था, लेकिन केंद्र सरकार ने इस बंद को असफल करार दिया। कल्पना कीजिये, यदि इस बंद के दौरान देशभर में ङ्क्षहसा होती, तो क्या होता? तब कांग्रेस इसे जरूर सुनती है। उसे इस बात का निश्चय ही एहसास होता कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत बढ़ाकर पहले ही महंगाई की बोझ से जनता की लचकी हुई कमर को तोडऩे वाला निणर्य लिया है। पर कांग्रेस सरकार ने सयंम की हर भाषा
चाहे वह सांकेति हो या फिर शाब्दिक उसे नकारा ही है। असंमित भाषा में अच्छे मुद्दे को उठाने पर हमेशा ही आदर्श भाषा की दुहाही देकर मुद्दे को ही खत्म करने की कोशिश की गई है।
देश की बहुसंख्यक जनता की असली जुबान क्या है, यह नई दिल्ली में रह कर नहीं जाना जा सकता है। दिल्ली के डीटीसी और ब्लूलाइन के बसों में जनता की असली जुबान सुनाई देगी। महंगाई समेत अनेक मुद्दों से जनता का मन सहज ही अक्रोश से भर गया है। उसे मालूम है, खुल कर सामने आने पर कुछ होना-जाना नहीं है, उल्टे उसे कानून की मार पड़ेगी। लिहाजा, शब्दों से भड़ास निकाले का विकल्प बेहतर है।
नितिन गडकरी ने क्या किया? नितिन गडकरी जैसे भाजपा में ढेरो नेता हैं। उनसे भी काबिल हैं, लेकिन वे कांग्रेस के शीर्ष पद तक नहीं पहुंच सकते हैं। क्योंकि कांग्रेस में तो गांधी परिवार का सिमरन चलता है। भाजपा की अंदरुनी कलह चाहे जो भी हो, कम से कम यहां शीर्ष पदों पर चेहरे तो बदलते ही हैं।
महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले की जीवनी से संबंधित एक पुस्तक में एक प्रसंग है। एक समय कांग्रेस ने हिंदी बोलने वालों को पार्टी का सदस्य बनाने पर रोक लगा दी थी। सदस्य बनने के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान अनिवार्य कर दिया गया। क्योंकि तब के पार्टी सदस्यों को यह डर था कि कहीं हिंदी भाषी कांग्रेस का सदस्य बन कर अंग्रेजी बोलने वाले तथाकत्थित अभिजात्य कांग्रेसियों का कद छोटा न हो जाए। हालांकि यह रोक बहुत दिनों तक नहीं चली। लेकिन तब के कांग्रेस के अंदर की अभिजात्यवादी संस्कार आज भी मौजूद हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो युवा नेताओं के नाम पर कांग्रेस के पूर्व प्रभावशाली नेता व मंत्रियों के लाडलों को ही पार्टी टिकट नहीं देती। सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग में भी ऐसे ढेरों युवा हैं जिनमें देश को आगे ले जाने की बेहतरीन दूरदृष्टि और नेतृत्व कौशल है। लेकिन यह उनका दुर्भाग्य है देश के ऐसे युवाओं को कांग्रेस ही क्या किसी भी पार्टी में उन्हें मान्यता नहीं है। यदि मान्यता है तो पार्टी के सबसे निचले छोर पर केवल निष्ठा बनाये रखने की। कांग्रेस की नहीं देश का अभिजात्य वर्ग हमेशा ही आम आदमी को नकारती रहा है। भले ही आम आदमी के दम पर उसका प्रतिष्ठा कायम है। पिछड़ों में शरद यादव की प्रतिष्ठा है। वे बिहार के मधेपुरा जैसे पिछड़े इलाकों की जनता का जुबान जानते हैं। तभी तो उन्होंने गडकरी के जुबान का समर्थन किया। कोई तर्क देने वाला कह सकता है कि यदि कांग्रेस गलत ही है तो फिर उसकी सत्ता में वापसी ही क्यों होती है? यही तो असली राजनीति है। प्रतिकूल परिस्थियों को साम,दाम,दंड,भेद से उसे अपने अनुकूल कर लो। जीत पक्की है। इस इस नीति में गैर-कांग्रेसी दल मात खा जाते हों, तो
क्या कहा जाए।
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